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हर जीव जानबूझ अथवा अनजाने में, इस संसार में आनंद के लिए ही अथक प्रयास करता है, और आनंद पाने की उसकी खोज तब तक जारी रहेगी जब तक वह आनंद प्राप्त नहीं कर लेता। "आनंद" शब्द भगवान का पर्यायवाची है। आप भगवान को आनंद, ईश्वर, खुदा, अल्लाह, या अन्य नाम से पुकारें - इन सभी शब्दों का एक ही अर्थ है।
आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात् ।
"ब्रह्म आनंद है"।
चूँकि भगवान स्वयं आनंद हैं, इसलिए यह कहना पूर्णतया सही नहीं है कि 'भगवान सुख का धाम है।' क्योंकि इस कथन का अर्थ है कि आनंद उस बर्तन के समान है जिसमें आनंद है । अर्थात भगवान और आनंद पृथक वस्तुएँ हैं । लेकिन वेद कहते हैं
चूँकि भगवान स्वयं आनंद हैं, इसलिए यह कहना पूर्णतया सही नहीं है कि 'भगवान सुख का धाम है।' क्योंकि इस कथन का अर्थ है कि आनंद उस बर्तन के समान है जिसमें आनंद है । अर्थात भगवान और आनंद पृथक वस्तुएँ हैं । लेकिन वेद कहते हैं
रसो वै स: ।
"वह आनंद है।"
सभी जीव-जंतु, मनुष्य, पशु, कीड़े-मकोड़े, पेड़-पौधे, देवता या राक्षस आदि ईश्वर के सनातन अंश हैं, इसलिए प्रत्येक जीव स्वाभाविक रूप से उस आनंद को प्राप्त करने का प्रयास करता है। प्रत्येक अंश स्वाभाविक रूप से अपने अंशी की कामना करता है और उसे प्राप्त करके वह पूर्ण हो जाता है। हालांकि हम नहीं जानते, लेकिन उस आनंद का दूसरा नाम भगवान है। निम्नलिखित सभी श्लोक एक ही बात कहते हैं।
सभी जीव-जंतु, मनुष्य, पशु, कीड़े-मकोड़े, पेड़-पौधे, देवता या राक्षस आदि ईश्वर के सनातन अंश हैं, इसलिए प्रत्येक जीव स्वाभाविक रूप से उस आनंद को प्राप्त करने का प्रयास करता है। प्रत्येक अंश स्वाभाविक रूप से अपने अंशी की कामना करता है और उसे प्राप्त करके वह पूर्ण हो जाता है। हालांकि हम नहीं जानते, लेकिन उस आनंद का दूसरा नाम भगवान है। निम्नलिखित सभी श्लोक एक ही बात कहते हैं।
अंशो नाना व्यपदेशात् ।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।
ईश्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन अमल सहज सुख राशी । रामायण
ईश्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन अमल सहज सुख राशी । रामायण
जीव अनंत काल से सुख की खोज कर रहे हैं, फिर भी हमें अभी तक वह प्राप्त नहीं हुआ है, क्योंकि हम इसे गलत क्षेत्र में खोज रहे हैं। दूसरे शब्दों में, हम ईश्वर को प्राप्त करने के लिए प्रयास करने के बजाय, अपनी भौतिक संपत्ति को बढ़ाने के लिए प्रयास कर रहे हैं। ये भौतिक संपत्ति माया की बनी चीजें हैं, इसलिए इनमें आनंद का लवलेश भी नहीं है ।
संसार में इंद्रियों का क्षणिक सुख प्राप्त होता रहता है और हम अनजाने में इसे अपना सुख मान लेते हैं। वेदों ने आनंद की परिभाषा की है
संसार में इंद्रियों का क्षणिक सुख प्राप्त होता रहता है और हम अनजाने में इसे अपना सुख मान लेते हैं। वेदों ने आनंद की परिभाषा की है
यो वै भूमा तत् सुखम् ।
"जो आनंद असीमित और चिरकाल के लिए हो वही आनंद है।" इन्द्रियों का क्षणिक सुख सुख नहीं है। यह तो आनंद का भ्रम मात्र है।
सांसारिक विलासिता प्रकृति में सीमित हैं, क्योंकि सबसे बड़ा सुख भी होता है । इससे हम लगातार असंतुष्ट रहते हैं। और जो भी सांसारिक सुख हम अनुभव करते हैं, वह ज्वार-भाटे के समान बढ़ता घटता रहता है और अंततः समाप्त हो जाता है। उदाहरण के लिए, एक माँ का छोटा सा बालक खो गया है। उस बालक के लिए रो रही है बिलख रही है । 2 दिन बाद वह बालक मिल गया। माँ ने उसे जोर से चिपटाया बड़ा सुख मिला तुम मेरा दुबारा चिपटाया तिबारा चिपटाया थोड़ी देर बाद चिपटाया में सुख नहीं मिल रहा है। तो माँ कहती है “जाओ बेटा खेलो” । अभी भी यदि वह बालक मांमाँसे चिपटना चाहे तो माँ को दुख मिलने लगता है ।
। यह हमारा दैनिक अनुभव है।
तो सांसारिक सुख में दो दोष हैं, पहला यह सीमित है और दूसरा यह हमेशा के लिए नहीं रहता है। और हम सुख की कामना करते हैं जो असीमित है और हमेशा के लिए रहता है। ऐसा सुख श्रीकृष्ण हैं ।
इस संसार से रचयिता ब्रह्मा के ब्रह्मलोक तक सब माया का विस्तार है अत: समस्त संसार का सुख क्षणभंगुर और नश्वर है। शाश्वत सुख की प्राप्ति के लिए श्रीकृष्ण के चरण कमलों की ही शरण लेनी पड़ती है।
श्री कृष्ण की कृपा पाने के लिए हमें कुछ भी कीमत चुकाने की आवश्यकता नहीं है। हमें बस इतना करना है कि उनकी कृपा के लिए प्राप्त करने के लिए कातर भाव से उनसे माँग लें और वह तत्काल असीमित, चिरकाल के लिए दिव्य सुख प्रदान करेंगे। हालाँकि, आनंद प्राप्त करने की तीव्र लालसा होनी चाहिए, भगवान के साथ छल कपट नहीं चलता । माँ के पूर्ण शरणागत नवजात शिशु की भाँति होकर आर्त होकर पुकारो । कई महीनों तक शिशु रोकर माँ से सब आवश्यकताएँ पूरी करवा लेता है । माँ बालक का रुदन सुनकर दौड़ी-दौड़ी आती है। परंतु संसारी माँ अल्पज्ञ है कभी-कभी गलत उपचार भी कर देती है। परंतु भगवान तो सर्वज्ञ हैं तथा हितैषी हैं अतः वे कभी भी जीव का अहित नहीं करते ।
जब जीव को यह दृढ़ विश्वास हो जाता है कि केवल श्री कृष्ण ही इच्छित सुख प्रदान कर सकते हैं तो जीव करुण पुकार करता है । भगवान उस पुकार को सुनते ही अपने पर कंट्रोल नहीं कर पाते और दौड़े-दौड़े जीव के पास आकर उसे तुरंत मालामाल कर देते हैं ।
ज्ञानाभाव में जीव की दृढ़ मान्यता है कि, "इस संसार में आनंद है, जिसे मैं एक दिन प्राप्त करूँगा।" इस विश्वास ने ही हमें अनंत काल से 84 लाख योनियों में घुमाया है । प्रत्येक जीवन में हमने यही निश्चय किया इसलिए यह विश्वास अत्यंत प्रगाढ़ हो गया है । इस कारण हम यह स्वीकार नहीं करना चाहते कि श्रीकृष्ण ही सुख के स्रोत हैं। इस भ्रम को दूर करने और भगवान में प्रीति बढ़ाने के लिए इस ज्ञान का पुनः पुनः मनन करना होगा । ।
सांसारिक विलासिता प्रकृति में सीमित हैं, क्योंकि सबसे बड़ा सुख भी होता है । इससे हम लगातार असंतुष्ट रहते हैं। और जो भी सांसारिक सुख हम अनुभव करते हैं, वह ज्वार-भाटे के समान बढ़ता घटता रहता है और अंततः समाप्त हो जाता है। उदाहरण के लिए, एक माँ का छोटा सा बालक खो गया है। उस बालक के लिए रो रही है बिलख रही है । 2 दिन बाद वह बालक मिल गया। माँ ने उसे जोर से चिपटाया बड़ा सुख मिला तुम मेरा दुबारा चिपटाया तिबारा चिपटाया थोड़ी देर बाद चिपटाया में सुख नहीं मिल रहा है। तो माँ कहती है “जाओ बेटा खेलो” । अभी भी यदि वह बालक मांमाँसे चिपटना चाहे तो माँ को दुख मिलने लगता है ।
। यह हमारा दैनिक अनुभव है।
तो सांसारिक सुख में दो दोष हैं, पहला यह सीमित है और दूसरा यह हमेशा के लिए नहीं रहता है। और हम सुख की कामना करते हैं जो असीमित है और हमेशा के लिए रहता है। ऐसा सुख श्रीकृष्ण हैं ।
इस संसार से रचयिता ब्रह्मा के ब्रह्मलोक तक सब माया का विस्तार है अत: समस्त संसार का सुख क्षणभंगुर और नश्वर है। शाश्वत सुख की प्राप्ति के लिए श्रीकृष्ण के चरण कमलों की ही शरण लेनी पड़ती है।
श्री कृष्ण की कृपा पाने के लिए हमें कुछ भी कीमत चुकाने की आवश्यकता नहीं है। हमें बस इतना करना है कि उनकी कृपा के लिए प्राप्त करने के लिए कातर भाव से उनसे माँग लें और वह तत्काल असीमित, चिरकाल के लिए दिव्य सुख प्रदान करेंगे। हालाँकि, आनंद प्राप्त करने की तीव्र लालसा होनी चाहिए, भगवान के साथ छल कपट नहीं चलता । माँ के पूर्ण शरणागत नवजात शिशु की भाँति होकर आर्त होकर पुकारो । कई महीनों तक शिशु रोकर माँ से सब आवश्यकताएँ पूरी करवा लेता है । माँ बालक का रुदन सुनकर दौड़ी-दौड़ी आती है। परंतु संसारी माँ अल्पज्ञ है कभी-कभी गलत उपचार भी कर देती है। परंतु भगवान तो सर्वज्ञ हैं तथा हितैषी हैं अतः वे कभी भी जीव का अहित नहीं करते ।
जब जीव को यह दृढ़ विश्वास हो जाता है कि केवल श्री कृष्ण ही इच्छित सुख प्रदान कर सकते हैं तो जीव करुण पुकार करता है । भगवान उस पुकार को सुनते ही अपने पर कंट्रोल नहीं कर पाते और दौड़े-दौड़े जीव के पास आकर उसे तुरंत मालामाल कर देते हैं ।
ज्ञानाभाव में जीव की दृढ़ मान्यता है कि, "इस संसार में आनंद है, जिसे मैं एक दिन प्राप्त करूँगा।" इस विश्वास ने ही हमें अनंत काल से 84 लाख योनियों में घुमाया है । प्रत्येक जीवन में हमने यही निश्चय किया इसलिए यह विश्वास अत्यंत प्रगाढ़ हो गया है । इस कारण हम यह स्वीकार नहीं करना चाहते कि श्रीकृष्ण ही सुख के स्रोत हैं। इस भ्रम को दूर करने और भगवान में प्रीति बढ़ाने के लिए इस ज्ञान का पुनः पुनः मनन करना होगा । ।
अभ्यास वैराग्याभाम् तन्निरोधः ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ।।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ।।
"भगवान में मन लगाने का नियमित अभ्यास तथा संसार से मन हटाने का अभ्यास करने से सुख प्राप्त हो जाएगा "। जीवन के परम -चरम लक्ष्य को प्राप्त करने के अभ्यास को ही साधना भक्ति कहा जाता है।
दिव्य प्रेम पिपासु साधक साधना भक्ति से आरंभ करता है । ज्यों-ज्यों संसार से वैराग्य बढ़ता जाता है त्यों-त्यों भगवान में प्रीति बढ़ती जाती है । जैसे ही वह भगवान के रूपध्यान पूर्वक भगवान का स्मरण करता है रूपध्यान पूर्वक भगवान का स्मरण करता है शनैः-शनैः भगवान से मिलन की व्याकुलता बढ़ती जाती है । इसके बाद, वह भाव भक्ति में पहुँच जाता है। इस चरण के पूरा होने पर, साधक का गुरु साधक के हृदय में दिव्य प्रेम का संचार करता है। दिव्य आनंद के सात और आनंदमय स्तर हैं। कुछ जीव भावावेश भक्ति तक पहुँच सकते हैं, बहुत कम जीव सुख के उच्चतम स्तर तक पहुँच पाती हैं, महाभाव।
तो जीव का पहला कर्तव्य है की संसार के स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करें और इस ज्ञान पर मनन करे, फिर भगवद प्राप्त संत के शरणागत होकर भक्ति का अभ्यास करना शुरू करें । गुरु की कृपा से प्रेमा भक्ति की प्राप्ति हो जाएगी ।
दिव्य प्रेम पिपासु साधक साधना भक्ति से आरंभ करता है । ज्यों-ज्यों संसार से वैराग्य बढ़ता जाता है त्यों-त्यों भगवान में प्रीति बढ़ती जाती है । जैसे ही वह भगवान के रूपध्यान पूर्वक भगवान का स्मरण करता है रूपध्यान पूर्वक भगवान का स्मरण करता है शनैः-शनैः भगवान से मिलन की व्याकुलता बढ़ती जाती है । इसके बाद, वह भाव भक्ति में पहुँच जाता है। इस चरण के पूरा होने पर, साधक का गुरु साधक के हृदय में दिव्य प्रेम का संचार करता है। दिव्य आनंद के सात और आनंदमय स्तर हैं। कुछ जीव भावावेश भक्ति तक पहुँच सकते हैं, बहुत कम जीव सुख के उच्चतम स्तर तक पहुँच पाती हैं, महाभाव।
तो जीव का पहला कर्तव्य है की संसार के स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करें और इस ज्ञान पर मनन करे, फिर भगवद प्राप्त संत के शरणागत होकर भक्ति का अभ्यास करना शुरू करें । गुरु की कृपा से प्रेमा भक्ति की प्राप्ति हो जाएगी ।