
आध्यात्मिक क्षेत्र में अग्रसर होने के लिए तीन विधि-निषेेध हैं
'सत्संग' दो शब्दों की सन्धि से बना है; 'सत्' और 'संग'। 'संग' तो आप जानते ही हैं दो चीज़ का मिल जाना उसे संग कहते हैं l 'सत्' का अर्थ होता है अच्छा अथवा उत्कृष्ट l
'कुसंग' भी दो शब्दों की सन्धि से बना है 'कु' और 'संग'। 'कु' का अर्थ है बुरा अथवा निकृष्ट l
अतः 'सत्संग' अच्छी संगति को कहते हैं और 'कुसंग' बुरी संगति को कहते हैं l
दो सत्ता इस संपूर्ण विश्व में समाहित हैं, 'सत्य' और 'असत्य' l इनको 'सत' और 'असत' भी कहते हैं l भगवान् 'सत्य' हैं, क्योंकि वे अनादि अनंत और दिव्य हैं l यह संसार 'असत्य' है क्योंकि ये चिरस्थायी नहीं, यह एक दिन अस्तित्व में आया था और एक दिन इसका अंत होगा l
श्री कृष्ण गीता में कहते हैं -
- साधना भक्ति करना
- अधिकाधिक सत्संग करना एवं
- कुसंग से कोसों दूर रहने की भी चेष्टा करना l
'सत्संग' दो शब्दों की सन्धि से बना है; 'सत्' और 'संग'। 'संग' तो आप जानते ही हैं दो चीज़ का मिल जाना उसे संग कहते हैं l 'सत्' का अर्थ होता है अच्छा अथवा उत्कृष्ट l
'कुसंग' भी दो शब्दों की सन्धि से बना है 'कु' और 'संग'। 'कु' का अर्थ है बुरा अथवा निकृष्ट l
अतः 'सत्संग' अच्छी संगति को कहते हैं और 'कुसंग' बुरी संगति को कहते हैं l
दो सत्ता इस संपूर्ण विश्व में समाहित हैं, 'सत्य' और 'असत्य' l इनको 'सत' और 'असत' भी कहते हैं l भगवान् 'सत्य' हैं, क्योंकि वे अनादि अनंत और दिव्य हैं l यह संसार 'असत्य' है क्योंकि ये चिरस्थायी नहीं, यह एक दिन अस्तित्व में आया था और एक दिन इसका अंत होगा l
श्री कृष्ण गीता में कहते हैं -
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः । उभयोरपि दृष्टोन्तस्त्वनयोस्स्तत्त्वदर्शिभिः ॥ गीता २.१६
"सत्य का कभी अंत नहीं होता और असत्य सदा के लिए नहीं रहता l जो इस ज्ञान को समझ लेते हैं, वे ही 'सत' और 'असत' में भेद कर सकते हैं l
भगवान एवं उनके संत माया के क्षेत्र से परे हैं, अतः 'सत्य' की श्रेणी में आते हैं। इसलिये मन-बुद्धि से इनका पूर्ण संग करना सत्संग कहलाता है, अर्थात अच्छी संगत कहलाता है

तन अथवा मन से मायिक व्यक्ति या वस्तु में लगाव करना, मायिक कर्म है l माया का प्रत्येक आविर्भाव अनित्य होता है तथा माया के तीनों गुण (तामस, राजस, सात्विक) उस पर हावी होते हैं l इसीलिए प्रत्येक मायिक व्यक्ति या वस्तु में ये तीनों गुण पाये जाते हैं, अतः मायिक व्यक्ति या वस्तु का संग 'कुसंग’ कहलाता है l
संग का विशेष प्रभाव बुद्धि पर पड़ता है l अतः जब कोई व्यक्ति बुरी संगत में पड़ता है, तो उसकी बुद्धि यह समझ ही नहीं पाती कि वह कुसंग से ग्रसित है l जैसे कोई घोर शराबी, सड़क के किनारे किसी नाले में गिरा हो, उससे पुछा जाये, " भैया, यहाँ क्यों पड़े हो, अपने आलीशान घर के सुन्दर पलंग पर जा कर सो !" तब वह यह उत्तर देता है, "अरे अंधे हो क्या, दिखाई नहीं देता मैं अपने आरामदेह पलंग पर ही तो सो रहा हूँ l " यह शराबी ना ही झूठ बोल रहा है और ना ही कोई नाटक कर रहा है l शराब के नशे में धुत इस व्यक्ति की ज्ञानात्मक शक्ति क्षीण हो गयी है, अतः उसको नाले और अपने पलंग में कोई भेद नज़र ही नहीं आ रहा है l यदि यह व्यक्ति नशे में धुत ना होता, और नाले में गिर जाता, तो उसको यह अंतर समझ आता और वह उठ कर अपने घर को चला जाता l
जैसे मायिक जगत में प्रत्यक्ष समानान्तरता दिखती है कि जितनी शराब पी, उतनी बुद्धि भ्रमित हुई, उसी प्रकार की समानान्तरता भगवदीय छेत्र में भी है l जितनी मात्रा का कुसंग किया, उतनी ही मात्रा में सत्य और असत्य में भेद करने की क्षमता का अभाव हो गया l इस भ्रमित बुद्धि में यह समझने की शक्ति नहीं रह जाती कि, "हम कौन हैं" ? "हमारे जीवन का चरम लक्ष्य क्या है" ? "हम वहाँ तक कैसे पहुँचेंगे" ? इस स्थिति में भ्रमित बुद्धि वाले के लिए एक ही औषधि है और वो है किसी भगवत्प्राप्त संत का सत्संग l
माया का एक और विकार है जो हमारे झूठे अहम् को प्रोत्साहित करता है, जिसकी वजह से हम अपने दोष नहीं देख पाते हैं l हमारे शास्त्र कहते हैं कि किसी असत्य वस्तु में आसक्ति पाप है l प्रत्येक मायिक व्यक्ति किसी न किसी मायिक वस्तु में आसक्त है, या किसी मायिक उपभोग की कामना रखता है l परन्तु अहम् के कारण यह कोई नहीं मानता कि मैं भी एक पापात्मा हैं l प्रत्येक व्यक्ति यह समझता है कि वह बहुत लायक और बुद्धिमान है, कोई भी, चाहे वो अपढ़ गंवार ही क्यों ना हो, यह सुनने को राज़ी न होगा कि, "तुम तो निरे बुद्धू हो !" अतः इस पराकाष्ठा की भ्रमित बुद्धि से अपेक्षा करना की वह किसी और का मार्गदर्शन करे यह तो घोर पागलपन का द्योतक है ।
भगवद प्राप्त संत माया के प्रभाव से परे होते हैं, वे दिव्य, चिन्मय ज्ञान के भण्डार होते हैं l वे इस पृथ्वी पर जीव कल्याण के लिए ही अवतरित होते हैं l वही संत दिव्य ज्ञान प्रदान कर सकता है जिससे दिव्यानंद की प्राप्ति हो चुकी हो l जो जीव अनंत जन्मों से अज्ञान की निद्रा में निमग्न है, उसके अन्तःकरण में ज्ञान का संचार करने की क्षमता केवल ऐसे संतों में ही होती है l संत शरणापन्न जीवों पर ही कृपा करते हैं अतः दिव्यानंद प्राप्ति के लिए किसी सच्चे संत के शरणापन्न होना पड़ेगा l
प्रत्येक मायिक व्यक्ति की बुद्धि में कुसंग का बीज अवश्य होता है l यह बीज, हमारे पूर्व जन्म के संस्कारों और इस जन्म की प्रवृतियों के अनुसार बढ़ता घटता है l
हम अपने व्यक्तिगत अनुभव से ये जानते हैं कि दिन भर में अनेकों बार परिस्थिति और वातावरण के अनुसार हमारे विचार बदलते रहते हैं l उदाहरण के रूप में आप देख सकते हैं कि किसी आध्यात्मिक व्यक्ति की संगति के पश्चात्, हमारे विचार कुछ इस प्रकार होते हैं, " हमको साधना करनी चाहिए, सांसारिकता में समय व्यर्थ नहीं करना चाहिये l कोई नहीं जानता अभी कितना जीवन बाकी है l यह मेरी गलती है कि मैं भगवत्प्राप्ति के लिए अत्यधिक प्रयत्न नहीं कर रहा हूँ l इस स्थिति के लिए मैं ही दोषी हैं, अतः कहीं न कहीं से समय निकाल कर सुबह एक घंटे साधना करनी ही है l "
पुनः किसी मायिक महत्वकांक्षी व्यक्ति कि संगति में वही व्यक्ति सोचता है, "आध्यात्मिक पथ पर अग्रसर होने में बहुत लाभ है, परन्तु हम गृहस्थी हैं l केवल अपनी भगवत प्राप्ति के लिये कर्म कैसे कर सकते हैं । अभी तो बाल बच्चों की उचित देखभाल करनी है, इनके पठन-पाठन के लिये पैसे बचाने हैं, और अपने भविष्य के लिये भी पूँजी एकत्रित करनी है I हम तो अभी ५० साल के हैं, अभी आगे ३० साल और हैं हमारे हाँथ में l "
संग का विशेष प्रभाव बुद्धि पर पड़ता है l अतः जब कोई व्यक्ति बुरी संगत में पड़ता है, तो उसकी बुद्धि यह समझ ही नहीं पाती कि वह कुसंग से ग्रसित है l जैसे कोई घोर शराबी, सड़क के किनारे किसी नाले में गिरा हो, उससे पुछा जाये, " भैया, यहाँ क्यों पड़े हो, अपने आलीशान घर के सुन्दर पलंग पर जा कर सो !" तब वह यह उत्तर देता है, "अरे अंधे हो क्या, दिखाई नहीं देता मैं अपने आरामदेह पलंग पर ही तो सो रहा हूँ l " यह शराबी ना ही झूठ बोल रहा है और ना ही कोई नाटक कर रहा है l शराब के नशे में धुत इस व्यक्ति की ज्ञानात्मक शक्ति क्षीण हो गयी है, अतः उसको नाले और अपने पलंग में कोई भेद नज़र ही नहीं आ रहा है l यदि यह व्यक्ति नशे में धुत ना होता, और नाले में गिर जाता, तो उसको यह अंतर समझ आता और वह उठ कर अपने घर को चला जाता l
जैसे मायिक जगत में प्रत्यक्ष समानान्तरता दिखती है कि जितनी शराब पी, उतनी बुद्धि भ्रमित हुई, उसी प्रकार की समानान्तरता भगवदीय छेत्र में भी है l जितनी मात्रा का कुसंग किया, उतनी ही मात्रा में सत्य और असत्य में भेद करने की क्षमता का अभाव हो गया l इस भ्रमित बुद्धि में यह समझने की शक्ति नहीं रह जाती कि, "हम कौन हैं" ? "हमारे जीवन का चरम लक्ष्य क्या है" ? "हम वहाँ तक कैसे पहुँचेंगे" ? इस स्थिति में भ्रमित बुद्धि वाले के लिए एक ही औषधि है और वो है किसी भगवत्प्राप्त संत का सत्संग l
माया का एक और विकार है जो हमारे झूठे अहम् को प्रोत्साहित करता है, जिसकी वजह से हम अपने दोष नहीं देख पाते हैं l हमारे शास्त्र कहते हैं कि किसी असत्य वस्तु में आसक्ति पाप है l प्रत्येक मायिक व्यक्ति किसी न किसी मायिक वस्तु में आसक्त है, या किसी मायिक उपभोग की कामना रखता है l परन्तु अहम् के कारण यह कोई नहीं मानता कि मैं भी एक पापात्मा हैं l प्रत्येक व्यक्ति यह समझता है कि वह बहुत लायक और बुद्धिमान है, कोई भी, चाहे वो अपढ़ गंवार ही क्यों ना हो, यह सुनने को राज़ी न होगा कि, "तुम तो निरे बुद्धू हो !" अतः इस पराकाष्ठा की भ्रमित बुद्धि से अपेक्षा करना की वह किसी और का मार्गदर्शन करे यह तो घोर पागलपन का द्योतक है ।
भगवद प्राप्त संत माया के प्रभाव से परे होते हैं, वे दिव्य, चिन्मय ज्ञान के भण्डार होते हैं l वे इस पृथ्वी पर जीव कल्याण के लिए ही अवतरित होते हैं l वही संत दिव्य ज्ञान प्रदान कर सकता है जिससे दिव्यानंद की प्राप्ति हो चुकी हो l जो जीव अनंत जन्मों से अज्ञान की निद्रा में निमग्न है, उसके अन्तःकरण में ज्ञान का संचार करने की क्षमता केवल ऐसे संतों में ही होती है l संत शरणापन्न जीवों पर ही कृपा करते हैं अतः दिव्यानंद प्राप्ति के लिए किसी सच्चे संत के शरणापन्न होना पड़ेगा l
प्रत्येक मायिक व्यक्ति की बुद्धि में कुसंग का बीज अवश्य होता है l यह बीज, हमारे पूर्व जन्म के संस्कारों और इस जन्म की प्रवृतियों के अनुसार बढ़ता घटता है l
हम अपने व्यक्तिगत अनुभव से ये जानते हैं कि दिन भर में अनेकों बार परिस्थिति और वातावरण के अनुसार हमारे विचार बदलते रहते हैं l उदाहरण के रूप में आप देख सकते हैं कि किसी आध्यात्मिक व्यक्ति की संगति के पश्चात्, हमारे विचार कुछ इस प्रकार होते हैं, " हमको साधना करनी चाहिए, सांसारिकता में समय व्यर्थ नहीं करना चाहिये l कोई नहीं जानता अभी कितना जीवन बाकी है l यह मेरी गलती है कि मैं भगवत्प्राप्ति के लिए अत्यधिक प्रयत्न नहीं कर रहा हूँ l इस स्थिति के लिए मैं ही दोषी हैं, अतः कहीं न कहीं से समय निकाल कर सुबह एक घंटे साधना करनी ही है l "
पुनः किसी मायिक महत्वकांक्षी व्यक्ति कि संगति में वही व्यक्ति सोचता है, "आध्यात्मिक पथ पर अग्रसर होने में बहुत लाभ है, परन्तु हम गृहस्थी हैं l केवल अपनी भगवत प्राप्ति के लिये कर्म कैसे कर सकते हैं । अभी तो बाल बच्चों की उचित देखभाल करनी है, इनके पठन-पाठन के लिये पैसे बचाने हैं, और अपने भविष्य के लिये भी पूँजी एकत्रित करनी है I हम तो अभी ५० साल के हैं, अभी आगे ३० साल और हैं हमारे हाँथ में l "
और कभी कभी घोर मायिक विलासी लोगों की संगति कर हम अपने लक्ष्य से च्युत हो चार्वाक सिद्धांत का पालन करने लगते हैं l
यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्। चा. बृ.
"जब तक जीवन है मौज करो l स्वर्ग और नरक से भयभीत न हो l ऋण लेकर भी यदि जीवन का आंनद उठाना पड़े तो वैसा ही करो l मृत्यु के बाद कौन लौट के आया है l "
खाओ पियो मौज करो
तत्वज्ञानी लोग ऐसे अभागे मनुष्यों को देख करुणा से भर जाते हैं, जिन्हें असली मौजमस्ती का भान ही नहीं है l ऐसे लोगों की भ्रमित बुद्धि मौजमस्ती के नाम पर उनको ऐसे कुऍं में धकेल देती है जहाँ कल्पों तक भवाटवी में चक्कर लगाते हुये दुःख, दर्द के आलावा कुछ नहीं प्राप्त होता l
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आज के युग में, तामस गुण की अधिकता है l तामस से कम राजस दिखाई पड़ता है और सात्विक गुण बहुत कम कहीं कहीं ही दिखता है l यदि अपने गुरु द्वारा दिए गये तत्वज्ञान के अनुसार हम न चलेंगे, तब हमारा गर्त में गिरना निश्चित है (1) l
तत्वज्ञान को मस्तिष्क में रखने के लिये महाप्रभु चैतन्य कहते हैं -
तत्वज्ञान को मस्तिष्क में रखने के लिये महाप्रभु चैतन्य कहते हैं -
आवृत्तिरसकृदुपदेशात्।
"तत्वज्ञान का चिन्तन व मनन बार बार करो" I कभी ये न सोचो कि हमको सब पता है, यह क्षणिक भोग हमको भ्रमित नहीं करेगा l पता लापता हो जाता है। याद रखो एक क्षण के कुसंग से अजामिल सरीखा शास्त्रों का प्रकांड ज्ञाता, महापापी बन गया था (2)। अपनी बहदुरी न दिखाओ ।
गीता में कहा गया है - क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशाद् प्रणश्यति ।।2.63।। |
"क्रोध से मोह उत्पन्न होता है, मोह से स्मृति भ्रमित होती है। स्मृति के भ्रमित होने पर बुद्धि का नाश होता है, और बुद्धि के नाश होने से मनुष्य का सर्वनाश निश्चित हो जाता है?।
अतः यह परमावश्यक है कि हम सदा तत्वज्ञान का अवलंब लें l यह तभी संभव है जब हम निरंतर किसी सच्चे भगवत प्राप्त संत का संग करेंगे l
अतः यह परमावश्यक है कि हम सदा तत्वज्ञान का अवलंब लें l यह तभी संभव है जब हम निरंतर किसी सच्चे भगवत प्राप्त संत का संग करेंगे l
अगले महीने के अंक में चर्चा करेंगे कि कितने प्रकार के कुसंग होते हैं l सतत् साधना भक्ति करते रहने से सन्मार्ग में हम अग्रसर होंगे और सदा अपने को कुसंग के जाल से बचने का भी प्रयास निरंतर करना होगा l इन दोनों के करने से ही हम भक्ति के मार्ग में उन्नति कर पायेंगे l
क्रमशः...
कुसंग में पड़ जाने पर स्वयं मन-बुद्धि का भी तदनुकुल ही निर्णय हो जाता है, जिससे साधक स्वयं अपनी बुद्धि से निर्णय नहीं कर पाता कि मैं कुसंग में पड़ गया हूँ ।
- Jagadguruttam Shri Kripalu Ji Maharaj