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भक्ति मुक्ति को महत्वहीन बना देती है​

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पिछले दो प्रकाशनों में हमने विस्तार से चर्चा की कि भक्ति दुखों को भस्म करती है [1] और शुभता प्रदान करती है [2]। इस संस्करण में चर्चा करेंगे कि भक्त मुक्ति को तुच्छ साध्य मानकर उसका तिरस्कार कर देता है।

तीन ही साध्य हैं जिनको पाने की कामना बनाई जा सकती है ।
  • भुक्ति - भौतिक संसार के ऐश्वर्य जैसे स्वास्थ्य, धन, शक्ति, दीर्घायु और दूसरों पर प्रभुत्व
  • मुक्ति - सभी भौतिक कष्टों से मुक्ति, या,​
  • भक्ति - ईश्वर के प्रेम की प्राप्ति

भक्ति के बल पर भक्त मुक्ति को ठुकरा देता है।
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भुक्ति का अर्थ है मायिक सुख का भोग।[3] धरती से लेकर सत्यलोक तक​ मायिक सुखों की 11 कोटियाँ हैं। सत्यलोक को ब्रह्म लोक भी कहा जाता है क्योंकि यह सृष्टिकर्ता ब्रह्मा का निवास है। इन 11 लोकों के सुख के भोग को भुक्ति कहते हैं।

मन मायिक है और संसार भी मायिक है। साथ ही मन ने अनंत जन्मों में मायिक जगत से सुख पाने का अभ्यास भी किया है।[4] ​ मायिक ऐश्वर्य  दिव्य जीव को कदापि तृप्त नहीं कर सकते। लेकिन तत्त्वज्ञान के अभाव में (या  तत्वज्ञान पर मनन न करने) के कारण जीव संसार से अनंत आनंद पाने की आशा में संसार की ओर दौड़ रहा है। क्षणिक इंद्रिय सुख से मुँह मोड़ कर अनंत आनंद प्राप्त करने के लिए प्रयास  करना होगा। जैसे किसी भी सांसारिक सुख को प्राप्त करने के लिए प्रयास करना पड़ता है, वैसे ही मन को भगवान में लगाने का अभ्यास करना होगा। यह सहसा नहीं हो जाता। किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए समय देना पड़ता है। साथ ही धैर्य पूर्वक निरंतर प्रयास करना होगा तब मन भगवान में लगेगा।

जब जीव भक्ति मार्ग पर अग्रसर होता है तो भक्ति के प्रताप से जीव के अनंत पाप धीरे-धीरे नष्ट होते जाते हैं।[1] यह आध्यात्मिक उन्नति परोक्ष विषय है। इंद्रियों से इसका साक्षात्कार नहीं हो सकता, इसलिए संशयात्मक बुद्धि यह मान लेती है कि हमारी कोई प्रगति नहीं हो रही है और निराशा ग्रस्त हो जाती है। कुछ लोग तत्वज्ञान से संभल जाते हैं परंतु अन्य लोग निराशा के इन क्षणों में, पुनः मायिक आनंद की खोज में जुट जाते हैं। कुछ लोग सदा के लिए सभी कष्टों से छुट्टी पाना चाहते हैं, यानी मुक्ति की कामना करते हैं। ध्यान रहे, ऐसा नहीं है कि मुक्ति पाना आसान लक्ष्य है। यह अत्यंत कठिन है और इसे प्राप्त करने में लाखों जन्म लग जाते हैं, फिर भी कुछ इस लक्ष्य को चुनते हैं।

यद्यपि मुक्ति दिव्य है अनंत काल के लिए होती है मुक्ति होने पर कभी भी दुख नहीं आ सकता फिर भी आप लोग समझ लीजिए कि मुक्ति, भुक्ति से भी बदतर है। आश्चर्यचकित ना होइए, समझिए।
​
जो लोग भुक्ति की कामना करते हैं वे अर्थ (धन-संपत्ति), धर्म और काम की इच्छा रखते हैं। परिणामस्वरूप, 84 लाख योनियों में  चक्कर लगाते हैं। इन योनियों में जाने के लिए जन्म का अत्यंत दुख भोगते हैं, जीवन भर मायिक विषय भोग करते हैं, तत्पश्चात मृत्यु की दुःसह पीड़ा भोगते हैं। भुक्ति का यह रूप भयानक लगता है, फिर भी यह मुक्ति से बेहतर है क्योंकि भुक्ति में, जन्म मरण के चक्र में  घूमते-घूमते  कभी न कभी भगवत कृपा से पुनः मानव योनि मिलेगी। हो सकता है आपको कोई वास्तविक रसिक संत मिल जाए। तब आप उसकी बताई साधना करके दिव्य प्रेम पा सकते हैं। परंतु यदि आप मुक्ति को प्राप्त हो गए, तो आप आनंद में विलीन हो जाएंगे, जिससे आनंद पाने की आशा भी नहीं रहेगी। वह कितनी बड़ी हानि होगी ! इसलिए मुक्ति को भुक्ति से भी बुरा माना गया है।

पिछले प्रकाशनों में हमने शास्त्रों के उद्धरण​ से सिद्ध किया है कि साक्षात भगवान की सेवा ही हमारा लक्ष्य है। [5] ​

भक्ति मार्ग का अवलंब लेने वालों के लिए - 
भुक्ति-मुक्ति-स्पृहा यावत् पिशाची हृदि वर्तते । तावद् भक्ति-सुखस्यात्र कथम् अभ्युदयो भवेत् ॥
भक्ति-रसामृत​-सिंधु १.२.२२
"भुक्ति मुक्ति दोनों पिशाची (चुड़ैल​) हैं । जब तक भुक्ति और मुक्ति की कामना हृदय में रहेंगी, तब तक भक्ति महादेवी का प्राकट्य नहीं होगा।”
लेकिन, हम आनंद के भूखे हैं ! भक्ति प्राप्त किए बिना, तुच्छ ही सही परंतु, भुक्ति के आनंद को कैसे छोड़ दें? भक्ति का सुख मिले बिना दुःख निवृत्ति की कामना को कैसे त्याग दें?

यह सर्वविदित है (और सभी का अनुभव भी है) कि उच्च स्तर की वस्तु प्राप्त होने पर उससे निम्न स्तर की वस्तु के प्रति स्वतः ही अरुचि हो जाती है। 

भक्ति करने से जीव की आध्यात्मिक शक्ति बढ़ जाती है। जैसे-जैसे भक्ति मार्ग पर आगे बढ़ते हैं, वैसे-वैसे दुख कम होने लगते हैं [1] और भक्ति शुभता प्रदान करती है [2]। इसके साथ साथ आनंद की उत्तरोत्तर वृद्धि होती है। भाव भक्ति तक पहुँचते-पहुँचते इतना आनंद मिलने लगता है कि उसे स्वर्ग तथा मुक्ति दोनों का सुख नगण्य प्रतीत होता है। तत्त्वज्ञान का बार-बार मनन करने से और नियमित रूप से आत्म-निरीक्षण करने से जीव प्रगति को रीड कर पाएगा।
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उच्च स्तर की वस्तु प्राप्त होने पर उससे निम्न स्तर की वस्तु के प्रति अरुचि होना स्वाभाविक है
यहाँ पर यह जानना महत्वपूर्ण है कि मुक्ति दो प्रकार की होती है। अद्वैतवाद की सायुज्य मुक्ति जो ज्ञानियों को दी जाती है।  इसके अतिरिक्त द्वैतवाद की चार मुक्ति और हैं। ये शांत भाव से महाविष्णु की उपासना करने वालों को मिलती हैं।

भगवान के आनंद से बड़ा कोई आनंद नहीं है। श्री कृष्ण स्वयं अपने भक्तों की देखभाल करते हैं, इसलिए उनके भक्त मुक्ति को भी अस्वीकार करते हैं। पिछले कई संस्करणों में हमने वर्णन किया था कि बड़भागी ज्ञानियों ने साकार ब्रह्म का मात्र एक इंद्रिय से अनुभव करते ही स्वेच्छा से ब्रह्मानंद का त्याग किया।[6] उन श्रीकृष्ण के शरीर, गन्ध, रूप, माधुर्य, गुण आदि सबका आस्वादन भक्त करता है। पर इस आनन्द का शब्दों में वर्णन करना असम्भव है।[8] ​​
मनागेवप्ररूढ़ायां हृदये भगवद्रतौ । पुरुषार्थास्तु चत्वारास्तृणायन्ते समन्ततः । 
भ​.र​.सि
““भक्ति  रूपी अमृत की  मात्र एक बूंद ही जीव को चारों इच्छाओं (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष)  से विरक्त कर देती है।" 
फिर नारद पंचरात्र में भी -
हरि भक्तिमहादेव्याः सर्वामुक्त्यादि सिद्धयः । ​भुक्तयश्चाद्भुतास्तस्य चेटिकावदनुव्रताः ।
ना.पा.रा.
"सभी सिद्धियाँ और मुक्तियाँ भी दासी की भाँति भक्ति के पीछे-पीछे चलती हैं।"​
​
एक बार सभी 5 मुक्ति भगवान ऋषभ के पास पहुँचीं। द्वैतवाद की चारों मुक्तियाँ हाथ जोड़कर उनके सामने खड़ी हुईं। उनके पीछे ज्ञानियों की सायुज्य मुक्ति खड़ी हुई। वह जानती थी कि भक्त से अवश्य डांट पड़ेगी। 
​
उन्हें देखकर ऋषभ भगवान ने पूछा -
का त्वं मुक्तिरुपागतास्मि भवती कस्मादकस्मादिह श्रीकृष्णस्मरणेन देव भवतो दासीपदं प्रापिता।
"आप कौन हैं?"
उन्होंने उत्तर दिया, "मुक्ति"।
"आप यहाँ क्यों आईं हैं?"
​"आप श्री कृष्ण के स्मरण में लीन रहते हैं, इसलिए उन्होंने हमें दासी के रूप में आपकी सेवा करने के लिए भेजा है"। ऋषभ भगवान ने उनका तिरस्कार करते हुए कहा - 
दूरे तिष्ठ मनागनागसि कथं कुर्य्यादनार्य्यं मयि त्वन्नाम्ना निजनामचन्दनरसालेपस्य लोपो भवेत् ॥
"दूर दूर दूर । दूर रहो, बहुत दूर रहो। तुम्हारा तो अगर साया भी मेरे ऊपर पड़ गया भक्ति के पूरे आनंद को नष्ट कर देगा ।”
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ऋषभ भगवान
मुक्ति की इच्छा वे करते हैं जो आत्मसुख चाहते हैं। जबकि श्रीकृष्ण के भक्त उनकी सेवा करके उन्हें प्रसन्न करने का प्रयास करते हैं।[7] ​​इसलिए, जो लोग दिव्य प्रेमानंद का आनंद लेना चाहते हैं, वे सभी मुक्ति को तुच्छ साध्य मानकर अस्वीकार करते हैं।


आप समझते होंगे कि उच्च स्तर के प्रेमी भक्त मुक्ति को अस्वीकार करते हैं? नहीं हनुमान जी और कागभुशुण्डि ने दास्य भाव से भगवान राम की पूजा की थी।[7] सौरस्य​ के दृष्टिकोण से दास्य भाव सबसे नीचा भाव है। इस भाव में औपचारिकता अधिक और निकटता कम होती है। फिर भी जब भगवान राम ने स्वेच्छा से हनुमान और कागभुशुण्डि को मुक्ति देने की इच्छा व्यक्त की, तो उन्होंने साफ-साफ कह दिया “हमें नहीं चाहिए”। फिर, जाहिर है, जो भक्त उससे सरस तथा निकट के भाव (यथा सख्य भाव, वात्सल्य भाव और माधुर्य भाव) में पूरी तरह से डूबे हुए हैं, वे भुक्ति, मुक्ति, रिद्धि, सिद्धि या किसी अन्य लक्ष्य की किंचित मात्र भी परवाह नहीं करते हैं।

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परम भक्त हनुमान जी - दास्य भाव
इसलिए मुक्ति बहुत निराश हुईं। वे श्री कृष्ण के पास गईं और उलाहना दिया -
​“आपके भक्त हमें स्वीकार नहीं करते हैं। कृपया हमारे कल्याण का कोई उपाय बताएँ"।

श्री कृष्ण ने उन्हें ब्रज जाने और वहाँ यमुना नदी से जल लाकर ब्रज की गोपियों के लिए सेवा करने के लिए कहा। ब्रज भूमि ऐसी धन्य भूमि है जहाँ -
​
जहँ ज्ञानिन - आराध्य मुक्तिहूँ, निशिदिन रहति गुलाम ।
पानी भरती बनी पनिहारीनि, निदरतहूँ ब्रजभाम ॥
प्रेम रस मदिरा,  सिद्धांत माधुरी #134
​
- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
“…  ज्ञानियों की आराध्य मुक्तियाँ दासी बनकर दासता करती हैं। गोपियों के ताने  सुनने पर भी पाँचों मुक्तियाँ (सारष्टि, सालोक्य, सारूप्य, सामीप्य, एकत्व) यमुना से पानी भरकर गोपियों की सेवा करने में अपना सौभाग्य मानती हैं ।”

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पाँचों मुक्तियाँ (सारष्टि, सालोक्य, सारूप्य, सामीप्य, एकत्व) यमुना से पानी भरकर गोपियों की सेवा करने में अपना सौभाग्य मानती हैं
रसिक संत​ की शरण में रहकर, उनकी बताई साधना करने से आध्यात्मिक शक्ति धीरे-धीरे बढ़ती जाती है और आनंद में भी वृद्धि होती जाती है। कोई भी पाने लायक ध्येय​ सहसा नहीं मिल जाता। उसको पाने के लिए प्रारंभ में जबरदस्ती साधना करनी होती है।  कुछ काल पश्चात​ आदत पड़ जाती है। दैनिक साधना भक्ति उत्सुकता पूर्वक​और नियम से करें। इस मार्ग पर अपनी प्रगति को मापने के लिए भाव-भक्ति के लक्षणों का उपयोग करें, जब कहीं त्रुटि दिखे तो अपनी भक्ति की पद्धति में संशोधन करते रहे और मन को भगवान में लगाते रहें। हरि गुरु आपकी शरणागति का स्तर जानते हैं। अकेले कमरा बंद करके निष्पक्ष होकर​ शरणागति के लक्षणों पर अपने आप को अवश्य परखें। नहीं तो आपका स्तर नीचा होगा और आपकी बुद्धि कह देगी - आप 100% शरणागत हैं।

एक बात और​ - आत्मनिरीक्षण द्वारा अपनी आध्यात्मिक उन्नति को परखें परंतु निराशा न आने दें। निराशा के कारण मार्ग से भटकने से लक्ष्य प्राप्ति में देरी ही होगी। इस प्रकार लगातार साधना करने से एक दिन मुक्ति तुच्छ लगने लगेगी। तब​ आप भी मुक्ति को क्षुद्र लक्ष्य मानकर अस्वीकार कर देंगे, जैसा कि अन्य भक्तों ने किया है।
भुक्ति ना दे, मुक्ति ना दे, गोविंद राधे ।
​​देना है तो सीधे सीधे प्रेम सुधा दे ॥
राधा गोविंद गीत​
प्रभु, हमें सांसारिक सुख (वैभव) मत दीजिए, मुक्ति मत दीजिए। यदि कुछ देना ही चाहते हैं, तो कृपा कर के भक्ति दे दीजिए।
- जगद्गुरूत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराजराधा गोविंद गीत​
जगद्गुरूत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज
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[1] भक्ति क्लेश भस्म करती है
[2] भक्ति शुभ दायनी ​है
[3] Bliss attained by inert senses from an inert entity​​
[4] हम कामनाएँ क्यों बनाते हैं ?
[5] ​आपको किस आनंद की खोज है?​​
[6] ​भक्ति ही क्यों करें
[7] अनंतकाल तक भगवान के दासत्व का क्या लाभ होगा?​​
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