भक्ति आनंद में उन्मत्त कर देती है |
क्लेशघ्नी शुभदा मोक्षलघुताकृत् सुदुर्लभा। सान्द्रानन्दविशेषात्मा श्रीकृष्णाकर्षिणी च सा ॥
भक्तिरसामृतसिंधु
अभी तक हमने यही चर्चा की -
- भक्ति धीरे-धीरे दुख का क्षय कर देती है। (क्लेशघ्नी) [1]
- भक्ति शुभ प्रदान करती है। (शुभदा) [2]
- भक्ति मुक्ति के आनंद को नगण्य बना देती है। (मोक्षलघुताकृत्) [3]
- भक्ति अत्यंत दुर्लभ है। (सुदुर्लभा) [4]
जैसा कि पिछले अंक में बताया गया, यद्यपि भक्ति प्राप्य है, तथापि इसे प्राप्त करना अत्यंत कठिन है[4]। तो फिर इसे पाने के लिए अत्यंत कठिन प्रयास क्यों करें?
आइए इस लेख में उस प्रश्न का उत्तर दें। भक्ति का पाँचवा लक्षण है सान्द्रानन्दविशेषात्मा। जिसका शाब्दिक अर्थ है "परमानंद"। भक्ति वास्तव में असीमित अद्वितीय आनंद है। हरिभक्तिसुधोदय में संकेत किया गया है - त्वत्साक्षात्करणाह्लादविशुद्धाब्धिस्थितस्य मे । ते ब्राह्माण्यपि जगद्गुरो ॥
हरिभक्तिसुधोदय
“हे विश्व के स्वामी! अब मैं तुममें निवास करता हूँ। तुम दिव्य परमानंद के अथाह सागर हो। अतः मुझे ब्रह्मानन्द गाय के खुर से बने गड्ढे में भरे जल के समान तुच्छ लगता है।”
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इसका अर्थ यह है कि यद्यपि भक्ति का आनंद और मुक्ति का आनंद दोनों दिव्य हैं और अनंत काल के लिए प्राप्त हो जाते हैं, फिर भी भक्ति के सौरस्य की तुलना मुक्ति की आनंद से कथमपी नहीं की जा सकती।
हम शरीर को 'मैं' मानते हैं। इसलिए हम इंद्रिय-मन-बुद्धि को सुख देने के लिए सांसारिक पदार्थों को एकत्र करने में व्यस्त रहते हैं। लेकिन कटु सच्चाई यह है कि भौतिक पदार्थ मन को केवल क्षणिक सुख देते हैं। वो आत्मा, यानि वास्तविक "मैं", को कोई आनंद नहीं दे पातीं, क्योंकि परमात्मा के अंश होने के नाते आत्मा दिव्यानंद के लिए तरसती है। भक्तिमार्गीय साधक की अपेक्षा ज्ञान मार्ग के साधक आत्मज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करता है। इस ज्ञान को प्राप्त करना अत्यंत कठिन है क्योंकि ज्ञानियों का आराध्य निराकार ब्रह्म कृपा द्वारा साधक को संभालता नहीं। अतः इस पथ पर पतन होने की सदा संभावना बनी रहती है।
हम शरीर को 'मैं' मानते हैं। इसलिए हम इंद्रिय-मन-बुद्धि को सुख देने के लिए सांसारिक पदार्थों को एकत्र करने में व्यस्त रहते हैं। लेकिन कटु सच्चाई यह है कि भौतिक पदार्थ मन को केवल क्षणिक सुख देते हैं। वो आत्मा, यानि वास्तविक "मैं", को कोई आनंद नहीं दे पातीं, क्योंकि परमात्मा के अंश होने के नाते आत्मा दिव्यानंद के लिए तरसती है। भक्तिमार्गीय साधक की अपेक्षा ज्ञान मार्ग के साधक आत्मज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करता है। इस ज्ञान को प्राप्त करना अत्यंत कठिन है क्योंकि ज्ञानियों का आराध्य निराकार ब्रह्म कृपा द्वारा साधक को संभालता नहीं। अतः इस पथ पर पतन होने की सदा संभावना बनी रहती है।

ज्ञानी को इस मार्ग पर अपने बल पर चलना पड़ता है, जबकि भक्त हर पग पर भगवान् की कृपा का आश्रय लेकर चलता है। इस सब के अंत में, ज्ञानी को यह ज्ञान हो जाता है कि मैं आत्मा हूँ। इस प्रकार के ज्ञानी जीवनमुक्त कहलाते हैं।[6] हिरण बनने से पहले जड़ भरत की यही स्थिति थी। इस अवस्था का आनंद बहुत उच्च कक्षा का होता है इसलिए आत्मज्ञान [7] प्राप्त करने के बाद इन साधकों को यह भ्रम हो जाता है कि उन्हें ब्रह्मानंद मिल गया। परंतु ऐसा नहीं है इस अवस्था से भी जड़ भरत का पतन हो गया।
कृपया ध्यान दें कि इस अवस्था को प्राप्त करना अत्यंत दुष्कर है।
कृपया ध्यान दें कि इस अवस्था को प्राप्त करना अत्यंत दुष्कर है।
होइ घुणाक्षर न्याय तो पुनि प्रत्यूह अनेक
घुन एक कीट है जिसका आहार अन्न होता है। कृपया ध्यान दें कि घुन की अत्यंत ही लघु बुद्धि होती है । ऐसी अल्प बुद्धि में अक्षर ज्ञान प्राप्त करना असंभव है। अक्षर ज्ञान के बिना अनाज कुतरते समय राम, श्याम आदि भगवान का नाम तराशे जाने की संभावना बहुत ही कम है। तथापि यदि कभी किसी दुर्लभ संयोग से उस घुन से भगवान के नाम कुतर जाता है, तो परम दयालु भगवान उस कीट को मुक्ति प्रदान करते हैं। इसे घुणाक्षर न्याय कहते हैं। इसी तरह, ब्रह्मानंद प्राप्त करने की संभावना अत्यधिक कम है क्योंकि रास्ते में अनगिनत बाधाएँ हैं।
निराकार ब्रह्म को प्राप्त करने के बाद, जब तक ज्ञानी मानव देह में रहता है, उसकी स्थिति को ब्रह्मभूत-अवस्था कहा जाता है। ऐसे ज्ञानी के आनंद का वर्णन गीता में किया गया है।
निराकार ब्रह्म को प्राप्त करने के बाद, जब तक ज्ञानी मानव देह में रहता है, उसकी स्थिति को ब्रह्मभूत-अवस्था कहा जाता है। ऐसे ज्ञानी के आनंद का वर्णन गीता में किया गया है।
ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति |
सम: सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् || गीता 18.54
“जो लोग ब्रह्मभूत-अवस्था की स्थिति प्राप्त कर लेते हैं, वे संसार की हानि होने पर शोक नहीं करते और न ही किसी वस्तु की लालसा करते हैं। वे सभी में ब्रह्म का अनुभव करते हैं, इसलिए वे सब प्राणियों में तथा सब वस्तुओं में सम भाव रखते हैं।
इस आनंद को ब्रह्मानंद कहा जाता है और यह असीमित और अनंत है। लेकिन वह आनंद भी सर्वोच्च कक्षा नहीं है, क्योंकि ज्ञानियों को दिव्य आनंद का आभास तो हो जाता है, लेकिन उस असीमित दिव्य आनंद के स्रोत भगवान का साक्षात्कार नहीं होता।
ब्रह्मानन्दो भवेदेष चेत् परार्द्धगुणीकृतः।
नैति भक्तिसुखाम्भोधेः परमाणुतुलामपि ॥ "करोड़ों ब्रह्मानंदियों का संयुक्त आनंद भक्ति द्वारा प्राप्त प्रेमानंद के एक परमाणु से भी कम है"।
एक बार नारद मुनि ब्रज की पावन भूमि का भ्रमण करने के लिए आए। उसके बाद वे अपनी छाती पीट कर दहाड़ मारकर विलाप करने लगे। लोगों ने उनसे इतने दु:ख का कारण पूछा। उन्होंने उत्तर दिया कि ये ज्ञानी आनंद प्राप्त करने के लिए बहुत प्रयास करते हैं लेकिन मैं उनके लिए बहुत दुखी हूँ। वे कभी भी भक्ति के उस आनंद का आस्वादन नहीं कर सकते जो इन ब्रजवासियों को प्राप्त है। |
ब्रह्मलीन ज्ञानी को शरीर छोड़ने के बाद मुक्त ज्ञानी कहा जाता है।
एक प्रश्न उठता है - जिन लोगों को ब्रह्मानंद की प्राप्ति हो गई है, क्या उनको भक्ति साधना करने से भक्ति का आनंद प्राप्त हो सकता है? गीता कहती है -
एक प्रश्न उठता है - जिन लोगों को ब्रह्मानंद की प्राप्ति हो गई है, क्या उनको भक्ति साधना करने से भक्ति का आनंद प्राप्त हो सकता है? गीता कहती है -
मुक्तानामपि सिद्धानां नारायणपरायण: । सुदुर्लभ: प्रशान्तात्मा कोटिष्वपि महामुने ॥
भा 6.14.5
“भले ही ये मुक्त ज्ञानी मुक्ति पाने के बाद भक्ति करें, फिर भी भक्ति उनके लिए अप्राप्य है। करोड़ों मुक्त ज्ञानियों में से कोई विरला ही भक्त होता है।“ यदि किसी जीव का भक्ति संबंधी भावदेह परिपक्व हो गया, तत्पश्चात् ज्ञान मार्ग में चला गया, तो ऐसे जीव को कुछ सीमा तक भक्ति का आनंद प्राप्त हो सकता है।
इस उत्त्मोत्तम अवर्णनीय रस का अनुभव करने के लिए ही जीव को श्री कृष्ण के निःस्वार्थ प्रेम [8] को प्राप्त करना होगा। श्री कृष्ण का प्रेम प्राप्त करने के लिए कर्म ज्ञान आदि से अनाछ्न्न श्री कृष्ण भक्ति करनी होगी [9]। इस सर्वश्रेष्ठ रस की प्राप्ति अन्य किसी भी मार्ग से अप्राप्य है।
इस उत्त्मोत्तम अवर्णनीय रस का अनुभव करने के लिए ही जीव को श्री कृष्ण के निःस्वार्थ प्रेम [8] को प्राप्त करना होगा। श्री कृष्ण का प्रेम प्राप्त करने के लिए कर्म ज्ञान आदि से अनाछ्न्न श्री कृष्ण भक्ति करनी होगी [9]। इस सर्वश्रेष्ठ रस की प्राप्ति अन्य किसी भी मार्ग से अप्राप्य है।
तेरी छवि ज्ञानियों के गोविंद राधे | मरे हुए मन को भी फिर ते जिला दे ||
राधा गोविंद गीत 165
इन्द्रिय मन बुद्धि से रहित आत्मा निर्विशेष ब्रह्म में विलीन हो जाता है । अंतःकरण के अभाव में ज्ञानी राग या द्वेष से मुक्त हो जाता है। परन्तु आपके अनिर्वचनीय दिव्य रूप को देखकर उनका मरा हुआ मन द्वैत माधुरी का पान करने हेतु पुनः जीवित हो उठता है ।
- जगद्गुरूत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज
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