भक्ति मनमोहन श्री कृष्ण को मोहित कर देती है |
पिछले कुछ अंकों में हम ने भक्ति के छः गुणों में से पाँच, यानि क्लेशघ्नी [1], शुभदा [2], मोक्षलघुताकृत् [3], सुदुर्लभा [4], एवं सान्द्रानन्दविशेषात्मा [5] की चर्चा की। इस अंक में भक्ति के छठे गुण, श्रीकृष्णाकर्षिणी, यानि 'श्री कृष्ण को भी अपने वश में करने वाली', पर विचार करेंगे।
समस्त शक्तियाँ शक्तिमान के आधीन रहती हैं। यद्यपि भक्ति भगवान की शक्ति है, तथापि वह इस नियम का पालन नहीं करती। भगवान श्रीकृष्ण परात्पर ब्रह्म हैं वे सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वसमर्थ हैं। परंतु भक्ति इतनी शक्तिमती है कि अपने ही शक्तिमान श्रीकृष्ण को भी वशीभूत कर लेती है। भगवान की आनंद-शक्ति को ह्लादिनी शक्ति कहते हैं। ह्लादिनी शक्ति का सारभूत तत्व भक्ति या प्रेम है। भक्ति की पराकाष्ठा का मूर्तिमान स्वरूप स्वयं श्री राधा हैं [6]। श्री कृष्ण मदन मोहन हैं [7], जिसका अर्थ है कामदेव को मोहित करने वाला। त्रैलोक्य में सबसे रूपवान कामदेव होता है। प्रत्येक ब्रह्माण्ड [8] में एक कामदेव हैं। श्री कृष्ण समस्त ब्रह्माण्डों के समस्त कामदेवों को मोहित कर लेते हैं। एक बार कामदेव ने श्री कृष्ण की परीक्षा लेने का निश्चय किया। कामदेव ने वार करने के लिए वह समय चुना जब श्री कृष्ण गोपियों से घिरे हुए उन्हें अपनी रूप माधुरी, मुरली माधुरी, प्रेम माधुरी, लीला माधुरी का पान करा रहे थे। जैसे ही कामदेव की दृष्टि श्री कृष्ण पर पड़ी, कामदेव को श्रीकृष्ण पर वार करने की विस्मृति हो गई। उल्टे कामदेव स्वयं मंत्रमुग्ध हो कर चित्रलिखि सी अवस्था में एकटक निहारते रहे। इस प्रकार श्री कृष्ण को नाम मिला मदन मोहन। किंतु श्री राधा तो श्री कृष्ण को भी मोहित कर लेती हैं। अतः श्री राधा को मदन मोहन मोहिनी कहा जाता है जिसका अर्थ है - कामदेव को मोहित करने वाले को भी मोहित करने वाली। राधा मेरी गति मति, राधा पद मेरी रति ।
राधा पति मेरी गति, वारौं कोटि रति पति । ब्रज रस माधुरी-1 (#75)
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जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के सिद्धांत के अनुसार, भक्ति का वास्तविक स्वरूप है श्रीकृष्ण के प्रति श्री राधा के उज्जवल प्रेम का अनुसरण करना। ब्रजवासी इस रहस्य को जानते हैं। अतः विशुद्ध भक्ति की प्राप्ति के लिए वे केवल श्री राधा रानी के चरण कमलों की शरण लेते हैं।
तो भक्ति कोई साधारण क्रिया नहीं है, वह श्री राधा की प्रच्छन्न (गोपनीय) शक्ति है [9]। अतः यह पूर्ण रूप से उनके आधीन है। इसी कारणवश यह श्री कृष्ण को भी वश में कर लेती है। श्री कृष्ण प्रेम के मूर्तिमान स्वरूप हैं। अत: उन्हें "प्रेम" सबसे अधिक प्रिय है। उनके भक्तों को श्रीकृष्ण प्रीत्यर्थ उनकी प्रेमपूर्ण सेवा [10] के अतिरिक्त कुछ भी नहीं चाहिए। इसलिए श्रीकृष्ण उनसे अथाह प्रेम करते हैं और उनकी इतनी रक्षा करते हैं जिसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। श्रीकृष्ण का उद्घोष है - वेद आदि मुझे सर्व तंत्र स्वतंत्र कहते हैं लेकिन - |
अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज । साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रिय: ॥
भागवत 9.4.63
“मैं पूर्णतः अपने भक्तों के वश में हूँ। मेरे भक्त कुछ भी नहीं चाहते (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष तथा अपना-सुख) [11], मैं उनके अंतःकरण में वास करता हूँ। मुझे अपने भक्तों और अपने भक्तों के भक्तों के अतिरिक्त किसी से प्रेम नहीं है।”
इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि सभी गोपियाँ श्री कृष्ण पर मोहित थीं। गोपियों की तो बात छोड़िए, रमा, रुद्राणी, ब्रह्माणी, भद्रकाली आदि जैसी सभी शक्तियाँ भी उन पर मोहित हैं। केवल स्त्रियाँ ही नहीं वरन भगवान शिव और भगवान महाविष्णु भी उन पर मोहित हैं [12]। और वे क्यों न हों - श्री कृष्ण सभी प्राणियों के अंशी है।
इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि सभी गोपियाँ श्री कृष्ण पर मोहित थीं। गोपियों की तो बात छोड़िए, रमा, रुद्राणी, ब्रह्माणी, भद्रकाली आदि जैसी सभी शक्तियाँ भी उन पर मोहित हैं। केवल स्त्रियाँ ही नहीं वरन भगवान शिव और भगवान महाविष्णु भी उन पर मोहित हैं [12]। और वे क्यों न हों - श्री कृष्ण सभी प्राणियों के अंशी है।
आश्चर्य की बात तो यह है कि श्रीकृष्ण इन गोपियों पर मोहित हो गए थे। कृपया ध्यान दें - श्रीकृष्ण इन गोपियों की शारीरिक सुंदरता पर मोहित नहीं थे। उनकी पत्नी महालक्ष्मी इतनी सुंदर हैं कि उनके शरीर के एक रोमछिद्र पर अनंत रति, कामदेव की स्त्री, न्योछावर हैं। श्री कृष्ण उनकी सुंदरता पर भी मोहित नहीं है। और उन्हें श्री कृष्ण के चरण दबाने (पादसेवनम्) [13] का सौभाग्य मिलता है। उन्हें इन गोपियों जैसा सान्निध्य नहीं मिलता है [14]। इसके अतिरिक्त, श्री कृष्ण आत्माराम [15] हैं, जिसका अर्थ है कि उनकी कोई अपूर्ण इच्छा नहीं है। और यदि वे कोई इच्छा बना भी लें तो भी वे सत्य-कामः [16] हैं, जिसका अर्थ है कि उनकी सभी इच्छाएँ तुरंत पूरी हो जाती हैं।
फिर वे इन नगण्य जीवों पर क्यों मोहित हैं?
वास्तव में श्रीकृष्ण गोपियों की उस भक्ति पर मोहित हैं जो उनके अंतःकरण में विद्यमान है। भक्ति के वश में भगवान् अपनी भगवत्ता भूल जाते हैं और जीव अपना जीवत्व भूल जाता है। तब लीलाएँ होती है । भक्ति के कारण ही -
जाको कह अज सोइ ब्रज, नंदनंदन बनि आय ।
ग्वालन जूठन खात लखि, विधि बुधि गई भरमाय । ब्रजरस त्रयोदशी - 11
जाके अगनित गुनन को, गावत वेद ऋचान । 'दारी के' गारी सुनन, सोइ छेड़त सखियान ।
ब्रजरस त्रयोदशी - 9
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किंकर्तव्यविमूढ़ करने वाली बात है ना!!! भक्ति इतनी बलवती है कि श्रीकृष्ण प्रत्येक भाव (दास्य, सख्य, वात्सल्य, माधुर्य) से मोहित हो जाते हैं । किसी भी भाव से श्रीकृष्ण की भक्ति हो, वे अपनी भगवत्ता को भूल जाते हैं । और जो जीव जिस भाव से, जिस प्रकार, जितनी मात्रा में भक्ति करता है श्रीकृष्ण भी उस जीव से उसी भाव से, उसी प्रकार, उतनी ही मात्रा में प्रेम करते हैं [17]। ऐसा नहीं है कि ऐसा करने में उनको कोई ग्लानि होती है वरन् भक्ति के प्रताप से श्रीकृष्ण विभोर होकर ऐसा आचरण करते हैं ।
निष्कर्ष
एकमात्र भक्ति ही सर्व तंत्र स्वतंत्र परात्पर ब्रह्म को भक्तों का गुलाम बनाने का सामर्थ्य रखती है। इसलिए, भक्ति को श्रीकृष्ण-आकर्षिणी कहते हैं !!!
हम सब भक्ति के उस स्तर तक पहुँचने की तीव्र इच्छा रखते हैं, जो श्री कृष्ण को मोहित कर दे। इस समय हम साधक हैं, और साधक का एकमात्र कर्तव्य है अपने अंतःकरण की शुद्धि करना। इसके लिए हमें उनसे मिलने की व्याकुलता [18], यानि मन का प्यार बढ़ाना चाहिए। फिर भगवान और गुरु का रूपध्यान करते हुए उनके नाम, महिमा, लीला आदि का गान करना चाहिए। इस प्रकार गुरु के प्रति शत-प्रतिशत शरणागत होकर उनसे बताई गई साधना भक्ति का दैनिक अभ्यास करने से हमारा मन पूर्ण रूप से शुद्ध हो जाएगा। फिर गुरु 'स्वरूप शक्ति' द्वारा उसे दिव्य बना देंगे और तब हमें भगवत्प्राप्ति होगी।
सूरदास जी वात्सल्य भाव के संत थे। वे श्रीकृष्ण से कहते हैं-
हम सब भक्ति के उस स्तर तक पहुँचने की तीव्र इच्छा रखते हैं, जो श्री कृष्ण को मोहित कर दे। इस समय हम साधक हैं, और साधक का एकमात्र कर्तव्य है अपने अंतःकरण की शुद्धि करना। इसके लिए हमें उनसे मिलने की व्याकुलता [18], यानि मन का प्यार बढ़ाना चाहिए। फिर भगवान और गुरु का रूपध्यान करते हुए उनके नाम, महिमा, लीला आदि का गान करना चाहिए। इस प्रकार गुरु के प्रति शत-प्रतिशत शरणागत होकर उनसे बताई गई साधना भक्ति का दैनिक अभ्यास करने से हमारा मन पूर्ण रूप से शुद्ध हो जाएगा। फिर गुरु 'स्वरूप शक्ति' द्वारा उसे दिव्य बना देंगे और तब हमें भगवत्प्राप्ति होगी।
सूरदास जी वात्सल्य भाव के संत थे। वे श्रीकृष्ण से कहते हैं-
हाथ छुड़ाये जात हो, निर्बल जानिकै मोहिं। हिरदय ते जब जाहुगे, मर्द बदौंगो तोहिं
"तुम मेरे हाथ से अपना हाथ छुड़ाकर भाग रहे हो। लेकिन अगर तुम मेरे दिल से निकल के दिखाओ तो मैं तुम्हें बलवान मानूँगा ।"
भक्ति के वश में होने के कारण पूर्ण शरणागत जीव के सामने भगवान बरबस, बिना एक क्षण का भी विलंब किये, आते हैं । इस प्रकार पूर्ण शरणागति कर लेने पर हम भी सूरदास जी की भाँति भगवान को चुनौती दे सकेंगे।
भक्ति के वश में होने के कारण पूर्ण शरणागत जीव के सामने भगवान बरबस, बिना एक क्षण का भी विलंब किये, आते हैं । इस प्रकार पूर्ण शरणागति कर लेने पर हम भी सूरदास जी की भाँति भगवान को चुनौती दे सकेंगे।
इस लेख को मिलाकर छः हाल ही में प्रकाशित लेखों में भक्ति के प्रमुख गुणों का वर्णन किया गया। अगला लेख "भक्ति के गुण" श्रृंखला का अंतिम लेख होगा जिसमें इन सभी 6 गुणों का सारांश दिया जाएगा।
श्री महाराज जी ने एक अद्भुत पद लिखा है जो भक्ति के इस गुण को समझाता है
कान्ह ! हम सुने तुमहिं भगवान !
सच बताओ मोहिं मनमोहन, कहहुँ न काहुहिं आन । मोहिं प्रतीति होति नहिं नेकहूँ, हौं तुम कहँ भल जान । षडैश्वर्य परिपूर्ण सुन्यों हौं, है याकी पहिचान । तुम्हारे तो एकहुँ नहिं दीखत, पुनि हम लें कत मान । मोहिं समझाउ सौंह तोहिं मोरी, सुनु सखी! कह कान्ह । होत विभोर ‘कृपालु’ प्रेम लखि, रह न शक्तिहिं भान ॥ श्री कृष्ण बाल लीला माधुरी # 61
भोरी-भारी गोपी कहती है
“कान्हा! मैंने महान संत गर्गाचार्य से सुना है कि तुम भगवान हो। सच बताओ, हे मनमोहन! मैं इसका खुलासा किसी और को नहीं करूँगी। मुझे तो इस बात पर रत्ती भर भी विश्वास नहीं है, क्योंकि मैं तुम्हें बहुत अच्छी तरह से जानती हूँ। मैंने सुना है कि भगवान में अनंत मात्रा के छः गुण होते हैं - ऐश्वर्य, धर्म, श्री, यश, ज्ञान और वैराग्य। संत पराशर ने बताया है कि इन गुणों द्वारा भगवान को पहचाना जाता है। मुझे तो इनमें से एक भी तुम में नहीं दिखता ! फिर मैं तुम्हें भगवान कैसे मान लूँ? तुम्हें मेरी सौगंध, मुझे सच बताओ”। श्री कृपालु जी महाराज कहते हैं, "श्यामसुंदर करुणापूर्वक प्रकट करते हैं, 'हे सखी! सच में मैं भगवान हूँ और अपने प्रति अपने भक्तों के प्रेम से वशीभूत हो जाता हूँ । इस अवस्था में ये ऐश्वर्य गुण छिपे रहते हैं' "। - जगद्गुरूत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज
प्रेम रस मदिरा |
Bibliography - LEARN MORE
[1] भक्ति क्लेश भस्म करती है
|
[2] भक्ति शुभ दायनी है
|
[13] Navadha Bhakti
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