प्रश्न
दीदी जी आपने बताया है कि श्री महाराज जी के दिव्य शरीर में अष्ट सात्विक भाव प्रकट होते हैं। क्या यह संभव है कि कोई दंभी, ठग अथवा ढ़ोंगी इन भावों का ढ़ोंग कर लोगों को ठगे ?
उत्तर
दिव्य प्रेम के लक्षण भक्त के शरीर में स्पष्ट रूप से प्रकट होते हैं। यह लक्षण सात्विक भाव कहलाते हैं आठ लक्षण होने के कारण ये अष्ट सात्विक भाव (पढ़ें Asht Sattvik Bhav) कहते हैं। ढोंगी कुछ भावों का ढोंग कुछ हद तक कर सकता है । जैसे
1. स्वर भेद -- वाणी में परिवर्तन।
2. वेपथु -- शरीर में स्वतः कंपन होना।
3. अश्रु -- आँखों से अविरल अश्रु बहना ।
4. प्रलय -- अचेतन होकर कटे पेड़ की भांति गिरना।
दिव्य प्रेम के चार अन्य लक्षण होते हैं
5. स्तंभ -- खंभे के समान शरीर का अकड़ जाना।
6. स्वेद -- अत्यधिक पसीना आना।
7. रोमाञ्च -- रोम-रोम पुलकित होना।
8. वैवर्ण्य -- शरीर का रंग बदलना।
किसी संसारी जीव में ऐसा सामर्थ्य कहाँ कि वह सभी अष्ट सात्विक भावों को स्वेच्छा से एक ही समय में प्रदर्शित कर सके।
दीदी जी आपने बताया है कि श्री महाराज जी के दिव्य शरीर में अष्ट सात्विक भाव प्रकट होते हैं। क्या यह संभव है कि कोई दंभी, ठग अथवा ढ़ोंगी इन भावों का ढ़ोंग कर लोगों को ठगे ?
उत्तर
दिव्य प्रेम के लक्षण भक्त के शरीर में स्पष्ट रूप से प्रकट होते हैं। यह लक्षण सात्विक भाव कहलाते हैं आठ लक्षण होने के कारण ये अष्ट सात्विक भाव (पढ़ें Asht Sattvik Bhav) कहते हैं। ढोंगी कुछ भावों का ढोंग कुछ हद तक कर सकता है । जैसे
1. स्वर भेद -- वाणी में परिवर्तन।
2. वेपथु -- शरीर में स्वतः कंपन होना।
3. अश्रु -- आँखों से अविरल अश्रु बहना ।
4. प्रलय -- अचेतन होकर कटे पेड़ की भांति गिरना।
दिव्य प्रेम के चार अन्य लक्षण होते हैं
5. स्तंभ -- खंभे के समान शरीर का अकड़ जाना।
6. स्वेद -- अत्यधिक पसीना आना।
7. रोमाञ्च -- रोम-रोम पुलकित होना।
8. वैवर्ण्य -- शरीर का रंग बदलना।
किसी संसारी जीव में ऐसा सामर्थ्य कहाँ कि वह सभी अष्ट सात्विक भावों को स्वेच्छा से एक ही समय में प्रदर्शित कर सके।
श्रीमद् भागवत महापुराण में परमानंद के प्रमुख लक्षणों का विवरण है ।
वाग्गद्गदा द्रवते यस्य चित्तं रुदत्यभीक्ष्णं हसति क्वचिच्च ।
विलज्ज उद्गायति नृत्यते च, मद्भक्तियुक्तो भुवनं पुनाति ॥ भा ११.१४.२४
"भावावेश में भक्त की वाणी अवरुद्ध हो जाती है, कभी वह फूट फूट कर रोता है और अगले ही क्षण अकारण हंसने लगता है जैसे उसे अनंत दिव्य प्रेम मिल गया हो। वह बिना किसी संकोच के नाचता और गाता है। भाव में डूबे हुये संत की यह अवस्था एक अनोखा दिव्य वातावरण पैदा कर देती है जिसमें सभी दर्शक स्वतः ही दिव्य भावों में डूब जाते हैं।" एक ढोंगी वातावरण को दिव्य कैसे बनायेगा ?
मानव कल्याण हेतु संत वेदव्यास जी ने शब्दों में इन लक्षणों की व्याख्या करने का प्रयास किया लेकिन शब्द तो सीमित हैं। भावावेश की उस अंतिम अवस्था के अनुभव का निरूपण शब्द नहीं कर सकते। अष्ट सात्विक भावों का वास्तविक अर्थ
अधिकांश लोगों को भावावेश की इन अवस्थाओं का परिज्ञान ही नहीं है। कुछ लोगों ने सम्भवतः इन अवस्थाओं का वर्णन सुना भी होगा लेकिन बहुत कम लोगों ने इनका अनुभव किया होगा। तो जिसको इनका शाब्दिक ज्ञान तथा अनुभव दोनों ही नहीं है वह इन लक्षणों का दिखावा करने का प्रयास भी कैसे कर सकता है। इस के अतिरिक्त दर्शकगण भी इन दिव्य लक्षणों को जानते ही नहीं तो समझेंगे क्या । इसलिए इन अनुभवहीन लोगों के सामने इन लक्षणों का दिखावा करना व्यर्थ है।
भोले लोगों के सामने इन लक्षणों का दिखावा वैसे ही है जैसे: |
भैंस के आगे वीणा बाजे, भैंस खड़ी पगुराय ।
"भैंस के सामने वीणा बजाने से कोई लाभ नहीं क्योंकि वह तो (बुद्धि में दुर्बल होने के कारण) लगातार जुगाली (खाने को पुनः चबाना) में व्यस्त रहेगी।" दूसरे शब्दों में
अंधे के आगे रोवे, अपने नैना खोवे ।
कलयुग में दम्भियों की कमी नहीं है इसलिए यह संभव है कि किसी दंभी ने किसी महापुरुष का भावावेश अवस्था में दर्शन किया हो । लेकिन ऐसे दंभी को अष्ट सात्विक भावों का कदाचित ज्ञान हो भी तो उसे परमानंद की इस अवस्था की दिव्यता एवं मर्यादा का भान नहीं हो सकता । दंभी, अपने हृदय की मलिनता के कारण, महापुरुष की उस दिव्य अवस्था को पहचानने एवं उसका रस लेने में असक्षम होगा । अतः या तो व्यंग कसेगा अथवा सोचेगा कि संत किसी गंभीर रोग (हिस्टीरिया इत्यादि) से ग्रस्त है ।
अतः दंभी भी भावावेश का अभिनय करने की चेष्टा नहीं करते । |
एक साथ आठों सात्विक भावों का उद्रेक भगवत प्राप्त महापुरुषों में भी दुर्लभ हैं। कलियुग के पिछले 5000 वर्षों में बहुत से वास्तविक संत मृत्यु लोक में आए जैसे सूरदास, तुलसी दास, मीराबाई, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, श्री कृपालु जी महाराज से पहले चार जगद्गुरु, श्री वल्लभाचार्य, नानक, तुकाराम आदि लेकिन आठों सात्विक भावों का प्रदर्शन किसी के शरीर में नहीं हुआ ।
कलियुग में यह लक्षण 500 वर्ष पूर्व श्री चैतन्य महाप्रभु में देखे गए एवं उनके पश्चात यही सब भाव श्री महाराज जी के दिव्य शरीर में देखे गए ।
श्री महाराज जी की असीम कृपा से, उच्चतम भावावेश अवस्था में श्री महाराज जी के दर्शन करने का सौभाग्य मुझे कई बार प्राप्त हुआ इसलिए मुझे इस अवस्था की दिव्यता एवं मर्यादा का भान है । तथापि मैं अपने अनुभव को शब्दों में नहीं बता सकती लेकिन मैं इतना कह सकती हूँ कि जब श्री महाराज जी भावावेश अवस्था में नृत्य किया करते थे तो सभी उपस्थित जन रोमांचित हो उठते तथा प्रेम कि बाढ़ में बह कर अश्रुपात करने लगते थे । यह श्री महाराज जी कि दिव्यता का पक्का प्रमाण है । श्री महाराज जी का विशुद्ध व्यक्तित्व बरबस ही सबको आकर्षित कर लेता है । जो भी आपका एक बार दर्शन कर लेता है तो वह आपके पीछे वैसे ही लग जाता है जैसे एक मधुमक्खी शहद के पीछे लग जाती है।
जब दम्भी दिखावा करता है तो दर्शकों के भाव समाप्त हो जाते हैं । सात्त्विक भावों का उद्रेक तो संत के हृदय में छुपे हुए दिव्य प्रेम के संचार की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है । जब वास्तविक संत भावावेश में नृत्य करता है तो सभी दर्शकों के हृदय में भक्ति भाव उत्पन्न होने लगते हैं। यह संत की सत्यता का निर्विवाद प्रमाण है ।
निष्कर्ष -
दंभी का किसी रसिक संत की भावावेश अवस्था की नकल करना असंभव है और यदि कर भी ले तो जनता को प्रभावित नहीं कर पायेगा । ऊपर से नामापराध (पढ़ें "The Gravest Sin" in Divya Sandesh 2019 New Year Issue) का भागी हो परिणामस्वरूप नरक (पढ़ें narak) की यातनाएँ भोगेगा ।
कलियुग में यह लक्षण 500 वर्ष पूर्व श्री चैतन्य महाप्रभु में देखे गए एवं उनके पश्चात यही सब भाव श्री महाराज जी के दिव्य शरीर में देखे गए ।
श्री महाराज जी की असीम कृपा से, उच्चतम भावावेश अवस्था में श्री महाराज जी के दर्शन करने का सौभाग्य मुझे कई बार प्राप्त हुआ इसलिए मुझे इस अवस्था की दिव्यता एवं मर्यादा का भान है । तथापि मैं अपने अनुभव को शब्दों में नहीं बता सकती लेकिन मैं इतना कह सकती हूँ कि जब श्री महाराज जी भावावेश अवस्था में नृत्य किया करते थे तो सभी उपस्थित जन रोमांचित हो उठते तथा प्रेम कि बाढ़ में बह कर अश्रुपात करने लगते थे । यह श्री महाराज जी कि दिव्यता का पक्का प्रमाण है । श्री महाराज जी का विशुद्ध व्यक्तित्व बरबस ही सबको आकर्षित कर लेता है । जो भी आपका एक बार दर्शन कर लेता है तो वह आपके पीछे वैसे ही लग जाता है जैसे एक मधुमक्खी शहद के पीछे लग जाती है।
जब दम्भी दिखावा करता है तो दर्शकों के भाव समाप्त हो जाते हैं । सात्त्विक भावों का उद्रेक तो संत के हृदय में छुपे हुए दिव्य प्रेम के संचार की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है । जब वास्तविक संत भावावेश में नृत्य करता है तो सभी दर्शकों के हृदय में भक्ति भाव उत्पन्न होने लगते हैं। यह संत की सत्यता का निर्विवाद प्रमाण है ।
निष्कर्ष -
दंभी का किसी रसिक संत की भावावेश अवस्था की नकल करना असंभव है और यदि कर भी ले तो जनता को प्रभावित नहीं कर पायेगा । ऊपर से नामापराध (पढ़ें "The Gravest Sin" in Divya Sandesh 2019 New Year Issue) का भागी हो परिणामस्वरूप नरक (पढ़ें narak) की यातनाएँ भोगेगा ।
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