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A DIVINE MESSAGE                 
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2023 गुरु पूर्णिमा 
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सार गर्भित सिद्धान्त
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भक्ति अत्यंत-दुर्लभ क्यों है?

​जानिये रूप गोस्वामी जी क्यों कहते हैं कि भक्ति सभी साधनों से अप्राप्य है।​
कृपालु लीलामृतम
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संसारी कामनाओं को त्यागिये​

​श्री महाराज जी की इस लीला को पढ़िए और समझिए कि हमारी इच्छाएँ हमें किस प्रकार हानि पहुँचाती हैं।​​
कहानी
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आपका सेव्य कौन है?

​अकबर और बीरबल की कहानी से आध्यात्मिकता का एक पाठ।​​​
सार गर्भित सिद्धान्त
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भक्ति अत्यंत दुर्लभ क्यों है?

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भक्ति रसामृत सिंधु में रूप गोस्वामी जी ने लिखा है-
साघनौघैरनासंगैरलभ्या सुचिरादपि ।
हरिणा चाश्वदेयेति द्विधा सा अयात्सुदुर्लभा ॥
भक्तिरसामृतसिन्धु 1.1.35
"भक्ति सभी साधनों से अप्राप्य है चाहे कोई कितने ही समय तक साधना क्यों न कर ले। इसके अतिरिक्त​ भगवान भक्ति को देने में संकोच करते हैं। अतः भक्ति दो कारणों से अत्यंत दुर्लभ​ है।" 

यह सुनकर आपको आश्चर्य होगा कि भक्ति समस्त साधनों से अप्राप्य है। परंतु आप यह जिज्ञासा कर सकते हैं कि तो इतने जीवों ने कैसे प्राप्त की?

हाँ यद्यपि भक्ति सभी साधनों से अप्राप्य है तथापि अनेकानेक जीवों ने प्राप्त किया है।

तो यह अप्राप्य है या प्राप्य है?

​इस विरोधाभासी तथ्य का समन्वय लोग कैसे करेंगे?
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रूप गोस्वामी जी
भक्ति अप्राप्य क्यों है?
इस प्रश्न का उत्तर देने से पहले सिद्धांत की पुनः आवृत्ति करते हैं।

आनंद की 18 कक्षाएँ हैं [1]। इन 18 कक्षाओं में  सर्वोत्कृष्ट कक्षा केवल युगल सरकार को ही प्राप्त है। इस कक्षा को जीव नहीं प्राप्त कर सकते। शेष 17 कक्षाओं में जीव जिस भी कक्षा का लक्ष्य बनाए,  उस कक्षा की साधना करके उस कक्षा को प्राप्त कर सकता है। इनमें से निम्न 11 मायिक आनंद की कक्षाएँ हैं और उनको प्राप्त करने के नियत साधनों का विवरण वेद शास्त्र में प्राप्त है।

उपर्युक्त 11 कक्षाओं के ऊपर किसी भी कक्षा को प्राप्त करने के लिए कोई भी साधन नहीं है। जीव को निरंतर भगवान का स्मरण करना ही पड़ेगा अर्थात मन से साधना करनी पड़ेगी। पूर्व प्रकाशित लेखों में अनेकानेक बार स्पष्ट​ किया जा चुका है कि दिव्यानंद की कोई भी कक्षा को प्राप्त करने के लिए मन को भगवान में निरंतर अनुरक्त करना ही एकमात्र साधन है। साधना जीव को ​ही करनी होगी। हरी और गुरु हमारे लिए इसको करके नहीं दे सकते। 
जीव दो प्रकार से साधना भक्ति कर सकता ​है - 

  • अनासंग भक्ति - संसार मन में रखकर कर्मेंद्रियों से भक्ति करना अनासंग भक्ति कहलाता है। 
  • सासंग भक्ति - कर्मेंद्रिय तथा ज्ञानेंद्रिय भगवत कार्यों में संलग्न हों या न हों परंतु मन सदैव भगवान में लिप्त रहे।

उत्तरोत्तर उच्च भक्ति की तीन अवस्थाएँ हैं - 
  • साधना भक्ति - साधना भक्ति वो प्रारंभिक श्रेणी है जिसमें जीव मन को भगवान में  अनुरक्त करने का अभ्यास  करता है।
  • भाव भक्ति - भाव भक्ति साधना भक्ति की वो उच्च अवस्था है जिसमें व्यक्ति का मन सहज रूप से भगवान में लग जाता है।
  • सिद्धा भक्ति - जब भाव भक्ति परिपक्व​ हो जाती है तब​ मन 100 फ़ीसदी शुद्ध हो जाता है । तदोपरांत​ गुरु मायिक मन बुद्धि इंद्रियों को दिव्य बना देते हैं और प्रेमा भक्ति का दान  करते हैं। यह भक्ति भगवान की अंतरंग​ शक्ति है। इसे निर्भरा भक्ति, केवला भक्ति, अनपायिनी भक्ति, विशुद्धा भक्ति आदि भी कहते हैं। 
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​प्रेमा भक्ति प्राप्त करने की प्रक्रिया ​

भक्ति प्राप्त करने की स्वाभाविक प्रक्रिया

​प्रेमा भक्ति प्राप्त करने की  स्वाभाविक प्रक्रिया इस प्रकार है - ​
आदौ श्रद्धा ततः साधु-सङ्गोऽथ भजन-क्रिया । ततोऽनर्थ-निवृत्तिः स्यात् ततो निष्ठा रुचिस् ततः ॥१.४.१५॥
अथासक्तिस् ततो भावस् ततः प्रेमाभ्युदञ्चति । साधकानाम् अयं प्रेम्नः प्रादुर्भावे भवेत् क्रमः ॥१.४.१६॥
दिव्य प्रेम प्राप्त करने के लिए एक निश्चित क्रम होता है। उस क्रमानुसार भक्ति का अभ्यास करने से तदनंतर दिव्य प्रेम प्राप्त होता है। [2]

  1. श्रद्धा - वेद/शास्त्र तथा गुरु[3] के  वचनों में अटूट विश्वास अर्थात​ दृढ़ निश्चय​ 
  2. साधु-सङ्गो - किसी एक​ संत का मन से संग करते हुए उनके द्वारा तत्वज्ञान प्राप्त करना
  3. भजन-क्रिया - साधना भक्ति करना अर्थात श्रवण, मनन, कीर्तन​ आदि से मन को भगवान पर केंद्रित करने का अभ्यास करना
  4. अनर्थ-निवृत्तिः - तत्वज्ञान होने से संसार से आसक्ति हटती जाती है। मायिक दोष [4][5][6][7][8] कम होने लगते हैं। अब थोड़ी हानि में, थोड़ी बीमारी में, वो घबराहट नहीं होती जो पहले होती थी। 
  5. निष्ठा - गुरु और भगवान के प्रति आस्था
  6. रुचि - भगवान और गुरु के प्रति स्वाभाविक रुचि पैदा होती है। जिस क्षण में आप हरि गुरु का स्मरण नहीं करेंगे वह क्षण आपको भार लगेगा। अब आप ऊँची कक्षा में आ गए।
  7. आसक्ति - हल्का-फुल्का प्यार नहीं, उनके बिना एक क्षण भी युग के समान लगे, इसे आसक्ति कहते हैं। 
  8. ​भाव - इस आसक्ति के बाद प्रेम का अंकुर निकलेगा उसको कहते है, भाव। 

 1-7 क्रम साधना भक्ति में किये जाते हैं। अगर आप लोग गँवारी भाषा में समझना चाहें तो हरि गुरु में मन का लगाव करना यह आसक्ति तक होता है। जब गहरी आसक्ति हो जाए तो विद्या माया अविद्या माया को समाप्त कर देती है। इस अवस्था से पूर्व साधक को भगवान में मन लगाने का अभ्यास करना पड़ता है। यहाँ तक अनासंग भक्ति है। यहाँ तक प्रेम नहीं है।
इसके पश्चात भाव भक्ति प्रारंभ होती है। और हो जाए आसक्ति, करना नहीं है, हो जाए, अब भगवान के बिना रहा नहीं जाता। यह अवस्था आ गई तो उसको कहते हैं, भाव। यहीं से प्रेम का बीज अंकुरित होने लगता है। भाव भक्ति की अवस्था अनासंग भक्ति करने से नहीं आती। भाव भक्ति की स्थिति तक पहुँचने के लिए सासंग भक्ति करनी पड़ती है अर्थात् मन को  भगवान में लगाना पड़ता है। भाव भक्ति में मन आसानी से भगवान के नाम, रूप, लीला, गुण, धाम और उनके संतों में लग जाता है। जब भाव भक्ति अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाती है तो मन पूरी तरह से भगवान के चरण कमलों में  लगा रहता है। मन अन्य स्थान पर जाता ही नहीं। तब गुरु स्वरूप शक्ति से विद्या-माया को समाप्त करते हैं और मन को दिव्य बना देते हैं। उस दिव्य मन में गुरु दिव्य प्रेम का दान करते हैं। यह भक्ति श्रीकृष्ण की स्वरूप शक्ति की प्रवृत्ति है। इस दिव्य प्रेम के अनेक नाम है जिसे  प्रेमा भक्ति कहते हैं। यह भक्ति सभी साधनों से अप्राप्य है। यह भक्ति एकमात्र कृपा से ही प्राप्त होती है।

यह भक्ति अलभ्य नहीं है परंतु सुदुर्लभ है। अलभ्य माने नहीं मिल सकती। क्योंकि बहुतों ने पाई है इसलिए यह अलभ्य नहीं है परंतु किसी साधन से नहीं मिल सकती। दुर्लभ का अर्थ है इसका मिलना बहुत ही कठिन​ है। सुदुर्लभ  का अर्थ है बहुत बहुत बहुत अधिक कठिन​ है। इसका कारण यह है कि भगवान आसानी से किसी को यह भक्ति प्रदान नहीं करते। भक्ति के 3 लक्षण निम्नलिखित हैं। इन तीनों को सफलता पूर्वक प्राप्त करने पर ही भक्ति मानी जाती है। इस भक्ति को करने के लिए कीर्तन के साथ-साथ रूपध्यान करना होगा।
अन्याभिलाशिता-शून्यम ज्ञान-कर्मादि-अनावृतम आनुकूल्येन कृष्णानु-शीलनम भक्तिर उत्तमा।
भक्तिरसामृतसिन्धु १.१.११
"कोई भी अन्य कामना न हो, ज्ञान, कर्म या अन्य साधनों का आवरण न हो, चार भावों से ही श्री कृष्ण की उपासना हो”। सफलता पूर्वक इन तीनों को करने पर स्वयं भक्ति का प्रादुर्भाव होता है।  यह तीनों लक्षण जीव को स्वयं साधना द्वारा प्राप्त करने होंगे। भक्ति के इन तीन लक्षणों को प्राप्त करने में जितना समय लगेगा उतना ही समय भक्ति  महादेवी के प्राकट्य की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।

भक्ति के सुदुर्लभ होने  का दूसरा कारण यह है कि भगवान भक्ति देने में बहुत आनाकानी करते हैं। आनाकानी इसलिए करते हैं क्योंकि जिसको भक्ति प्राप्त हो जाती है भगवान उसके क्रीत​दास (खरीदा हुए गुलाम) की भाँति अनंत काल तक उस भक्त की सेवा करते हैं। भगवान भुक्ति और मुक्ति का प्रलोभन देते हैं। भुक्ति अथवा मुक्ति को स्वीकार करने का अर्थ है कि साधक को भक्ति के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु की आकांक्षा है। यदि साधक इनमें से किसी को भी स्वीकार कर लेता है तो वो भक्ति से च्युत​ हो जाता है।

तंत्र संहिता भी इसी की पुष्टि करती है -
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​ज्ञानतः सुलभा मुक्ति भुक्तिर्यज्ञादि पुण्यतः ।
सेयं साधन साहस्रै र्हरि भक्तिः सुदुर्लभा ॥ तंत्र सं।
"ज्ञान से मुक्ति और कर्म से मायिक ऐश्वर्य प्राप्त करना सुलभ है। परन्तु अनंत काल तक अथक प्रयत्न करने से भी भक्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती।" ध्यान रहे, ज्ञान मार्ग से मुक्ति प्राप्त करना आसान नहीं है - इसे पाने के लिए जीव को लाखों जन्मों की साधना करनी पड़ती है।

यदि भक्ति प्राप्त करना इतना दुर्लभ है तो उसको प्राप्त करने का प्रयास करना ही व्यर्थ है। तो क्या भक्ति प्राप्त करने की आशा ही त्याग दें ? यदि हाँ तो इतने संतों को यह भक्ति कैसे प्राप्त हुई? 
​

उत्तर के लिये आगे पढ़ें ।
ऐसा करने से भक्ति प्राप्त होती है
भक्ति (भगवान की अंतरंग शक्ति) कर्म, ज्ञान योग और अन्य सभी साधनों से अप्राप्य है। फिर भी, यदि जीव निम्नलिखित 3 काम  कर ले तो भक्ति महादेवी को प्राप्त कर सकता है। 
गुरु की प्रपत्ति अरु गोविंद राधे। ​सेवा और सत्संग भक्ति दिला दे।। 4046
  • किसी एक रसिक संत को गुरु रूप में स्वीकार करके उनके शरणापन्न होना।
  • गुरु को प्रसन्न करने हेतु निष्ठा पूर्वक गुरु की सेवा करना।
  • गुरु के द्वारा प्रदत साधना निष्ठा पूर्वक करना 
तब भक्ति सुलभ है ।

यदि कोई लापरवाही के कारण, अवज्ञा अथवा विद्रोह आदि के कारण इन तीन मानदंडों को पूरा नहीं करता है तो भक्ति सुदुर्लभा थी और आगे भी रहेगी।

ऊपर
धर्म अर्थ काम मोक्ष गोविंद राधे। सुख हरि दें तुरंत बता दे॥ राधा गोविंद गीत ​4015
किंतु विशुद्ध भक्ति गोविंद राधे। विशुद्ध भक्तों को ही दे बता दे॥
राधा गोविंद गीत ​4016 
हरि सुख हित जो गोविंद राधे। भक्ति माँगे वाको दें भक्ति बता दे॥
राधा गोविंद गीत ​4019 
भगवान धर्म, अर्थ, मोक्ष आसानी से दे देते हैं। परंतु भक्ति उस जीव प्राप्त होती है जिसे भक्ति प्राप्त करने की तीव्र इच्छा हो और वो शरणागत हो। जो भगवान के सुख के लिये भक्ति की कामना करते हैं, उन्हें ही भक्ति प्राप्त होती है।
साधन साध्य नहीं गोविंद राधे। नित्य सिद्ध कृष्णप्रेम रसिक बता दें॥ राधा गोविंद गीत 4024
कृपा साध्य कृष्ण प्रेम गोविंद राधे। साधना ते तो मन पात्र बना दे॥ राधा गोविंद गीत ​4025
साध्य भी दे सद्गुरु गोविंद राधे। साधना भी सद्गुरु जीव को बता दें॥
राधा गोविंद गीत ​4026
भक्ति किसी भी साधन से प्राप्त नहीं की जा सकती। यह श्री कृष्ण भगवान की अंतरंग शक्ति है। इसको केवल कृपा के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। कृपा प्राप्त करने के लिए साधना भक्ति करनी होती है। साधना भक्ति हमारे अंत:करण को शुद्ध कर देती है जिसके फलस्वरूप गुरु हमारी इंद्रियों को दिव्य बना देता है। गुरु ही हमें यह बताता है कि कैसे साधना भक्ति करके हमें अपने अंतःकरण को शुद्ध करना है और तब गुरु ही इस भक्ति को प्रदान करता है।
जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
जगद्गुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज
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[1] आनंद के स्तर
[2] What if I naturally do not have faith?
[3] संत

[4] Panchklesh
[5] Panchkosh
[6] Tritaap
[7] त्रिदोष
[8] Trikarma
कृपालु लीलामृतम्

संसारी कामनाओं को त्यागिये

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प्रतापगढ़ में  प्रायः लोग श्री महाराज जी से मिलने हेतु श्री महाबनी जी के घर आते थे। आकर अपनी जिज्ञासु स्वभाव से प्रश्न भी करते थे। श्री महाराज जी उनको समझा भी देते थे। यदि कभी कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति आकर श्री महाराज जी से प्रवचन के लिए आग्रह करता तो वो प्रवचन करते थे परंतु यह यदा कदा ही होता था।

एक दिन दोपहर के समय श्री महाराज जी आंगन में अकेले बैठे थे। बनचरी दीदी ने श्री महाराज जी से पूछा "क्या आप आज प्रवचन​ देंगे"? श्री महाराज जी उनसे पूछा "ये सवाल क्यों?" दीदी ने बता दिया, "मैं कॉफी के साथ पनीर सैंडविच खाना चाहती हूँ। यदि आप प्रवचन​ नहीं देंगे तो मैं खाने के लिए बाहर जाऊँगी"। महाराज जी ने ​कहा "जाओ"।

वे चली गईं और लगभग 45 मिनट के बाद जब वे घर में प्रवेश करने वाली थीं तो श्री महाराज जी के स्वर में "अलबेली सरकार की जय" सुना। श्री महाराज जी इस प्रकार प्रवचन​ समाप्त करते थे ! ये शब्द सुनकर वे शीघ्रता से घर में प्रविष्ट हुईं। श्री महाराज जी अपने कक्ष में जा चुके थे। उन्होंने सोचा मेरे जाने के पश्चात कोई प्रमुख व्यक्ति आया होगा, लेकिन आँगन में कोई नहीं दिखा। आंगन में बैठी कुछ वृद्ध​ महिलाएँ प्रवचन​ की प्रशंसा कर रही थीं।

बनचरी दीदी ने उन महिलाओं से पूछा, ''क्या महाराज जी ने प्रवचन​ दिया था?'' उन्होंने बताया कि श्री महाराज जी ने गोलोक पर बड़ा ही अद्भुत  प्रवचन दिया था। उन्होंने प्रत्येक महिला से पूछा "महाराज जी ने गोलोक के बारे में क्या कहा?" उनमें से किसी को कुछ भी याद नहीं था। वे केवल इतना कहती गईं कि "बहुत ही बढ़िया प्रवचन था"।

वे थोड़े गुस्से में श्री महाराज जी के कमरे में गईं और शिकायत की, "आपने कहा था कि आप प्रवचन नहीं देंगे। कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति यहाँ नहीं था और फिर भी सभी कह रहे हैं कि आपने गोलोक पर एक अद्भुत प्रवचन दिया। और मैं चूक गई”। महाराज जी ने कहा, "जाओ पनीर सैंडविच खाओ"।
​

सिद्धांत

इसके बारे में गहन विचार कीजिये। क्या आपकी भी कोई सांसारिक​ कामना है ?[9] केवल मुख से ​कीर्तन​ गाना आसान है - 

नित सेवा माँगू श्यामा श्याम तेरी, न भुक्ति न ही मुक्ति माँगू मैं ॥
तेरी इच्छा में इच्छा बनाती रहूँ, तेरे सुख में ही सुख नित पाती रहूँ ।
बस चाह इहै इक मेरी, न भुक्ति न ही मुक्ति माँगू मैं ॥
“मेरी विनती है कि मुझे आपकी निरंतर सेवा प्राप्त हो। मैं भुक्ति या मुक्ति की कामना नहीं करती। आपकी इच्छा मेरी इच्छा बन जाए, यही मेरी एकमात्र इच्छा है।” [10] ​​
आपकी अपनी व्यक्तिगत पसंद और नापसंद हैं। जब आप स्व-सुख मैं कार्यरत रहेंगे तो दिव्य वस्तुओं का आस्वादन करने से चूक जाएँगे। इस लीला से श्री महाराज जी ने यही संदेश दिया। बनचरी दीदी ने यही सिद्धांत साधकों को समझाने के लिए श्री महाराज जी की यह लीला हमारे साथ साझा की।
​
इसलिए, यदि आप अपनी किसी भी इच्छा की पूर्ति में रत हैं, तो आप हर उस चीज़ के लिए "नहीं" कह रहे हैं जो हरि गुरु आप को देना चाहते हैं।  सोचिए! क्या आपकी इच्छाएँ आपके लिए लाभप्रद हैं ?
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[9] हम कामनाएँ क्यों बनाते हैं ?
[10] ​क्या कामना के दमन से आनंद प्राप्ति हो जाएगी?
कहानी

आपका सेव्य कौन है?

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अकबर भारत का सम्राट था और बीरबल उसका बुद्धिमान प्रधान मंत्री था। साथ ही, बीरबल अपनी हाज़िरजवाबी और चतुराई के लिए विख्यात थे। एक बार अकबर और बीरबल एक साथ खाना खा रहे थे...

अकबर ने बैंगन की सब्जी के स्वाद की तारीफ करते हुए कहा, "बैंगन सभी सब्ज़ियों में सबसे अच्छा है। यह बहुत लाजवाब है"।  बीरबल ने उनके कथन में हामी भरते हुए कहा, "इसीलिए भगवान ने इसके सिर पर ताज रखा है।"

अगले दिन खानसामा ने बैंगन की दूसरी सब्जी बनाई। इस बार अकबर ने कहा, "यह सबसे बेकार​ सब्ज़ी है। बिल्कुल बेस्वाद, कोई ज़ायका ही नहीं है । ये भी कोई सब्ज़ी है। "बीरबल फिर सहमत हुए “बिल्कुल सही जहाँपनाह। इसलिए इसे 'बे-गुन' (सभी अच्छे गुणों से रहित) नाम दिया गया है।”

तो अकबर ने हँसते हुए कहा, “बीरबल! क्या बात है तुम हर बात में हामी भर देते हो? बेपेंदी के लोटे की तरह जहाँ चाहे लुढ़क गए? कल मैंने कहा था कि यह सबसे अच्छी सब्ज़ी है और तुम मान गए। आज मैंने कहा कि यह सबसे बेकार​ है और तुम वह भी मान गए। क्या तुम्हारे लफ्ज़ों की कोई अहमियत नहीं है?”

बीरबल ने उत्तर दिया, “जहाँपनाह ! मैं आपका नौकर हूँ, बैंगन का नहीं... इसलिए मैं बैंगन की परवाह नहीं करता। मुझे अपने शब्दों की भी परवाह नहीं है। आप मेरे स्वामी हैं। मैं आपकी सेवा करता हूँ। जिस भी आचरण से आपकी अच्छी सेवा होगी मैं वही करता हूँ ।”

​सिद्धांत -

सेवक स्वामी की सेवा करता है। वह सही और गलत की परवाह नहीं करता है। वह अपने मान और अपमान की परवाह भी नहीं करता। सेवक अपने सेव्य​ को प्रसन्न करने के लिए ही कार्य करता है।  यदि ऐसा नहीं करता तो वह अपनी सेवा कर रहा है सेव्य​ की नहीं।

मायिक संसार में स्वामी की हाँ में हाँ भरने वालों को चमचा आदि शब्दों से पुकारा जाता है तथा हेय दृष्टि से देखा जाता है। लेकिन जब स्वामी सर्वसमर्थ, सर्वसुहृद​, सर्वदृष्टा, सर्वांतर्यामी शुभचिंतक हो, तो दास सब कुछ भूल कर एकमात्र स्वामी के अनुकूल ही होते हैं। उनकी प्रत्येक इच्छा को, बिना किंतु-परंतु​​ लगाए, शिरोधार्य करते हैं। दिव्य जगत में समर्पण, शरणागति, शरणापन्न आदि शब्दों का यही अर्थ है। इसी आशय से श्री महाराज जी ने प्रेम रस मदिरा नामक महाकाव्य में इस पद की रचना की है।

सखी यह कैसो है ब्रजधाम ।
जहँ नहिं धर्म अधर्म विचारत, छ​के प्रेम घनश्याम ।
लोक वेद कुल कानि न मानत, मनमाने सब काम । 
गुरुजन मात पिता पति की नित, करति अवज्ञा बाम ।
हाँसी करत सबै  ब्रजवासी, लै लै सुरपति नाम ।
वेद विरुद्ध रास रस खेलत, सखिन कुंज वसु-याम ।  
ज्ञानी शंभु शुकादिक जेतिक, तेउ बिके बिनु दाम ।
यह ‘कृपालु’ कछु मरम अलौकिक, जहँ मन बुधि विश्राम ॥
प्रेम रस मदिरा - सिद्धांत माधुरी, पद सं. 108
हे सखी! यह ब्रजधाम किस प्रकार का है? जहाँ के समस्त नर नारी पाप पुण्य का कुछ भी विचार नहीं करते, एकमात्र श्यामसुन्दर के ही प्रेम में दीवाने रहते हैं। लोक​, वेद एवं कुल की मर्यादाओं का थोड़ा भी पालन न करते हुए सभी उच्छृंखल हो रहे हैं। पूज्य​, माता, पिता एवं पति का अपमान जहाँ की गोपियाँ सदा ही करती रहती हैं। समस्त ब्रजवासी देवराज इन्द्र का नाम लेकर उसकी हँसी उड़ाया करते हैं। वैदिक मर्यादा के विरुद्ध जहाँ गोपियाँ श्री कृष्ण के साथ रास - रस खेलती हैं, फिर भी विचित्रता यह है कि बड़े से बड़े ज्ञानी भगवान शंकर, शुकदेव आदि भी बिना मूल्य के ही बिक कर इस ब्रज में दीवाने बने घूमा करते हैं। ‘ कृपालु ’ कहते हैं कि इसका रहस्य कुछ विचित्र एवं लोकातीत है, जहाँ मायिक मन एवं बुद्धि का प्रवेश नहीं है। अंतः करण की शुद्धि के बाद ही, रसिकों की कृपा द्वारा, इस दिव्य रहस्य को समझा जा सकता है।
​
दास एक और केवल एक नियम का पालन करते हैं। उस नियम को श्री महाराज जी ने प्रेम रस मदिरा में सिद्धांत माधुरी पद # 62 में बहुत सुंदर पद में प्र​कट किया है - 
पड़ो सखि! नेम प्रेम झगड़ो।
जा दिन लख्यों नैन मनमोहन​, कुंज लतान ठड़ो।
ता दिन ते इन मन बुधि महँ इक​, झगड़ो आन पड़ो।​
मन कह प्रेमहिं बड़ो, बुद्धि कह, नेमहिं होत बड़ो।
मन कह छाँड़ु वेद मर्यादहिं, बुधि कह​, तिन पकड़ो।
प्रेमहिं नेम ‘ कृपालु ‘ न नेमहिं, प्रेम बड़ो न लड़ो। 
प्रेम रस मदिरा - सिद्धांत माधुरी, पद सं. 62
अरी सखि! नियम एवं प्रेम में एक झगड़ा आ खड़ा हुआ है। जिस दिन से आखों ने लता-कुंज में खड़े हुए निकुंज-बिहारी श्री श्यामसुन्दर को देखा है, उस दिन से मेरे मन एवं बुद्धि में झगड़ा चल रहा है। मन कहता है प्रेम ही बड़ा होता है किन्तु बुद्धि कहती है नियम ही बड़ा होता है। मन कहता है वेद की मर्यादा सम्बन्धी विधि-निषेधात्मक धर्म​-कर्म छोड़ दो, एकमात्र श्यामसुन्दर से ही प्रेम करो। बुद्धि कहती है - नहीं, नहीं वेद भी तो ईश्वरीय वाक्य है, अत​एव उसको छोड़ना ईश्वर का अपमान है। ‘ कृपालु ’ निर्णय देते हैं कि वेद का लक्ष्य यही तो है कि जीव का मन ईश्वर में अनुरक्त हो। अतएव श्यामसुन्दर​-सम्बन्धी-प्रेम का नियम ही श्रेष्ठ है। केवल नियम से ही प्रेम करना श्यामसुन्दर के प्रेम से रहित होने के कारण त्याज्य है।
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सिद्धान्त, लीलादि

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