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साधना भक्ति

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साधना भक्ति का शाब्दिक अर्थ है भक्ति करने का अभ्यास करना । मन समस्त कर्मों का कर्त्ता है । अनादिकाल से मन इस संसार के पदार्थों में आसक्त है इसलिए इन्हीं के संचय और सेवन से अनंत अपरिमेय परमानन्द प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहा है । साधक को अपने मन को सांसारिक विषयों से हटाकर भगवान में लगाने का अभ्यास करना होगा । यह भक्ति की प्रारंभिक अवस्था है । इस अभ्यास का लक्ष्य है मन से सारी सांसारिक वस्तुओं की वासना को मिटाना ।

भक्ति की इस अवस्था को दो भागों में बांटा जा सकता है -
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साधना भक्ति

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साधना शब्द का अर्थ है अभ्यास करना । भक्ति की प्रथम सीढ़ी पर साधक श्री कृष्ण के दिव्य रूप का ध्यान करने का अभ्यास करता है।  श्री कृष्ण के दिव्य रूप का ध्यान करने को ही रूपध्यान कहा जाता है, अर्थात भगवान का प्रेमपूर्वक स्मरण ।

​जब साधक किसी रसिक संत को गुरु मानकर उनके आदेशानुसार निष्ठापूर्वक रूपध्यान का अभ्यास करता है तब धीरे-धीरे उसकी निष्ठा और श्रद्धा बढ़ती जाती है । अभ्यास करते करते वह साधक ऐसी ऊँची अवस्था पर पहुँच जाता है जिसमें वह नियमित रूप से साधना करने लग जाता है । वह परमानन्द का अनुभव करने लगता है जो दिन प्रतिदिन बढ़ता जाता है। इस प्रकार अभ्यास करते-करते कालांतर में रूपध्यान करना सरल होता जाता है, और अंत में यह इतना सरल हो जाता है कि कोई भी सांसारिक उतराव-चढ़ाव उसकी साधना में बाधा नहीं बन पाता । यही प्रारंभिक भक्ति की अगली  सीढ़ी है, जिसको भाव भक्ति कहते हैं।

भाव भक्ति

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यह प्रारंभिक भक्ति की उच्चतर अवस्था है जिसमें साधक हर जगह, हर समय, हर स्थिति में निर्विघ्न रूपध्यान कर पाता है। इस अवस्था में साधक भक्ति के फल का रस लेने लगता है, जैसे संतुष्टि, वैराग्य, दीनता आदि । भाव भक्ति की चरम सीमा पर मन में सांसारिक कामना के स्थान पर ईश्वरीय कामना घर कर लेती हैं।

भक्त भगवान के विरह में इतना व्याकुल हो जाता है कि उसे लगता है यदि भगवान “तत्काल” न मिले तो प्राण छूट जायेंगे ।

भाव भक्ति के परिपक्व होने पर साधक की भगवत्प्राप्ति हो जाती है। आत्मनिरीक्षण करने हेतु एवं आध्यात्मिक पथ पर अपनी उन्नति को नापने के लिए साधक को भाव भक्ति के लक्षण को जानना आवश्यक है। वरना थोड़ा आगे बढ़ने पर ही यह भ्रम पैदा हो सकता है कि हम भाव भक्ति तक पहुँच गये हैं। यह मिथ्या अहंकार साधक की वर्तमान आध्यात्मिक स्थिति से पूर्ण पतन का कारण बन सकता है।

भाव भक्ति के लक्षण

'भक्ति रसामृत सिंधु' भक्ति की सबसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है।  इस ग्रन्थ में भाव भक्ति के निम्नलिखित लक्षण बताये गये हैं।
क्षांतिरव्यर्थ कालत्वं विरक्तिर्मानशून्यता, आशाबंधः समुत्कण्ठा नामगाने सदा रुचिः ।
आसक्तिस्तद्गुणाख्याने प्रीतिस्तद्वसतिस्थले, इत्यादयोऽनुभावास्युर्जातभावाड्कुरे जने ॥
भ. र. सि.

क्षांति

1. क्षांति - क्षांति शब्द​​ का अर्थ शान्ति है। ‘उज्जवल नीलमणि’ भक्ति का एक और ग्रन्थ है जिसमें क्षांति की परिभाषा दी गई है
क्षोभहेतावपिप्राप्ते क्षान्तिरक्षुभितात्मना । उ. नील​.
"इस अवस्था पर पहुँचने के उपरांत चिंता का कारण होने पर भी वह जीव स्थिर और शांतचित्त रहता है" । उदाहरण के लिए अगर पूरे परिवार और धन का एक क्षण में नाश हो जाये, तब भी उस जीव का मन विक्षिप्त ना हो तब माना जाएगा कि उसके अंतः करण में क्षान्ति है।

अव्यर्थकालत्वं

2. अव्यर्थकालत्वं - साधक को हरि गुरु के विस्मरण में व्यतीत किया हुआ प्रत्येक क्षण समय का नाश लगे। ​

विरक्ति

3.   विरक्ति - साधक को इन्द्रियों के विषयों से मुँह मोड़ने में प्रयत्न नहीं करना पड़ता वरन् स्वतः ही मन संसार के विषय सुख की कामना से विरक्त हो जाता है।
विरक्तिरिन्द्रियर्थानंस्यदरोचकता स्वयम्।

मानशून्यता

4.  मानशून्यता - साधक सचमुच सब का सम्मान करता है लेकिन अपना सम्मान किसी से नहीं चाहता ।   

आशा

5.  आशा - इस स्थिति में साधक को अटूट विश्वास रहता है कि उसे श्री कृष्ण की दिव्य कृपा प्राप्त होगी और उसे श्री कृष्ण अवश्य दर्शन देकर कृतार्थ करेंगे ।  

समुत्कण्ठा

6.  समुत्कण्ठा - साधक में भगवद्दर्शन की लालसा निरंतर बढ़ती रहती है । उसके मन में दृढ़ विश्वास भी होता है कि श्री कृष्ण बस अभी मेरे सामने प्रकट होने वाले  हैं । एक पत्ते की सरसराहट की आवाज़ सुन कर वह  चौंक जाता है कि शायद मेरे प्रियतम आये हैं। 

नामगान में रुचि

7. नामगान में रुचि - साधक भगवान के सुमधुर नाम का निरंतर जाप किये बिना नहीं रह सकता । निरंतर भगवन्नाम संकीर्तन करने पर भी वह अतृप्त ही रहता है, अतः और अधिक नाम गान करना चाहता है।

गुणगान

8. गुणगान​ - साधक के अंदर श्यामसुंदर के गुणों का गान करने की अतृप्त प्यास रहती है। भगवान के दिव्य लीलाओं की चर्चा एवं श्रवण दिन रात करने पर भी साधक की प्यास और बढ़ती जाती है और उसकी तृप्ति नहीं हो पाती ।

लीलास्थल-प्रेम​

9. लीलास्थल-प्रेम​ - भगवान की लीलास्थलियों में उस साधक को दिव्यानंद मिलता है। वह उन्ही स्थलियों में वास करना चाहता है, उन्ही स्थलियों का दर्शन करना चाहता है, उन वस्तुओं को छूना चाहता है जिसको भगवान ने स्पर्श किये हों और उन पुष्पों की सुगंध लेना चाहता है जो भगवान ने सूंघे हों।

जब साधक किसी एक वास्तविक महापुरुष के दिव्य संरक्षण में साधना करता है, तब उस महापुरुष की कृपा से धीरे धीरे ये लक्षण अंकुरित होते हैं और उनकी वृद्धि होने लगती है। चूंकि ये लक्षण कृपा साध्य हैं अतः किसी एक वास्तविक महापुरुष के अनुगत होकर साधना करना अनिवार्य है।

कृपया ध्यान दें - कोई भी ऐसी तपस्या या साधना नहीं है जो इन लक्षणों को पैदा करने में सक्षम हो। किसी एक वास्तविक महापुरुष के चरण कमल में प्रीति रख कर साधना करना भक्ति मार्ग में आगे बढ़ने के लिए एकमात्र उपाय है।
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