शब्दकोश में शरणागति का अर्थ है "विरोध त्याग कर शरण्य को समर्पित होना"।
शरणागति संस्कृत शब्द है जिसका आध्यात्मिक जगत में बहुत ही गम्भीर अर्थ है। इसका अर्थ है स्वेच्छा त्यागना और शरण्य पर पूर्णतया निर्भर होना । इसका भगवदीय क्षेत्र में गहन आशय है।
जीव के पास दूसरे व्यक्ति के विचारों को जानने की क्षमता नहीं है । अतः जीव उसके शब्दों, बहिरंग हाव-भाव एवं क्रियाओं से उसकी मंशा का अनुमान लगाता है । अतः मायिक जगत में शारीरिक रूप से शरण्य का विरोध न करने को शरणागति कहते हैं। मंशा शरण्य के अनुकूल है या प्रतिकूल है यह नहीं देखा जाता है । शब्दकोश की परिभाषा में यह उल्लेख नहीं है कि आत्मसमर्पण करने वाले की इच्छा, शरण्य की इच्छा के अनुरूप है या नहीं। मत और इच्छा विपरीत होते हुए भी, शरणागत अपने शरण्य की आज्ञा के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य होता है। उदाहरणार्थ युद्ध में हारी हुई सेना विजेता के समक्ष जब समर्पण करती है तब हारे हुए सैनिकों की मंशा नहीं देखी जाती है । सांसारिक दृष्टि से इस कर्म को समर्पण कहा जाता है । संसार में आये दिन कानून का उल्लंघन करने वाले समर्पण करते हैं और फिर जेल से फ़रार हो जाते हैं । ऐसे बाह्य व्यवहार को आध्यात्मिक जगत में शरणागति नहीं कहा जाता है ।
बाह्य व्यवहार पर आधारित हमारा अनुमान सही या गलत हो सकता है । संसार की तरह भगवदीय क्षेत्र में गवाही इत्यादि की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि भगवान हमारे अंतःकरण में स्वयं बैठकर प्रत्येक संकल्प में अंतर्निहित मंशा को जानते हैं और उसे ही नोट करते हैं । अतः स्पष्ट है कि भगवान को हम अपनी बाह्य क्रियाओं से छल नहीं सकते।
ज्ञात रहे आध्यात्मिक जगत में बाह्य शरणागति को शरणागति नहीं कहते हैं । दैवीय क्षेत्र में समर्पण का वास्तविक अर्थ "स्वयं" का समर्पण है। यह केवल आध्यात्मिक क्षेत्र में ही लागू हो सकता है और कोई केवल सर्वज्ञ ईश्वर और उनके वास्तविक संतों के प्रति ही समर्पण कर सकता है।
शरणागति संस्कृत शब्द है जिसका आध्यात्मिक जगत में बहुत ही गम्भीर अर्थ है। इसका अर्थ है स्वेच्छा त्यागना और शरण्य पर पूर्णतया निर्भर होना । इसका भगवदीय क्षेत्र में गहन आशय है।
जीव के पास दूसरे व्यक्ति के विचारों को जानने की क्षमता नहीं है । अतः जीव उसके शब्दों, बहिरंग हाव-भाव एवं क्रियाओं से उसकी मंशा का अनुमान लगाता है । अतः मायिक जगत में शारीरिक रूप से शरण्य का विरोध न करने को शरणागति कहते हैं। मंशा शरण्य के अनुकूल है या प्रतिकूल है यह नहीं देखा जाता है । शब्दकोश की परिभाषा में यह उल्लेख नहीं है कि आत्मसमर्पण करने वाले की इच्छा, शरण्य की इच्छा के अनुरूप है या नहीं। मत और इच्छा विपरीत होते हुए भी, शरणागत अपने शरण्य की आज्ञा के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य होता है। उदाहरणार्थ युद्ध में हारी हुई सेना विजेता के समक्ष जब समर्पण करती है तब हारे हुए सैनिकों की मंशा नहीं देखी जाती है । सांसारिक दृष्टि से इस कर्म को समर्पण कहा जाता है । संसार में आये दिन कानून का उल्लंघन करने वाले समर्पण करते हैं और फिर जेल से फ़रार हो जाते हैं । ऐसे बाह्य व्यवहार को आध्यात्मिक जगत में शरणागति नहीं कहा जाता है ।
बाह्य व्यवहार पर आधारित हमारा अनुमान सही या गलत हो सकता है । संसार की तरह भगवदीय क्षेत्र में गवाही इत्यादि की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि भगवान हमारे अंतःकरण में स्वयं बैठकर प्रत्येक संकल्प में अंतर्निहित मंशा को जानते हैं और उसे ही नोट करते हैं । अतः स्पष्ट है कि भगवान को हम अपनी बाह्य क्रियाओं से छल नहीं सकते।
ज्ञात रहे आध्यात्मिक जगत में बाह्य शरणागति को शरणागति नहीं कहते हैं । दैवीय क्षेत्र में समर्पण का वास्तविक अर्थ "स्वयं" का समर्पण है। यह केवल आध्यात्मिक क्षेत्र में ही लागू हो सकता है और कोई केवल सर्वज्ञ ईश्वर और उनके वास्तविक संतों के प्रति ही समर्पण कर सकता है।
जीवात्मा में दो चीज़ें है, एक मायिक शरीर और दूसरी दिव्य आत्मा। शरीर में पाँच कर्मेन्द्रियों के अतिरिक्त पाँच ज्ञानेंद्रियाँ, एक मन तथा एक बुद्धि होती है। अतः पूर्ण शरणागति से तात्पर्य है, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि तथा स्वयं का पूर्ण समर्पण। सभी इंद्रियाँ मन के द्वारा संचालित होती हैं जीव अकर्ता है अतः मन ही एकमात्र कर्ता है। मन का काम है चिंतन । अतः संक्षेप में कहें तो अनंतकाल तक मन का हरि-गुरु के अनुकूल ही सोचना वास्तविक शरणागति है।
यहाँ पर यह बताना नितांत आवश्यक है कि हमारे अंदर एक मशीन होती है जिसे अंतःकरण कहते हैं। जब यह भिन्न-भिन्न कार्य करता है तो इसके भिन्न-भिन्न नाम हो जाते हैं यथा मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार। जब यह सोचता है उसे मन कहते हैं जब यह निर्णय लेता है उसे बुद्धि कहते हैं जब यह इच्छा करता है उसे चित्त कहते हैं जब यह गर्व करता है उसे अहंकार कहते हैं परंतु इन चारों को एक साथ मन नाम से जाना जाता है।
अधिकांश लोग किसी न किसी रूप में भक्ति करते हैं और अपने आपको भगवान के पूर्ण शरणागत भी मानते हैं । परंतु “अभी तक कृपा क्यों नहीं हुई” यह दुविधा बनी रहती है । तो आइये शरणागति के लक्षणों पर विचार करते हैं । तथापि इस कसौटी पर कस कर अपनी शरणागति का मूल्यांकन कर लेंगे ।
यहाँ पर यह बताना नितांत आवश्यक है कि हमारे अंदर एक मशीन होती है जिसे अंतःकरण कहते हैं। जब यह भिन्न-भिन्न कार्य करता है तो इसके भिन्न-भिन्न नाम हो जाते हैं यथा मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार। जब यह सोचता है उसे मन कहते हैं जब यह निर्णय लेता है उसे बुद्धि कहते हैं जब यह इच्छा करता है उसे चित्त कहते हैं जब यह गर्व करता है उसे अहंकार कहते हैं परंतु इन चारों को एक साथ मन नाम से जाना जाता है।
अधिकांश लोग किसी न किसी रूप में भक्ति करते हैं और अपने आपको भगवान के पूर्ण शरणागत भी मानते हैं । परंतु “अभी तक कृपा क्यों नहीं हुई” यह दुविधा बनी रहती है । तो आइये शरणागति के लक्षणों पर विचार करते हैं । तथापि इस कसौटी पर कस कर अपनी शरणागति का मूल्यांकन कर लेंगे ।
भगवान हमारी दुविधाओं से भली-भाँति अवगत हैं । अतः उन्होंने शास्त्रों में शरणागति के छः लक्षणों का निरूपण किया है ।आइए हम मन की शरणागति के छः लक्षणों की कसौटी पर अपनी शरणागति को कस कर उसकी विशुद्धता को परख लेते हैं । इससे यह सिद्ध हो जायेगा की “मैं वास्तव में कितना शरणागत हूँ”?
आनुकूल्यस्य संकल्पः प्रातिकूल्यस्य वर्जनम्।
रक्षिष्यतीति विश्वासो गोप्तृत्वे वरणं तथा ।
निक्षेपणं ह्यकार्पण्यं षड्विधा शरणागतिः ॥
रक्षिष्यतीति विश्वासो गोप्तृत्वे वरणं तथा ।
निक्षेपणं ह्यकार्पण्यं षड्विधा शरणागतिः ॥
वायु पु., अहिर्बुध्न्य सं., ब. र. सिं.
- आनुकूल्यस्य संकल्पः - सदैव हरि गुरु के अनुकूल ही संकल्प करें।
- प्रातिकूल्यस्य वर्जनम् - अपने गुरु अथवा उनके सिद्धांत के विपरीत कदापि न सोचें ।
- रक्षिष्यतीति विश्वासो - पूर्ण विश्वास हो कि गुरु हमारी सदैव रक्षा कर रहे हैं।
- गोप्तृत्वे वरणं - अपने गुरु से कदापि किञ्चित मात्र भी कुछ न छुपाएँ।
- निक्षेपणं - पूर्ण शरणागत हों अर्थात मैं तथा मेरा सब कुछ समर्पित करें।
- ह्यकार्पण्यं - सर्वस्व समर्पित करें, किसी प्रकार का संकोच न हो।
संक्षेप में कहें तो शरणागति से तात्पर्य है मन, बुद्धि एवं आत्मा का पूर्ण समर्पण [1] तथा इन सब को समर्पित करने से उत्पन्न होने वाले अहंकार का भी पूर्ण समर्पण।
जब कोई पूर्ण शरणागत होता है तब अकारण करुण भगवान अपनी अहैतुकी कृपा उस जीव पर लुटा देते हैं। असीम कृपा द्वारा मालामाल कर देते हैं । उन में से कुछ कृपाएँ निम्नलिखित हैं -
- अनंत काल के लिए माया तथा माया के विकारों यथा पंचक्लेश, पंचकोश, त्रिकर्म, त्रिशरीर, त्रिताप, त्रिदोष से छुटकारा दिला देते हैं,
- भगवत दर्शन करा देते हैं [2],
- दिव्य धाम में वास व सेवा देते हैं [3],
- दिव्य ज्ञान प्राप्त करा देते हैं
- दिव्यानंद प्रदान करते हैं।
लेकिन सवाल यह उठता है कि भगवान का एक विशेषण 'अकारण करुण' है, फिर उन्होंने कृपा करने के लिए "समर्पण" की शर्त क्यों रखी?
फिर उन्हें अकारण-कारुण क्यों कहा जाता है ?
जैसा कि मैंने पहले बताया, समर्पण का अर्थ है स्वयं सहित मन का पूर्ण समर्पण। इसलिए, जिस क्षण से एक जीव समर्पण करता है और भगवद्-प्राप्ति करता है, उसका मन (हमारे अस्तित्व में एकमात्र कर्ता) भगवान् द्वारा नियंत्रित होता है। मन का उपयोग किए बिना कोई भी शारीरिक या मानसिक क्रिया करना असंभव है। यह पुष्टि करता है, समर्पण का अर्थ है कुछ न करना और वह सब प्राप्त करना जो ईश्वर का है [4]। इस पर अधिक जानकारी श्री कृष्ण को अकारण करुण क्यों कहा जाता है में पाई जा सकती है।
क्या शरणागति के परिणाम आपको भी चाहिये ?
यदि हाँ, तो लक्षणों की कसौटी पर आपकी शरणागति में कहाँ कमी है उसे नोट करिये । उस कमी को पूरा करने के लिये एक दैनिक साधना का नियम बनाइए [5] । इस नियम का दृढ़ता पूर्वक पालन करिये । आत्मनिरीक्षण द्वारा अपनी भूल-चूक को सुधारिये । हर महीने के अंत में अपने को इस मापदण्ड से नापिये । फिर अगले महीने जी-जान से अपने लक्ष्य की ओर प्रवृत होइये । जिस प्रकार पाठशाला में जाने से, मन लगा के पढ़ने से ज्ञानवर्धन होता है उसी प्रकार ठीक-ठीक साधना करने से शरणागति के लक्षणों में भी आपको उन्नति दिखेगी ।
अंततः इस ज्ञान से लाभान्वित होने के लिये एक प्रश्न - प्रति दिन और अधिक शरणागत होने के लिये आप आपनी दिनचर्या में क्या परिवर्तन करेंगे [6][7][8] ?
क्या शरणागति के परिणाम आपको भी चाहिये ?
यदि हाँ, तो लक्षणों की कसौटी पर आपकी शरणागति में कहाँ कमी है उसे नोट करिये । उस कमी को पूरा करने के लिये एक दैनिक साधना का नियम बनाइए [5] । इस नियम का दृढ़ता पूर्वक पालन करिये । आत्मनिरीक्षण द्वारा अपनी भूल-चूक को सुधारिये । हर महीने के अंत में अपने को इस मापदण्ड से नापिये । फिर अगले महीने जी-जान से अपने लक्ष्य की ओर प्रवृत होइये । जिस प्रकार पाठशाला में जाने से, मन लगा के पढ़ने से ज्ञानवर्धन होता है उसी प्रकार ठीक-ठीक साधना करने से शरणागति के लक्षणों में भी आपको उन्नति दिखेगी ।
अंततः इस ज्ञान से लाभान्वित होने के लिये एक प्रश्न - प्रति दिन और अधिक शरणागत होने के लिये आप आपनी दिनचर्या में क्या परिवर्तन करेंगे [6][7][8] ?