भक्ति क्लेश भस्म करती है |
यद्यपि कोई दुखों को आमंत्रण नहीं देता, तब भी दुख बिना बुलाए आते हैं। प्रत्येक जीव ईश्वर-प्राप्ति से पहले माया के विकारों यथा पंचक्लेश, त्रिताप आदि से त्रस्त रहता है। ये दुख अनेक कारणों से आते हैं। संस्कृत में इन दुखों को क्लेश भी कहते हैं। भक्ति इन क्लेशों को भस्म कर देती है।
भक्ति का प्रारंभ साधना भक्ति से होता है। जिस क्षण से कोई निष्ठा पूर्वक साधना भक्ति करना आरंभ करता है, उसी क्षण से भक्ति क्लेशों का नाश करना शुरू कर देती है और यह प्रक्रिया ईश्वर-प्राप्ति पर समाप्त होती है। इसीलिए भक्ति को ‘क्लेशघ्नी’ कहा जाता है जिसका अर्थ है "वह जो क्लेश को जला दे"।
भक्ति रसामृत सिंधु में रूप गोस्वामी ने जीव को इन क्लेशों के 3 कारण बताये हैं -
भक्ति का प्रारंभ साधना भक्ति से होता है। जिस क्षण से कोई निष्ठा पूर्वक साधना भक्ति करना आरंभ करता है, उसी क्षण से भक्ति क्लेशों का नाश करना शुरू कर देती है और यह प्रक्रिया ईश्वर-प्राप्ति पर समाप्त होती है। इसीलिए भक्ति को ‘क्लेशघ्नी’ कहा जाता है जिसका अर्थ है "वह जो क्लेश को जला दे"।
भक्ति रसामृत सिंधु में रूप गोस्वामी ने जीव को इन क्लेशों के 3 कारण बताये हैं -
क्लेशस्तु पापं तद्बीजमविद्या चेति ते त्रिधा
भ. र. सि 1.1.18
भ. र. सि 1.1.18
- पाप
- तद्बीज - पाप का बीज
- अविद्या
आइए हम उन पर क्रमिक रूप से थोड़े विस्तार से चर्चा करें।
A. पाप
वेद प्रणित वर्णाश्रम धर्म का उल्लंघन करना पाप कर्म कहलाता है। इसे विकर्म भी कहा जाता है यथा हिंसा, मद्यपान, पशु-हत्या आदि। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि वर्णाश्रम धर्म का पालन और विकर्म दोनों ही अंततः पाप की श्रेणी में आते हैं क्योंकि दोनों को करने से जीव कर्म बंधन में और जकड़ता जाता है। अतः यह दोनों प्रकार के कर्म जीव को चौरासी लाख योनियों में भटकाते हैं।
इनके विपरीत, कर्म-योग और कर्म-सन्यास भक्ति दोनों में भक्ति का प्राधान्य है अतः ये दोनों ही कर्म बंधन को काट देते हैं।
जीव को पाप कर्म का फल भोगना पड़ता है। इन पापों को 2 श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है -
1) प्रारब्ध जन्य - भाग्य द्वारा निर्मित परिस्थितियों के कारण पाप करना, या
2) अप्रारब्ध जन्य - स्वेच्छा से किए गए पाप। आइए इनमें से इन दोनों कारण के बारे में थोड़ा और विस्तार से जानें।
(i) प्रारब्ध जन्य पाप
कुछ कष्ट ऐसे होते हैं, जिन्हें वर्तमान जीवन में भोगना अवश्यंभावी है।
जीव को पाप कर्म का फल भोगना पड़ता है। इन पापों को 2 श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है -
1) प्रारब्ध जन्य - भाग्य द्वारा निर्मित परिस्थितियों के कारण पाप करना, या
2) अप्रारब्ध जन्य - स्वेच्छा से किए गए पाप। आइए इनमें से इन दोनों कारण के बारे में थोड़ा और विस्तार से जानें।
(i) प्रारब्ध जन्य पाप
कुछ कष्ट ऐसे होते हैं, जिन्हें वर्तमान जीवन में भोगना अवश्यंभावी है।
हमारे प्रत्येक पूर्व मानव जन्म में हमने क्रियमाण कर्म किए थे जिनके फल संचित कर्म के रूप में जमा रहते हैं। उन संचित कर्मों में से कुछ फल भगवान वर्तमान जन्म में भोगने के लिए निर्धारित करते हैं। इसे प्रारब्ध कर्म कहा जाता है। पिछले पाप कर्मों के परिणामस्वरूप, जीव का ऐसे परिवार में जन्म हुआ जहाँ पाप कर्म का बाहुल्य है अतः वह बचपन से ही वो उन पाप कर्मों को देखता है तथा करता है, जिससे भविष्य में अधिक पीड़ा भोगनी पड़ती है [1]। इस प्रकार यह दुष्चक्र बन जाता है।
भक्ति प्रारब्ध जनित क्लेशों का नाश करती है। इस सम्बन्ध में देवहूति ने भगवान कपिल से कहा - यन्नामधेयश्रवणानुकीर्तनाद् यद्प्रह्वणाद्यत्स्मरणादपि क्वचिद्।
श्वादोऽपि सद्य: सवनाय कल्पते कुत: पुनस्ते भगवन्नु दर्शनात्॥ भा 3.33.6
|
"हे भगवान्! पूर्व जन्म के पापों के कारण यदि जीव का जन्म चांडाल के घर हो, और वह जीव आपके पतित पावन नामों का जप करे, प्रेमपूर्वक आपका स्मरण करे और आपके चरण कमलों में समर्पित हो, तो वह सोम-यज्ञ करने में निपुण उच्च कुलीन ब्राह्मण के तुल्य हो जाता है। फिर जिसको आपके दिव्य दर्शन प्राप्त हों, उसकी वंदनीय स्थिति का वर्णन कौन से शब्द कर सकते हैं!”
इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिए आइए भक्त सदना के जीवन पर विचार करें।
सदना का जन्म कसाई परिवार में हुआ था।अतः जीव हत्या करने में वह तनिक भी नहीं हिचकिचाता था। मांस ही उसका मुख्य आहार था। एक दिन सौभाग्यवश किसी संत की यह दिव्य वाणी उसके कान में पड़ी, कि "अनंत आनंद प्राप्त करने के लिए, भोजन करने से पूर्व सर्वप्रथम श्री कृष्ण को भोग लगाओ तत्पश्चात वह प्रसाद ग्रहण करो।" यह बात उसके दिल को छू गई और उसी दिन से उसने भोग लगाना प्रारंभ कर दिया। चूंकि वह मांस के अलावा और कोई भोजन जानता ही नहीं था, इसलिए वह प्रतिदिन श्री कृष्ण को मांस का ही भोग लगाता था। लेकिन भगवान् भोज्य पदार्थ का भोग नहीं लगाते। उनका भोजन प्रेम और केवल प्रेम ही है [2]। वह भोग सामग्री में जो प्रेम भरा है उसको ही ग्रहण करते हैं। तो श्री कृष्ण, सदना की निष्कपट निष्ठा व प्रेम से द्रवित हो गए।
इससे सिद्ध होता है कि अपने प्रारब्ध के कारण वह ऐसे वातावरण में पैदा हुआ, जहाँ असहाय पशुओं के प्रति हिंसा प्रतिदिन होती थी। लेकिन सदना की भक्ति ने उसको प्रारब्ध जन्य क्लेशों को काट दिया और भगवत प्राप्त संत की श्रेणी में पहुँचा दिया।
सदना का जन्म कसाई परिवार में हुआ था।अतः जीव हत्या करने में वह तनिक भी नहीं हिचकिचाता था। मांस ही उसका मुख्य आहार था। एक दिन सौभाग्यवश किसी संत की यह दिव्य वाणी उसके कान में पड़ी, कि "अनंत आनंद प्राप्त करने के लिए, भोजन करने से पूर्व सर्वप्रथम श्री कृष्ण को भोग लगाओ तत्पश्चात वह प्रसाद ग्रहण करो।" यह बात उसके दिल को छू गई और उसी दिन से उसने भोग लगाना प्रारंभ कर दिया। चूंकि वह मांस के अलावा और कोई भोजन जानता ही नहीं था, इसलिए वह प्रतिदिन श्री कृष्ण को मांस का ही भोग लगाता था। लेकिन भगवान् भोज्य पदार्थ का भोग नहीं लगाते। उनका भोजन प्रेम और केवल प्रेम ही है [2]। वह भोग सामग्री में जो प्रेम भरा है उसको ही ग्रहण करते हैं। तो श्री कृष्ण, सदना की निष्कपट निष्ठा व प्रेम से द्रवित हो गए।
इससे सिद्ध होता है कि अपने प्रारब्ध के कारण वह ऐसे वातावरण में पैदा हुआ, जहाँ असहाय पशुओं के प्रति हिंसा प्रतिदिन होती थी। लेकिन सदना की भक्ति ने उसको प्रारब्ध जन्य क्लेशों को काट दिया और भगवत प्राप्त संत की श्रेणी में पहुँचा दिया।
(ii) अप्रारब्ध जन्य पाप
निज रुचि के कारण किए गए पाप अप्रारब्धजन्य पाप होते हैं। जैसे जीव ने पूर्व जन्म में ऐसे पाप किए हों जिसके कारण उसको निम्न कुल में जन्म मिले। परंतु इस जन्म में कुसंग में पड़ने के कारण उसकी पाप कर्म में प्रवृत्ति हो जाए। ऐसे पापों का दंड इस जन्म में नहीं भोगना पड़ता [3], इनका फल अगले कई जन्मों में भोगना पड़ेगा। भक्ति इन पापों को भी नष्ट कर देती है।
निज रुचि के कारण किए गए पाप अप्रारब्धजन्य पाप होते हैं। जैसे जीव ने पूर्व जन्म में ऐसे पाप किए हों जिसके कारण उसको निम्न कुल में जन्म मिले। परंतु इस जन्म में कुसंग में पड़ने के कारण उसकी पाप कर्म में प्रवृत्ति हो जाए। ऐसे पापों का दंड इस जन्म में नहीं भोगना पड़ता [3], इनका फल अगले कई जन्मों में भोगना पड़ेगा। भक्ति इन पापों को भी नष्ट कर देती है।
अप्रारब्धफलं पापं कूटं बीजं फलोन्मुखम् । क्रमेणैव प्रलीयेत विष्णुभक्तिरतात्मनाम्।
पद्म-पुराण
“भक्ति प्रारब्धजन्य पाप (जिनका फल जीव इस जीवन में भोग रहा है) तथा अप्रारब्धजन्य पाप (संचित कर्म जिनका फल अभी तक नहीं भोगा है) दोनों का नाश करती है”.
यथाग्निः सुसमृद्धार्चिः करोत्येधांसि भस्मसात्।
तथा मद्विषया भक्तिरुद्धवैनांसि कृत्स्नशः।
तथा मद्विषया भक्तिरुद्धवैनांसि कृत्स्नशः।
“हे उद्धव! जैसे अग्नि लकड़ी को राख कर देती है, वैसे ही मेरी भक्ति इस जीवन के पाप कर्मों के फल को भी जला देती है।”
जैसे डाकू रत्नाकर [4] का जन्म ब्राह्मण परिवार में हुआ था परंतु वह निज रुचि से पाप करता था । भक्ति ने उसको भी भगवद्-प्राप्त संत बना दिया।
जैसे डाकू रत्नाकर [4] का जन्म ब्राह्मण परिवार में हुआ था परंतु वह निज रुचि से पाप करता था । भक्ति ने उसको भी भगवद्-प्राप्त संत बना दिया।
B. पाप का बीज
किसी का भाग्य बुरा नहीं है, न ही वह जीव इस जीवन में कुसंग [5] के कारण पाप करता है। परंतु, वह शरीर संंबंधी सांसारिक कामनाएँ बनाता है । ये कामनाएँ मन बनाता है, इसलिए मायिक मन को ही "पाप का बीज" कहा जाता है।
किसी विशेष पाप से छुटकारा पाने के लिए वेद-विहित कर्मकांड में नैमित्तिक कर्म [6]. का उल्लेख है। इन वैदिक अनुष्ठानों को विधिवत करने से जीव उस पाप से मुक्त हो जाता है। भागवत का दावा है -
किसी का भाग्य बुरा नहीं है, न ही वह जीव इस जीवन में कुसंग [5] के कारण पाप करता है। परंतु, वह शरीर संंबंधी सांसारिक कामनाएँ बनाता है । ये कामनाएँ मन बनाता है, इसलिए मायिक मन को ही "पाप का बीज" कहा जाता है।
किसी विशेष पाप से छुटकारा पाने के लिए वेद-विहित कर्मकांड में नैमित्तिक कर्म [6]. का उल्लेख है। इन वैदिक अनुष्ठानों को विधिवत करने से जीव उस पाप से मुक्त हो जाता है। भागवत का दावा है -
तैस्तान्यघानि पूयन्ते तपोदानव्रतादिभि: ।
नाधर्मजं तद्धृदयं तदपीशाङ्घ्रिसेवया ॥
नाधर्मजं तद्धृदयं तदपीशाङ्घ्रिसेवया ॥
"नैमित्तिक कर्म करने से जीव एक पाप से मुक्त हो जाएगा परंतु प्रत्येक जीव ने अनंत काल से असंख्य पाप किए हैं। कोई अनंत काल में भी असंख्य पापों से कैसे छुटकारा पा सकेगा?”
जीव एक ओर तो नैमित्तिक कर्म करेगा, और दूसरी ओर मायिक मन की प्रवृत्ति के कारण और पाप करता रहेगा। नैमित्तिक कर्मों को करके पाप से मुक्त होने में बहुत अधिक समय लगता है परंतु पाप करने के लिए एक क्षण पर्याप्त है। जितने समय में जीव एक पाप से छुटकारा पाएगा उतने समय में अनेक पाप भी कमा लेगा। इस प्रकार सभी पापों को कर्मकाण्ड से समाप्त करना कैसे संभव हो सकता है ? यानि, भले ही कोई अनंत काल तक नैमित्तिक कर्म करता रहे परंतु सभी पापों को मेटना असंभव है।
अतः वास्तव में पाप करना बंद करने के लिए पाप के बीज अर्थात् मन को सुधारना होगा। मन मायिक है। माया के चंगुल से मुक्त होने पर ही ऐसी स्थिति आएगी कि यह मन कभी पाप न करे। [7]। मन को माया से कौन मुक्त कर सकता है? भगवान कृष्ण उत्तर देते हैं - दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया । मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।
गीता 7.14 "यह माया त्रिगुणात्मिका माया मेरी शक्ति से शक्तिमति बनी है। अतः कोई भी अपने पुरुषार्थ से इस पर विजय नहीं प्राप्त कर सकता। जो पूर्णतया मेरे शरणागत हो जाते हैं केवल वे ही मेरी कृपा से इस माया के सागर को पार करते हैं।
जैसे भाड़ में भुनने के बाद बीज की अंकुर शक्ति समाप्त हो जाती है उसी प्रकार भक्ति द्वारा शुद्ध किए हुए मन की मायिक वासना बनाने की क्षमता ही समाप्त हो जाती है। अर्थात पाप के बीज “वासना युक्त मन” की प्रवृत्ति को भक्ति सदा के लिये नष्ट कर देती है । |
अजामिल [8] भक्ति के इस गुण का एक उदाहरण है। अजामिल जितेंद्रिय तथा वेद शास्त्र का ज्ञाता था। लेकिन एक क्षण के कुसंग से उसका आध्यात्मिक पतन हो गया। अपने माता-पिता, स्त्री, बच्चों सब का त्याग कर पूर्णतया पाप कर्मों में अनुरक्त हो गया। एक वेश्या के साथ उसके 11 बच्चे भी हो गए। दीर्घ काल तक पाप में रहने के बाद भी, पतन के पूर्व की गई अपनी भक्ति के प्रभाव से, वह पुनः जागरूक हो गया और हरिद्वार जाकर पुनः भक्ति को परिपक्व करने की साधना में जुट गया। वहाँ एक साल तक उन्होंने भक्ति के अलावा कुछ नहीं किया। और अंत में -
साकं विहायसा विप्रो महापुरुष किंकरै: । हैमं विमानमारु ययुः यत्र श्रिय:पति: ॥
भा.६.२.४४ |
C. अविद्या
जीव अपनी वासनाओं की पूर्ति के लिए पाप करता है और यह वासनाएँ अज्ञान के कारण होती हैं। इसलिए क्लेश का तीसरा कारण है अविद्या या अज्ञान। जीव अज्ञान के कारण पाप करता है जिसका दंड भोगता है। जीव को ज्ञात ही नहीं है कि यह सब उसके अपने ही पूर्व जन्म के कर्मों का फल है। जब जीव को यही नहीं मालूम कि इस समय जो दुख मिल रहा है वह मेरे पूर्व जन्मों के कर्मों का फल है तो फिर इसके आगे यह ज्ञान तो हो ही नहीं सकता कि “हमें अपने भविष्य को सुधारने के लिए अपने वर्तमानकाल के चिंतन को ठीक करना है”। यह अविद्या तीन प्रकार की है -
(i) अनित्य को नित्य मानना
इस मायिक जगत का एक दिन सृजन होता है अतः एक दिन इसका विलय भी अवश्य ही होगा। इसलिए यह मायिक संसार अनित्य है। इस ज्ञान के अभाव में जीव इस नश्वर संसार को नित्य मानता है और इससे नित्य सुख चाहता है। यद्यपि जीव का प्रत्यक्ष अनुभव है कि संसार में कोई भी वस्तु नित्य नहीं है।
(ii) अनात्म को आत्म मानना
“मैं” चेतन आत्मा है और मेरा संबंधवाचक सर्वनाम है; जिसका अर्थ है “मैं” का जिससे संबंध हो वो “मेरा” होता है। अर्थात जो “मैं का” होगा वह “मैं” नहीं हो सकता। मैं पृथक वस्तु है। शरीर इंद्रिय मन बुद्धि सब “मैं” के दास हैं। यह सब “मैं” कदापि नहीं हो सकते।
परंतु अज्ञानतावश जीव शरीर को असली “मैं” मानता है। अतः इंद्रिय विषयसुख के हेतु प्रयत्नशील है। ज्ञानाभाव होने के कारण आत्मा के कल्याण का विचार भी नहीं आता।
शरीर तथा शरीर के सुख के विषय दोनों क्षणिक हैं। साथ ही जड़ माया की अभिव्यक्ति होने के कारण आनंद से विहीन हैं। यद्यपि यह अनुभव अनंत बार हो चुका है फिर भी तो अज्ञानतावश जीव इसी संसार के पीछे अंधाधुंध भाग रहा है [9][10]. भक्ति इस अज्ञान को भी नष्ट करती है तथा ज्ञान का प्रादुर्भाव [11] स्वतः होता है।. भागवत मैं लिखा है -
जीव अपनी वासनाओं की पूर्ति के लिए पाप करता है और यह वासनाएँ अज्ञान के कारण होती हैं। इसलिए क्लेश का तीसरा कारण है अविद्या या अज्ञान। जीव अज्ञान के कारण पाप करता है जिसका दंड भोगता है। जीव को ज्ञात ही नहीं है कि यह सब उसके अपने ही पूर्व जन्म के कर्मों का फल है। जब जीव को यही नहीं मालूम कि इस समय जो दुख मिल रहा है वह मेरे पूर्व जन्मों के कर्मों का फल है तो फिर इसके आगे यह ज्ञान तो हो ही नहीं सकता कि “हमें अपने भविष्य को सुधारने के लिए अपने वर्तमानकाल के चिंतन को ठीक करना है”। यह अविद्या तीन प्रकार की है -
(i) अनित्य को नित्य मानना
इस मायिक जगत का एक दिन सृजन होता है अतः एक दिन इसका विलय भी अवश्य ही होगा। इसलिए यह मायिक संसार अनित्य है। इस ज्ञान के अभाव में जीव इस नश्वर संसार को नित्य मानता है और इससे नित्य सुख चाहता है। यद्यपि जीव का प्रत्यक्ष अनुभव है कि संसार में कोई भी वस्तु नित्य नहीं है।
(ii) अनात्म को आत्म मानना
“मैं” चेतन आत्मा है और मेरा संबंधवाचक सर्वनाम है; जिसका अर्थ है “मैं” का जिससे संबंध हो वो “मेरा” होता है। अर्थात जो “मैं का” होगा वह “मैं” नहीं हो सकता। मैं पृथक वस्तु है। शरीर इंद्रिय मन बुद्धि सब “मैं” के दास हैं। यह सब “मैं” कदापि नहीं हो सकते।
परंतु अज्ञानतावश जीव शरीर को असली “मैं” मानता है। अतः इंद्रिय विषयसुख के हेतु प्रयत्नशील है। ज्ञानाभाव होने के कारण आत्मा के कल्याण का विचार भी नहीं आता।
शरीर तथा शरीर के सुख के विषय दोनों क्षणिक हैं। साथ ही जड़ माया की अभिव्यक्ति होने के कारण आनंद से विहीन हैं। यद्यपि यह अनुभव अनंत बार हो चुका है फिर भी तो अज्ञानतावश जीव इसी संसार के पीछे अंधाधुंध भाग रहा है [9][10]. भक्ति इस अज्ञान को भी नष्ट करती है तथा ज्ञान का प्रादुर्भाव [11] स्वतः होता है।. भागवत मैं लिखा है -
यत्पादपङ्कजपलाशविलासभक्त्या, कर्माशयं ग्रथितमुद्ग्रथयन्ति सन्त: ।
तद्वन्न रिक्तमतयो यतयोऽनिरुद्ध स्रोतोगणास्तमरणं भज वासुदेवम् ॥
तद्वन्न रिक्तमतयो यतयोऽनिरुद्ध स्रोतोगणास्तमरणं भज वासुदेवम् ॥
भा 4.22.39
“आपके चरणारविंद के नख की ज्योति से ही भक्तों के कर्म बंधन कट जाते हैं। तो उन धन्य भक्तों कि क्या गाथा गाएँ जिनको आप के दर्शन प्राप्त हैं।
(iii) दुख को सुख मानना
सांसारिक उपलब्धियाँ जीव को सांसारिक मोह-माया के कीचड़ में और डुबो देती हैं। फिर भी हम अज्ञानतावश उनकी प्राप्ति को ही सफलता मानते हैं। भगवान् कृष्ण कहते हैं -
सांसारिक उपलब्धियाँ जीव को सांसारिक मोह-माया के कीचड़ में और डुबो देती हैं। फिर भी हम अज्ञानतावश उनकी प्राप्ति को ही सफलता मानते हैं। भगवान् कृष्ण कहते हैं -
तं भ्रंशयामि संपद्भयो यस्य चेच्छाम्यनुग्रहम्॥
भा 10.27.16
"जिसका मैं वास्तविक कल्याण चाहता हूँ, उसकी सांसारिक समृद्धि नष्ट कर देता हूँ।"
यस्याहमनुगृह्णामि हरिष्ये तद्धनम् शनैः ।
भा 10.88.8
"जिस पर मैं कृपा करता हूँ उसका संसार छीन लेता हूँ।"
कुंती ने बड़ा ही विचित्र वरदान श्री कृष्ण से मांगा - विपद: सन्तु ता: शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरो ।
भवतो दर्शनं यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम् ॥ भा 1.8.25
कुन्ती ने कहा, "हे स्वामी! कृपया मेरे जीवन के हर पग पर विपत्तियाँ प्रदान करें ताकि मैं आपको हर समय याद रखूँ ”। क्योंकि,
जन्मैश्वर्यश्रुतश्रीभिरेधमानमद: पुमान् । नैवार्हत्यभिधातुं वै त्वामकिञ्चनगोचरम् ॥
भा 1.8.26
"जो लोग उच्च कुल, ऐश्वर्य, यश और धनधान्य के मद में चूर हैं, वे कभी भी आपके शरणागत नहीं हो सकते।
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उदाहरण के लिए, जैसे ही किसी को 10 करोड़ की लॉटरी लग जाए तो उसका अहंकार इतना बढ़ जाता है जैसे वह दूसरा भगवान हो। लेकिन वह बेचारा इस बात से अनभिज्ञ है, यह सांसारिक संपत्ति मिलना हर्षोल्लास की बात नहीं है अपितु उसकी चिंता की शुरुआत है। अब वह अरबपति बनने का सपना देखने लगेगा और लोभ का कोई अंत नहीं होता। यदि किसी कारणवश वह संपत्ति खो गई, या उसकी वृद्धि करने में सफल नहीं हुआ तो वह दुखी होगा। तो उस संपत्ति का आनंद कब लेगा ?
जगद्गुरु शंकराचार्य कहते हैं -
जगद्गुरु शंकराचार्य कहते हैं -
जनयत्यर्जने दुखं तापयन्ति विपत्तिषु ।
मोहयन्ति च सम्पत्तौ कथमर्था सुखावहाः ॥
मोहयन्ति च सम्पत्तौ कथमर्था सुखावहाः ॥
"सांसारिक समृद्धि प्राप्त करने के प्रयास में दुख प्राप्त होता है। वांछित समृद्धि प्राप्त करने के हर्ष में बुद्धि भ्रमित हो जाती है उसके संरक्षण की चिंता आदि में दुख प्राप्त होता है। साथ ही सांसारिक संपत्ति की हानि में भी दुख प्राप्त होता है। इस प्रकार, तीनों अवस्थाओं में दुख है - प्राप्ति के पूर्व, प्राप्त होने पर और वस्तु के नाश होने के बाद। तो वस्तु से सुख कब मिलता है?" भक्ति से ज्ञान और वैराग्य [12] दोनों की उत्पत्ति होती है। ज्ञान और वैराग्य होने से जीव मोह से उत्पन्न दुखों से बच जाता है ।
भागवत का दावा है -
भागवत का दावा है -
भक्ति: परेशानुभवो विरक्तिरन्यत्र चैषत्रिक एककाल: ।
प्रपद्यमानस्य यथाऽश्नतः स्युस्तुष्टिः पुष्टिः क्षुदपायोऽनुघासम् ॥
प्रपद्यमानस्य यथाऽश्नतः स्युस्तुष्टिः पुष्टिः क्षुदपायोऽनुघासम् ॥
भा 11.2.42 ॥
"श्री कृष्ण की भक्ति से ज्ञान [13]और वैराग्य का प्रादुर्भाव होता है जिससे सांसारिक विषयों से स्वयमेव विरक्ति हो जाती है, जैसे हर ग्रास के साथ सुख (तुष्टि), पोषण (पुष्टि) और भूख से राहत (क्षुदा निवृत्ति) एक साथ होती जाती है। "अर्थात भक्ति करने वाले को ज्ञान तथा वैराग्य स्वतः प्राप्त होता जाता है।
सूर, मीरा, कबीर, नानक, सदना, रैदास [14], धन्ना [15] आदि अधिकांश संत निरक्षर अंगूठा छाप थे। लेकिन भक्ति ने उन्हें ऐसा ज्ञान प्रदान किया, कि उन्होंने अपनी भक्ति से सर्वशक्तिमान ईश्वर को अपना क्रीतदास बना लिया।
अंत में, जब कोई वास्तविक संत [16] के मार्गदर्शन में लगन से साधना भक्ति करता है तो साधनावस्था से ही दुख धीरे-धीरे कम होने लगते हैं। प्रेमा भक्ति [17] प्राप्त होने पर सभी दुख हमेशा के लिए ऐसे नष्ट होते हैं कि पुनः वापस कभी आ ही नहीं सकते।
सूर, मीरा, कबीर, नानक, सदना, रैदास [14], धन्ना [15] आदि अधिकांश संत निरक्षर अंगूठा छाप थे। लेकिन भक्ति ने उन्हें ऐसा ज्ञान प्रदान किया, कि उन्होंने अपनी भक्ति से सर्वशक्तिमान ईश्वर को अपना क्रीतदास बना लिया।
अंत में, जब कोई वास्तविक संत [16] के मार्गदर्शन में लगन से साधना भक्ति करता है तो साधनावस्था से ही दुख धीरे-धीरे कम होने लगते हैं। प्रेमा भक्ति [17] प्राप्त होने पर सभी दुख हमेशा के लिए ऐसे नष्ट होते हैं कि पुनः वापस कभी आ ही नहीं सकते।
अनादि काल से हम दुखी हैं। उसका कारण बस ये दो हैं - एक राग और एक द्वेष। या तो कहीं राग है या कहीं द्वेष है या दोनों हैं। और उसमें भी सबसे प्रमुख है राग क्योंकि अगर राग न हो तो द्वेष भी न होगा। राग न होगा तो उसकी हानि में द्वेष भी न होगा।
जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु महाराज
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और अधिक जानें
[4] Power of Faith
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[5] Forms of Kusang
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[6] The Gravest Sin
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[13] भक्ति ज्ञान प्रदान करती है
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[14] God Loves "Love"
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[16] वास्तविक संत की पहचान
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[17] Siddha Bhakti
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