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भक्ति ही क्यों करें

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जब किसी विषय के एकांगी प्रभुत्व को प्रमाणित करना होता है, तो हमें न्याय दर्शन का ही प्रश्रय लेना पड़ता है। पिछले चार अंकों में न्याय शास्त्र में दिए गए पाँच मापदण्ड (नीचे दी गई तालिका को देखें) पर इन तीनों मार्गों (कर्म, ज्ञान और भक्ति) को हमने वेदों [1] और शास्त्रों के आधार पर कस कर सिद्ध किया कि एक मात्र भक्ति से ही हमें अपना लक्ष्य प्राप्त होगा। इसलिए जगद्गुरूत्तम् स्वामी श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतानुसार [2] वास्तविक अनंत अपरिमेय दिव्यानंद प्राप्त्यर्थ जीव को​ भक्ति ही करनी होगी।
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​जैसा कि हमने पिछले अंकों में पढ़ा, कर्म और ज्ञान दोनों की ही सभी शास्त्रों में निन्दा की गई है। साथ ही यह भी जाना कि कर्म और ज्ञान में भक्ति का मिश्रण करने से, यानी कर्मयोग से, या ज्ञानयोग से भी लक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है। तो अब यह प्रश्न आता है कि क्यों न हम कर्म और ज्ञान मिश्रित भक्ति से ही लक्ष्य प्राप्त कर लें ?

हाँ, यह प्रश्न जायज़ है। चलिए इस प्रश्न को हल करते हैं। भक्ति 3 प्रकार की होती है, यथा - 1) आरोपसिद्धा भक्ति 2) संगसिद्धा भक्ति 3) स्वरूपसिद्धा भक्ति

तो ज्ञान योग संग सिद्धा भक्ति और कर्म मिश्रित भक्ति आरोपसिद्धा एवं संगसिद्धा भक्ति की श्रेणी में आते हैं जो जीव को कुछ सीमा तक श्री कृष्ण के समीप ले जा सकते हैं । परंतु ये पूर्णत: श्री कृष्ण के सन्मुख नहीं करा सकते । उपरोक्त तीन प्रकार की भक्ति में स्वरूपसिद्धा भक्ति उच्च्तम है क्योंकि उसका रस उच्च्तम कक्षा [3]​​ का है।

चलिये पहले कर्म मिश्रित भक्ति की चर्चा करते हैं।

कर्म मिश्रित भक्ति की साधना

संसार में घोर​ आसक्त जीवों [4] के लिए वेद ने कर्म मार्ग (अर्थात वर्णाश्रम धर्म का पालन या कर्मकांड​) बताया है जिससे अपनी वर्तमान उच्श्रृंखलता पर अंकुश लगा कर​ मृत्युपर्यंत स्वर्ग के सुख के लिए जीव प्रयत्न​​ करें​। वे अपनी कामना-पूर्ति के लक्ष्य को लेकर वैदिक​ कर्म करते हैं [5]।
​
ऐसे जीवों को यदि कोई भगवत्प्राप्त संत मिल जाएँ, तो वे पूर्व की भाँति वैदिक कर्म को भगवान को अर्पित करने का परामर्श देते हैं। लेकिन इसमें अपने सुख की इच्छा रहती है, भगवान श्रीकृष्ण की सेवा के हेतु कर्म नहीं होता। इसी को आरोप सिद्धा भक्ति कहते हैं।

इससे श्रेष्ठ है वेद-विहित कर्म को भक्ति के अंग के रूप में स्वीकार करना। इसी को संग सिद्धा भक्ति कहते हैं।

ऐसा करने से यदाकदा जीव का भगवान में अनुराग हो जाता है। जैसे-जैसे भक्ति परिपक्व होती जाती है, मन भगवान में लगता जाता है तो कर्म स्वतः छूटता जाता है। इसी को कर्म योग कहा जाता है। और जब मन पूर्णतया भगवान में लग जाता है तो पूर्णतया वैदिक कर्म छूट जाता है। तब जीव केवल श्रीकृष्ण के प्रीत्यर्थ​ ही कर्म करते हैं इसी को स्वरूप सिद्धा भक्ति कहते हैं।

ऐसे कर्मयोग की आदर्शा महारास से लौटने के बाद गोपियाँ बनीं। महारास के पश्चात् जब श्रीकृष्ण ने गोपियों को अपने-अपने घर लौटने की आज्ञा दी, तब उनकी आज्ञा मानकर गोपियाँ लौट गईं। तब से प्रतिक्षण लौकिक कार्य करते हुए भी मन पूर्णतया श्री कृष्ण में ही रहा।
या दोहने वहनने मथनोपलेप प्रेंखेंखनार्भ रुदितो क्षणमार्जनादौ । 
गायन्ति चैनमनुरक्तधियोश्रुकंठ्यो, धन्या ब्रजस्त्रिय उरुक्रम चित्तायानाः ।
भा १०.४४.१५​
“गोपियाँ गायों को दूहते हुए, दही मथकर मक्खन निकालते हुए, घर साफ करते हुए, अपने बच्चों को दुलारते समय, आदि अन्य क्रियाएँ करते हुए निरंतर आँसू बहाते हुए भगवान श्री कृष्ण के नाम, गुण, लीलादि का गान करती थीं”। अर्थात उनका मन दैनिक गृह कार्य करते हुए निरंतर भगवान में निमग्न रहता था। गोपियाँ निरक्षर थीं, उनको वेद शास्त्र का ज्ञान नहीं था। तो वैदिक कर्म में भक्ति के मिश्रण से सर्वश्रेष्ठ रस नहीं प्राप्त होता। वह तो केवल निष्काम प्रेम से प्राप्त होता है। [6][7].
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ज्ञान मिश्रित भक्ति की साधना

ज्ञान मार्गियों को अंतःकरण शुद्धि के लिये सर्व प्रथम भक्ति करनी पड़ती है, जिसके बाद ही वे ज्ञान मार्ग में चलने के अधिकारी बनते है। ज्ञान मार्ग का साध्य आत्मज्ञान है। तो आत्मज्ञान प्राप्त करने के बाद पुनः सगुण साकार​ ब्रह्म की भक्ति करने से ब्रह्मानंद की प्राप्ति होती है। ब्रह्मानंद प्राप्त जीव जब तक शरीर धारण किए रहता है उसे ब्रह्मलीन ज्ञानी कहा जाता है। मृत्योपरांत वह जीव​ ब्रह्म में लीन हो जाता है और मुक्त कहलाता है।
ज्ञानी
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ब्रह्मानंद से सरस परमात्मानंद है

उस ब्रह्मानंद से सरस महाविष्णु का रस होता है। इसीलिए ब्रह्मलीन ज्ञानी महाविष्णु का रस पाते ही उसमें बरबस डूब जाते हैं।
शुक सनकादिक तो कहँ प्यारो, इकटक लखत समाधि बिसारो ॥
आपने ब्रह्मलीन ब्रह्मानंदी सनकादि परमहंसों का आख्यान सुना होगा। ब्रह्मा के मानस पुत्र - सनक, सनंदन, सनत कुमार, सनातन - जन्मजात परमहंस हैं। वे ब्रह्मा की प्रथम संतान हैं और सृष्टि के अंत तक वे सदा 5 वर्ष की आयु के बालकों के रूप में ही रहेंगे। वे अबाधगति भी हैं अर्थात​ संकल्प करते ही कहीं पर भी पहुँच सकते हैं। एक बार सनकादिक परमहंस वैकुंठ गए । वहाँ महाविष्णु के चरणों में रखी तुलसी की सुगंध जैसे ही उनके नासिकारंध्र में प्रविष्ट हुई वैसे ही वे इतने मुग्ध हो गए कि महाविष्णु से याचना करने लगे चाहे आप नरक में वास दे दें परंतु यह आनंद सदा बना रहे।
तस्यारविन्दनयनस्य पदारविन्द-किञ्जल्कमिश्रतुलसीमकरन्दवायु: ।
अन्तर्गत: स्वविवरेण चकार तेषां सङ्‌क्षोभमक्षरजुषामपि चित्ततन्वो: ॥ 

भागवत​ 3.15.४३
वैसे तो भुक्ति और मुक्ति दोनों को ही पिशाचिनी कहा जाता है। इसमें भुक्ति कम खतरनाक है क्योंकि संसार में 84 लाख योनियों में घूमते घूमते कभी कोई रसिक मिल जाये और जीव की बुद्धि उस पर विश्वास कर ले, तो जीव को प्रेमानंद मिल सकता है। लेकिन मुक्ति अत्यंत खतरनाक है, क्योंकि एक बार किसी को मुक्ति मिल जाये, वो सदा के लिए प्रेमानंद से वंचित रह जाता है। लेकिन, यदि ज्ञान मार्ग की साधना प्रारंभ करने से पूर्व किसी का भक्ति संबंधी भाव देह बन गया है तो भक्ति महादेवी की कृपा से कोई-कोई, यानी करोड़ों में एक, मुक्त ज्ञानी पुनः शरीर धारण करके किसी रसिक संत की शरण में जाकर भक्ति की साधना करता है और अपना अर्जित किया हुआ ब्रह्मानंद त्याग कर प्रेमानंद प्राप्त कर सकता है। यह बात ज्ञान मार्ग के प्रवर्तक शंकराचार्य ने भी मानी है।

अब आइए, आशुतोष भगवान शंकर से भी पूछें। शंकर जी के विषय में संसार जानता है कि वे तो स्वयं मुक्तिदाता हैं, फिर ब्रह्मज्ञानी आदि पद का तो प्रश्न ही क्या हो सकता है। एक ब्रह्मांड को एक क्षण में बिना किसी सामान के त्रिनेत्र खोलकर भस्म कर देते हैं। वे शंकर जी कैलाश पर्वत पर सदा समाधिस्थ रहते हैं। उनको जब यह ज्ञात हुआ कि ब्रह्म ने रामावतार धारण किया है एवं अवधेश कुमार बनकर अयोध्या में अवतीर्ण हुए हैं तो चट कैलाश छोड़कर बाबाजी के वेश में अयोध्या की वीथियों में चक्कर लगाने लगे कि जब राघवेंद्र सरकार अवधेश कुमार घोड़े पर सवार होकर इधर से निकलेंगे तो उनके दर्शन करके स्वयं को भाग्यशाली बनाऊँगा एवं नेत्रों को कृतार्थ करूँगा। इतना ही नहीं जब वे ब्रह्म राम द्वापर में कृष्ण बनकर आए तो अवतार लेते ही यशोदा मैया के द्वार पर सत्याग्रह करके शंकर जी बैठ गए और यह भिक्षा माँगने लगे कि मैया अपने लाला के दर्शन करा दे। मैया ने कहा ऐसे भयानक भेष​ वाले बाबा को देखकर मेरा नवजात शिशु डर जाएगा मैं नहीं दिखाऊँगी।

जिसके लिए वेद कहता है -
भयादस्याग्निस्तपति भयातत्त्पति सूर्यः। भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पञ्चमः ॥
गीता 11.23
अर्थात् “जिसके भय से अग्नि, सूर्य, इंद्र, काल आदि नियमित रूप से कार्य करते हैं (भावार्थ यह कि जिस के भय से “भय” भी भयभीत होता है) वह कालात्मा भगवान शंकर जी के गले में लिपटे हुए सांपों एवं गले में पड़ी हुई मुंडमाला से डर जाएगा। यह बात भोली-भाली मैया कहती है। अंततोगत्वा शंकर जी निराश होकर यमुना के किनारे जाकर आसन लगा कर रोने लगे कि “हे श्यामसुंदर! तुम तो अकारण करुण हो, भक्तवत्सल हो । क्या मुझे दर्शन न दोगे? तुम तो सब कुछ कर सकते हो !”
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् । मम वानुवर्तनते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥
​
गीता 4.11
अर्थात् भगवान का यह नियम है, जो जिस भाव से जितनी मात्रा में मेरे शरणापन्न होता है मैं उसी भाव से उतनी ही मात्रा में उसका भजन करता हूँ।
​इतना ही नहीं भगवान कहते हैं -
जो तू धावे एक पग तो मैं धाऊँ साठ​ । जो तू कर्रो काठ​ तो मैं लोहे की लाठ ॥
अर्थात् यदि जीव भगवान की ओर एक कदम भी आगे बढ़ाता है तो भगवान उसकी और साठ कदम दौड़कर आ जाते हैं। बस, इसी नियम के अनुसार शंकर जी के रुदन पर लीलाधारी श्यामसुंदर भी रोने लगे [8]। ऐसा रोना मैया ने इसके पूर्व नहीं देखा था। किसी प्रकार चुप न होते देखकर अन्य माताओं के द्वारा मैया ने यह निश्चय कर लिया कि हो न हो, बाबा ही इस लाला पर कुछ टोना कर गया है, उसी ने नज़र लगाई है। यदि वही आवे तो श्यामसुंदर अच्छे हो सकते हैं। मैया अत्यंत अधीर होकर शंकर जी को खोजने लगी। यमुना के तट पर शंकर जी को पाकर उनसे रोकर प्रार्थना करने लगी कि बाबा जी! चलो तुम्हें लाला बुला रहा है। शंकर जी समझ गए कि मेरी पुकार से लीला में इतना परिवर्तन हो गया। अस्तु, भगवान शंकर गए एवं जैसे ही शंकर जी की नजर श्याम सुंदर की नजर से मिली, वैसे ही श्याम सुंदर की लगी हुई मिथ्या नजर उतर गई।
अति रस भरे नैन रतनारो, जेहि लखि शंभु समाधि बिसारो ॥
भगवान शिव समाधिस्थ होकर तांडव नृत्य करने लगे। पुनश्च, रास के समय भी भगवान शंकर ने नारी वेश में प्रवेश किया, यह भी सर्वविदित है। इनसे बड़ा ज्ञानी बनने का दावा कौन कर सकता है। 

ब्रह्मलीन ज्ञानी परमात्मानंद की याचना कर रहे हैं। मुक्त ज्ञानी भक्ति की साधना कर रहे हैं। इतना ही नहीं मुक्तिदाता भगवान शंकर भी सगुण साकार राम कृष्ण की भक्ति कर रहे हैं। तो इसका यही तो मतलब हुआ न कि सगुण साकार​ ब्रह्म का आनंद निर्गुण निराकार​ ब्रह्मानंद से मधुर है।

परमात्मानंद से भी सरस प्रेमानंद है

योगियों के इष्ट महाविष्णु हैं। महाविष्णु की स्त्री रमा एक बार श्रीकृष्ण के दर्शन करने के लिए गईं। महालक्ष्मी अत्यधिक चंचल हैं, अतः उनका नाम ही चंचला है। परंतु श्रीकृष्ण के दर्शन करके मुग्ध​ हो गईं। एक बार और देखने के लालच में लक्ष्मी जी वहीं अचला बनकर खड़ी रह गईं। अकारण करुण श्री कृष्ण ने महालक्ष्मी को अपनी बाईं ओर​ श्रीवत्स के चिन्ह के रूप में सदा के लिये अपनी छाती पर धारण कर लिया।
उमा रमा हूँ जब लख प्यारो, निज पाति व्रत धरम बिसारो ॥
“शिवजी की पत्नी पार्वती जी और महाविष्णु की पत्नी महालक्ष्मी भी जब श्रीकृष्ण को देखती हैं तो वे भी अपना पतिव्रत धर्म भूल जाती हैं”। भगवान शंकर की ह्लादिनि शक्ति माता पार्वती महारास में श्री कृष्ण के रसपान के लिए गई थी।

आइए स्वयं महाविष्णु का आख्यान सुनते हैं। श्री कृष्ण के दर्शन करने की लालसा से महाविष्णु ने द्वारिका के एक ब्राह्मण के 10 पुत्र चुरा लिए। ब्राह्मण की करुण पुकार जब अर्जुन के कानों में पड़ी तो अर्जुन ने प्रण लिया कि वह ब्राह्मण के दसों पुत्रों को वापस लाकर दे देगा। अर्जुन ने ब्रह्मांड के सभी लोकों में ढूंढा, यमलोक में भी ढूंढा परंतु वे पुत्र कहीं नहीं मिले। तब श्री कृष्ण अर्जुन को लेकर महाविष्णु के लोक में गए। वहाँ महाविष्णु श्री कृष्ण के दर्शन करके कृतार्थ हो गए और उस ब्राह्मण के दसों पुत्रों को लौटा दिया।
द्विजात्मजा मे युवयोर्दिद‍ृक्षुणा मयोपनीता भुवि धर्मगुप्तये । 
कलावतीर्णाववनेर्भरासुरान् हत्वेह भूयस्त्वरयेतमन्ति मे ॥

भागवत ​10.89.58
जब योगियों के इष्ट महाविष्णु तथा उनकी ह्लादिनि शक्ति महालक्ष्मी भी श्री कृष्ण को देखकर विभोर हो रही हैं तब स्वयं सिद्ध है की सगुण साकार पूर्णतम पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण के प्रेमानंद में कुछ ऐसा वैलक्षण्य है जिसका निरूपण शब्दों में हो ही नहीं सकता।

भक्ति रस का वैलक्षण्य

वेद तो निराकार-ब्रह्म को ही रस कहते हैं -
रसो वै स: । ​
परंतु जो भक्त उस रस रूप से संतुष्ट नहीं हैं उनके लिए भगवान का रसतर​ परमात्मा वाला स्वरूप है। कुछ भक्तों को इससे भी अधिक अंतरंगता की अभिलाषा होती है उन भक्तों की इच्छा पूरी करने के लिए ब्रह्म का एक और रूप होता है जिसे वेद कहता है - 
रसो वै रसतमः ।
“वह सर्वोत्कृष्ट रस है ”। समर्थारति वाले भक्तों को यही सरसतम रूप सुहाता है ।
​
केवल एक ब्रह्म-परमात्मा है और ये तीन रूप ब्रह्म के विभिन्न पहलू हैं [9]।

ये तीनों रूप उसी ब्रह्म के हैं परंतु ब्रह्म रूप में केवल दो शक्तियाँ प्रकट होती हैं, सत्ता की रक्षा तथा अनंत आनंद। इस आनंद को स्वरूपानंद भी कहा जाता है यह ज्ञानयोग का साध्य​ है।

यद्यपि यह अनंत मात्रा का होता है तथा ज्ञानियों को ब्रह्मलीन अवस्था में प्राप्त हो जाता है तथापि इससे अधिक सरस परमात्मानंद (जिसको ऐश्वर्यानंद भी कहते हैं) ।स्वरूप-शाक्त्यानंद का एक प्रकार परमात्मानंद होता है। परमात्मा रूप में नाम, रूप, गुण, धाम होते हैं तथापि लीला तथा परिकर नहीं होते। यह ऐश्वर्य प्रधान रूप है और योगियों का उपास्य​ है। परमात्मानंद में ब्रह्मानंद से अधिक सौरस्य​ होता है।और उससे भी सरस भगवान का प्रेमानंद होता है जिसको मानसानंद भी कहते हैं। ब्रह्म के इस स्वरूप में नाम, रूप, गुण, धाम के साथ-साथ लीला तथा परिकर भी होते हैं। यह प्रेमानंद केवल भक्ति ही दे सकती है। किसी भी और साधन से यह प्रेमानंद प्राप्त नहीं किया जा सकता।
​
भक्ति के बारे में क्या कहा जाए जिसमें मुक्ति के इच्छुक ही नहीं, मुक्तिदाता भगवान शिव और योगियों के इष्ट​ भी डूब जाते हैं। नारद जी भक्ति के आचार्य होते हुए भी वे भक्तिजन्य​ आनंद की पूर्णरूपेण​ व्याख्या नहीं कर सके।
निष्कर्ष

ज्ञान की अपेक्षा रहते हुये भक्ति शुद्ध नहीं मानी जाती, भक्ति साधना में तो केवल इतना ही ज्ञान रखना अनिवार्य है कि श्रीकृष्ण भगवान के साथ जीव का सेव्य-सेवक संबंध है [10]। यदि भक्ति का साधक नाना तत्वज्ञानों में ही लगा रहेगा तो साधना कब करेगा ? फिर तत्व ज्ञान का व्यसन (hobby) भी हो जायगा [11] और वह सदा यही किया करेगा। यह सब भक्ति मार्ग के साधक के हेतु विघ्न [12] स्वरूप है। अतः इससे श्रेष्ठ लक्ष्य का निरूपण करो। जिसमें ज्ञानादि का मिश्रण न हो।
​
यद्यपि भक्ति ऐसी अमोघ शक्ति है कि कर्म, ज्ञान योगादि किसी में भी उसका मिश्रण हो जाय तो जीव को भगवत्प्राप्ति हो ही जायेगी। मायानिवृत्ति भी हो जायेगी। वह बिचारा सेव्य श्रीकृष्ण की सेवा की सुख से वंचित रहेगा [13]।
साध्य शिरोमणि तो गोविंद राधे । कृष्ण सुख तात्पर्य सेवा बता दे ॥ राधा गोविंद गीत 3170
"श्री कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए उनकी सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त करना ही लक्ष्यों का शिरोमणि है"
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जगत विख्यात है की सब अपनी बुद्धि के बल पर अपना लक्ष्य बनाते हैं अतः लोगों के अनेक लक्ष्य होते हैं । जिसका जो प्राप्तव्य​ होता है वह उसी के लिए साधना करता है अंततः भगवान् उसको वह दे देते हैं । जिनका लक्ष्य मधुरतम रस का पान करना हो उनके लिए भक्ति साधना ही करणीय​ है ।

फिर भी सामान्य जीवों को इस मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करने के लिए भक्ति के महात्म्य को जानना अति आवश्यक है। तो 2023 में सभी प्रकाशनों में बनचरी दीदी
भक्ति के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालेंगी । अगले अंक में भक्ति किस प्रकार​ भक्ति मार्ग के पथिकों को सहारा देती है की चर्चा की जायेगी​ ।
श्रीकृष्ण का ही रूप, गोविंद राधे​, ​वैकुण्ठ नाथ महाविष्णु बता दे ॥
श्रीकृष्ण महाविष्णु गोविंद राधे, ​दोनों रूप ऐश्वर्य सम हैं बता दे ॥
माधुर्य में तो श्रीकृष्ण गोविंद राधे, ​महाविष्णु से कोटी गुना हैं बता दे ॥
राधा गोविंद गीत
​-जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु महाराज
श्रीकृष्ण का दूसरा रूप वैकुंठ के भगवान महाविष्णु हैं। श्रीकृष्ण और महाविष्णु, दोनों अनंत ऐश्वर्य युक्त हैं। श्रीकृष्ण का माधुर्य महाविष्णु से भी अनंत गुणा अधिक है​।​
जगद्गुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज
जगद्गुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज

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[8] ​​भगवान पूर्णकाम हैं या नहीं?​
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[10] अनंतकाल तक भगवान के दासत्व का क्या लाभ होगा?​
[11] सावधान​! ज्ञान से भी हानि हो सकती है।​
[12] Kusang - Self Study of Scriptures​
[13] माया का जीव पर अधिकार कैसे और क्यों?
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