भक्ति भगवान की अंतरतम दिव्य शक्ति है। यह दिव्य प्रेम का सार है। प्रेमानंद अन्य सभी प्रकार के दिव्य आनंदों से अधिक सरस है [1]। भगवान का प्रेमानंद प्राप्त करना ही जीव का परम लक्ष्य है। साथ ही उस लक्ष्य तक पहुँचने का मार्ग भक्ति ही है। वेदव्यास ने वेदों का गहन अध्ययन किया और अंततः घोषणा की कि सभी वेदों का सार श्रीकृष्ण भक्ति है।
आलोड्य सर्वशस्त्राणि विचार्य च पुनः पुनः । इदमेकं सुनिष्पन्नं ध्येयो नारायणो हरिः।।
स्कंद पुराण व लिङ्ग पुराण
सृष्टिकर्ता ब्रह्मा भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचे की "भक्ति सर्वोच्च मार्ग नहीं भगवद्-प्राप्ति का एकाकी मार्ग है" [2]। जब तक अन्य मार्ग - कर्म, ज्ञान या योग - के साथ प्रमुख रूप से भक्ति नहीं की जायेगी तब तक वे ईश्वर-प्राप्ति की ओर नहीं ले जा सकते। दूसरी ओर, अन्य किसी साधन की सहायता के बिना भक्ति अकेले ही ईश्वर-प्राप्ति करा देती है [3]।
कर्म मार्ग (वर्णाश्रम) के पालन से कर्मजाल में जीव और उलझता जाता है अर्थात् कर्म के फल भोग हेतु आवागमन के चक्कर में पड़ा रहता है। यद्यपि कर्म तथा उसके फल के भोग के उपरांत कर्म तथा उसका फल दोनों समाप्त हो जाते हैं तथापि कर्म अनगिनत हैं। तो अनंत काल में भी कोई उन सब कर्मों का फल नहीं भोग सकता। इसलिए कर्म मार्ग का अवलंब लेने वालों की ईश्वर-प्राप्ति तभी संभव है जब भक्ति का प्रमुख रूप से और वैदिक कर्म गौड़ रूप से किया जाए।
ज्ञान अज्ञान को नष्ट करता है और जीव को अपने स्वरूप का ज्ञान करा देता है, लेकिन भगवान के अस्तित्व का नहीं। ज्ञान मार्ग के अग्रगण्य प्रतिपादक आदि जगद्गुरु शंकराचार्य के अनुसार ज्ञानमार्गीय साधक के लिये भक्ति का अवलंब लेना आवश्यक है।
शुद्धयति हि नान्तरात्मा कृष्णपदाम्भोज भक्तिमृते |
"ज्ञानमार्गीय साधक अपने बल पर अपना मन शुद्ध नहीं कर सकता । उसे भग्वान् की भक्ति का अवलंब लेना ही होगा। इस प्रकार, भक्ति ही भगवान को जानने का साधन है और भक्ति ही साध्य भी है । जीव का अंतिम लक्ष्य दिव्य सिद्धा भक्ति प्राप्त करना है [4] । उस निःस्वार्थ दिव्य प्रेम के प्राप्त होने पर ही भगवान् की सेवा का सुअवसर प्राप्त होगा ।
भक्ति के विभिन्न आचार्यों ने भक्ति शब्द की भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ प्रतिपादित की हैं। भक्ति की उनमें से कुछ परिभाषाएँ हैं
इन सभी विवरणों का सार यह है: भक्ति भगवान के दिव्य प्रेम-आनंद में पूर्ण तल्लीनता है। जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा लिखित "प्रेम रस सिद्धांत" (दिव्य प्रेम का दर्शन) में आप इस दर्शन का पूरा विवरण पढ़ सकते हैं।
- भजनं भक्तिः - भक्ति भगवान् के नामों, रूपों, लीलाओं और गुणों का निरंतर प्रेम पूर्वक स्मरण है [5]
- भागो भक्तिरिति - भग का अर्थ है "भाग"। भक्ति में यह दृढ़ ज्ञान है कि जीव का वास्तविक स्वरूप यही है कि "जीव भगवान का एक अंश है"
- भंजनम् भक्ति: - भजनं का अर्थ है जला देना। भक्ति भक्त की सांसारिक पदार्थों में आसक्ति को समाप्त करती है, पंचकोश जो भस्म कर देती है
- भज्यते भक्तिरिति - किसी भी भाव से मन भगवान् में तल्लीन रहे । यही भक्ति है [6]।
- भज सेवायाम् - वेद व्यास जी ने अर्थ किया कि संस्कृत में मूल धातु भज से भक्ति शब्द बना है, जिसका अर्थ है सेवा । इसलिए भक्ति की सरल परिभाषा है कि ईश्वर की मन से सेवा करो [7]।
इन सभी विवरणों का सार यह है: भक्ति भगवान के दिव्य प्रेम-आनंद में पूर्ण तल्लीनता है। जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा लिखित "प्रेम रस सिद्धांत" (दिव्य प्रेम का दर्शन) में आप इस दर्शन का पूरा विवरण पढ़ सकते हैं।