भक्ति का प्रमुख फल |
प्रश्न
संसार में धनवान संपत्ति का उपयोग ऐश-ओ-आराम की वस्तुओं के संग्रह में करता है और उनका उपभोग करता है। आपके अनुसार आध्यात्मिक पूँजी का संचय करना होगा । यह पूँजी क्या है और इसका उपयोग कैसे होता है?
उत्तर
यह बहुत ही गहन प्रश्न है जिसका उत्तर भक्ति मार्ग पर आरुढ़ होने से पूर्व साधक को जानना व मानना होगा । उसी प्रकार जैसे यात्रा के प्रारंभ से पूर्व यात्री विचार करता है कि -
संसार में धनवान संपत्ति का उपयोग ऐश-ओ-आराम की वस्तुओं के संग्रह में करता है और उनका उपभोग करता है। आपके अनुसार आध्यात्मिक पूँजी का संचय करना होगा । यह पूँजी क्या है और इसका उपयोग कैसे होता है?
उत्तर
यह बहुत ही गहन प्रश्न है जिसका उत्तर भक्ति मार्ग पर आरुढ़ होने से पूर्व साधक को जानना व मानना होगा । उसी प्रकार जैसे यात्रा के प्रारंभ से पूर्व यात्री विचार करता है कि -
- मैं वहाँ क्यों जाऊँ?
- क्या वहाँ पहुँचना संभव है? यदि है, तो कैसे? और
- गंतव्य पर पहुँचने पर क्या लाभ मिलेगा?
आश्वस्त होने पर ही यात्री द्रुतगति से यात्रा प्रारंभ करता है । फिर अपनी प्रगति को मापने के लिए सही मानदंड [1][2][3] का ज्ञान भी आवश्यक है ।
इसी प्रकार, भक्ति मार्ग पर प्रत्येक साधक का तत्वज्ञान [4] सुदृढ़ होना चाहिए । एकमात्र तत्वज्ञान ही जीव को भक्ति मार्ग पर बिना व्यवधान के चल पाने के योग्य बनाता है । अन्यथा, थोड़ा सा कुसंग [5][6][7][8] मिलने पर सांसार के कीच में पुनः फंसने अथवा निराशा की संभावना बनी रहती है। आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग पर चलने से पहले जीव के मन में समान प्रश्न होते हैं -
- मैं क्या चाहता हूँ ?
- वह कैसे मिलेगा?
- उसे प्राप्त करने से मुझे क्या लाभ होगा?
"उसे प्राप्त करने से मुझे क्या लाभ होगा" का उत्तर देने से पूर्व यह समझना आवश्यक है कि "मैं क्या चाहता हूँ?", और "वह कैसे मिलेगा?" । शास्त्रोक्त भाषा में ये प्रश्न इस प्रकार पूछे जाते हैं -
- मैं क्या चाहता हूँ ? मेरा संबंध किसके साथ है ?
- वह कैसे मिलेगा? प्राप्तव्य प्राप्त करने का अभिधेय क्या है ?
- उसे प्राप्त करने से मुझे क्या लाभ होगा? प्राप्तव्य प्राप्त करने का प्रयोजन क्या है?
आइए अब क्रम से तीन प्रश्नों को हल करते हैं ।
आप सभी ने श्री महाराज जी से और मुझसे भी अनेकों बार सुना है कि जीव श्री कृष्ण का सनातन अंश है। इस शरीर के सम्बन्ध अस्थायी हैं जबकि जीव का प्रत्येक सम्बन्ध केवल श्री कृष्ण से है [9][10][11][12] और ये सभी सम्बन्ध नित्य-सनातन हैं [13] [14]। भगवान पहले से ही इस सम्बन्ध को पूरी तरह से निभाते हैं। लेकिन जीव इस सम्बन्ध से अनभिज्ञ है।
तो जीव को श्रीकृष्ण के साथ अपने सम्बन्ध को मानने के लिए प्रयास करना पड़ेगा [15][16][17][18] । इस सम्बन्ध को स्थापित करने के लिए वेदों में कई मार्गों का उल्लेख है जिनकी व्याख्या पिछले अंकों में की जा चुकी है ।
इस अंक में प्रत्येक पथ के परिणाम की संक्षेप में विवेचना करेंगे । उनमें से गंतव्य तक ले जाने वाले पथ को सुनिश्चित करेंगे । फिर मील के पत्थर, मार्ग में उपलब्ध लाभों और अंतिम गंतव्य पर मिलने वाली आध्यात्मिक पूँजी की भी चर्चा करेंगे । इस संस्करण में उन मार्गों को संक्षेप में प्रस्तुत किया जाएगा। साथ ही, उनमें से प्रत्येक मार्ग के परिणाम पर विचार करके जीव का उद्देश्य प्राप्त करने का अचूक मार्ग का निर्णय किया जाएगा । फिर हम मील के पत्थर [1][2], मार्ग में उपलब्ध लाभों और अंतिम गंतव्य पर मिलने वाली आध्यात्मिक संपदा की चर्चा की जायेगी । तो आइए आध्यात्मिक उत्थान के मार्ग को सुनिश्चित करने से आरंभ करें। |
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मनुष्य जीवन देव दुर्लभ होने के साथ-साथ क्षणभंगुर भी है [19] । जीवन क्षणभंगुर है तथा लक्ष्य दूर है तथा भगवद्-प्राप्ति का मार्ग जीव की बुद्धि से अज्ञेय है । अतः अनेक मार्गों का स्वयं मूल्यांकन करके सही मार्ग का निर्णय करना असंभव है [20] । यदि कोई संक्षेप में अचूक मार्ग बता दे [21] तथा जीव उसके परामर्श पर अमल करें [22], तो लक्ष्य शीघ्र ही प्राप्त किया जा सकता है ।
उस सम्बन्ध का ज्ञान किस प्रकार होता है तथा उसको व्यवहार में लाने के लिए एक रूपक प्रस्तुत है ।
यद्यथा हिरण्यनिधिं निहितमक्षेत्रज्ञा उपर्युपरि संचरन्तो न विंदेयुरेवमेव इमाः सर्वाः प्रजाः अहरहर्गच्छन्त्य एतं ब्रह्मलोकं विंन्दंत्य नृतेन प्रत्यूढ़ाः ॥
वेद
वेद
एक टूटी - फूटी झोपड़ी में एक घोर दरिद्री जीवन-यापन करता था । भिक्षा माँगकर भी दिन में दो बार भोजन प्राप्त नहीं होता था । एक दिन उसके द्वार पर एक बाबाजी भिक्षा माँगने आए । भिखारी ने उत्तर दिया, "मेरे पास खाने के लिए भी पर्याप्त नहीं है, मैं आपको क्या दूँ"? बाबाजी ने उत्तर दिया, "तुम्हारे पिता ने तुम्हें इतना कुछ दिया है कि तुम प्रांत के प्रांत खरीद सकते हो" ।
भिखारी ने सोचा कि बाबाजी से गलती हुई है इसलिए भिखारी ने बाबाजी से कहा “मैं सच बोल रहा हूँ यदि विश्वास नहीं होता तो अंदर आइए और तलाशी ले लीजिए” ।
बाबाजी ने भिखारी को एक रहस्य बताया, "देखो! तुम जिस झोपड़ी की ज़मीन पर चल रहे हो ख़जाना ठीक उसी झोपड़ी के नीचे गड़ा है। बस थोड़ा खोदो और तुम पा जाओगे"। भिखारी ने संपत्ति का रहस्य जिज्ञासु भाव से पूछा तो बाबा जी ने आगे बताया । बाबा जी ने भिखारी को सावधान किया - “दक्षिण की ओर मत खोदना ! उस तरफ ततैया-बरैया रहती हैं, यदि बाहर आ गईं तो प्रहार कर-कर के दुःख पहुँचायेंगी । उत्तर की ओर खुदाई न करना क्योंकि वहाँ बड़ा भारी अजगर रहता है वह निगल जाएगा । पश्चिम की ओर खुदाई न करना क्योंकि वहाँ एक भूत है और वह हमेशा के लिए हावी हो जाएगा। अपनी झोंपड़ी के पूर्व दिशा की ओर खोदना और वहाँ तुम एक भांड में सजी हुई संपत्ति पा जाओगे”। |
इसी प्रकार भगवद्-कृपा से (अकस्मात् ) जीव के जीवन में गुरु ज्ञान देने के लिए आते हैं और जीव को आध्यात्मिक उत्थान हेतु तत्वज्ञान कराते हैं साथ ही परहेज भी बताते हैं । कथानक में ततैया-बरैया कर्म मार्ग है । कर्म आपको स्वर्ग तक ले जाएँगे और फिर आपको अकेला छोड़ कर भाग जायेंगे [23] । वहाँ आप अपनी अपूर्ण इच्छाओं, कामनाओं, आशाओं, तृष्णाओं के कारण तड़पेंगे । इसलिए इस मार्ग से सम्बन्ध स्थापित न करना ।
इस कथानक में कुटिया के पश्चिम दिशा में खुदाई करना ज्ञान योग मार्ग है। यदि आप इस मार्ग से श्रीकृष्ण के साथ सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास करते हैं तो यह मार्ग आपको मुक्ति दिला देगा । एक बार मुक्ति होने पर आप कभी भी इससे छुटकारा नहीं पा सकते हैं और श्री कृष्ण के साथ अंतरंग सम्बन्ध स्थापित नहीं कर सकते हैं। जैसे निम्न स्तर की आत्माओं पर भूत हावी हो जाता है और जब तक भूत हावी रहता है तब तक भूत सब कुछ करता है जीव कुछ नहीं करता है । वैसे ही मुक्ति ज्ञानी पर हावी हो जाती है और जाकर निराकार ब्रह्म में हमेशा के लिए लीन कर देगी । फिर जीव सदा के लिये प्रेम से वंचित हो जायेगा । इसलिए इस मार्ग से सम्बन्ध स्थापित न करना ।
इस कथानक में अजगर योग-सिद्धि है जो आपको निगल जायेगी और आपको भगवद्-प्राप्ति की ओर नहीं बढ़ने देगी । योग मार्ग में उच्चतम अवस्था को सम्प्रज्ञात समाधि कहते हैं जिसमें आनंद नहीं मिलता [28]। आनंद प्राप्त करना असंप्रज्ञात समाधि की अवस्था है जो निम्नतर है। तो जब योगी आनंद में विश्वास ही नहीं करते तो वे स्पष्ट रूप से श्रीकृष्ण में विश्वास नहीं करते हैं, इसलिए वे उनके साथ प्रेमपूर्ण सम्बन्ध [29] स्थापित नहीं कर सकते हैं। इसलिए इस मार्ग से न जाना ।
पूर्व दिशा में खुदाई करना। ये है भक्ति मार्ग । यह अचूक मार्ग है जिस पर चल कर जीव श्री कृष्ण के साथ सम्बन्ध स्थापित कर सकता है। यह भक्ति न केवल जीव और श्री कृष्ण का मिलन कराती है वरन् यह दोनों को हमेशा जोड़े रहती है [30][31] ।
तो, यह सम्बन्ध ज्ञान है और केवल भगवद्-प्राप्त संत ही आपको यह ज्ञान दे सकता है [32]। इसे अभिधेय कहा जाता है। अब "इस सम्बन्ध को सुदृढ़ कैसे किया जाए" के बारे में और अधिक समझना है।
इस कथानक में कुटिया के पश्चिम दिशा में खुदाई करना ज्ञान योग मार्ग है। यदि आप इस मार्ग से श्रीकृष्ण के साथ सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास करते हैं तो यह मार्ग आपको मुक्ति दिला देगा । एक बार मुक्ति होने पर आप कभी भी इससे छुटकारा नहीं पा सकते हैं और श्री कृष्ण के साथ अंतरंग सम्बन्ध स्थापित नहीं कर सकते हैं। जैसे निम्न स्तर की आत्माओं पर भूत हावी हो जाता है और जब तक भूत हावी रहता है तब तक भूत सब कुछ करता है जीव कुछ नहीं करता है । वैसे ही मुक्ति ज्ञानी पर हावी हो जाती है और जाकर निराकार ब्रह्म में हमेशा के लिए लीन कर देगी । फिर जीव सदा के लिये प्रेम से वंचित हो जायेगा । इसलिए इस मार्ग से सम्बन्ध स्थापित न करना ।
इस कथानक में अजगर योग-सिद्धि है जो आपको निगल जायेगी और आपको भगवद्-प्राप्ति की ओर नहीं बढ़ने देगी । योग मार्ग में उच्चतम अवस्था को सम्प्रज्ञात समाधि कहते हैं जिसमें आनंद नहीं मिलता [28]। आनंद प्राप्त करना असंप्रज्ञात समाधि की अवस्था है जो निम्नतर है। तो जब योगी आनंद में विश्वास ही नहीं करते तो वे स्पष्ट रूप से श्रीकृष्ण में विश्वास नहीं करते हैं, इसलिए वे उनके साथ प्रेमपूर्ण सम्बन्ध [29] स्थापित नहीं कर सकते हैं। इसलिए इस मार्ग से न जाना ।
पूर्व दिशा में खुदाई करना। ये है भक्ति मार्ग । यह अचूक मार्ग है जिस पर चल कर जीव श्री कृष्ण के साथ सम्बन्ध स्थापित कर सकता है। यह भक्ति न केवल जीव और श्री कृष्ण का मिलन कराती है वरन् यह दोनों को हमेशा जोड़े रहती है [30][31] ।
तो, यह सम्बन्ध ज्ञान है और केवल भगवद्-प्राप्त संत ही आपको यह ज्ञान दे सकता है [32]। इसे अभिधेय कहा जाता है। अब "इस सम्बन्ध को सुदृढ़ कैसे किया जाए" के बारे में और अधिक समझना है।
लोग संसार में आनंद को खोज रहे हैं जब कि प्रेम और आनंद के स्रोत श्रीकृष्ण प्रत्येक प्राणी के अंदर रहते हैं। एक-एक जीव के भीतर बैठे वे मुस्कुराते हैं, "देखो, इन मूर्खों को! वे संसार में आनंद खोज रहे हैं। मैं उनके अंदर ही रहता हूँ लेकिन वे मुझे देखते भी नहीं हैं।" जीव अन्य सभी से आनंद प्राप्त करने की आशा में रहते हैं।
हमें अपने अंदर गड़े खजाने की जानकारी नहीं है। यानी भगवान के साथ अपने सम्बन्ध का ज्ञान नहीं है। बाबाजी ने कहा, "अब संपत्ति के बारे में जान गये ।" भिखारी ने उत्तर दिया, "हाँ, तो?"
"तो खुदाई करो! और क्या? खुदाई के बिना आपको यह संपत्ति नहीं मिलेगी।"
गौरांग महाप्रभु कहते हैं -
हमें अपने अंदर गड़े खजाने की जानकारी नहीं है। यानी भगवान के साथ अपने सम्बन्ध का ज्ञान नहीं है। बाबाजी ने कहा, "अब संपत्ति के बारे में जान गये ।" भिखारी ने उत्तर दिया, "हाँ, तो?"
"तो खुदाई करो! और क्या? खुदाई के बिना आपको यह संपत्ति नहीं मिलेगी।"
गौरांग महाप्रभु कहते हैं -
यत्नाग्रह बिना भक्ति ना जन्माय प्रेमे । साधन बिना साध्य कभू नाहिं मिले ।
“बिना प्रयास किए तुम लक्ष्य नहीं प्राप्त करोगे”
आपको खोदना होगा! आप बैठे हैं और उस पर चल रहे हैं, लेकिन इससे कोई फायदा नहीं होगा। मिट्टी की एक परत है जो तुम्हें खजाने से अलग करती है। इसी तरह, दो आवरण हैं जो आपको भगवान से अलग करते हैं।
आपको खोदना होगा! आप बैठे हैं और उस पर चल रहे हैं, लेकिन इससे कोई फायदा नहीं होगा। मिट्टी की एक परत है जो तुम्हें खजाने से अलग करती है। इसी तरह, दो आवरण हैं जो आपको भगवान से अलग करते हैं।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तव: ।
"जीव पर अज्ञान का आवरण है ।" [33]
खजाने पर भी योगमाया का पर्दा है ।
खजाने पर भी योगमाया का पर्दा है ।
नाहं प्रकाश: सर्वस्य योगमायासमावृत: ।
गीता 7-24
गीता 7-24
"तो पहले तुम अपना घूँघट हटाओ और फिर अकारण-करुण श्री कृष्ण [35] कृपा करके अपना पर्दा हटा देंगे"। पहले तुम अपना घूँघट उठाओ और समर्पण करो।
जैसे भिखारी ने बाबाजी से ज्ञान प्राप्त किया, फिर खोदा और सोना पाया। इसी प्रकार साधक को गुरु के वचनों पर विश्वास करना होता है, उसके बाद उनके मार्गदर्शन में साधना भक्ति शुरू करनी होती है। साधना भक्ति के परिपक्व होने पर सिद्धा भक्ति प्राप्त होगी। यह शुद्ध भक्ति को कई नामों से जाना जाता है जैसे कि सिद्धा भक्ति, प्रेमा भक्ति, अनपायिनी भक्ति, निर्भरा भक्ति आदि।
तो सिद्धा भक्ति प्राप्त करने से मिलेगा क्या ? अर्थात हमारा प्रयोजन क्या है ? यह सब क्यों करें?
जैसे भिखारी ने बाबाजी से ज्ञान प्राप्त किया, फिर खोदा और सोना पाया। इसी प्रकार साधक को गुरु के वचनों पर विश्वास करना होता है, उसके बाद उनके मार्गदर्शन में साधना भक्ति शुरू करनी होती है। साधना भक्ति के परिपक्व होने पर सिद्धा भक्ति प्राप्त होगी। यह शुद्ध भक्ति को कई नामों से जाना जाता है जैसे कि सिद्धा भक्ति, प्रेमा भक्ति, अनपायिनी भक्ति, निर्भरा भक्ति आदि।
तो सिद्धा भक्ति प्राप्त करने से मिलेगा क्या ? अर्थात हमारा प्रयोजन क्या है ? यह सब क्यों करें?
अब उस संपत्ति को पाकर भिखारी की दरिद्रता दूर हो गई। लेकिन अगर भिखारी उसे कोठरी में बंद करके दिन रात भीख माँगा करे, तो कौन कहेगा कि उसकी गरीबी का नाश हो गया ? यह डिग्री प्राप्त करना कि मैं "गरीब नहीं हूँ”, बेकार है।
इसी संदर्भ में गौरांग महाप्रभु ने कहा है -
इसी संदर्भ में गौरांग महाप्रभु ने कहा है -
दारिद्र्य नाश भवक्षय प्रेमेर फल नाय
गौरांग महाप्रभु
गौरांग महाप्रभु
"जैसे गरीबी का अंत वांछित परिणाम नहीं है, वैसे ही दिव्य प्रेम प्राप्त करने का परिणाम माया से मुक्ति नहीं है।"
उस संपत्ति को प्राप्त करने के बाद भिखारी आलीशान मकान, गाड़ी, कपड़े आदि खरीदेगा और उसका भोग करेगा । उन वस्तुओं के भोग से जो सुख मिलता है, वही लक्ष्य है।
तो संसार में इंद्रियों का सुख प्राप्त करना और इधर दिव्य प्रेम प्राप्त करने का लक्ष्य मुक्ति नहीं है। जब तुम्हें भक्ति मिलेगी तो मुक्ति अपने आप हो जायेगी। जैसे जब आप अरबपति बन जाते हैं, तो बोनस परिणाम यह होता है कि आप करोड़पति बन गए हैं।
उस संपत्ति को प्राप्त करने के बाद भिखारी आलीशान मकान, गाड़ी, कपड़े आदि खरीदेगा और उसका भोग करेगा । उन वस्तुओं के भोग से जो सुख मिलता है, वही लक्ष्य है।
तो संसार में इंद्रियों का सुख प्राप्त करना और इधर दिव्य प्रेम प्राप्त करने का लक्ष्य मुक्ति नहीं है। जब तुम्हें भक्ति मिलेगी तो मुक्ति अपने आप हो जायेगी। जैसे जब आप अरबपति बन जाते हैं, तो बोनस परिणाम यह होता है कि आप करोड़पति बन गए हैं।
प्रेम भोग सुख
"संसार में धन प्राप्त करने का तात्पर्य इंद्रियों के सुखों का भोग है । और भगवदीय क्षेत्र में दिव्य जीव प्रेम का आनंद लेता है।" तो उस प्रेम का आनंद कैसे लिया जाता है?
संसार में आप अपने प्रियजन के साथ भोजन, गायन, नृत्य, वादन, गपशप आदि करते हुए अपने प्रिय के साथ समय व्यतीत करते हैं। इसी तरह, आप चार भावों में से किसी भी भाव से श्री कृष्ण के साथ संबंध स्थापित करने के लिए भक्ति करते हैं । अपने भाव के अनुरूप उसकी सेवा करके उनको प्रसन्न करके उस का आनंद लेते हैं [36] । अब जब आपने उनके साथ अपने संबंध को स्वीकार कर लिया है, तो अब वे आपकी सेवाओं को स्वीकार करके आपके प्रेम और भाव के अनुरूप आपके साथ व्यवहार करेंगे [37] । संसार में हाथ, पैर, वाणी आदि से सेवा की जाती है। संसार के विपरीत, ईश्वर की सेवा प्रेम से की जाती है। भगवान उस स्वादिष्ट भोजन का स्वाद नहीं लेते जो बिना किसी प्रेम के बनाया गया हो [38]। इसके विपरीत वे एक पत्ते, एक फूल, एक फल, यहाँ तक कि पानी भी स्वीकार कर लेते हैं यदि उन्हें प्रेम से अर्पित किया गया जाए । |
भक्ति भगवान को मोहित कर देती है। अतः अब वे रीझ कर आपकी सेवा स्वीकार करेंगे [31][42] ।
कृष्ण भक्तवत्सल गोविंद राधे। चक्र उठा कर भीष्म को जिता दे॥
राधा गोविंद गीत 5103
“श्री कृष्ण अपने भक्तों से इतना प्रेम करते हैं कि भीष्म पितामह की बात का मान रखने के लिए उन्होंने महाभारत के युद्ध में निहत्थे रहने की प्रतिज्ञा करने के बावजूद भी हथियार उठा लिया ।”
कृष्णप्रेम आपुहीं गोविंद राधे। कृष्ण को भी प्रेमी का दास बना दे॥
राधा गोविंद गीत 5120
“श्री कृष्ण की प्रेमा शक्ति के बल पर श्री कृष्ण के भक्त उनको अपनी उँगलियों पर नचाते हैं ।”
जीव ब्रह्म का सनातन दास है । परंतु प्रेमा शक्ति के अधीन होने के कारण भगवान भक्तों की इच्छा के अनुसार चलते हैं । |
सबते बड़ा है प्रेम गोविंद राधे। ब्रह्म को भी जीव का खिलौना बना दे ॥
“श्री कृष्ण की प्रेमा शक्ति के बल पर श्री कृष्ण के भक्त उनसे खिलौना की भाँति खेलते हैं ।”
भक्तवश्य होने के कारण परात्पर ब्रह्म भक्तों की इच्छा के अनुसार चलते हैं ।
भक्तवश्य होने के कारण परात्पर ब्रह्म भक्तों की इच्छा के अनुसार चलते हैं ।
सबते बड़ा है प्रेम गोविंद राधे । सेव्य ब्रह्म को क्रीतदास बना दे ॥
राधा गोविंद गीत 5338
उनकी निष्काम सेवा करना ही वास्तविक पूंजी है । उनको प्रसन्न करके जो सुख मिलता है वही श्रेष्ठतम रस है [39] ।
तो, ऊपर उल्लिखित 3 प्रश्नों के उत्तर हैं
और आपके प्रश्न का उत्तर है "उनकी सेवा प्राप्त करना ही वास्तविक आध्यात्मिक पूँजी है" [39]. और कोई इस पूँजी का उपयोग किस प्रकार से होता है ? जीव अपनी इच्छानुसार किसी भी भाव से प्रेमपूर्वक उनको सुख देने हेतु सेवा करता है। और यदि आप माधुर्य भाव चुनते हैं तो आप क्षण क्षण में अपनी इच्छानुसार किसी भी भाव में जब चाहें चले जाएँ तथा उस भाव से सेवा करें । आप स्वतंत्र हैं । |
ध्यान रहे सांसारिक संपत्ति के समान खर्च करने से यह संपत्ति कम नहीं होती बल्कि जितना व्यय करेंगे उतनी यह पूँजी बढ़ती ही जाएगी ।
भौतिक उपलब्धियों को प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम संघर्ष करना होता है। तत्पश्चात् यदि संयोगवश अभीष्ट वस्तु प्राप्त हो गई तो कुछ समय पश्चात् उसके भोग से सुख मिलता है। उदाहरणार्थ अगर कोई राष्ट्रपति भवन में वास का आनंद लेना चाहता है तो उसे राष्ट्रपति बनने के लिए पहले प्रयास करना होगा । यदि प्रारब्ध साथ दे और वह राष्ट्रपति बन जाए तो पद ग्रहण करने के बाद उस ऐश्वर्य का आनंद लेना संभव है ।
भौतिक उपलब्धियों को प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम संघर्ष करना होता है। तत्पश्चात् यदि संयोगवश अभीष्ट वस्तु प्राप्त हो गई तो कुछ समय पश्चात् उसके भोग से सुख मिलता है। उदाहरणार्थ अगर कोई राष्ट्रपति भवन में वास का आनंद लेना चाहता है तो उसे राष्ट्रपति बनने के लिए पहले प्रयास करना होगा । यदि प्रारब्ध साथ दे और वह राष्ट्रपति बन जाए तो पद ग्रहण करने के बाद उस ऐश्वर्य का आनंद लेना संभव है ।
भक्ति मार्ग में ऐसा नहीं है । भक्ति मार्ग में प्रारंभ भी निरन्तर लाभ देती रहती है और अन्त में लक्ष्य भी प्रदान करती है। जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु महाप्रभु का कथन है कि भक्ति में रुचि पैदा करने का अभ्यास साधना भक्ति है और भक्ति में स्वाभाविक रुचि होना भाव भक्ति है। जैसे-जैसे आंतःकरण शुद्ध होता जाता है जीव के देह में प्रेम के लक्ष्ण प्रकट होने लगते हैं जिन्हें रत्याभास की संज्ञा दी जाती है । तथा भाव भक्ति के लक्षण भी स्वयम् के अनुभव में आते हैं । इन मील के पत्थरों [1][2][3][41] का उपयोग अपनी उन्नति को आँकने हेतु कीजिये नहीं तो उन्नति का भ्रम हो सकता है ।
परिपक्व भक्ति, जिसे सिद्धा भक्ति या प्रेमा भक्ति कहा जाता है, स्वयं श्री कृष्ण का ही एक रूप है। और इसके कई स्तर हैं जो प्रेम, स्नेह, मान, प्रणय, राग, अनुराग, भावावेश और महाभाव भक्ति हैं।
परिपक्व भक्ति, जिसे सिद्धा भक्ति या प्रेमा भक्ति कहा जाता है, स्वयं श्री कृष्ण का ही एक रूप है। और इसके कई स्तर हैं जो प्रेम, स्नेह, मान, प्रणय, राग, अनुराग, भावावेश और महाभाव भक्ति हैं।
तो, भाव भक्ति, जो ईश्वर-प्राप्ति से पहले होती है, साधना भक्ति का उच्च स्तर है। और साधना भक्ति की परिणति से सिद्धा भक्ति की प्राप्ति होती है। साधना भक्ति के चरण से ही भक्त अपने प्रयास के फल का आनंद लेना शुरू कर देता है। इन सबके बारे में हम पहले ही अन्य लेखों में विस्तार से बात कर चुके हैं [43][44][45][46][47][48][49]। कृपया ग्रंथ सूची में उल्लिखित लेख देखें।
तो संक्षेप में, भक्ति साधक को रास्ते भर लाभ प्रदान करती रहेगी। पूर्णता पर भक्ति परम आध्यात्मिक धन प्रदान करेगी जो श्री कृष्ण की सेवा है। और उसके बाद भक्ति आपको श्री कृष्ण से जोड़े रखेगी [42]।
इसके अलावा भक्ति और भी बहुत से फल प्रदान करती है, वह भी बिना माँगे। उन पर आगामी संस्करणों में चर्चा की जाएगी।
क्या आप भक्ति की महिमा सुनकर उसका लाभ उठाने के इच्छुक हैं? यदि ऐसा है तो यहाँ एक संसाधन है साधना - दैनिक भक्ति जो आपको इस पथ पर आरंभ करा सकती है। धर्मग्रंथों के इन कथनों की सत्यता को स्वयं सिद्ध करने के लिए गंभीरता से प्रयास करें [50][51]।
तो संक्षेप में, भक्ति साधक को रास्ते भर लाभ प्रदान करती रहेगी। पूर्णता पर भक्ति परम आध्यात्मिक धन प्रदान करेगी जो श्री कृष्ण की सेवा है। और उसके बाद भक्ति आपको श्री कृष्ण से जोड़े रखेगी [42]।
इसके अलावा भक्ति और भी बहुत से फल प्रदान करती है, वह भी बिना माँगे। उन पर आगामी संस्करणों में चर्चा की जाएगी।
क्या आप भक्ति की महिमा सुनकर उसका लाभ उठाने के इच्छुक हैं? यदि ऐसा है तो यहाँ एक संसाधन है साधना - दैनिक भक्ति जो आपको इस पथ पर आरंभ करा सकती है। धर्मग्रंथों के इन कथनों की सत्यता को स्वयं सिद्ध करने के लिए गंभीरता से प्रयास करें [50][51]।
संदर्भग्रंथ सूची - और अधिक जानें
[3] Asht Sattvik Bhav
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[6] Forms of Kusang
[7] कुसंग से सावधान
[8] Namaparadh
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[9] Our Real Mother
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[11] A Precious Well-Wishing Friend
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[12] Our True Relative
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[14] Everyone is a Believer
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[15] जीव का उद्देश्य
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[16] भगवान की भक्ति न करें
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[17] Bhav
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[20] The Right Religion
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[24] व्यतिरेक
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[25] अन्य निरपेक्षता
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[26] भक्ति परिपूर्ण है
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[31] Lord of Lords
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[32] संत या दंभी
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[36] हम गोलोक में क्या करेंगे ?
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[38] God Loves "Love"
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[43] भक्ति क्लेश भस्म करती है
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[44] भक्ति शुभ दायनी है
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