शरीर को चैतन्यता प्रदान करने वाले चेतन तत्व को आत्मा या जीव कहते हैं। मायिक जगत में जितने भी जीवित प्राणी हैं, वे इसी श्रेणी में आते हैं । जीव शब्द के अन्य पर्यायवाची आत्मा व चित् हैं ।
जीव संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है “जीवन प्रदान करने वाला” । अतः जो स्वयं जीवित रहे और जिस शरीर में रहे उसे भी जीवित रखे उसे जीव कहते हैं। जीव के जीवत्व की अभिव्यक्ति संपूर्ण चराचर जगत में परिलक्षित होती है यथा मनुष्यों, पशु, पक्षियों, पेड़ों इत्यादि में।
जीव संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है “जीवन प्रदान करने वाला” । अतः जो स्वयं जीवित रहे और जिस शरीर में रहे उसे भी जीवित रखे उसे जीव कहते हैं। जीव के जीवत्व की अभिव्यक्ति संपूर्ण चराचर जगत में परिलक्षित होती है यथा मनुष्यों, पशु, पक्षियों, पेड़ों इत्यादि में।
हमारा स्थूल शरीर पंचमहाभूत अर्थात पाँच तत्वों यथा आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी से बना है। इसीलिये इन तत्वों के में से यदि मात्र एक तत्व का अभाव हो जाय तो शरीर रोगी हो जाता है। संसार में जितने भी जड़ पदार्थ (निर्जीव वस्तु) हैं उनका निर्माण माया से हुआ है । जीव का शरीर इन्हीं पंचमहाभूत से बना होने के कारण यह भी निर्जीव ही है।
जीव जिस भी शरीर में प्रवेश करता है उस शरीर को चेतनता प्रदान करता है अतः शरीर चैतन्यवत हो जाता है। भगवान जीव को शरीर में पूर्व निर्धारित समय के लिए भेजते हैं । जब वह समय पूर्ण हो जाता है जब सूक्ष्म जीव शरीर छोड़ कर चला जाता है तब शरीर अपने यथार्थ अचेतन रूप को प्राप्त हो जाता है । अब इस शरीर को मृत, मिट्टी, माटी आदि नामों से संबोधित किया जाता है । वास्तव में हमेशा से शरीर ऐसा ही था परंतु जीव की चेतना से चैतन्यवत कर्म कर रहा था । जैसे हाथ की शक्ति प्राप्त कर के निर्जीव चिमटा अंगारे उठा लेता है। हाथ को मन चेतनता प्रदान करता है । मन को जीव चेतनता प्रदान करता है । जीव को भगवान चेतनता प्रदान करते हैं ।
भगवान स्वयं चेतन हैं । वे किसी और से शक्ति नहीं प्राप्त करते। संपूर्ण चराचर जगत में जहाँ कहीं भी चेतना दिखती है उसका मूल स्रोत भगवान हैं। अतः वेद-शास्त्रों में अनेक स्थानों पर भगवान को जीव के नाम से संबोधित किया गया है।
जीव जिस भी शरीर में प्रवेश करता है उस शरीर को चेतनता प्रदान करता है अतः शरीर चैतन्यवत हो जाता है। भगवान जीव को शरीर में पूर्व निर्धारित समय के लिए भेजते हैं । जब वह समय पूर्ण हो जाता है जब सूक्ष्म जीव शरीर छोड़ कर चला जाता है तब शरीर अपने यथार्थ अचेतन रूप को प्राप्त हो जाता है । अब इस शरीर को मृत, मिट्टी, माटी आदि नामों से संबोधित किया जाता है । वास्तव में हमेशा से शरीर ऐसा ही था परंतु जीव की चेतना से चैतन्यवत कर्म कर रहा था । जैसे हाथ की शक्ति प्राप्त कर के निर्जीव चिमटा अंगारे उठा लेता है। हाथ को मन चेतनता प्रदान करता है । मन को जीव चेतनता प्रदान करता है । जीव को भगवान चेतनता प्रदान करते हैं ।
भगवान स्वयं चेतन हैं । वे किसी और से शक्ति नहीं प्राप्त करते। संपूर्ण चराचर जगत में जहाँ कहीं भी चेतना दिखती है उसका मूल स्रोत भगवान हैं। अतः वेद-शास्त्रों में अनेक स्थानों पर भगवान को जीव के नाम से संबोधित किया गया है।
सर्व कारण कारणम् ।
भगवान की तीन प्रमुख शक्तियाँ हैं -
इस लेख में हम परात्पर-ब्रह्म की जीव शक्ति पर ही विचार करेंगे।
जीव भगवान का सनातन अंश है।अंश इसलिये क्योंकि प्रत्येक जीव भगवान की जीव-शक्ति के द्वारा प्रकट किया गया है । यहाँ अंश का अर्थ टुकड़ा है? जैसे एक कागज को फाड़ कर उसके अनेक टुकड़े कर दिये जायें ? नहीं, जीव को भगवान के एक टुकड़े के समान नहीं मानना चाहिए । कागज को टुकड़ों में बाँटने के बाद कागज का मूल अस्तित्व समाप्त हो जाता है । परंतु भगवान अखंड है । उसके टुकड़े नहीं हो सकते।
चूँकि जीव भगवान की शक्ति है और भगवान अनादि है अतः जीव भी अनादि सिद्ध हुआ। जिस प्रकार सूर्य की किरणों का अस्तित्व तब से है जब से सूर्य है और तब तक रहेंगीं जब तक सूर्य रहेगा । इसी प्रकार भगवान की सभी शक्तियाँ अनादि हैं क्योंकि भगवान अनादि है। भगवान ने अनगिनत आत्माओं को प्रकट किया फिर भी भगवान अनंत मात्रा में चेतन है और उनकी दिव्य महिमा भी अनंत है।
सभी जीव भगवान से ही प्रकट हुए हैं फिर भी भगवान अखंड है । तो जीव को भगवान का सनातन अंश क्यों माना जाता है?
जीव भगवान की शक्ति है । भगवान और उसकी समस्त शक्तियाँ अनादि हैं अतः जीव भी अनादि हैं । जिस प्रकार सूर्य की किरणें तब से हैं जब से सूर्य है उसी प्रकार भगवान की सभी शक्तियाँ तब से हैं जब से भगवान है।
भगवान ने अनगिनत आत्माओं को प्रकट किया फिर भी भगवान विभुचित हैं और उनका दिव्य ऐश्वर्य अनंत मात्रा का तथा अनंतकाल के लिये है ।
- चित् शक्ति,
- जीव शक्ति,
- माया शक्ति
इस लेख में हम परात्पर-ब्रह्म की जीव शक्ति पर ही विचार करेंगे।
जीव भगवान का सनातन अंश है।अंश इसलिये क्योंकि प्रत्येक जीव भगवान की जीव-शक्ति के द्वारा प्रकट किया गया है । यहाँ अंश का अर्थ टुकड़ा है? जैसे एक कागज को फाड़ कर उसके अनेक टुकड़े कर दिये जायें ? नहीं, जीव को भगवान के एक टुकड़े के समान नहीं मानना चाहिए । कागज को टुकड़ों में बाँटने के बाद कागज का मूल अस्तित्व समाप्त हो जाता है । परंतु भगवान अखंड है । उसके टुकड़े नहीं हो सकते।
चूँकि जीव भगवान की शक्ति है और भगवान अनादि है अतः जीव भी अनादि सिद्ध हुआ। जिस प्रकार सूर्य की किरणों का अस्तित्व तब से है जब से सूर्य है और तब तक रहेंगीं जब तक सूर्य रहेगा । इसी प्रकार भगवान की सभी शक्तियाँ अनादि हैं क्योंकि भगवान अनादि है। भगवान ने अनगिनत आत्माओं को प्रकट किया फिर भी भगवान अनंत मात्रा में चेतन है और उनकी दिव्य महिमा भी अनंत है।
सभी जीव भगवान से ही प्रकट हुए हैं फिर भी भगवान अखंड है । तो जीव को भगवान का सनातन अंश क्यों माना जाता है?
जीव भगवान की शक्ति है । भगवान और उसकी समस्त शक्तियाँ अनादि हैं अतः जीव भी अनादि हैं । जिस प्रकार सूर्य की किरणें तब से हैं जब से सूर्य है उसी प्रकार भगवान की सभी शक्तियाँ तब से हैं जब से भगवान है।
भगवान ने अनगिनत आत्माओं को प्रकट किया फिर भी भगवान विभुचित हैं और उनका दिव्य ऐश्वर्य अनंत मात्रा का तथा अनंतकाल के लिये है ।
कठोपनिषद में शरीर की उपमा रथ से दी गई है । इस रथ में 5 घोड़े इंद्रियाँ हैं, लगाम मन है, सारथी बुद्धि है तथा यात्री स्वयं जीवात्मा है । यह रथ किस लिये दिया है? जीवात्मा को परमात्मा के पास पहुँचाने के लिये दिया है । जिस प्रकार रथ में सारथी लगाम से घोड़ों को काबू में रखता है उसी प्रकार बुद्धि को मन से इंद्रियों पर काबू करके जीव को आनंदनगर ले जाना है ।
सारथी का एक उत्तरदायित्त्व है - जीव को आनंदनगर पहुँचा दे। क्योंकि जीव अकर्ता है अतः वह कोई भी दिशा निर्देश नहीं दे सकता परंतु अपने लक्ष्य को प्राप्त करने पर जीव स्वयं बता देगा। इन्द्रिय-मन-बुद्धि जीव के सनातन दास हैं । ये न तो एक दिन दास बने और न ही इस्तीफ़ा दे सकते हैं । जबतक जीव की भगवद् प्राप्ति नहीं होगी तब तक ये यूँ ही आनंद की खोज में रत रहेंगे ।
दिव्यानंद के दृष्टिकोण से जीवों के दो प्रकार होते हैं
सारथी का एक उत्तरदायित्त्व है - जीव को आनंदनगर पहुँचा दे। क्योंकि जीव अकर्ता है अतः वह कोई भी दिशा निर्देश नहीं दे सकता परंतु अपने लक्ष्य को प्राप्त करने पर जीव स्वयं बता देगा। इन्द्रिय-मन-बुद्धि जीव के सनातन दास हैं । ये न तो एक दिन दास बने और न ही इस्तीफ़ा दे सकते हैं । जबतक जीव की भगवद् प्राप्ति नहीं होगी तब तक ये यूँ ही आनंद की खोज में रत रहेंगे ।
दिव्यानंद के दृष्टिकोण से जीवों के दो प्रकार होते हैं
- मायाबद्ध जीव
- मायातीत जीव
बद्ध का तात्पर्य है जो बंधन में हो। जो जीव अनादिकाल से माया से शासित हैं वे मायाबद्ध जीव कहलाते हैं। परंतु वे सदैव मायाबद्ध रहेंगे ऐसा आवश्यक नहीं है । वे मायाबद्ध श्रेणी से उत्तीर्ण होकर मायातीत श्रेणी में जाने कि लिये स्वतंत्र हैं।
अतीत अर्थात “परे हो जाना” । जो जीव माया के शासन से मुक्त हो जाते हैं मायातीत जीव कहलाते हैं । हमारे संसार के विपरीत मायातीत जीव दिव्यधाम में रहते हैं।
नित्य सिद्ध जीव नित्य अर्थात अनादि, सिद्ध अर्थात पूर्ण । वे जीव है जो अनादिकाल से माया से अतीत हैं नित्य सिद्ध श्रेणी में आते हैं ।
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साधन सिद्ध जीव
साधन अर्थात अभ्यास, सिद्ध अर्थात पूर्ण । वे जीव जो कभी मायाबद्ध थे परंतु साधना भक्ति करके एक दिन भगवत प्राप्ति कर ली वे इस श्रेणी में आते हैं।
परिकर
परिकर को पार्षद भी कहा जाता है। वह भी जीव शक्ति का ही अंश है परंतु वे सदा से माया से अतीत हैं तथा भगवान के पार्षद हैं।
धीश अर्थात नियंत्रण करने वाला, माया को (कंट्रोल) नियंत्रित करने वाला एकमात्र परात्पर-ब्रह्म ही है । माया शक्ति के अलावा ब्रह्म के पास जीव शक्ति भी है ।
यद्यपि मायाबद्ध जीव अनादिकाल से माया के द्वारा नियंत्रित है परंतु निम्न बातों को जानकर अमल कर के तथा उसके अनुसार आचरण करने से मायातीत बन सकते हैं -
उपर्युक्त दो वाक्यों के चिंतन-मनन-निदिध्यासन से मन स्वतः ही सांसारिक विषयों से विमुख हो जायेगा साथ ही मन भगवान को पाने के लिये लालायित हो उठेगा ।
यद्यपि मायाबद्ध जीव अनादिकाल से माया के द्वारा नियंत्रित है परंतु निम्न बातों को जानकर अमल कर के तथा उसके अनुसार आचरण करने से मायातीत बन सकते हैं -
- मैं माया के पीछे क्यों पड़ा हूँ?
- मैं केवल श्री कृष्ण का ही दास हूँ।
उपर्युक्त दो वाक्यों के चिंतन-मनन-निदिध्यासन से मन स्वतः ही सांसारिक विषयों से विमुख हो जायेगा साथ ही मन भगवान को पाने के लिये लालायित हो उठेगा ।
ठीक इसी प्रकार हम भगवान का अंश अवश्य हैं साथ ही क्योंकि हममें माया के गुण भी समाहित हैं, अतः हमको भगवान नहीं कहा जा सकता । नदी का किनारा यद्यपि धरती का अंश है तथापि नदी के गीलेपन से युक्त होता है । ठीक इसी प्रकार माया के सन्मुख होने के कारण हमारे अंदर माया के गुण स्वतः आ जाते हैं और मायिक पदार्थ ही हमें आकृष्ट करते हैं । हम अपने मूल स्वरूप को तथा आनंद के स्रोत को भूले हुए हैं इसी कारण हम अज्ञानी हैं तथा इसी अज्ञान के कारण दुख भोग रहे हैं।
आत्मा परमात्मा का अंश है अतः दोनों में भेदाभेद संबंध है । यद्यपि आत्मा व परमात्मा दोनों चेतन तथापि परमात्मा में अनंत मात्रा की चेतना, अनंत मात्रा का ज्ञान, तथा अनंत मात्रा का आनंद है । जीव एक शरीर में व्याप्त है, उसकी ज्ञान शक्ति भी सीमित है और आनंद तो है ही नहीं । अतः इसे तटस्था शक्ति भी कहा जाता है। संस्कृत शब्द तटस्थ दो शब्दों की संधि से बना है - “तट” का अर्थ है किनारा तथा “स्थ” जिसका अर्थ है स्थित है । अर्थात जीव शक्ति माया व भगवान की पराशक्ति के मध्यवर्तिनि शक्ति है ।
आत्मा परमात्मा का अंश है अतः दोनों में भेदाभेद संबंध है । यद्यपि आत्मा व परमात्मा दोनों चेतन तथापि परमात्मा में अनंत मात्रा की चेतना, अनंत मात्रा का ज्ञान, तथा अनंत मात्रा का आनंद है । जीव एक शरीर में व्याप्त है, उसकी ज्ञान शक्ति भी सीमित है और आनंद तो है ही नहीं । अतः इसे तटस्था शक्ति भी कहा जाता है। संस्कृत शब्द तटस्थ दो शब्दों की संधि से बना है - “तट” का अर्थ है किनारा तथा “स्थ” जिसका अर्थ है स्थित है । अर्थात जीव शक्ति माया व भगवान की पराशक्ति के मध्यवर्तिनि शक्ति है ।
और अधिक स्पष्ट करने के लिए इस उदाहरण से समझें - एक व्यक्ति नदी के किनारे बैठा हुआ है ।
अब उससे प्रश्न करें कि “आप कहाँ बैठे हैं”।
वह उत्तर देगा “मैं नदी के किनारे बैठा हूँ”
“परंतु यह क्या है नदी है या पृथ्वी”।
वह उत्तर देगा “पृथ्वी”।
“आपके पीछे क्या है?”
“पृथ्वी का बड़ा भूभाग”।
“तब आपने इसको पृथ्वी की बजाए नदी का किनारा क्यों कहा”?
तब वह उत्तर देगा कि “यहाँ पर आप बैठकर अपने हाथ धो सकते हैं, कपड़े धो सकते हैं। इसीलिए पृथ्वी के इस हिस्से के गुण बाकी के भूभाग से भिन्न हैं “।
इसी प्रकार यद्यपि जीव सनातन भगवान का सनातन अंश है तथापि माया के सन्मुख होने के कारण माया के गुणों से युक्त है । इसलिये इसको माया का अंश भी नहीं कहा जा सकता है और भगवान का अंश भी नहीं कहा जा सकता है ।
माया के सन्मुख होने के कारण जीव पर अज्ञान (माया) हावी है (1)। माया ने जीव को अपना असली स्वरूप भुला दिया तथा अपने में आसक्त करा दिया (2)। अतः जीव को दुःख का आभास होने लगा । अतः जीव की विमुखता ही जीव के दुःखों का मूल कारण है ।
ज्ञात रहे -
अब उससे प्रश्न करें कि “आप कहाँ बैठे हैं”।
वह उत्तर देगा “मैं नदी के किनारे बैठा हूँ”
“परंतु यह क्या है नदी है या पृथ्वी”।
वह उत्तर देगा “पृथ्वी”।
“आपके पीछे क्या है?”
“पृथ्वी का बड़ा भूभाग”।
“तब आपने इसको पृथ्वी की बजाए नदी का किनारा क्यों कहा”?
तब वह उत्तर देगा कि “यहाँ पर आप बैठकर अपने हाथ धो सकते हैं, कपड़े धो सकते हैं। इसीलिए पृथ्वी के इस हिस्से के गुण बाकी के भूभाग से भिन्न हैं “।
इसी प्रकार यद्यपि जीव सनातन भगवान का सनातन अंश है तथापि माया के सन्मुख होने के कारण माया के गुणों से युक्त है । इसलिये इसको माया का अंश भी नहीं कहा जा सकता है और भगवान का अंश भी नहीं कहा जा सकता है ।
माया के सन्मुख होने के कारण जीव पर अज्ञान (माया) हावी है (1)। माया ने जीव को अपना असली स्वरूप भुला दिया तथा अपने में आसक्त करा दिया (2)। अतः जीव को दुःख का आभास होने लगा । अतः जीव की विमुखता ही जीव के दुःखों का मूल कारण है ।
ज्ञात रहे -
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया । मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ।।
गीता
"माया मेरी दैवी शक्ति है क्योंकि यह मेरे द्वारा नियंत्रित है अतः इसको कोई भी जीत नहीं सकता। मैं अजेय हूँ। जो मुझे मन बुद्धि सहित पूर्ण समर्पण करता है वही मेरी कृपा से माया के बंधन से पार हो सकता है।"
जीव के शरीरेंद्रिय-मन-बुद्धि माया से निर्मित हैं अतः ये सब मायिक हैं । संकल्प-विकल्प-निर्णयादि कर्म मन-बुद्धि सम्पन्न करते हैं । सांसारिक पदार्थों के प्रति मन-बुद्धि का आकर्षण स्वाभाविक है क्योंकि दोनों सजातीय हैं (मायिक हैं) । परंतु विवेक से जब हम सांसारिक सुखों का विश्लेषण करते हैं तो यह ज्ञात होता है कि यह संसार रसहीन है। तब मन भगवान की ओर मुड़ता है । भगवान को जानने की जिज्ञासा उत्पन्न होती है । भगवान से हमारे संबंध को जानने की उत्कंठा पैदा होती है ।
भगवान हमारे पिता भी हैं तथा सुख के स्रोत भी हैं । उनके दिव्यानन्द तथा अन्य दिव्य सम्पत्तियों के हम उत्तराधिकारी हैं । परंतु अभी तक हम उन सब से वंचित हैं क्योंकि हम भगवान से विमुख और माया के सन्मुख हैं । नित्यानंद को प्राप्त करने के लिए हमें अपने मन से “भगवान ही मेरे हैं” का निरंतर चिंतन करना होगा । “उनके अतिरिक्त मेरा कोई भी नहीं है। वे ही यथार्थ आनंद भी हैं” दिल की गहराई से मानना होगा ।
दयासिंधु भगवान अपने बच्चों के प्रति इतने उदार हैं कि जैसे ही कोई इस संबंध को जानकर उन्हें अपना सर्वस्व मान लेता है तो वे तुरंत उसके पिछले सभी अपराधों को क्षमा करके उसे अपना लेते हैं। ऐसे दयालु स्वभाव वाले भगवान की कृपा का लाभ उठाना ही महत्तम बुद्धिमत्ता है ।
जीव के शरीरेंद्रिय-मन-बुद्धि माया से निर्मित हैं अतः ये सब मायिक हैं । संकल्प-विकल्प-निर्णयादि कर्म मन-बुद्धि सम्पन्न करते हैं । सांसारिक पदार्थों के प्रति मन-बुद्धि का आकर्षण स्वाभाविक है क्योंकि दोनों सजातीय हैं (मायिक हैं) । परंतु विवेक से जब हम सांसारिक सुखों का विश्लेषण करते हैं तो यह ज्ञात होता है कि यह संसार रसहीन है। तब मन भगवान की ओर मुड़ता है । भगवान को जानने की जिज्ञासा उत्पन्न होती है । भगवान से हमारे संबंध को जानने की उत्कंठा पैदा होती है ।
भगवान हमारे पिता भी हैं तथा सुख के स्रोत भी हैं । उनके दिव्यानन्द तथा अन्य दिव्य सम्पत्तियों के हम उत्तराधिकारी हैं । परंतु अभी तक हम उन सब से वंचित हैं क्योंकि हम भगवान से विमुख और माया के सन्मुख हैं । नित्यानंद को प्राप्त करने के लिए हमें अपने मन से “भगवान ही मेरे हैं” का निरंतर चिंतन करना होगा । “उनके अतिरिक्त मेरा कोई भी नहीं है। वे ही यथार्थ आनंद भी हैं” दिल की गहराई से मानना होगा ।
दयासिंधु भगवान अपने बच्चों के प्रति इतने उदार हैं कि जैसे ही कोई इस संबंध को जानकर उन्हें अपना सर्वस्व मान लेता है तो वे तुरंत उसके पिछले सभी अपराधों को क्षमा करके उसे अपना लेते हैं। ऐसे दयालु स्वभाव वाले भगवान की कृपा का लाभ उठाना ही महत्तम बुद्धिमत्ता है ।