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A DIVINE MESSAGE                 
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2023 होली अंक​ ​

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सार गर्भित सिद्धान्त
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भक्ति का सदातनत्व

आनंत आनंद प्राप्त करने का सही मार्ग चुनने के लिए पाँचवें और अंतिम मानदंड की चर्चा।
कृपालु लीलामृतम
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सांसारिक संबंध न बढ़ायें

एक नि:संतान दंपत्ति को विनोदी श्री महाराज जी द्वारा सार गर्भित उत्तर ।
कहानी
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​वीरता विनम्रता का संगम​

रघु के शौर्य और विनम्रता की कहानी
सार गर्भित सिद्धान्त
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भक्ति का सदातनत्व

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वेदों और शास्त्रों में आनंदप्राप्ति के तीन मार्ग बताये गए हैं - कर्म, ज्ञान तथा भक्ति। किसी भी सिद्धान्त की ऐकान्तिक प्रभुता को सिद्ध करने के लिये न्याय दर्शन में पाँच मापदण्ड निर्धारित किये गये हैं, नामतः - 1) अन्वय [1] , 2) व्यतिरेक, 3) अन्य-निरपेक्षता, 4) सार्वत्रिकता [2], और 5) सदातनत्व। पिछले तीन अंकों में हमने आनंदप्राप्ति के तीन मार्गों को, पहले चार कसौटियों पर वेदों और शास्त्रों के आधार पर कसकर देखा, और ये निष्कर्ष निकाला कि केवल भक्ति मार्ग ही इन कसौटियों पर खरी उतरती है।

इस अंक में पाँचवी और अंतिम कसौटी की चर्चा कि जायेगी, यानि सदातनत्व पर इन मार्गों को कसेंगे।  ​
पहले कर्म को लेते हैं।

कर्म अपना फल देकर स्वयं मर जाता है। जैसे किसी मज़दूर ने पूरे दिन
किसी के वहाँ काम किया, शाम को उसको दिहाड़ी मिल गई। अब अगले दिन वह मज़दूर फिर आ गया और कहने लगा, “हमने आपके यहाँ कल काम किया था।” “हाँ किया था तो ?” फिर वो मज़दूर कहे, “उसका लिहाज करके आज फिर हमें वेतन दीजिये।” “अरे हमने तो कल ही लिहाज कर दिया था। कल ही हमने पैसा दे दिया।” मतलब पूरे दिन की मेहनत उस दिहाड़ी में लीन हो गई। इसी प्रकार सत्कर्म पुण्य में लीन हो जाता है और भोग के पश्चात पुण्य भी समाप्त हो जाता है। अर्थात् वैदिक कर्मकांड के अक्षरशः सही पालन करने से कुछ समय के लिए ‘ऐश्वर्य’ मिलेगा, ‘आनंद’ नहीं। और भोग के पश्चात कर्म तथा कर्म फल दोनों समाप्त हो जाते हैं। अब अगर और मायिक सुख चाहिए तो दोबारा सत्कर्म करना पड़ेगा।

अर्थात् कर्म में सदातनत्व नहीं है । क्या ज्ञान में सदातनत्व है ? चलिए विचार करते हैं।  
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हम अनादिकाल से भगवान् से बहिर्मुख हैं, जिस कारण से हमारे ऊपर माया हावी है। तो स्वतः माया के सारे दोष हम में आ जाते हैं। इसमें प्रमुख है अज्ञान, यानि स्वयं के स्वरूप ('मैं आत्मा हूँ') को भूल कर अपने को देह मानना। ज्ञान इस अज्ञान [3] को समाप्त कर देता है और स्वयं ज्ञान भी समाप्त हो जाता है। इस अवस्था का सुख बहुत ही बड़ा होता है। वो इतना बड़ा है कि उसमें समाधि हो जाती है। प्रत्येक जीव की सुख तथा दुख को सहन करने की एक सीमा होती है। जब दुख या सुख उस सीमा से अधिक हो जाए तो अंतःकरण मूर्छित हो जाता है। इसी मूर्छा को समाधि कहते हैं।
अपने को आत्मा मानने का सुख इतना बड़ा होता है की उसके सामने ब्रह्म लोक [4] तक का सुख नगण्य होता है। क्यों ना हो, जीव अनंत आनंद ब्रह्म का अंश है अतः उसका आभास भी बहुत बड़ा होता है। परंतु आत्मज्ञान से उत्पन्न होने वाला सुख सात्विक है [5], दिव्य नहीं। ये अज्ञान तब तक ही दूर रहता है जब तक वो जीवनमुक्त परमहंस समाधि की अवस्था में रहता है। तब तक ही वह माया  से बचा रहता है। परंतु समाधि से बाहर आते ही माया धर दबोचती है क्योंकि उसने श्री कृष्ण की भक्ति नहीं की। अतः अपराध किया, इसलिए माया उसको दंड देती है। [6]

​
आपने जड़ भरत की कहानी सुनी होगी कि जड़ भरत की एक हिरणी शावक में आसक्ति हो गई। मरते समय उन्होंने हिरणी शावक का ध्यान किया और इसी कारणवश मृत्यु के बाद जीवनमुक्त परमहंस को फिर हिरण बनना पड़ा।

​आत्मज्ञान माया के सत्व गुण से उत्पन्न होता है। इस  ज्ञान से रजोगुण तथा तमोगुण दब जाते हैं। ध्यान रहे - जाते नहीं हैं, दब जाते हैं। और अवसर मिलते ही पुनः हावी हो जाते हैं जैसे जड़ भरत के ऊपर हावी हो गए। सारांश यह कि आत्मज्ञान आध्यात्मिक पथ में एक बीच की स्थिति है, और बिना भक्ति के आत्मज्ञान होने पर भी पतन की संभावना रहती है। तो ज्ञान में भी सदातनत्व नहीं है।
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अब भक्ति के सदातनत्व पर विचार करते हैं।
1) प्रलयावस्था - चारों प्रकार की प्रलयावस्था (नित्य, नैमित्तिक, महाप्रलय, एवं अत्यांतिक प्रलय)  में भी भक्ति रहती है। यथा -
क उपासीरन् क उ स्विदनुशेरते   (भा. 3.7.37)
विदुर जी ने मैत्रेय से प्रश्न किया कि जब भगवान महायोग निद्रा में सो जाते हैं, तब कौन कौन से तत्व उनकी सेवा करते हैं ? उत्तर में मैत्रेय ने कुछ तत्वों को गिनाया है। और कहा है कि अमुक अमुक तत्व श्रीकृष्ण की भक्ति करते रहते हैं।
2) सृष्टि के पूर्व - सृष्टि के पूर्वकाल में भी भक्ति रहती है। यथा -
मयादौ ब्रह्मणो प्रोक्ता धर्मो यस्यां मदात्मक:   (भा.)
अर्थात् सृष्टि प्रारंभ होते ही श्रीकृष्ण ने वेदों के द्वारा ब्रह्मा को भक्ति का उपदेश दिया। 
3) चार युग  - समस्त युगों में श्रीकृष्ण भक्ति रहती है। यथा ​-
कृते यद्ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखै: 
द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्धरिकीर्तनात्  (भा.)
इसी आशय से तुलसीदास जी रामायण में कहते हैं -
कृतयुग सब योगी विज्ञानी, करि हरिध्यान तरहिं भव प्रानी । त्रेता विविध यज्ञ नर करहीं, प्रभुहिं समर्पि कर्म भव तरहीं ॥ 
द्वापर करि रघुपति पद पूजा, तर भवतरिय उपाय न दूजा । कलियुग केवल हरि गुन गाहा, गावत नर पावत भव याहा 
॥​
यानी सब युगों में कर्म ज्ञानादि करते हुए भी, अंततः भक्ति करने पर ही भवसागर को पार किया जा सकता है। और कलियुग में तो माया से उत्तीर्ण होने के लिए भक्ति ही एक मात्र उपाय है। 
विष्णु पुराण में तो यहाँ तक कहा है कि -
सा हानिस्तन्महच्छिंद्र स मोह: स विभ्रम:  यन्मुहूर्तं क्षणं वापि वासुदेवं न चिंतयेत्
(वि. पु.)
अर्थात् मनुष्य का जो क्षण श्रीकृष्ण के स्मरण के बिना व्यतीत होता है, वह मुहूर्त या क्षण ही मनुष्य के पक्ष में महती हानि तथा महान दोष एवं महान मोह, भ्रम है । 
​4) मनुष्य जीवन की विभिन्न अवस्थाएँ - सभी अवस्थाओं में श्रीकृष्ण भक्ति का अवस्थान है । यथा -
  • गर्भावस्था में नारद जी ने प्रह्लाद को भक्ति दान दिया।  [7]
  • शैशवावस्था में श्रीध्रुवादि ने श्रीकृष्ण भक्ति की।
  • युवावस्था में अंबरीषादि ने श्रीकृष्ण भक्ति की। [8]
  • वृद्धावस्था में धृतराष्ट्रादि ने श्रीकृष्ण भक्ति की। 
  • मरणकाल में अजामिलादि ने भगवद्भक्ति की। [9]
​

और सबसे बड़ा उदाहरण तो ब्रजांगनाएँ थीं जिन्होंने सभी अवस्थाओं में भक्ति ही किया। [10]
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सारांश यह है कि भक्ति, सदा सर्वत्र स्थित रहती है। प्रलय काल में, सृष्टि के आदि में, सृष्टि में, समस्त युगों में, बाल्यादि समस्त अवस्थाओं में, स्वर्गादि लोकों में भी भक्ति सदा रहती है। भक्ति को कभी, कहीं, किसी के पास जाने में संकोच नहीं है। एक मात्र भक्ति तत्व ही ऐसा तत्व है जो कभी भी समाप्त नहीं होती। नित्य पार्षद भी सदा भक्ति करते हैं। 
​
अब एक बात और विचारणीय है। भक्ति के तीन प्रकार होते हैं साधना भक्ति, भाव भक्ति तथा  सिद्धा भक्ति।
  • साधना भक्ति - मन को भगवान में लगाने का प्रयत्न करना, इसे साधना भक्ति कहते हैं। 
  • भाव भक्ति - जब मन भगवान में लगने लगे तो वही साधना भक्ति भाव भक्ति कहलाती है। यह साधना भक्ति की चरम सीमा है। चरम सीमा पर पहुंचने के बाद अंतःकरण शुद्ध हो जाता है।
  • सिद्धा भक्ति - भाव भक्ति में शुद्ध हुए मन को, गुरु कृपा करके दिव्य बना देते हैं तथा उसमें दिव्य प्रेम प्रदान करते हैं - यही सिद्धा भक्ति है। यह सिद्धा भक्ति अनंत काल तक मिली रहती है इसका कभी अंत नहीं होता। इसीलिए भक्ति को नारद जी ने अपने नारद भक्ति सूत्र में अमृतस्वरूपा कहा है।  
अमृत माने क्या है? चलिए इस पर विचार करते हैं। आयुर्वेद में  “पयो अमृतं” कहा जाता है अर्थात् दूध अमृत है। ऐसे ही एक अमृत स्वर्ग में होता है जिसको पीने से शरीर की व्याधियाँ समाप्त हो जाती हैं। इसीलिए देवताओं के शरीर में वृद्धावस्था, बीमारियाँ, मल मूत्र यह सब नहीं होता। परंतु यह अमृत भी एक दिन मृत कर देता है। यानि ये वास्तव में अ-मृत नहीं हैं।

तो भक्ति कैसी अमृत स्वरूपा है?
​
भगवान् का एक​ नाम है अमृत - भक्ति वही अमृत है अर्थात् भगवत्स्वरूप है। जैसे भगवान् अनादि अनंत हैं वैसे ही सिद्धा भक्ति भी अनादि अनंत है। एक बार वह सिद्धा भक्ति किसी जीव​ को मिल जाए तो अनंत काल के लिए मिल जाती है। उस पर फिर कभी माया का अधिकार हो ही नहीं सकता। भक्ति से वह जीव स्वत: सदा के लिए जन्म-मृत्यु की चक्कर से मुक्त हो जाता है। अतः सिद्धा भक्ति को प्राप्त करने वाला जीव सदा आनंदमय रहता है। इसलिए भक्ति को अमृत स्वरूपा कहते हैं।
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सारांश यह कि भक्ति का फल भी भक्ति ही है और भक्ति सदा बनी रहती है। भगवत्प्राप्ति के बाद भी भक्ति समाप्त नहीं होती। नारद, शिव, सनकादिक ही क्यों ना हों सब भक्ति करते हैं।

कहाँ तक कहें, श्रीकृष्ण भी भक्ति ही करते हैं। श्री कृष्ण किसकी भक्ति करते हैं ? 
​

भक्ति शब्द का अर्थ है सेवा। श्री कृष्ण अपनी आत्मा श्रीराधा की भक्ति तो करते ही हैं। साथ ही जो जीव शरणागत होते हैं श्री कृष्ण उन जीवों की अनंत काल तक सेवा करते हैं ।
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श्री कृष्ण अपनी आत्मा श्रीराधा की भक्ति करते हैं
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् | मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश: || 
गीता 4.11
“जो जीव जिस भाव से जिस प्रकार जितनी मात्रा में मेरी भक्ति करता है, मैं भी उस जीव का उसी भाव से उसी प्रकार उतनी ही मात्रा में भजन करता हूँ।”
तो एकमात्र भक्ति में ही सदातनत्व है। 
इन तीनों मार्गों को इन पाँच कसौटियों पर कस कर हमें पता चला की एकमात्र भक्ति ही पाँचों पर खरी उतरती है। बाकी सब मार्ग थोड़े समय के लिए मायिक सुख प्रदान  कर सकते हैं परंतु अनंत, अपरिमेय, दिव्य परमानंद देने में सक्षम नहीं हैं। उसके लिए भक्ति ही एक मात्र साधन है।
​
भगवान की असीम अनुकम्पा से रसिक संतों के शिरोमणि श्री महाराज जी हमारे गुरु हैं। श्री महाराज जी ने कृपा करके भक्ति के गूढ़तम रहस्यों को हम जैसे आम जीवों के लिए सरल बना दिया है। महात्म ज्ञान के बिना प्रेम स्थिर नहीं रहता। अतः आने वाले प्रकाशनों में श्री महाराज जी द्वारा प्रदत्त भक्ति संबंधी तत्वज्ञान कि उस गहराई में आपको ले जाएँगे जो भक्ति मार्ग के साधक के लिए परमावश्यक है​। 
ऊपर
यदि आपको यह लेख पसंद आया तो संभवतः निम्नलिखित लेख भी पसंद आयेंगे
[1]  भक्ति ही भगवान् के सन्मुख कराती है
[2] भक्ति के सब अधिकारी हैं​​
[3]  Avidya
(4) ​Swar Lok
[5]  ज्ञानी मायिक बुद्धि से दिव्य आत्मा को कैसे &#​
[6]  ​माया का जीव पर अधिकार कैसे और क्यों?​​
(7) प्रह्लाद द्वारा प्रतिपादित निष्काम प्रेम
[8] Bhakt Vatsal Shri Krishna
(9) क्या भगवन्नाम के उच्चारण से भगवद्प्राप्ति संभव है?
[10] अष्ट महासखियाँ - उनका प्रेम सर्वश्रेष्ठ
[11] भक्ति अजर अमर है
[12] हम गोलोक में क्या करेंगे ?
[13] सावधान​! ज्ञान से भी हानि हो सकती है।​
[14] भक्ति ज्ञान प्रदान करती है
कृपालु लीलामृतम्

सांसारिक संबंध न बढ़ायें

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महाराज जी बड़े ही विनोदी स्वभाव के थे। बात ही बात में, इतनी सहजता से इतनी गूढ़ बात बोल जाते थे कि सुनने वाले दंग रह जाते थे। एक बार एक निःसंतान दंपति ने महाराज जी से प्रश्न किया "महाराज जी हमने बहुत कोशिश की है, फिर भी हमारे संतान नहीं है। क्या हमें किसी को गोद लेलें?"।
महाराज जी बड़े सरलता पूर्वक उत्तर दिया, "गोद लेने क्या जरूरत है। मुझे अपने पिता मानो, श्रीकृष्ण अपना पुत्र मानो और राधा रानी को उनकी दुल्हन के रूप में लाओ। वे आपके लिए रोटी पकाएँगीं और आपकी सेवा भी करेंगी। अरे भाई आप उनके सास-ससुर होंगे"। सब लोग बड़ी जोर से हंस दिये।

इस तरह से एक साधारण वाक्य में महाराज जी ने उत्तर भी दिया, कल्याणकारी मार्ग भी बता दिया और भक्ति के कई पहलुओं पर प्रकाश भी डाल दिया।

​सिद्धांत की दृष्टि से कुछ तथ्य निम्नलिखित हैं-
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  • नश्वर संसार को बटोरने में अपना अमूल्य मानव जीवन बर्बाद न करें  [15]। यदि करेंगे तो सब संसार की वस्तुओं में आसक्ति हो जाएगी, जो कि भक्ति के मार्ग में बाधा बन जाएगी। आसक्ति को पहले कम करना होगा तब भक्ति मार्ग पर आगे चल सकते हैं। उदाहरण के लिए, आपको मनगढ़ से लखनऊ (पश्चिम) जाना था, इसके बजाय आप 10 मील इलाहाबाद (पूर्व) की ओर चले गए। अब आपको उन 10 मील वापस आना होगा और फिर आप लखनऊ की ओर जा सकते हैं। इस प्रकार आपने  20 मील आने जाने में समय बर्बाद कर दिया! मानव जीवन अमूल्य होने के साथ-साथ क्षणभंगुर भी है। मृत्यु का समय अनिश्चित है और लक्ष्य बहुत दूर है। बुद्धिमान बनिए! इस मानव जीवन के हर पल को अपने परम लक्ष्य को पाने  मैं लगाना ही बुद्धिमता है [16]।

  • मानव देह ज्ञान प्रदान है साथ ही एकमात्र मानव देह कर्मयोनि भी है। देवताओं में बहुत ज्ञान है, लेकिन उन्हें आध्यात्मिक उन्नति करने का अधिकार नहीं दिया गया है। अन्य शरीर धारियों में बुद्धि है न कर्म करने की स्वतंत्रता है [17]। भगवान ने अनंत कृपा करके मानव शरीर दे दिया और श्री महाराज जी जैसे अतुल्य गुरु से मिला दिया। श्री महाराज जी ने तत्व ज्ञान भी करा दिया। अब उस तत्वज्ञान का उपयोग करके मन को हरि-गुरु  में लगा कर लगा कर, उनके चरण कमलों में आत्मसमर्पण करके संसार के प्रलोभन से बचें और अपना परम चरम लक्ष्य प्राप्त करें।

  • गुरु को अपने पिता, अभिभावक के रूप में स्वीकार करें।

  • भगवान के साथ अंतरंग संबंध [18] स्थापित करें।

  • यद्यपि भगवान सर्वशक्तिमान हैं तथापि उन्होंने कृपा  करके अपनी संतान की सहूलियत के लिए किसी भी भाव से प्रेम करने की छूट दी है [19]।

  • ध्यान रहे मन राधा- कृष्ण और गुरु के अतिरिक्त कहीं भी ना जाने दें ​[20]। इसके अलावा, रागानुगा भक्ति के मार्ग का पालन करें।
ऊपर
यदि आपको यह लेख पसंद आया तो संभवतः निम्नलिखित लेख भी पसंद आयेंगे 
[15] मानव रूप - वरदान या अभिशाप?
[16] भगवत् प्राप्ति करने में जल्दी क्यों करनी है ?
[17] क्या भगवान जानता है मैं भविष्य में क्या करूँगा?
[18] Bhav 
[19]  श्रीकृष्ण को अकारण-करुण क्यों कहते हैं ?
[20] The Greatest Personality
कहानी

वीरता विनम्रता का संगम​

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राजा रघु भगवान राम के पूर्वज थे। रघु के दुर्लभ गुणों के कारण था कि श्री राम के वंश को रघु-कुल कहा जाता था।

पूर्व में हमने राजा रघु के विकट वैराग्य और दीनता​ [21] चर्चा की थी। राजा रघु में अनेक गुण थे। वे शूरवीर योद्धा भी थे। वे अत्यंत ही त्यागमय तथा साधारण जीवन व्यतीत करते थे। उनके इन्हीं गुणों पर आधारित इतिहास की यह कथा प्रस्तुत है। श्री राम के परदादा के पिता राजा दिलीप थे। वंशावली किस प्रकार थी दिलीप -> रघु -> अज -> दशरथ -> राम।
त्रेता युग में लोग अपनी इच्छा को पूरा करने के लिए यज्ञ करते थे। उन यज्ञ में से एक अश्वमेध यज्ञ है जिसका विच्छेद है अश्व = घोड़ा, मेध = संबंधित। यह यज्ञ अन्य राजाओं पर जीत की घोषणा करने के लिए किया जाता था और यह युद्ध के बिना हो सकता है। यज्ञ के सफल समापन पर यज्ञ के घोड़े को स्वच्छंद छोड़ दिया जाता था और राजा की सेना उसका पीछा करती थी। जिस-जिस राज्य से होकर घोड़ा जाता था उन राजाओं के पास दो विकल्प होते थे राजा की सेना से युद्ध करके उसको परास्त करना अथवा उस राजा के शासन को स्वीकार करना। यदि किसी अन्य राजा ने युद्ध के लिए नहीं ललकारा अथवा नहीं हरा पाए तो अश्वमेध यज्ञ करने वाला राजा चक्रवर्ती सम्राट माना जाता था। कर्मकांड के अनुसार यदि कोई व्यक्ति सफलतापूर्वक 100 अश्वमेध यज्ञों को  संपन्न कर ले, तो वह स्वर्ग का राजा बनने का अधिकारी हो जाता है।
99 अश्वमेध यज्ञ को सफलतापूर्वक पूरा करने के बाद, दिलीप ने 100वा यज्ञ प्रारंभ किया। दिलीप ने युवराज रघु को औपचारिक घोड़े की रक्षा करने का उत्तरदायित्व सौंपा। उस समय रघु की आयु मात्र 9 वर्ष थी । देवताओं के राजा, इंद्र को संदेह था कि दिलीप स्वर्ग सम्राट बनने के लिए यज्ञ कर रहे हैं। लेकिन, वह दिलीप और रघु की वीरता के बारे में जानता था। इसलिए दिलीप से लड़ने और हराने के बजाय, इंद्र संत वेश धारण करके पृथ्वी पर आया और चुपके से घोड़े को गायब कर दिया । रघु और सेना चकित थे।

कामधेनु स्वर्ग में गाय है। वह अपने स्वामी की हर संसारी इच्छा पूर्ण कर सकती है। कामधेनु की पुत्री नंदिनी वहीं थी । रघु ने अपनी आँखों में नंदिनी के दूध की एक बूंद लगाई और उससे रघु को दिव्य दृष्टि प्राप्त हो गई। तब रघु ने  इंद्र को अपहरण किए गए घोड़े के साथ देखा। उस समय, हालांकि रघु केवल 9  वर्ष के थे,  परंतु वे शूरवीर योद्धा थे । उन्होंने इंद्र को चुनौती दी और युद्ध करके हरा दिया।
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फिर रघु ने इंद्र को बांध कर दिलीप के दरबार में लाकर अपने पिता के चरणों में फेंक दिया और कहा, "ये है चोर"। दिलीप ने स्वर्ग के राजा को देखा, और अपने सिंहासन से नीचे उतर कर प्रणाम किया। दिलीप ने इंद्र को रिहा करने की रघु को आज्ञा दी। रघु ने विरोध करते हुए कहा, "लेकिन य​ह चोर है"। दिलीप ने कहा, "नहीं, स्वर्ग के राजा हमारे श्रद्धेय हैं "। रघु ने आज्ञाकारी पुत्र की भांति इंद्र को रिहा कर दिया।
नैतिक :
दिलीप की विनम्रता प्रशंसनीय है!! इसके अतिरिक्त, रघु इतने बड़े योद्धा होते हुए भी इतने विनम्र​ तथा आज्ञाकारी थे । ये विपरीत​ गुण हैं। यह दोनों विरोधी गुण का संगम एक जीव में कसे हो सकता है ? कोई भी अभ्यास या संकल्प-शक्ति से इन दिव्य गुणों को प्राप्त नहीं कर सकता है [22]। समस्त देवी गुणों की खान भगवान की भक्ति करने से यह सब गुण स्वतः ही जीव में आ जाते हैं।  अतः भगवत प्राप्त संतों में भी यह सारे गुण पाए जाते हैं। जब जीव​ हरि गुरु का रूप ध्यान करता है तो वह दैवीय गुण जीव में प्रस्फुटित​ होने लगते हैं। इन गुणों को प्राप्त करने के लिए कोई अन्य​ प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है।
ऊपर
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[21] Example of Detachment
[22] How to Inculcate Divine Virtues

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