संस्कृत में सुख का पर्यायवाची शब्द आनंद है । वेद ने आनंद की परिभाषा इस प्रकार की है -
यो वै भूमा तत्सुखम्
"आनंद अनंत मात्रा का होता है" । भगवान का स्वाभाविक नाम आनंद है क्योंकि यह नाम भगवान की प्रकृति का द्योतक है।आनंद कोई भिन्न वस्तु या भगवान का गुण नहीं है अपितु आनंद ही भगवान है। आनंद नाम की सत्ता को ही भगवान नाम से सम्बोधित किया जाता है जैसे कि प्रकाश तथा उष्मा अग्नि का स्वरूप है । अतः वेदों ने भगवान की पुनः परिभाषा की -
आनंदो ब्रह्मेति व्यजानात्
"भगवान ही आनंद हैं "। उनमें आनंद के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। वेदों का उद्घोष है -
आनंद एवाधस्तात् आनंद उपरिष्टात आनंद पुरस्तात् आनंद उत्तऱतः आनंद दक्षिणतः आनंद एवेदॅ्सर्वम्।
आनंद चिन्मयदुज्वलविग्रहस्य गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि।। ब्र सं.
आनंदमात्रकरपादमुखोदरादिः।
आनंद चिन्मयदुज्वलविग्रहस्य गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि।। ब्र सं.
आनंदमात्रकरपादमुखोदरादिः।
"भगवान के अंदर-बाहर चहुँ ओर आनंद ही आनंद लबालब भरा है ।" यह सभी वेद मंत्र एक स्वर में कह रहे हैं कि भगवान ही आनंद हैं।
जब भगवान मृत्यु लोक में अवतरित होते हैं तो यद्यपि उनका शरीर हम लोगों की भाँति पंचमहाभूत का दृष्टिगोचर होता है परंतु वास्तव में भगवान का शरीर दिव्यानंद का साकार रूप है । हमारे शरीर की भांति भगवान के शरीर का निर्माण हड्डी मांस आदि जड़ मायिक पदार्थों से नहीं होता है । जैसे आत्मा (देही) और उसके शरीर (देह) में भेद है वैसा भेद भगवान के शरीर में नहीं होता है । उनका शरीर ही नहीं उनके लोक भी माया से परे हैं । परव्योम लोक में माया का प्रवेश वर्जित है । अतः वहाँ श्रीकृष्ण स्वयं धरती सूर्य चंद्र आकाश इत्यादि बनते हैं । श्री कृष्ण के वस्त्र, आभूषण इत्यादि भी श्रीकृष्ण की ही भाँति दिव्य चिन्मय होते हैं। सब आनंद से बने होते हैं परंतु लीला के उद्देश्य से भौतिक पदार्थों की भाँति प्रतीत होते हैं।
स्वर्ग लोक के देवी देवताओं के शरीर भी मायिक पदार्थों यथा मांस, मज्जा, हड्डी, नस, नाड़ियों के नहीं बने होते । उनके शरीर तेज के होते हैं । तो श्री कृष्ण के शरीर का निरूपण कौन कर सकता है।
योनि से उत्पन्न शरीर से तो आप अवगत हैं ही । इसके अतिरिक्त ब्रह्मांड में कई अन्य प्रकार के शरीर भी होते हैं । कुछ शरीर स्त्री के शरीर का स्पर्श मात्र करने से उत्पन्न हो जाते हैं । अथवा स्त्री को देखने मात्र से बन जाते हैं जैसे पांडु धृतराष्ट्र आदि के शरीर । एक और विशेष प्रकार का शरीर होता है - निर्माण शरीर। वर्तमान शरीर की आयु समाप्त होने पर योगी अपना शरीर भस्म करके पुनः नया शरीर निर्माण कर लेते हैं । इस शरीर में वे योग की साधना को आगे बढ़ाते हैं । पूर्वलिखित सभी स्थूल व सूक्ष्म शरीर मायिक हैं । भगवत् प्राप्ति होने पर भक्तों को दिव्य शरीर, मायिक त्रिशरीर समाप्त होने पर, मिलता है ।
केवल भगवान का शरीर ही दिव्य-चिन्मय नहीं है वरन् भगवान अपने भक्तों को भी गोलोक में दिव्य शरीर देते हैं । फिर भी भगवान के शरीर और भक्तों के दिव्य शरीर में भेद होता है ।
जब भगवान मृत्यु लोक में अवतरित होते हैं तो यद्यपि उनका शरीर हम लोगों की भाँति पंचमहाभूत का दृष्टिगोचर होता है परंतु वास्तव में भगवान का शरीर दिव्यानंद का साकार रूप है । हमारे शरीर की भांति भगवान के शरीर का निर्माण हड्डी मांस आदि जड़ मायिक पदार्थों से नहीं होता है । जैसे आत्मा (देही) और उसके शरीर (देह) में भेद है वैसा भेद भगवान के शरीर में नहीं होता है । उनका शरीर ही नहीं उनके लोक भी माया से परे हैं । परव्योम लोक में माया का प्रवेश वर्जित है । अतः वहाँ श्रीकृष्ण स्वयं धरती सूर्य चंद्र आकाश इत्यादि बनते हैं । श्री कृष्ण के वस्त्र, आभूषण इत्यादि भी श्रीकृष्ण की ही भाँति दिव्य चिन्मय होते हैं। सब आनंद से बने होते हैं परंतु लीला के उद्देश्य से भौतिक पदार्थों की भाँति प्रतीत होते हैं।
स्वर्ग लोक के देवी देवताओं के शरीर भी मायिक पदार्थों यथा मांस, मज्जा, हड्डी, नस, नाड़ियों के नहीं बने होते । उनके शरीर तेज के होते हैं । तो श्री कृष्ण के शरीर का निरूपण कौन कर सकता है।
योनि से उत्पन्न शरीर से तो आप अवगत हैं ही । इसके अतिरिक्त ब्रह्मांड में कई अन्य प्रकार के शरीर भी होते हैं । कुछ शरीर स्त्री के शरीर का स्पर्श मात्र करने से उत्पन्न हो जाते हैं । अथवा स्त्री को देखने मात्र से बन जाते हैं जैसे पांडु धृतराष्ट्र आदि के शरीर । एक और विशेष प्रकार का शरीर होता है - निर्माण शरीर। वर्तमान शरीर की आयु समाप्त होने पर योगी अपना शरीर भस्म करके पुनः नया शरीर निर्माण कर लेते हैं । इस शरीर में वे योग की साधना को आगे बढ़ाते हैं । पूर्वलिखित सभी स्थूल व सूक्ष्म शरीर मायिक हैं । भगवत् प्राप्ति होने पर भक्तों को दिव्य शरीर, मायिक त्रिशरीर समाप्त होने पर, मिलता है ।
केवल भगवान का शरीर ही दिव्य-चिन्मय नहीं है वरन् भगवान अपने भक्तों को भी गोलोक में दिव्य शरीर देते हैं । फिर भी भगवान के शरीर और भक्तों के दिव्य शरीर में भेद होता है ।
आनंद के कई स्तर हैं । मायिक आनंद में भी आनंद के कई स्तर होते हैं । उसी प्रकार दिव्यानंद के भी कई स्तर होते हैं । आइये उनका सबका दिग्दर्शन करते हैं ।
सैषानंदस्य मीमांसा भवति। युवा स्यात्साधु युवाध्यायकः।
आशिष्ठो दृढ़िष्ठो बलिष्ठो तस्येयं सर्वा पृथिवी वित्तस्य पूर्णा स्यात्। स एको मानुष आनंदः ।। “पूरी पृथ्वी का एक राजा हो और युवास्था हो, दयावान हो, ज्ञानवान हो, धनवान हो, निरोगी हो, प्रजा अनुकूल हो तो वो मृत्युलोक का सबसे बड़ा सुख कहा जायेगा” ।
मृत्युलोक के उस राजा के सुख से हजार गुना सुख मनुष्य गंधर्व के लोक का सुख होता है। इसी प्रकार देव गंधर्व लोक, पितृलोक, आजानज देव लोक, कर्म देव लोक, नित्य देव लोक, इंद्रलोक, बृहस्पति लोक, प्रजापति लोक तथा ब्रह्म लोक तक के सभी लोकों का सुख क्रमशः हजार गुना बढ़ता जाता है। आब्रह्मभुवनाल्लोकाःपुनरावर्तिनोर्जुन। गीता 8.16
परंतु उपर्युक्त गीतोक्ति के अनुसार “ब्रह्म लोक तक के सुखों का भोग करने के पश्चात जीव को पुनः चौरासी लाख योनियों में भटकना पड़ेगा” ।
|
इसीलिए वेदव्यास जी ने कहा है -
यत्पृथिव्यां व्रीहि यवं हिरण्यं पशवस्त्रियः। नालमेकस्य पर्याप्तं तस्मात्तृष्णां परित्यजेत्॥ भा
"यदि किसी को विश्व के समस्त सुख प्राप्त हो जायें फिर भी उसकी इच्छाएँ ज्यों की त्यों बनी रहेंगीं"
वास्तविक आनंद के निम्नलिखित लक्षण होते हैं :
|
जबकि मायिक सुख के लक्षण निम्नलिखित हैं :
आनंद के कई स्तर होते हैं। प्रमुखतः उनको दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है । एक मायिक आनंद तथा दूसरा दिव्यानंद । मायिक आनंद ब्रह्म लोक तक के पदार्थों से प्राप्त होता है तथा दिव्यानंद मोक्ष से प्रारंभ होता है। परंतु जगदगुरूत्तम श्री कृपालुजी महाराज के अनुसार वह भी दिव्यानंद की प्राप्ति नहीं है। मोक्ष में माया के लोकों में आवागमन से मुक्ति मिल जाती है तथा दुखों से छुटकारा मिल जाता है परंतु आनंद नहीं मिलता ।
- सीमित होता है । दुखों के कम होने को मायिक जगत में सुख मान लिया जाता है।
- क्षणिक होता है दुख उसके ऊपर पुनः अधिकार कर लेता है।
- प्रतिक्षण घटमान होता है। वस्तु का जैसे-जैसे उपभोग करते जाते हैं वैसे-वैसे उस वस्तु से मिलने वाला सुख कम होता जाता है ।
आनंद के कई स्तर होते हैं। प्रमुखतः उनको दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है । एक मायिक आनंद तथा दूसरा दिव्यानंद । मायिक आनंद ब्रह्म लोक तक के पदार्थों से प्राप्त होता है तथा दिव्यानंद मोक्ष से प्रारंभ होता है। परंतु जगदगुरूत्तम श्री कृपालुजी महाराज के अनुसार वह भी दिव्यानंद की प्राप्ति नहीं है। मोक्ष में माया के लोकों में आवागमन से मुक्ति मिल जाती है तथा दुखों से छुटकारा मिल जाता है परंतु आनंद नहीं मिलता ।
मुक्ति प्राप्ति पर जीव मन-बुद्धि रहित आनंद रूपी ब्रह्म में विलीन हो जाता है । चूंकि आनंद प्राप्त करने वाला जीव स्वयं आनंद में विलीन हो गया अतः इन्द्रिय-मन-बुद्धि के अभाव में आनंद का अनुभव नहीं होता है ।
दिव्यानंद का आरंभ वैकुंठ लोक से होता है। मथुरा तथा द्वारिका का आनंद बैकुंठ से भी अधिक है । परंतु प्रेमानंद का सुख दिव्य वृंदावन से आरंभ होता है । यह भी उत्तरोत्तर कुंज, निकुंज, निभृत निकुंज में क्रमशः वर्धमान होता रहता है।
जिस कक्षा का गुरु होगा उसी कक्षा तक का प्रेमानंद शिष्य भी प्राप्त कर सकता है। सर्वोच्च स्तर के प्रेमानंद को लक्ष्य मानकर उसी कक्षा के रसिक संत की शरणागति ग्रहण करके, उनके संरक्षण में साधना करके सर्वोच्च स्तर के प्रेमानंद को प्राप्त करने में ही बुद्धिमत्ता है ।
दिव्यानंद का आरंभ वैकुंठ लोक से होता है। मथुरा तथा द्वारिका का आनंद बैकुंठ से भी अधिक है । परंतु प्रेमानंद का सुख दिव्य वृंदावन से आरंभ होता है । यह भी उत्तरोत्तर कुंज, निकुंज, निभृत निकुंज में क्रमशः वर्धमान होता रहता है।
- कुंज : ब्रजरस सिक्त जीवों को युगल सरकार की सेवा का बहुमूल्य अवसर मिलता है। श्री कृष्ण के सखा तथा श्री राधा की सखियाँ उनकी लीलाओं का रस पान करते हैं।
- निकुंज : केवल श्री राधा कृष्ण की अष्ट-महासखियों को (एवं उनकी कृपा प्राप्त जीवों को) निकुंज का रस मिलता है।
- निभृत निकुंज : अतिगहन कुंज को निभृत निकुंज कहते हैं । श्री राधा कृष्ण की दिव्य लीला में जब वे दोनों इन गहन कुंजों में अकेले ही विहार करते हैं तो उसे निभृत निकुंज लीला कहते हैं। इस समय दोनों मोदन व मोहन महाभाव के रस में पूर्णतःनिमग्न रहते हैं । ये रस अनिर्वचनीय है । किसी भी जीव के लिए सर्वथा अप्राप्य है । अबोध्य है । वहाँ अष्ट-महासखियों का भी प्रवेश नहीं है। क़ुछ अधिक सुनना चाहो तो YouTube पर शरतपूर्णिमा का महत्व सुनो।
जिस कक्षा का गुरु होगा उसी कक्षा तक का प्रेमानंद शिष्य भी प्राप्त कर सकता है। सर्वोच्च स्तर के प्रेमानंद को लक्ष्य मानकर उसी कक्षा के रसिक संत की शरणागति ग्रहण करके, उनके संरक्षण में साधना करके सर्वोच्च स्तर के प्रेमानंद को प्राप्त करने में ही बुद्धिमत्ता है ।