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A DIVINE MESSAGE                 
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2023 जगद्गुरुत्तम दिवस

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सार गर्भित सिद्धान्त
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भक्ति ही भगवान् के सन्मुख कराती है

कर्म, ज्ञान और भक्ति में से कौन सा मार्ग जीव को परमात्मा तक ले जा सकता है?
कृपालु लीलामृतम्
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मुझे कितना शणागत होना होगा?

जानें कब भगवान् जीव का पूर्ण योगक्षेम वहन करेंगे ।
कहानी
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"सर्व समर्पण​" का परिणाम "सब कुछ प्राप्त करना" है

एक सिक्ख की कहानी - उन्होंने सब कुछ कैसे प्राप्त किया।
सार गर्भित सिद्धान्त
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भक्ति ही भगवान् के सन्मुख कराती है

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प्रत्येक जीव प्रतिक्षण अपना ही आनंद चाहता है और प्रतिक्षण उसी आनंद को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील  है तथापि अनेक प्रयत्नों के पश्चात भी अद्यावधि चिरकाल के लिए अनंत मात्रा का सुख नहीं मिला । फिर भी आप निराश नहीं हुए । वह आनंद की खोज अनवरत जारी है । संभवतः आपके मन में यह विचार आया हो कि सांसारिक संपत्ति से सुख मिलने की स्कीम तो अनेक बार बनाई परंतु आनंद नहीं मिला। क्या इसके अतिरिक्त भी कोई और मार्ग है ? जगद्गुरूत्तम स्वामी श्री कृपालु जी कहते हैं  वेद शास्त्र अनंत आनंद पाने का मार्ग बताते हैं ।

वेद शास्त्र के अनुसार जीव का परम चरम लक्ष्य परमानंद की प्राप्ति है । और उस आनंद को पाने के लिए वेद शास्त्र में तीन मार्ग लिखे हैं । कर्म, ज्ञान तथा भक्ति ।  इन तीनों को कसौटी पर कस के देख लेते हैं कि कौन सा मार्ग आनंद प्रदान करने में सक्षम है ।

सही मार्ग के मूल्यांकन की प्रथम कसौटी ‘अन्वय’ है। ‘अन्वय’ शब्द का अर्थ है, "इस माध्यम से लक्ष्य प्राप्त किया जा सके"।

सर्वप्रथम, चलिए हम कर्म मार्ग को इस कसौटी पर कस कर निर्णय करते हैं।

​वैदिक कर्मकांड के समस्त नियमों का अक्षरक्षः पालन करने से स्वर्ग की प्राप्ति होगी। जीव निश्चित काल तक वहाँ के ऐश्वर्य का भोग करने के पश्चात पुनः निम्न योनियों में पटक दिया जाता है।
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और स्वर्ग का भोग विलास करते समय भी वहाँ के जीव को मानसिक रोग (जैसे काम, क्रोध, लोभ,मोह आदि) त्रस्त करते हैं। आपको वह कथा याद होगी जब राजा दिलीप अपना 100वाँ अश्वमेध यज्ञ कर रहे थे। 100 अश्वमेध यज्ञ के सफल समापन से स्वर्ग का राजा बनने का अधिकारी हो जाता है । उस समय, स्वर्ग के राजा, इंद्र ने सोचा कि दिलीप स्वर्ग का राजा बनना चाहता है और मेरा पद हड़पना चाहता है। अतः राजा दिलीप से ईर्ष्या और भय के कारण यज्ञ में विघ्न डालने हेतु इंद्र ने अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा चुरा लिया।

इसी तरह, जब​ 5 वर्षीय ध्रुव को भगवान की उपासना करते देख इंद्र को चिंता हुई  कि कहीं ये स्वर्ग का राज्य न माँग ले। ध्रुव की तपस्या भंग करने के लिए उसने अप्सराएँ भेजीं । जब स्वर्ग के राजा की काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष के कारण ऐसी दयनीय दशा है तो वहाँ की प्रजा का सोचिए क्या हाल होगा?

​अतः
कर्म से अनंत आनंद की प्राप्ति नहीं हो रही है । 
वेद कहता है -
इष्टापूर्तं मन्यमाना वरिष्ठं, नान्यच्छ्रेयो वेदयन्ते प्रमूढाः।  
नाकस्य पृष्ठे ते सुकृतेनुभूत्वेमं, लोकं हीनतरं वा विशन्ति॥
 
"कर्म धर्म का पालन करने वाले मूर्ख ही नहीं वरन् महामूर्ख हैं, क्योंकि इतनी मेहनत करने के बाद वे थोड़े समय के लिए स्वर्ग के ऐश्वर्य को प्राप्त करते हैं, जिसके पश्चात जीव निम्न योनियों में पटक दिए जाते हैं"।
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और कर्म का फल भोगते समय भी जीव अतृप्त अपूर्ण  रहता है । आनंद प्राप्त करने का लक्ष्य कर्म से प्राप्त नहीं किया जा सकता क्योंकि कर्म लक्ष्य देने से पहले जीव को त्याग देता है। तो कर्म इस कसौटी पर खरा नहीं उतरा।

आइए अब ज्ञान को इस कसौटी पर परखें  ।

ज्ञान मार्ग की अंतिम गति आत्मज्ञान है (ब्रह्म ज्ञान नहीं है) । जब तक जीव ब्रह्म को प्राप्त नहीं करता तब तक उसकी माया निवृत्ति ही नहीं होगी तो आनंद प्राप्ति का तो सवाल ही नहीं है । आप कह सकते हैं कि ज्ञानयोग से तो मुक्ति प्राप्त होती है ।  ज्ञान में भक्ति का मिश्रण कर दिया जाए तो ही वह ज्ञान योग कहलायेगा। हाँ, ज्ञान योग से मुक्ति हो सकती है। लेकिन ज्ञान से  यह अज्ञान नष्ट हो जाएगा कि "मैं देह हूँ" । आत्मज्ञान अर्थात "मैं आत्मा हूँ" हो जाएगा । इस सोपान के आगे ज्ञान की गति नहीं है । भगवान् के  निराकार रूप की प्राप्ति  ज्ञान नहीं करा सकता । ब्रह्म ज्ञान न होने के कारण माया निवृत्ति ही नहीं होगी तो आनंद प्राप्ति का तो सपना भी नहीं देखा जा सकता ।

​भगवान् श्री कृष्ण
ने गीता में कहा है -
ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते। एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतो मुखम् ॥
​
गीता ९. १५
अर्थात् “चाहे कोई निराकार ब्रह्म की भक्ति करता हुआ ज्ञान मार्ग अपनावे या कोई अन्य मार्ग, उसे मेरी भक्ति तो करनी ही पड़ेगी”।
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 क्योंकि -
भक्त्यात्मामभिजानाति यावान् यश्चास्मि तत्वतः। ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ॥ 
​गीता १८.५५
“भक्ति द्वारा ही मेरी अनंत महिमा का पूर्ण ज्ञान संभव है। तत्पश्चात् ही वह एकत्व मुक्ति प्राप्त करता है।” अतः ज्ञान मार्ग भी इस कसौटी पर खरा नहीं उतरता।

सारे धर्म ग्रंथों में भरा पड़ा है की भक्ति से ‘ही’ भगवान् मिलते हैं ।

श्री कृष्ण ने यह भेद अर्जुन के सामने गीता में खोला
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन । ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप ॥
गीता 11.54॥​
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“भक्ति से ही मुझे जाना या देखा जा सकता है । भक्ति से ही मुझ में लीन हुआ जा सकता है ।”

उन्होंने ये नहीं कहा कि ज्ञान या
कर्म से’ कोई मुझे देख सकता है, मुझे जान सकता है !

अतः तीनों मार्गों में से केवल भक्ति मार्ग ही इस कसौटी पर खरी उतरती है । भक्ति ही जीव को भगवान् से मिला सकती है।

ऊपर​
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(1) दैहिक-ताप
(2) Example of Detachment
(3) आत्म ज्ञान बनाम ब्रह्म ज्ञान
​कृपालु लीलामृतम्
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मुझे कितना शर​णागत होना होगा?

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जिस डाल में जितनी लोच होती है उतना ही उसको लचकाया जाता है। ऐसे ही लचीले भक्त महाबनी जी थे। वे श्री महाराज जी के पूर्ण शरणागत थे। इसका अंदाज़ा आपको इस बात से लग सकता है कि आजीवन उन्होंने अपने बुढ़ापे अथवा अपने परिवार के लिए एक कौड़ी भी जमा करके नहीं रखी। 14 साल तक श्री महाराज जी महाबनी जी के आवास में उनके साथ परिवार के सदस्य की भांति रहे। 
 
प्रतापगढ़ के राजा महाबनी जी के दोस्त थे। आजीवन महाबनी जी उसी राजा की एक कोठी में, जिसे पीली कोठी कहते थे, किराए पर रहते थे। वहीं पर सुबह-दोपहर-शाम-रात कीर्तन होता था। अनेकानेक भक्त भोजन करने के पश्चात कीर्तन का लाभ लेते थे। महाबनी जी अपनी फूड इंस्पेक्टर की पूरी आमदनी भक्तों की सेवा में खर्च कर देते थे। और आवश्यकता पड़ने पर रिटायरमेंट फंड से भी पैसा निकाल कर भक्तों की सेवा करते थे। 

उनके ऑफिस वाले उनकी खिल्ली भी उड़ाते थे कि “महाबनी जी का तो दिमाग खराब हो गया है। महाराज जी के चक्कर में पूरे फंस गए हैं। बेटी की शादी के नाम पर रिटायरमेंट फंड से पैसा निकाल लेते हैं और आज तक एक भी बेटी की शादी का निमंत्रण हमें नहीं मिला”। इत्यादि इत्यादि। परंतु महाबनी जी अपनी धुन के पक्के थे। अंत काल तक श्री महाराज जी की तथा उनके भक्तों की सेवा में पूर्णतया अनुरक्त रहे। 

1959 में उनकी मृत्यु का समाचार पाने पर श्री महाराज जी के शब्द थे “आज प्रतापगढ़ विधवा हो गया”।  उन महाबनी जी के पश्चात उनके परिवार के पास जीविका चलाने का कोई साधन नहीं था। उनकी चारों पुत्रियाँ अविवाहिता थीं तथा नौकरी भी नहीं करती थीं। पुत्र की भी नौकरी नहीं लगी थी और रिटायरमेंट फंड में पाई भी नहीं थी। महाबनी जी की मित्रता के कारण राजा साहब ₹5000 में वह कोठी महाबनी परिवार को बेचने को तैयार हो गए परंतु महाबनी परिवार के पास ₹5000 भी न थे ।  अतः पूरा परिवार महाबनी जी के छोटे भाई के साथ रहने के लिए लखनऊ चला गया।

कालांतर में महाबनी जी के पुत्र की नौकरी लग गई। नौकरी लगने की खबर जब श्री महाराज जी को पता चली तब श्री महाराज जी ने राहत की सांस ली और श्री महाराज जी के शब्द थे “चलो आज गंगा नहा लिया।  महाबनी ॠण से बरी हो गया”। महाबनी जी के पूरे परिवार की देखरेख आजीवन श्री महाराज जी ने की। महाबनी जी की पत्नी आजीवन मनगढ़ में रहीं। एक बेटी डिग्री कॉलेज में लेक्चरर हो गई और दो बेटियों को प्रचारिका बना कर श्री महाराज जी ने अपनी सेवा करने का शुभ अवसर प्रदान किया। और एक बाबा जी बन कर ब्रज वास करती थीं। 

महाबनी जी ने अपना सब कुछ श्री महाराज जी को समर्पित कर दिया अतः श्री महाराज जी ने भी उनकी जिम्मेदारियों का मरणोपरांत भी पूर्ण योगक्षेम वहन किया। (1)
mercedes
दस रुपये में मर्सिडीज़ गाड़ी नहीं आती । यदि आपकी कामना है कि भगवान् आपका पूर्ण योगक्षेम वहन करें तो आपको भी पूर्ण शरणागत होना होगा ।

दस रुपये में मर्सिडीज़ गाड़ी नहीं आती । यदि आपकी कामना है कि भगवान् आपका पूर्ण योगक्षेम वहन करें तो आपको भी पूर्ण शरणागत होना होगा ।


आपके अंतःकरण में जितनी संसारी जिम्मेदारियों और उपलब्धियों की कीमत होगी भगवान् की कीमत उतनी ही कम होगी । अतः आप भले ही सोचा करें कि हम 100% शरणागत हैं भगवान् आपका पूर्ण योगक्षेम वहन नहीं करेंगे ।

लोग पूछते हैं शरणागति क्या होती है । संभवतः इस सत्यकथा से आपको पूर्ण शरणागति की प्रैक्टिकल झलक मिल ग​ई होगी । अपने बुढ़ापे की, रिटायरमेंट की, बच्चों की पढ़ाई की, इत्यादि अनेक जिम्मेदारियों का भारी बोझा अपने आप ढोते रहने से भगवान् योगक्षेम वहन नहीं करेंगे । जब भगवान् को अपना लक्ष्य बना कर अपने समस्त साधनों का उपयोग उसी लक्ष्य के लिए करेंगे तब भगवान् आपकी शरणागति के अनुसार आपका योगक्षेम वहन करेंगे । जितना जितना आप उनके शरणागत होते जाएंगे  उतना-उतना स्वयं भगवान् आपका योगक्षेम वहन करते जाएंगे। आपको कभी मांगने की आवश्यकता नहीं होगी । 

जब तक आप अपना सब कुछ और अपने आप को भी समर्पण न करेंगे तब तक हरि गुरु आपका पूर्ण योगक्षेम वहन नहीं करेंगे । यह भगवान् का अकाट्य नियम है चाहे उसको आज मान लीजिए चाहे अनंत जन्म न मानिए और 84 लाख​ योनियों में चक्कर लगाइये । भगवान् ने प्रत्येक जीव को अपने लक्ष्य को निर्धारित करने की छूट दी है। 

हो सकता है आपको महाबनी जी की शरणागति का स्तर दूर के ढोल के समान अलभ्य​ प्रतीत हो रहा हो, वहाँ तक पहुँचने का मार्ग भी न दिख रहा हो । हो सकता है घर में शांति बनाए रखने के लिए आपको अपनी इच्छाओं को मारना  पड़ता हो । फिर भी यदि आप शरणागति के इस स्तर पर पहुँचना चाहते हो तो श्री महाराज जी  के निर्देश के अनुसार  दैनिक साधना शुरू करें । इसे लगातार, नियम पूर्वक और लगन से करें । गुरु की कृपा से आप भक्ति मार्ग में प्रगति करने लगेंगे । शनैः-शनैः भक्ति दुखों को काटती जाएगी और शुभ वस्तुएँ प्रदान करती जाएगी । रत्नाकर जैसे डाकू ने उसी जन्म में भगवत्प्राप्ति कर ली, आप भी कर सकते हैं बस एक बार प्रण कर लीजिए कि ऐसा करना ही है । भगवान् भुज फैलाए आपका योगक्षेम वहन करने के लिए प्रतीक्षा कर रहे हैं ।

कहावत है - ‘समझदार को इशारा काफी है ।’ 
ऊपर​
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(2) Power of Faith
(3) Sadhana Instructions
गुरु कौन है​
कहानी

“सर्व समर्पण" का परिणाम "सब कुछ प्राप्त करना है”

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सिक्खों के तीसरे गुरु, गुरु अमर दास जी ने गोइंदवाल में कुछ जमीन खरीदी और सन् 1559 में एक बावली (उतरती हुई सीढ़ियों वाला एक कुआं) की नींव रखी। सभी सिक्ख बावली खोदने की कार सेवा में जुट गए । बावली के निर्माण कठिन कार्य था क्योंकि जल स्तर बहुत नीचा था । बहुत गहरा गड्ढा खोदने पर उन्हें पत्थर की चट्टान मिली । जल चट्टान के ठीक नीचे था। सब निराश हुए ।

गुरु ने सिक्खों से पूछा कि क्या कोई है जो इस चट्टान को फोड़ने का साहस करेगा? साथ ही आगाह किया कि ये काम करने में बड़ा खतरा है क्योंकि यदि चट्टान को फोड़ने वाला पानी की तेज़ धार​ को नहीं रोक सका तो वह डूब सकता है। आज्ञा पालन के लिये ऐसा जोखिम उठाने को तत्पर नहीं था । अंत में माणिक चंद​ ने ये सेवा ली। वे वैरोवाल के थे तथा उनकी शादी गुरु जी की भतीजी से हुई थी ।
​
माणिक चंद, भगवान के नाम लेते हुए और गुरु कृपा का आश्रय लेकर चट्टान को फोड़ने में सफल हो गए। जैसा सोचा था, पानी की तीव्र​ धार तुरंत बावली में बह निकली। पानी के तेज बहाव में वो बहकर डूब गए। लेकिन, गुरु कृपा से, उनका शरीर पानी के ऊपर तैर​ आया जहाँ से उन्हें सिक्खों ने निकाला। फिर उन्हें गुरु अमर दास जी ने फिर से जीवित कर दिया। इसलिए, उन्हें 'मरजिवरा' (मृत्यु के बाद पुनर्जीवित) कहा जाता था ।

जब बावली बन गई, तो पीने का ताज़ा पानी मिला। सिक्ख अपनी मेहनत की सफलता पर आनन्दित हुए। लेकिन सबसे अधिक आनंदित तो 'मरजिवरा ' थे, जिन्होंने अपने गुरु के आदेश का पालन करके चिर काल के लिये​ अनंत आनंद पा लिया था ​।  
​
आगे चलकर माणिक चंद की अनुकरणीय सेवा भावना, निःस्वार्थ भक्ति और बिना किंतु परंतु लगाय गुरु की प्रत्येक​​ आज्ञा के पालन​ के कारण, गुरु अमर दास ने उनको अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया और उनको नया नाम दिया "राम दास" ।

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