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प्रश्न
आप अपने प्रकाशनों और अपनी वेबसाइट पर लगातार भगवद्-प्राप्त संत, वास्तविक संत, प्रामाणिक संत शब्दों का प्रयोग करती हैं। इन शब्दों का वास्तव में क्या अर्थ है? कोई कैसे जान सकता है कि कौन सच्चा संत है और कौन नहीं?
उत्तर
सभी शास्त्र एकमत से इस बात पर जोर देते हैं कि सच्चे संत की कृपा के बिना कोई भगवान को नहीं जान सकता। हमारे सनातन ग्रंथों में सच्चे संत की परिभाषा हैं, जिसमें ये दो गुण हों
आप अपने प्रकाशनों और अपनी वेबसाइट पर लगातार भगवद्-प्राप्त संत, वास्तविक संत, प्रामाणिक संत शब्दों का प्रयोग करती हैं। इन शब्दों का वास्तव में क्या अर्थ है? कोई कैसे जान सकता है कि कौन सच्चा संत है और कौन नहीं?
उत्तर
सभी शास्त्र एकमत से इस बात पर जोर देते हैं कि सच्चे संत की कृपा के बिना कोई भगवान को नहीं जान सकता। हमारे सनातन ग्रंथों में सच्चे संत की परिभाषा हैं, जिसमें ये दो गुण हों
- शास्त्रों का पूर्ण समन्वयात्मक ज्ञान (क्षोत्रियं) और
- भगवान का साक्षातकार किया हो (ब्रह्मनिष्ठम्)
तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणिः क्षोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्॥ मुंडको १.२.१२
गुरु बिन भवनिधि तरई कि कोई । जो बिरंचि शंकर सम होई ॥ रामचरित मानस
कॉलेज या विश्वविद्यालय की डिग्री की जांच पड़ताल करके उसकी सत्यता प्रमाणित की जा सकता है। परंतु संतत्व कोई कॉलेज या विश्वविद्यालय की डिग्री नहीं है । इसलिये मायिक जगत के साधनों से उसको परखना असंभव है । साथ ही कलियुग में अनेकानेक दंभी संत होने का दिखावा करते हैं जिससे सच्चे संत की पहचान करना मुश्किल ही नहीं, बल्कि असंभव हो जाता है। भगवद्-प्राप्त संतों में भी अनेक स्तर होते हैं । अपने बराबर के स्तर अथवा नीचे के स्तर वाले को ही संत जान सकते हैं, तो मायिक जीव संत को कैसे परखेगा । भगवान की ही भांति संत की वास्तविक पहचान इंद्रियों, मन और बुद्धि से नहीं की जा सकती है। फिर भी, संत को अनुमान प्रमाण और शब्द प्रमाण के माध्यम से पहचाना होगा; अन्यथा अनादि काल से कोई भी भगवान को प्राप्त नहीं कर पाता।
तो आइए इस रहस्य को जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रतिपादित दर्शन पर आधारित अनुमान प्रमाण और शब्द प्रमाण से सुलझाते हैं।
सबसे पहले उन गुणों का अवलोकन करते हैं जो सच्चे संतत्व की पुष्टि नहीं करती हैं । ये संत हो भी सकते हैं और नहीं भी हो सकते । इसलिए आध्यात्मिक साधक को व्यक्ति को गुरु के रूप में चुनने से पहले और जांच करनी चाहिए।
तो आइए इस रहस्य को जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रतिपादित दर्शन पर आधारित अनुमान प्रमाण और शब्द प्रमाण से सुलझाते हैं।
सबसे पहले उन गुणों का अवलोकन करते हैं जो सच्चे संतत्व की पुष्टि नहीं करती हैं । ये संत हो भी सकते हैं और नहीं भी हो सकते । इसलिए आध्यात्मिक साधक को व्यक्ति को गुरु के रूप में चुनने से पहले और जांच करनी चाहिए।
![Builder of Multiple ashrams does have a to be a saint](/uploads/1/9/8/0/19801241/published/dubioussignsofsaint_2.jpg)
श्री महाराज जी के अनुसार किसी व्यक्ति में निम्नलिखित 3 गुणों को देखकर भगवद्प्रेमाकांक्षी निर्णय नहीं कर सकता कि वह संत है या नहीं। ये संदिग्ध या अनिर्णायक संकेत हैं
1. संत की पोशाक - रंगीन कपड़े संत होने का पक्का प्रमाण नहीं है। वह संत भी हो सकता है या दंभी भी हो सकता है। तो, सावधान रहें।
2. बड़ी संख्या में अनुयायी - बड़ी संख्या में शिष्य भी सच्चे संत की निर्णायक पहिचान नहीं हैं। बहुत से लोग अनेक कलाओं (जैसे गायन, नर्तन, रूप इत्यादि) से लोगों को मंत्रमुग्ध कर लेते हैं। केवल बड़ी संख्या में शिष्यों से घिरे रहने के कारण ही कोई सच्चे संत होने के योग्य नहीं हो जाता। इसलिए सावधान रहें।
3. आश्रमों का निर्माण - जिसने कई भव्य आश्रम बनावाए हों वह वास्तविक संत हो भी सकता है और नहीं भी। इसलिए सावधान रहें।
1. संत की पोशाक - रंगीन कपड़े संत होने का पक्का प्रमाण नहीं है। वह संत भी हो सकता है या दंभी भी हो सकता है। तो, सावधान रहें।
2. बड़ी संख्या में अनुयायी - बड़ी संख्या में शिष्य भी सच्चे संत की निर्णायक पहिचान नहीं हैं। बहुत से लोग अनेक कलाओं (जैसे गायन, नर्तन, रूप इत्यादि) से लोगों को मंत्रमुग्ध कर लेते हैं। केवल बड़ी संख्या में शिष्यों से घिरे रहने के कारण ही कोई सच्चे संत होने के योग्य नहीं हो जाता। इसलिए सावधान रहें।
3. आश्रमों का निर्माण - जिसने कई भव्य आश्रम बनावाए हों वह वास्तविक संत हो भी सकता है और नहीं भी। इसलिए सावधान रहें।
ढोंगी को पहचानने के निम्नलिखित तीन पक्के प्रमाण हैं, भले ही वह एक संत होने का नाटक कर रहा हो
1. आशीर्वाद देना - जो आशीर्वाद देता है वह निश्चित रूप से एक वास्तविक संत नहीं है। संत के पास भगवान की सभी शक्तियां और गुण होते हैं। जैसा तुलसीदास जी कहते हैं
1. आशीर्वाद देना - जो आशीर्वाद देता है वह निश्चित रूप से एक वास्तविक संत नहीं है। संत के पास भगवान की सभी शक्तियां और गुण होते हैं। जैसा तुलसीदास जी कहते हैं
जानत तुमहिं तुमहिं ह्वै जाई ।
"एक बार जब कोई भगवान जान लेता है तो उसमें भगवान के सभी गुण हमेशा के लिए आ जाते हैं"।
भगवान के पास 'सत्य संकल्प' नामक एक शक्ति है जिसका अर्थ है कि जब भगवान किसी चीज की इच्छा करता है तो वह चीज फलीभूत होती है । भगवद् प्राप्ति पर भगवान संत को भी ये शक्ति दे देते हैं । इसलिए, यदि कोई संत "खुश रहो!" जैसे आशीर्वाद के शब्दों का उच्चारण करता है। फिर उस क्षण से अनंत काल तक, शिष्य को माया (क्रोध, लोभ, ईर्ष्या, वासना आदि) के दोषों से मुक्त होना चाहिए और उसे हमेशा के लिए आनंद प्राप्त करना चाहिए । लेकिन संत से आशीर्वाद प्राप्त करने के बाद भी व्यक्ति हमेशा की तरह पीड़ित रहता है, फिर उन आशीर्वादों का क्या मतलब है? याद रखें कि संत के वचन हमेशा सत्य होते हैं, यदि उनका आशीर्वाद वास्तविकता में परिणत नहीं होता है, तो वह तथाकथित "संत" धोखेबाज है।
न कोई संत किसी पर कृपा बरसाता है और न ही कोई संत किसी को श्राप देता है। तुलसीदास जी कहते हैं
भगवान के पास 'सत्य संकल्प' नामक एक शक्ति है जिसका अर्थ है कि जब भगवान किसी चीज की इच्छा करता है तो वह चीज फलीभूत होती है । भगवद् प्राप्ति पर भगवान संत को भी ये शक्ति दे देते हैं । इसलिए, यदि कोई संत "खुश रहो!" जैसे आशीर्वाद के शब्दों का उच्चारण करता है। फिर उस क्षण से अनंत काल तक, शिष्य को माया (क्रोध, लोभ, ईर्ष्या, वासना आदि) के दोषों से मुक्त होना चाहिए और उसे हमेशा के लिए आनंद प्राप्त करना चाहिए । लेकिन संत से आशीर्वाद प्राप्त करने के बाद भी व्यक्ति हमेशा की तरह पीड़ित रहता है, फिर उन आशीर्वादों का क्या मतलब है? याद रखें कि संत के वचन हमेशा सत्य होते हैं, यदि उनका आशीर्वाद वास्तविकता में परिणत नहीं होता है, तो वह तथाकथित "संत" धोखेबाज है।
न कोई संत किसी पर कृपा बरसाता है और न ही कोई संत किसी को श्राप देता है। तुलसीदास जी कहते हैं
संत हृदय नवनीत समाना । कहा कविन्ह पै कह न आना ।
निज परिताप द्रवइ नवनीता । पर दुख द्रवई सुसंत पुनीता ॥
निज परिताप द्रवइ नवनीता । पर दुख द्रवई सुसंत पुनीता ॥
![Those who perform miracles to attract others are surely not saints](/uploads/1/9/8/0/19801241/published/surelyimposter_2.jpg)
"उसका हृदय मक्खन से भी अधिक कोमल होता है। क्योंकि मक्खन गर्म होने पर पिघल ता है लेकिन संत का हृदय दूसरों की पीड़ा देखकर दया से पिघल जाता है।"
ऐसा व्यक्ति शाप कैसे दे सकता है? स्वार्थी लोग शाप देते हैं, जब उनका अपना स्वार्थ पूरा नहीं होता है। भुर्ज के पेड़ के समान संत अपना सर्वस्व देकर जीव को भगवद् मार्ग में आगे चलाने को सदैव तत्पर रहते हैं (1).
2. चमत्कार दिखाना - चमत्कार दिखाकर लोगों को प्रभावित करने वाले भी निश्चित रूप से संत नहीं होते । इतिहास साक्षी है कि सूरदास, तुलसीदास, नानक, तुकाराम, चैतन्य महाप्रभु आदि संतों ने लोगों को प्रभावित करने के लिए कभी चमत्कार नहीं दिखाया । यदि उन्होंने कभी कोई चमत्कार किया, तो वह चमत्कार केवल अपने प्रिय भक्तों को बचाने के लिए था। लेकिन धोखेबाज जनता को ठगने के लिए जानबूझकर चमत्कार दिखाते हैं। उन सभी चमत्कारों के पीछे का लक्ष्य कुछ स्वार्थी मकसद होता है । यह भगवान में भक्ति या रुचि को नहीं दर्शाता है ।
ऐसा व्यक्ति शाप कैसे दे सकता है? स्वार्थी लोग शाप देते हैं, जब उनका अपना स्वार्थ पूरा नहीं होता है। भुर्ज के पेड़ के समान संत अपना सर्वस्व देकर जीव को भगवद् मार्ग में आगे चलाने को सदैव तत्पर रहते हैं (1).
2. चमत्कार दिखाना - चमत्कार दिखाकर लोगों को प्रभावित करने वाले भी निश्चित रूप से संत नहीं होते । इतिहास साक्षी है कि सूरदास, तुलसीदास, नानक, तुकाराम, चैतन्य महाप्रभु आदि संतों ने लोगों को प्रभावित करने के लिए कभी चमत्कार नहीं दिखाया । यदि उन्होंने कभी कोई चमत्कार किया, तो वह चमत्कार केवल अपने प्रिय भक्तों को बचाने के लिए था। लेकिन धोखेबाज जनता को ठगने के लिए जानबूझकर चमत्कार दिखाते हैं। उन सभी चमत्कारों के पीछे का लक्ष्य कुछ स्वार्थी मकसद होता है । यह भगवान में भक्ति या रुचि को नहीं दर्शाता है ।
![Saints do not initiate disciples by giving a mantra in the ear](/uploads/1/9/8/0/19801241/published/initationisdonebyimposter_2.jpg)
3. दीक्षा देना - यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि एक वास्तविक संत दीक्षा देने के बारे में सोच भी नहीं सकता जब तक कि उस जीव का अंतःकरण पूर्णतः शुद्ध न हो जाए।
क्यों? क्योंकि कान में दीक्षा या मंत्र देने का अर्थ है उसमें दैवीय शक्ति का संचार करना । दैवीय शक्ति केवल दैवीय इंद्रिय, मन और बुद्धि में ही दी जा सकती है। एक पल के लिए सोचें - सामान्य प्राणी के शरीर से बिजली गुजर जाये तो वह सहन नहीं कर पाता । फिर ऐसे भौतिक मन और शरीर में असीमित दिव्य शक्ति को सहन करने की शक्ति कैसे हो सकती है।
यह जानते हुए संत ऐसी शक्ति मायिक अंतः करण में क्यों प्रदान करेगा?
क्यों? क्योंकि कान में दीक्षा या मंत्र देने का अर्थ है उसमें दैवीय शक्ति का संचार करना । दैवीय शक्ति केवल दैवीय इंद्रिय, मन और बुद्धि में ही दी जा सकती है। एक पल के लिए सोचें - सामान्य प्राणी के शरीर से बिजली गुजर जाये तो वह सहन नहीं कर पाता । फिर ऐसे भौतिक मन और शरीर में असीमित दिव्य शक्ति को सहन करने की शक्ति कैसे हो सकती है।
यह जानते हुए संत ऐसी शक्ति मायिक अंतः करण में क्यों प्रदान करेगा?
अब हम उन पक्के प्रमाण की चर्चा करेंगे जो सच्चे संतों में ही मिलते हैं
भागवत में कहा गया है कि
भागवत में कहा गया है कि
बुधो बालवत् क्रीडेत् कुशलो जड़वच्चरेत् । वदेदुन्मत्तद् विद्वान् गोचर्यां नैहमश्चरेत् ॥
भा ११.२८.२
1. पूर्ण ज्ञान होने के बावजूद संत बालक की तरह सरल और छल कपट रहित होते हैं । वे प्रशंसा और निंदा दोनों में समान स्थिति में रहते हैं ।
2. सभी विद्याओं में पारंगत होने के बावजूद भी वे पागल का रूप धारण कर सकते हैं ।
3. सर्वज्ञ होते हुए भी वे अल्पज्ञता का व्यवहार कर सकते हैं । भागवत कहते हैं-
2. सभी विद्याओं में पारंगत होने के बावजूद भी वे पागल का रूप धारण कर सकते हैं ।
3. सर्वज्ञ होते हुए भी वे अल्पज्ञता का व्यवहार कर सकते हैं । भागवत कहते हैं-
क्वचिद् रुदत्यचुतचिंतया क्वचिद्धसंति नंदंति वदन्त्यलौकिकाः ।
नृत्यन्ति गायन्त्यनिशीलन्त्यजन् भवंति तूष्णीं परमेत्य निर्वृताः ॥
नृत्यन्ति गायन्त्यनिशीलन्त्यजन् भवंति तूष्णीं परमेत्य निर्वृताः ॥
भा ११.३.३२
"प्रेम रस मदिरा में छके हुये कभी वे परमानंद में रोते हैं, कभी हंसते रहते हैं और कभी कुछ अस्पष्ट बात करते हैं और अति प्रसन्न होते हैं। कभी वे संसार से बेसुध नाचते और गाते हैं और कभी वे मौन हो जाते हैं।"
दिच्य शरीर में प्रकट होने वाले प्रेम के लक्षणों को अष्ट सात्त्विक भाव कहते हैं ।
जब आप ऐसे संत की संगति में रहेंगे तो उनके व्यक्तित्व और प्रेम के उन लक्षणों को देखकर आपके सांसारिक मोह धीरे-धीरे कम हो जाएंगे और ईश्वर के प्रति प्रेम बढ़ जाएगा। कभी-कभी आप दिव्य परमानंद के कुछ प्रारंभिक लक्षणों (रत्याभास) का अनुभव करेंगे। अब आप अपने आप अनुभव करेंगे कि "संसार में सुख नहीं है, मुझे भगवान को पाना है"। यदि ऐसे संत से आप कभी कुछ भौतिक वस्तु माँगें तो वे देने कि बजाय जो है उसे भी त्यागने की सलाह देंगे । क्योंकि संसारी वस्तु का नशा भगवद् मार्ग में तीव्र गति से चलने में बाधक होता है ।। दूसरे शब्दों में वह ईश्वर को प्राप्त करने के लिए आवश्यक ज्ञान प्रदान करेगा।
भले ही एक दिव्य संत की क्षमताओं का आंकलन मायाधीन जीव की क्षमता से परे है, फिर भी इन गुणों की सहायता से आँका जाता कि कौन सच्चा संत है और कौन ठग है। एक बार जब आप आश्वस्त हो जाएँ कि भ्गवद्। कृपा से आपको सच्चे संत मिल गये हैं, तो भगवान को पाने के लिए उनकी दिये ज्ञान का चिन्तन मनन करें व उनकी बताई साधना का अक्षरक्षः पालन करें।
दिच्य शरीर में प्रकट होने वाले प्रेम के लक्षणों को अष्ट सात्त्विक भाव कहते हैं ।
जब आप ऐसे संत की संगति में रहेंगे तो उनके व्यक्तित्व और प्रेम के उन लक्षणों को देखकर आपके सांसारिक मोह धीरे-धीरे कम हो जाएंगे और ईश्वर के प्रति प्रेम बढ़ जाएगा। कभी-कभी आप दिव्य परमानंद के कुछ प्रारंभिक लक्षणों (रत्याभास) का अनुभव करेंगे। अब आप अपने आप अनुभव करेंगे कि "संसार में सुख नहीं है, मुझे भगवान को पाना है"। यदि ऐसे संत से आप कभी कुछ भौतिक वस्तु माँगें तो वे देने कि बजाय जो है उसे भी त्यागने की सलाह देंगे । क्योंकि संसारी वस्तु का नशा भगवद् मार्ग में तीव्र गति से चलने में बाधक होता है ।। दूसरे शब्दों में वह ईश्वर को प्राप्त करने के लिए आवश्यक ज्ञान प्रदान करेगा।
भले ही एक दिव्य संत की क्षमताओं का आंकलन मायाधीन जीव की क्षमता से परे है, फिर भी इन गुणों की सहायता से आँका जाता कि कौन सच्चा संत है और कौन ठग है। एक बार जब आप आश्वस्त हो जाएँ कि भ्गवद्। कृपा से आपको सच्चे संत मिल गये हैं, तो भगवान को पाने के लिए उनकी दिये ज्ञान का चिन्तन मनन करें व उनकी बताई साधना का अक्षरक्षः पालन करें।
गुरू उसे करे जिसे मिले श्याम श्यामा । कान फूँकवाने ते ना बने कभु कामा ॥
श्यामा श्याम गीत ८३
जिसे अपना गुरु श्री राधा कृष्ण से मिला हो उसे चुनें। दीक्षा मंत्र मिलने से आप भगवान से नहीं जुड़ेंगे।
- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज