क्या भगवान की पूजा करनी चाहिए?
यह एक विवादास्पद प्रश्न है। काशी विद्वत परिषद के वेद-शास्त्र के 500 मूर्धन्य विद्वानों ने स्वामी श्री कृपालुजी महाराज को “जगद्गुरूत्तम” (पूर्व जगदगुरुओं से श्रेष्ठ) की उपाधि से सम्मानित किया था । यह पद प्रमाण है कि आपका सिद्धांत वेद-शास्त्र सम्मत है इसलिये मान्य है । अतः इस प्रश्न का उत्तर हम पंचम मूल जगद्गुरूत्तम स्वामी श्री कृपालुजी महाराज (जिनको भक्तगण श्री महाराज जी कह कर संबोधित करते हैं) के सिद्धांत के आधार पर देंगे ।
श्री महाराज जी का उद्घोष है कि "यदि आप भगवान के श्री चरणों से वास्तविक प्रेम करना चाहते हैं तो भगवान की पूजा कदापि न करें"।
अब एक बड़ा प्रश्न आ गया कि यदि हम भगवान की पूजा न करें तो फिर किसकी उपासना करें? यक्ष, गंधर्व, स्वर्ग के देवी-देवताओं आदि की? नहीं, कदापि नहीं । वे भी हमारे जैसे मायाबद्ध जीव हैं ,अंतर केवल इतना है कि उनके पास कुछ बड़ी (किंतु सीमित) शक्तियाँ हैं, ज्ञान है, विशेष योग्यताएँ हैं परंतु वे भी, मनुष्यों के अनुरूप मानसिक रोगों - काम, क्रोध, लोभ, मद, मात्सर्य, ईर्ष्या, द्वेष आदि - से त्रस्त हैं ।
यह एक विवादास्पद प्रश्न है। काशी विद्वत परिषद के वेद-शास्त्र के 500 मूर्धन्य विद्वानों ने स्वामी श्री कृपालुजी महाराज को “जगद्गुरूत्तम” (पूर्व जगदगुरुओं से श्रेष्ठ) की उपाधि से सम्मानित किया था । यह पद प्रमाण है कि आपका सिद्धांत वेद-शास्त्र सम्मत है इसलिये मान्य है । अतः इस प्रश्न का उत्तर हम पंचम मूल जगद्गुरूत्तम स्वामी श्री कृपालुजी महाराज (जिनको भक्तगण श्री महाराज जी कह कर संबोधित करते हैं) के सिद्धांत के आधार पर देंगे ।
श्री महाराज जी का उद्घोष है कि "यदि आप भगवान के श्री चरणों से वास्तविक प्रेम करना चाहते हैं तो भगवान की पूजा कदापि न करें"।
अब एक बड़ा प्रश्न आ गया कि यदि हम भगवान की पूजा न करें तो फिर किसकी उपासना करें? यक्ष, गंधर्व, स्वर्ग के देवी-देवताओं आदि की? नहीं, कदापि नहीं । वे भी हमारे जैसे मायाबद्ध जीव हैं ,अंतर केवल इतना है कि उनके पास कुछ बड़ी (किंतु सीमित) शक्तियाँ हैं, ज्ञान है, विशेष योग्यताएँ हैं परंतु वे भी, मनुष्यों के अनुरूप मानसिक रोगों - काम, क्रोध, लोभ, मद, मात्सर्य, ईर्ष्या, द्वेष आदि - से त्रस्त हैं ।
अब तो इससे बड़ा एक और प्रश्न खड़ा हो गया । भगवान और देवी-देवताओं के अलावा केवल दो तत्व बचे - मनुष्य और राक्षस । यदि हम भगवान की और देवी-देवताओं की पूजा न करें तो क्या मनुष्यों या राक्षसों की पूजा करें ? नहीं, कदापि नहीं?
श्री महाराज जी के मतानुसार श्री कृष्ण के चरण कमलों की उपासना करनी चाहिए । यह तो पूर्णतया भ्रमात्मक सिद्धांत है । सर्वविदित है कि श्री कृष्ण भगवान हैं परंतु यहाँ कहा जा रहा है कि श्री कृष्ण की उपासना करो भगवान की उपासना न करो । इस विरोधाभास से तो अब हमारी बुद्धि खिन्न हो गई ।
आइए इसका निवारण हम सिद्धांत से करते हैं। गॉड को संस्कृत में भगवान कहते हैं जो दो शब्दों से मिलकर बना है -
श्री महाराज जी ने भगवान श्री कृष्ण के इन छ: ऐश्वर्यों का विस्तार पूर्वक वर्णन किया है फिर भी आपने भगवान श्री कृष्ण की उपासना के लिए मना किया है। आपके अनुसार साधक को श्री कृष्ण से प्रेम करने हेतु अंतरंग संबंध स्थापित करना होगा । यह बात विचारणीय है कि वे भगवान श्री कृष्ण को छोड़ने की बात नहीं कर रहे हैं । वरन् श्री कृष्ण की उपासना प्रेम पूर्वक करने को उत्साहित कर रहे हैं । अर्थात श्री कृष्ण की भगवत्ता भूल कर श्री कृष्ण से प्रेम करिए।
श्री महाराज जी के मतानुसार श्री कृष्ण के चरण कमलों की उपासना करनी चाहिए । यह तो पूर्णतया भ्रमात्मक सिद्धांत है । सर्वविदित है कि श्री कृष्ण भगवान हैं परंतु यहाँ कहा जा रहा है कि श्री कृष्ण की उपासना करो भगवान की उपासना न करो । इस विरोधाभास से तो अब हमारी बुद्धि खिन्न हो गई ।
आइए इसका निवारण हम सिद्धांत से करते हैं। गॉड को संस्कृत में भगवान कहते हैं जो दो शब्दों से मिलकर बना है -
- भग अर्थात अनंत मात्रा के षड ऐश्वर्य और
- वान अर्थात धारण करने वाला।
श्री महाराज जी ने भगवान श्री कृष्ण के इन छ: ऐश्वर्यों का विस्तार पूर्वक वर्णन किया है फिर भी आपने भगवान श्री कृष्ण की उपासना के लिए मना किया है। आपके अनुसार साधक को श्री कृष्ण से प्रेम करने हेतु अंतरंग संबंध स्थापित करना होगा । यह बात विचारणीय है कि वे भगवान श्री कृष्ण को छोड़ने की बात नहीं कर रहे हैं । वरन् श्री कृष्ण की उपासना प्रेम पूर्वक करने को उत्साहित कर रहे हैं । अर्थात श्री कृष्ण की भगवत्ता भूल कर श्री कृष्ण से प्रेम करिए।
आइए इसको एक उदाहरण से समझते हैं -
मान लीजिए किसी राज्य का एक अत्यंत प्रभावशाली व कुशल मुख्य न्यायाधीश है तथा उस राज्य के निवासी एवं कर्मचारी उसका बहुत सम्मान करते हैं । जब वह न्यायालय में न्यायाधीश के आसन पर आसीन होता है सभी कर्मचारी उसका सम्मान करते हैं और अपना कार्य बड़ी ही कुशलता पूर्वक एवं सावधानी से करते हैं । उनको कर्म में लापरवाही करने पर न्यायाधीश के कोप का भागी होने का डर भी है । उस मुख्य न्यायाधीश के परिवार में ममतामई माँ, पत्नी, बाल-बच्चे भी हैं और कुछ मित्र हैं । यही न्यायाधीश अपने घर में परिवार के सदस्य के रूप में अपने उत्तरदायित्व का वहन करता है । यद्यपि वह अपने ऑफिस में एक अत्यंत ऊंचे पद पर स्थित अधिकारी है तथापि अपने परिवार के सदस्यों के सामने वह ऑफिस वाला व्यवहार नहीं करता अन्यथा उसके परिवार वाले अपने कर्तव्य का पालन करेंगे परंतु उसको प्रेम नहीं करेंगे ।
ठीक इसी प्रकार बहुत से साधक श्री कृष्ण भगवान के ऐश्वर्य वाले स्वरूप महाविष्णु (या परमात्मा) की उपासना करते हैं । महाविष्णु ऐश्वर्य एवं भगवत्ता के प्रतीक हैं । परमात्मा प्राणिमात्र के ह्रदय में अवस्थित हो कर उनके कर्मों का अभिलेख रखते व तदनुसार फल प्रदान करते है । यद्यपि परमात्मा इतने निकट वास करते हैं तदपि साधक उनके साथ अंतरंग संबंध स्थापित नहीं कर सकते हैं। इस प्रकार की उपासना को शांत भाव कहते हैं । रसिक संत इस भाव का तिरस्कार करते है क्योंकि इसमें आत्मीयता का लवलेश भी नहीं है । सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वेश्वर परमात्मा वाला स्वरूप साधकों में भय तथा संकोच उत्पन्न कर देता है जिससे वे औपचारिकताओं का निर्वहन ही करते हैं। जहाँ औपचारिकता हो वहाँ प्रेम में न्यूनता आ जाती है । रसिक संतो के अनुसार तो यह रस ही नहीं है । रस की अनुभूति दास्य भाव से प्रारंभ होती है , क्योंकि इस भाव में साधक भगवान की भगवत्ता को भूल जाता है ।
मान लीजिए किसी राज्य का एक अत्यंत प्रभावशाली व कुशल मुख्य न्यायाधीश है तथा उस राज्य के निवासी एवं कर्मचारी उसका बहुत सम्मान करते हैं । जब वह न्यायालय में न्यायाधीश के आसन पर आसीन होता है सभी कर्मचारी उसका सम्मान करते हैं और अपना कार्य बड़ी ही कुशलता पूर्वक एवं सावधानी से करते हैं । उनको कर्म में लापरवाही करने पर न्यायाधीश के कोप का भागी होने का डर भी है । उस मुख्य न्यायाधीश के परिवार में ममतामई माँ, पत्नी, बाल-बच्चे भी हैं और कुछ मित्र हैं । यही न्यायाधीश अपने घर में परिवार के सदस्य के रूप में अपने उत्तरदायित्व का वहन करता है । यद्यपि वह अपने ऑफिस में एक अत्यंत ऊंचे पद पर स्थित अधिकारी है तथापि अपने परिवार के सदस्यों के सामने वह ऑफिस वाला व्यवहार नहीं करता अन्यथा उसके परिवार वाले अपने कर्तव्य का पालन करेंगे परंतु उसको प्रेम नहीं करेंगे ।
ठीक इसी प्रकार बहुत से साधक श्री कृष्ण भगवान के ऐश्वर्य वाले स्वरूप महाविष्णु (या परमात्मा) की उपासना करते हैं । महाविष्णु ऐश्वर्य एवं भगवत्ता के प्रतीक हैं । परमात्मा प्राणिमात्र के ह्रदय में अवस्थित हो कर उनके कर्मों का अभिलेख रखते व तदनुसार फल प्रदान करते है । यद्यपि परमात्मा इतने निकट वास करते हैं तदपि साधक उनके साथ अंतरंग संबंध स्थापित नहीं कर सकते हैं। इस प्रकार की उपासना को शांत भाव कहते हैं । रसिक संत इस भाव का तिरस्कार करते है क्योंकि इसमें आत्मीयता का लवलेश भी नहीं है । सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वेश्वर परमात्मा वाला स्वरूप साधकों में भय तथा संकोच उत्पन्न कर देता है जिससे वे औपचारिकताओं का निर्वहन ही करते हैं। जहाँ औपचारिकता हो वहाँ प्रेम में न्यूनता आ जाती है । रसिक संतो के अनुसार तो यह रस ही नहीं है । रस की अनुभूति दास्य भाव से प्रारंभ होती है , क्योंकि इस भाव में साधक भगवान की भगवत्ता को भूल जाता है ।
इसीलिए श्री महाराज जी की सलाह है कि भूल जाओ की श्री कृष्ण भगवान हैं और चार भावों में से किसी भी भाव से उनसे प्रेम करो। इन भावों में श्री कृष्ण का सामीप्य तथा घनिष्ठता क्रमशः उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है।
हमारे वेद कहते हैं कि श्री कृष्ण रस भी हैं और रसिक भी हैं । वे अपने माधुर्य के रस का पान अपने भक्तों को कराते हैं पुनः उने भक्तों के प्रेम के रस का आस्वादन करते हैं । इस रस का वैलक्षण्य ही कुछ और होता है ।
अतः सारांश में
- दास्य भाव - वे स्वामी मैं सेवक ।
- सख्य भाव - वे मेरे सखा हैं ।
- वात्सल्य भाव - वे मेरे पुत्र और मैं माता अथवा पिता ।
- माधुर्य भाव - वे मेरे प्रियतम और मैं उनकी प्रेयसी ।
हमारे वेद कहते हैं कि श्री कृष्ण रस भी हैं और रसिक भी हैं । वे अपने माधुर्य के रस का पान अपने भक्तों को कराते हैं पुनः उने भक्तों के प्रेम के रस का आस्वादन करते हैं । इस रस का वैलक्षण्य ही कुछ और होता है ।
अतः सारांश में
हरि ते ना कभु डरना, उन्हें अपना ही मानना ॥
अतः जिसको विशिष्ट प्रेम रस मदिरा का पान करना हो उसे प्रभुत्व और उससे उत्पन्न भय, ऐश्वर्य, संकोच, औपचारिकता आदि का त्याग कर श्री कृष्ण से घनिष्ठ संबंध स्थापित कर गोपियों जैसे प्रेम भाव में विभोर रहने का अभ्यास करना होगा ।