भक्ति के गुण |
मायाबद्ध जीव शरीर को वास्तविक “मैं” मानता है और इसलिए स्वयं को किसी देश, समाज, कुल या परिवार का सदस्य मानता है । जब तक जीव अपने को शरीर मानेगा तब तक जीव किसी उपनाम से बंधा रहेगा । जब जीव अपना वास्तविक स्वरूप जान लेगा तथा मान लेगा, बल्कि वह केवल श्रीकृष्ण का अंश है अतः उसका संबंध केवल श्रीकृष्ण से ही है [1][2], तो देश, कुल या परिवार आदि में आसक्ति स्वतः ही समाप्त हो जायेगी । तब यह ज्ञान स्वतः हो जाता है कि मेरा जीवन श्री कृष्ण की सेवा के लिए ही है । तथापि तन, मन, धन तथा सभी चेष्टाएँ [3][4] केवल उनकी सेवा के लिए ही करेगा । यही जीवन का परम चरम उद्देश्य और विशुद्ध भक्ति योग है ।
ऐसी भक्ति को दो स्तरों में वर्गीकृत किया जा सकता है ।
कुछ संत साधना भक्ति को भी दो भागों में विभाजित करते हैं
अतः कुल मिलाकर भक्ति के तीन स्तर हैं । इन तीन स्तरों में कुल मिलाकर 6 गुण हैं । भक्ति के ये गुण वेदों में वर्णित अन्य मार्गों यथा कर्म, ज्ञान, योग या अन्यत्र उल्लिखित मार्गों से प्राप्त नहीं किए जा सकते हैं ।
संसार में कुछ भी प्राप्त करने के लिए, कई चीजें आवश्यक हैं यथा -
1) इच्छित वस्तु प्राप्ति का ज्ञान,
2) उसे प्राप्त करने की इच्छा,
3) उसे प्राप्त करने का निश्चय, और
4) उसे प्राप्त करने हेतु प्रयास ।
ये सब होने पर भी आवश्यक नहीं हैं संसार में इच्छित परिणाम प्राप्त हो जाए । प्रारब्ध में उस वस्तु की प्राप्ति भी हो तब अभीष्ट वस्तु मिलती है [5][6] । प्राप्ति के पश्चात् इच्छित वस्तु का भोग हो सकता है । लेकिन भक्ति मार्ग में ऐसा नहीं है । जिस क्षण से जीव श्री कृष्ण की भक्ति प्रारंभ करता है, उसी क्षण से स्वरूप शक्ति आकर उसके अंतःकरण में निवास करने लगती है और शरणागति की मात्रा के अनुसार योगक्षेम [7] वहन करती है, तथा भक्ति के गुणों को प्रदान करके साधक का मार्ग सुगम बनाती जाती है । और अंत में, यह अंतिम फल भी प्रदान करती है । भक्ति केवल मन से ही की जाती है -
ऐसी भक्ति को दो स्तरों में वर्गीकृत किया जा सकता है ।
- साधना भक्ति
- सिद्धा भक्ति या प्रेमा भक्ति
कुछ संत साधना भक्ति को भी दो भागों में विभाजित करते हैं
अतः कुल मिलाकर भक्ति के तीन स्तर हैं । इन तीन स्तरों में कुल मिलाकर 6 गुण हैं । भक्ति के ये गुण वेदों में वर्णित अन्य मार्गों यथा कर्म, ज्ञान, योग या अन्यत्र उल्लिखित मार्गों से प्राप्त नहीं किए जा सकते हैं ।
संसार में कुछ भी प्राप्त करने के लिए, कई चीजें आवश्यक हैं यथा -
1) इच्छित वस्तु प्राप्ति का ज्ञान,
2) उसे प्राप्त करने की इच्छा,
3) उसे प्राप्त करने का निश्चय, और
4) उसे प्राप्त करने हेतु प्रयास ।
ये सब होने पर भी आवश्यक नहीं हैं संसार में इच्छित परिणाम प्राप्त हो जाए । प्रारब्ध में उस वस्तु की प्राप्ति भी हो तब अभीष्ट वस्तु मिलती है [5][6] । प्राप्ति के पश्चात् इच्छित वस्तु का भोग हो सकता है । लेकिन भक्ति मार्ग में ऐसा नहीं है । जिस क्षण से जीव श्री कृष्ण की भक्ति प्रारंभ करता है, उसी क्षण से स्वरूप शक्ति आकर उसके अंतःकरण में निवास करने लगती है और शरणागति की मात्रा के अनुसार योगक्षेम [7] वहन करती है, तथा भक्ति के गुणों को प्रदान करके साधक का मार्ग सुगम बनाती जाती है । और अंत में, यह अंतिम फल भी प्रदान करती है । भक्ति केवल मन से ही की जाती है -
काममय एवायं पुरुष इति । स यथाकामो भवति तत्क्रतुर्भवति यत्क्रतुर्भवति तत्कर्म कुरुते यत्कर्म कुरुते तदभिसंपद्यते॥
बृहदारण्यकोपनिषद 4.4.5
“जिसमें आसक्ति होती है, वैसे ही बन जाते हैं । जिसमें आसक्ति है उसे पाने की कामना बन जाती है [8], उस कामना पूर्ति के लिए प्रयास होता है । और प्रयास करने से उसी का फल मिलता है । ”
यदि भक्ति प्राप्त करने की प्रगाढ़ इच्छा है और जीव उसे प्राप्त करने का दृढ़ संकल्प कर ले, तो भक्ति महादेवी की कृपा से जीव द्रुतगति से जीव का उद्देश्य प्राप्त कर लेता है ।
तत्त्वज्ञान को बार-बार दोहराना और उसी का मनन करना ही तत्त्वज्ञान को बुद्धि में बैठाने का एकमात्र उपाय है [9][10] । जैसे-जैसे तत्त्वज्ञान दृढ़ होता जाता है, क्रियाएँ उसके अनुरूप हो जाती हैं । उस ज्ञान को क्रियान्वित करने के लिये किसी अन्य प्रयास की आवश्यकता नहीं है । यह अपने आप हो जायेगा । इसलिए सारा प्रयास तत्व ज्ञान को परिपक्व करने पर केंद्रित होना चाहिए [11] ।
यदि भक्ति प्राप्त करने की प्रगाढ़ इच्छा है और जीव उसे प्राप्त करने का दृढ़ संकल्प कर ले, तो भक्ति महादेवी की कृपा से जीव द्रुतगति से जीव का उद्देश्य प्राप्त कर लेता है ।
तत्त्वज्ञान को बार-बार दोहराना और उसी का मनन करना ही तत्त्वज्ञान को बुद्धि में बैठाने का एकमात्र उपाय है [9][10] । जैसे-जैसे तत्त्वज्ञान दृढ़ होता जाता है, क्रियाएँ उसके अनुरूप हो जाती हैं । उस ज्ञान को क्रियान्वित करने के लिये किसी अन्य प्रयास की आवश्यकता नहीं है । यह अपने आप हो जायेगा । इसलिए सारा प्रयास तत्व ज्ञान को परिपक्व करने पर केंद्रित होना चाहिए [11] ।

पिछले 6 लेखों में हमने 6 गुणों को संस्कृत में लिखे कई ग्रंथों के श्लोकों के माध्यम से विस्तार से जाना । श्री महाराज जी द्वारा प्रकट किया गया प्रत्येक ग्रंथ वैदिक ग्रंथों के अनुरूप है । श्री महाराज जी ने राधा गोविंद गीत में भक्ति के उन्हीं 6 गुणों को ब्रज भाषा में प्रकट किया है । यह हिन्दी भाषा की बोली ब्रज क्षेत्र में बोली जाती है । उन दोहों में श्री महाराज जी ने भक्ति के तीनों स्तरों तथा उनके गुणों पर प्रकाश डाला है ।
इस अंक में उन सभी 6 गुणों का सारांश दिया जा रहा है । अब जब हमने इन्हें विस्तार से समझ लिया है, तो इन दोहों को गाने से हमारी बुद्धि में भक्ति का माहात्म्य और भी दृढ़ हो जाएगा जिससे भक्ति को पाने की इच्छा बलवती स्वयं बनेगी [12] । इस प्रकार, इस मार्ग पर हम द्रुतगति से चलने को कटिबद्ध हो जायेंगे । इसलिए, स्वयं को प्रोत्साहित करने के लिए इन दोहों का गान करें तथा इनके अर्थ का मनन करें । ऐसा करने से भक्ति आपके दारिद्र्य का नाश करके आपको अनंत आनंद प्रदान कर देगी ।
तो बिना किसी विलंब के, ये प्रस्तुत हैं…
इस अंक में उन सभी 6 गुणों का सारांश दिया जा रहा है । अब जब हमने इन्हें विस्तार से समझ लिया है, तो इन दोहों को गाने से हमारी बुद्धि में भक्ति का माहात्म्य और भी दृढ़ हो जाएगा जिससे भक्ति को पाने की इच्छा बलवती स्वयं बनेगी [12] । इस प्रकार, इस मार्ग पर हम द्रुतगति से चलने को कटिबद्ध हो जायेंगे । इसलिए, स्वयं को प्रोत्साहित करने के लिए इन दोहों का गान करें तथा इनके अर्थ का मनन करें । ऐसा करने से भक्ति आपके दारिद्र्य का नाश करके आपको अनंत आनंद प्रदान कर देगी ।
तो बिना किसी विलंब के, ये प्रस्तुत हैं…
पहले भक्ति करने का अभ्यास करना पड़ता है । इसे साधना भक्ति कहा जाता है ।
मन इंद्रियों ते जो हो गोविंद राधे । भक्ति साधन भक्ति नवधा बता दे ॥
राधा गोविंद गीत 5667
“मन, ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय द्वारा भगवान में मन लगाने का अभ्यास साधना भक्ति कहलाता है [13][14] । यह भक्ति 9 प्रकार से की जाती है और इसे नवधा भक्ति कहा जाता है । ”
जैसा कि आप पहले से ही जानते हैं कि नवधा भक्ति का प्रतिपादन भागवत में परम भक्त प्रह्लाद ने किया था । भक्ति के इस चरण में भक्त को भक्ति के निम्नलिखित दो गुणों का लाभ प्राप्त होता है ।
जैसा कि आप पहले से ही जानते हैं कि नवधा भक्ति का प्रतिपादन भागवत में परम भक्त प्रह्लाद ने किया था । भक्ति के इस चरण में भक्त को भक्ति के निम्नलिखित दो गुणों का लाभ प्राप्त होता है ।
साधन भक्ति गुण गोविंद राधे । क्लेशघ्नी अरु शुभदा बता दे ॥ 5668
राधा गोविंद गीत 5668
"साधना भक्ति चरण में एक भक्त को दो गुणों का लाभ मिलता है - क्लेश (कष्टों) का नाश और शुभता । ”
प्रथम है क्लेशघ्नी अर्थात क्लेश को भस्म करने वाली । तीन कारणों से जीव को दुःख (क्लेश) मिलता है -
क्लेश के प्रकार तीन गोविंद राधे । पाप अरु वासना, अविद्या बता दे ॥
राधा गोविंद गीत 5669
“क्लेश तीन कारणों से होता हैं - पाप के कारण, वासना के कारण तथा अज्ञान के कारण । ”
पाप के भेद दो हैं गोविंद राधे । प्रारब्ध, प्रारब्ध रहित बता दे ॥
राधा गोविंद गीत 5670
जिसका फल मिल रहा है गोविंद राधे । वह पाप प्रारब्धजन्य बता दे ॥
राधा गोविंद गीत 5671
"जिन पापों के फल का भोग इस जन्म में निर्धारित किया गया है, उन्हें 'भाग्य जनित' पाप कहा जाता है । "
जिसका फल मिला नहीं गोविंद राधे । वह अप्रारब्ध पाप बता दे ॥
राधा गोविंद गीत 5672
“स्वेच्छा से किये गए क्रियमाण कर्मों के वे फल जिनको भविष्य में भोगना पड़ेगा - इन्हें ‘अप्रारब्धजन्य जनित’ पाप कहते हैं । ”
दोनों ही पापों की गोविंद राधे । बीज स्वरूपा है वासना बता दे ॥
राधा गोविंद गीत 5673
“इन दोनों प्रकार के पापों का कारण संसार की वस्तुओं में मन की आसक्ति है [15]। ”
वासनाओं का भी गोविंद राधे । कारण एक अविद्या बता दे ॥
राधा गोविंद गीत 5674
“और इस अज्ञान का एकमात्र कारण है भगवद्विमुखता [16] । ”
जीव एक दिन विमुख हुआ ऐसा नहीं है, वो सदा से भगवान से विमुख है । इस कारण जीव को सदा से अज्ञान ने दबोच रखा है ।
साधना भक्ति प्रारब्ध-जन्य पाप का और अप्रारब्ध-जन्य पाप देनों का नाश करती है । साथ ही संसारी वस्तुओं के भोग की वासना [8] को भी समाप्त करती है । जीव जितने ज्ञान को आत्मसात् करता जाता है जीव की वासनाएँ ठीक उतनी ही मात्रा में स्वतः समाप्त होती जाती हैं [13]।
जीव एक दिन विमुख हुआ ऐसा नहीं है, वो सदा से भगवान से विमुख है । इस कारण जीव को सदा से अज्ञान ने दबोच रखा है ।
साधना भक्ति प्रारब्ध-जन्य पाप का और अप्रारब्ध-जन्य पाप देनों का नाश करती है । साथ ही संसारी वस्तुओं के भोग की वासना [8] को भी समाप्त करती है । जीव जितने ज्ञान को आत्मसात् करता जाता है जीव की वासनाएँ ठीक उतनी ही मात्रा में स्वतः समाप्त होती जाती हैं [13]।
साधन अवस्था से ही दुखों का क्षय करने के साथ-साथ भक्ति शुभ भी प्रदान करना आरंभ कर देती है ।
शुभ का तात्पर्य गोविंद राधे । जगत की प्रीति विधान बता दे ॥
राधा गोविंद गीत 5676
“जिसने भगवान की भक्ति कर ली तो यह मान लिया जाता है कि उसने संपूर्ण चराचर जगत की भक्ति कर ली "।
उसने सबको तृप्त कर दिया [17]।
उसने सबको तृप्त कर दिया [17]।
शुभ का तात्पर्य गोविंद राधे । दैवी गुणों का विकास बता दे ॥
राधा गोविंद गीत 5677
“भक्ति करने से दैवीय गुण जीव के अंतःकरण में स्वतः ही प्रस्फुटित हो जाते हैं [18]। ”
शुभ का अर्थ वह सुख गोविंद राधे । विषय बाह्म ईश्वरीय बता दे ॥
राधा गोविंद गीत 5678
“भक्ति शुभ प्रदान करती है का अर्थ है संसारी ऐश्वर्य, भगवान का स्वरूपानंद [15], तथा भगवान के सौरस्य [16] को भी प्रदान करना आरंभ कर देती है । ”
उपर्युक्त सब गुण गोविंद राधे । साधन भक्ति में प्राप्त हों बता दे ॥
राधा गोविंद गीत 5679
"साधनावस्था से ही जीव को भक्ति के इन गुणों का लाभ प्राप्त होने लगता है"
इस दूसरे चरण में भक्त को भक्ति के दो और गुणों का लाभ मिलने लगता है ।
भाव भक्ति में तो गोविंद राधे । गुण मोक्षलघुताकृत है बता दे ॥
राधा गोविंद गीत 5680
मोक्षलघुताकृत गोविंद राधे । अर्थ पाँचों मुक्ति को तुच्छ बता दे ॥
राधा गोविंद गीत 5681
"मोक्षलघुताकृत का अर्थ है मुक्ति लघु साध्य प्रतीत होने लगता है"। अतः मुक्ति त्याज्य लगती है ।
भक्त मुक्ति सालोक्य गोविंद राधे । सारूप्य सामीप्य सार्ष्टि बता दे ॥
राधा गोविंद गीत 5682
"इस अवस्था में भक्ति संबंधि चार मुक्तियों (सालोक्य, सारूप्य, सामीप्य, सार्ष्टि ) को भक्त त्याग देता है" ।
ज्ञानियों का मोक्ष एक गोविंद राधे । सायुज्य या कैवल्य बता दे ॥
राधा गोविंद गीत 5683
"भाव भक्ति में जीव को ज्ञानियों की अभीष्ट सायुज्य मुक्ति क्षुद्र लगती है, इसलिए साधक इसे भी त्याग देता है"
भाव भक्ति का दूसरा गुण है सुदुर्लभा -
भाव भक्ति में दूजा गोविंद राधे । सुदुर्लभा गुण प्रमुख बता दे ॥
राधा गोविंद गीत 5684
"भक्ति से प्राप्त होने वाला श्री कृष्ण का सौरस्य कर्म, ज्ञान जैसे अन्य सभी साधनों द्वारा अप्राप्य है, भाव भक्ति के स्तर पर पहुँचने पर भक्त के लिए सुलभ हो जाता है"
सुदुर्लभा अर्थ यह गोविंद राधे । भुक्ति मुक्ति दें भक्ति ना दें बता दे ॥
राधा गोविंद गीत 5685
"भगवान मायिक क्षेत्र के ऐश्वर्य और यहाँ तक कि मुक्ति भी देने को तत्पर रहते हैं, लेकिन भक्ति देने में बहुत आनाकानी करते हैं" ।
साधन भक्ति के भी गोविंद राधे । दो गुण हैं भाव भक्ति में बता दे ॥
राधा गोविंद गीत 5686
"भाव भक्ति में भी साधना भक्ति के दो गुण होते हैं" -
जैसे आकाश गुण गोविंद राधे । वायु में अन्तर्निहित बता दे ॥
राधा गोविंद गीत 5687
"जैसे आकाश का गुण है शब्द । और सृष्टि काल में आकाश से उत्पन्न हुई वायु जिसका प्रमुख गुण स्पर्श है । और अपने कारण आकाश का गुण शब्द भी है" ।
आकाश वायु गुण गोविंद राधे । तेज में अन्तर्निहित बता दे ॥
राधा गोविंद गीत 5688
ऐसे साधन भक्ति गोविंद राधे । गुण रहें भाव भक्ति में भी बता दे ॥
राधा गोविंद गीत 5689
“इसी प्रकार भाव भक्ति में साधना भक्ति के गुण भी हैं ।”
साधन भाव भक्ति गोविंद राधे । गुण रहें प्रेमभक्ति में भी बता दे ॥
राधा गोविंद गीत 5690
“प्रेमा भक्ति में साधना भक्ति व भाव भक्ति दोनों के गुण होते हैं” । उनके अतिरिक्त दो गुण और भी होते हैं -
प्रेमभक्ति गुण सान्द्रा-गोविंद राधे । नन्द विशेषात्मा है बता दे ॥
राधा गोविंद गीत 5691
“ प्रेमा भक्ति [20] का गुण है सान्द्रानन्दविशेषात्मा ”
कोटि-कोटि ब्रह्मानंद गोविंद राधे । प्रेमानंद बिंदु के सम ना बता दे ॥
राधा गोविंद गीत 5692
“ब्रह्मानंद [18] को परार्ध से गुणा करने पर भी वह प्रेमानंद [19] के एक बिंदु के बराबर भी नहीं होता” प्रेमानंद का सुख इतना प्रगाढ़ होता है ।
यही अर्थ सान्द्रानन्द गोविंद राधे । विशेषात्मा गुण का है बता दे ॥
राधा गोविंद गीत 5693
“यही सांद्रानंद विशेषात्मा का अर्थ है ” ।
प्रेम भक्ति गुण दूजा गोविंद राधे । श्रीकृष्णाकर्षिणी है बता दे ॥
राधा गोविंद गीत 5694
“प्रेमा भक्ति का दूसरा गुण है 'श्रीकृष्णाकर्षिणी'" । एक मात्र प्रेमा भक्ति [16] में ही यह गुण है कि वह श्रीकृष्ण को भी आकर्षित कर लेती है ।
गोपियाँ श्रीकृष्ण को देखकर आकर्षित हो गई थीं, यह आश्चर्य की बात नहीं है । आश्चर्य की बात तो यह है कि पूर्णकाम, आत्माराम, आत्मक्रीड श्रीकृष्ण गोपियों को देखकर मुग्ध हो गए । यह गोपियों का कमाल नहीं है बल्कि यह भक्ति का गुण है जिसके कारण श्री कृष्ण गोपियों के साथ रास करने के लिए विवश हो गए । |
|
सब प्रिय जन सँग गोविंद राधे । कृष्ण को जो भक्ति वश में करा दे ॥
राधा गोविंद गीत 5695
“श्रीकृष्ण, भक्ति के वश में होकर, अपनी भगवत्ता भूल जाते हैं [21][22] तथा भक्त भी अपना जीवत्व भूल जाता है । ”
वही है प्रेम भक्ति गोविंद राधे । श्रीकृष्णाकर्षिणी ही बता दे ॥
राधा गोविंद गीत 5696
“प्रेमा भक्ति [20] में ही 'श्रीकृष्ण को आकर्षित करने' का गुण है । ”
भाव, निकटता और निष्कामता के आधार पर प्रेमा भक्ति [20] के आठ स्तर हैं जिन्हें सिद्ध भक्त प्राप्त कर सकते हैं । आप सिद्धा भक्ति में उनके बारे में पढ़ सकते हैं ।
अब तक आपने जाना
लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न का उत्तर अभी भी नहीं हुआ । और वह है कि "जो भक्ति करेगा उसे क्या मिलेगा"?
दीदी उस प्रश्न का उत्तर अगले कुछ लेखों में देंगी ।
भाव, निकटता और निष्कामता के आधार पर प्रेमा भक्ति [20] के आठ स्तर हैं जिन्हें सिद्ध भक्त प्राप्त कर सकते हैं । आप सिद्धा भक्ति में उनके बारे में पढ़ सकते हैं ।
अब तक आपने जाना
- किस प्रकार भक्ति के चार गुण साधक को मार्ग में सहायता प्रदान करते हैं और
- दो लक्षण जो केवल प्रेमा भक्ति [20] में पाए जाते हैं ।
लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न का उत्तर अभी भी नहीं हुआ । और वह है कि "जो भक्ति करेगा उसे क्या मिलेगा"?
दीदी उस प्रश्न का उत्तर अगले कुछ लेखों में देंगी ।
Bibliography - Learn more
[13] विक्षेप
|
[14] साधना करनी ही होगी
|
[18] ब्रह्मानंद
|
[19] प्रेमानंद
|
[20] सिद्धा भक्ति
|
यह लेख पसंद आया ?
उल्लिखित कतिपय अन्य प्रकाशनों के आस्वादन के लिये चित्रों पर क्लिक करें
दिव्य संदेश - सिद्धान्त, लीलादि |
दिव्य रस बंदु - सिद्धांत गर्भित लघु लेखप्रति माह आपके मेलबोक्स में भेजा जायेगा
|
शब्दावली - सिद्धांत को गहराई से समझने हेतु पढ़ेवेद-शास्त्रों के शब्दों का सही अर्थ जानिये
|
हम आपकी प्रतिक्रिया जानने के इच्छुक हैं । कृप्या contact us द्वारा
|
नये संस्करण की सूचना प्राप्त करने हेतु subscribe करें
|