
संसार शब्द का अर्थ असंख्य अंडाकार ब्रह्मांडों के समूह है । इस संसार की सृष्टि 84 लाख योनियों के भरण-पोष्ण के लिये परात्पर ब्रह्म ने अपनी जड़ शक्ति माया द्वारा की गई है (1) । अतः यह संसार माया के तीन गुणों से संपन्न है: -
तो, सभी भौतिक वस्तुएँ सात्विक, राजस या तामस गुणों से प्रभावित होती हैं। यद्यपि, सभी जीव भी तीनों गुणों से प्रभावित होते हैं, फिर भी योनि के आधार पर कोई एक गुण प्रबल होता है -
यह संसार जड़ माया से बना है, फिर भी यह बड़े-बड़े योगी और मुनि के लिये भी यह अज्ञेय है ।
- सात्विक,
- राजस और
- तामस
तो, सभी भौतिक वस्तुएँ सात्विक, राजस या तामस गुणों से प्रभावित होती हैं। यद्यपि, सभी जीव भी तीनों गुणों से प्रभावित होते हैं, फिर भी योनि के आधार पर कोई एक गुण प्रबल होता है -
- सत्वगुण देवी-देवताओं में प्रधान है,
- राजस गुण मनुष्यों में प्रधान है और
- राक्षसों में तामस गुण प्रबल होता है।
यह संसार जड़ माया से बना है, फिर भी यह बड़े-बड़े योगी और मुनि के लिये भी यह अज्ञेय है ।
माया वश्य जीव अभिमानी । ईश वश्य माया गुण खानी ॥
जासु सत्यता ते जड़ माया । भास सत्य इव सहित सहाया ॥
सिव चतुरानन देखि डेराहीं । अपर जीव केहि लेखे महीं ॥
सोई प्रभु भ्रु विलास खगराया । नाच नटी इव सहित सहाया ॥
जासु सत्यता ते जड़ माया । भास सत्य इव सहित सहाया ॥
सिव चतुरानन देखि डेराहीं । अपर जीव केहि लेखे महीं ॥
सोई प्रभु भ्रु विलास खगराया । नाच नटी इव सहित सहाया ॥
"माया सृष्टिकर्ता ब्रह्मा और संहारक शंकर को भी विस्मित कर देती है, फिर औरों की क्या बिसात ।" माया अपनी मर्जी से कुछ नहीं कर सकती, लेकिन सर्वशक्तिमान परात्पर ब्रह्म की शक्ति से क्या कुछ नहीं कर सकती । भगवत गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं।
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया । मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥ गीता ७.१४
"यह मेरी शक्ति है। इसलिए यह अजेय है । जब जीव मेरे पूर्ण शरणागत हो जाता है तो मेरी कृपा से माया के पार जाता है"
प्रकृति के नियमों के अनुसार समाज का भौतिकवाद और आध्यात्मिक स्तर व्युत्क्रमानुपाती होता है। इस प्रकार, जब भौतिकवाद बढ़ता है, तो समाज का आध्यात्मिक स्तर घटता है और जब भौतिकवाद घटता है तो आध्यात्मिक स्तर बढ़ता है। प्रगति और प्रतिगमन का यह चक्र अनवरत चलता रहता है।
वर्तमान में संसार भौतिक क्षेत्र में जबरदस्त प्रगति कर रहा है। इसलिए, सृष्टि के नियम के अनुसार, आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रतिगमन भी स्पष्ट है। भ्रष्टाचार, लोभ, अपराध, आतंकवाद आदि बढ़ रहे हैं। आधुनिक समय में कंप्यूटर और अन्य परिष्कृत मशीनरी की कई आश्चर्यजनक खोजें की गई हैं, लेकिन हरिश्चंद्र जैसे सत्यवादी लोग, दधीची जैसे वैरागी, भीष्म पितामह जैसे पक्के इरादों वाले, रघु जैसे उदार दाता इस धरती पर नहीं देखे जाते हैं। जब उनके जैसे संप्रभु व्यक्ति इस धरती पर निवास कर रहे थे, तब भौतिक प्रगति बहुत कम थी । |
कुछ महान विद्वान और ऋषि इस संसार को सत्य मानते हैं और कुछ का दावा है कि यह असत्य और मिथ्या है। प्रथम जगद्गुरु शंकराचार्य कहते हैं कि संसार कुछ नहीं होता । ये तो कोरी कल्पना है। वे कहते हैं, संसार नाम की कोई चीज नहीं है।
अन्य तीन जगद्गुरु (अपने समय के महानतम विद्वान), जगद्गुरु निम्बार्काचार्य, जगद्गुरु रामानुजाचार्य और जगद्गुरु माधवाचार्य इस संसार को सत्य मानते हैं क्योंकि यह ईश्वर द्वारा बनाया और पोषित है।
पचम मूल जगद्गुरु, जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज, जिन्हें जगद्गुरूत्तम (अन्य सभी जगद्गुरुओं में सर्वश्रेष्ठ) की विशेष उपाधि से सम्मानित किया गया था, के अनुसार यह संसार मिथ्या और सत्य दोनों है । उन्होंने पूर्ववर्ती जगद्गुरुओं के मतों का समन्वय करके कहा कि दो संसार होते हैं।
अन्य तीन जगद्गुरु (अपने समय के महानतम विद्वान), जगद्गुरु निम्बार्काचार्य, जगद्गुरु रामानुजाचार्य और जगद्गुरु माधवाचार्य इस संसार को सत्य मानते हैं क्योंकि यह ईश्वर द्वारा बनाया और पोषित है।
पचम मूल जगद्गुरु, जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज, जिन्हें जगद्गुरूत्तम (अन्य सभी जगद्गुरुओं में सर्वश्रेष्ठ) की विशेष उपाधि से सम्मानित किया गया था, के अनुसार यह संसार मिथ्या और सत्य दोनों है । उन्होंने पूर्ववर्ती जगद्गुरुओं के मतों का समन्वय करके कहा कि दो संसार होते हैं।
1. बाह्य स्थूल संसार - यह पंच महाभूत से बना है और माया द्वारा ईश्वर द्वारा रचा गया है। यह संसार सत्य है क्योंकि यह सत्य ईश्वर द्वारा बनाई गई है।
सत्याद्भूतानि जातानि स्थापसराणि च राणि च ।
"सभी चल और अचल जीव तथा निर्जीव पदार्थ जैसे ग्रह, मिट्टी, पानी आदि, स्वयं भगवान द्वारा बनाए गए हैं"। इसलिए ये सभी सत्य हैं।
2. इच्छाओं का आंतरिक संसार - यह हर जीव के अंतःकरण में विद्यमान है अथवा अंतःकरण द्वारा निर्मित है । इसमें बाह्य स्थूल जगत की विभिन्न वस्तुओं की कामनाओं द्वारा अनगिनत जन्मों में निर्मित असंख्य सूक्ष्म वासनाएँ होती हैं। आंतरिक संसार असत्य है क्योंकि यह हमारे अज्ञानी मन की रचना है।
यदिदं मनसा वाचा चक्षुर्भ्यां श्रवणादिभिः ।
नश्वरं गृह्यमाणं च विद्धि मायामनोमयम् ॥
नश्वरं गृह्यमाणं च विद्धि मायामनोमयम् ॥
"मन, जिह्वा, आँख या कान आदि से जो कुछ भी बोधगम्य है, वह क्षणिक और भौतिक है।"
मन की वर्तमान स्थिति बाहरी स्थूल जगत की प्राप्ति की इच्छाओं, महत्वाकांक्षाओं और भावनाओं के आधार पर बनता बिगड़ता रहता है। वे निरंतर परिवर्तनशील हैं। मान लीजिए दो दोस्त मॉर्निंग वॉक पर जा रहे थे। उन्होंने देखा कि एक चमकदार वस्तु जमीन पर पड़ा है। उसे हीरा समझकर उनमें से एक ने उसे उठा लिया और ऐश्वर्य का मानसिक संसार रचकर प्रसन्न हो रहा है। दूसरा दोस्त खुद को बदकिस्मत समझकर निराश हो गया। थोड़ी देर बाद वे हीरे के पार्खी से मिलते हैं। जौहरी ने इसे 20 डॉलर का नकली हीरे बताया । भले ही अंगूठी अपरिवर्तित रही, जिसने अंगूठी पाई वह उस अंगूठी को देखकर निराश और उदासीन हो रहा है। दूसरा मित्र जो निराश था वह राहत की साँस ले रहा है कि उसने कोई मूल्यवान वस्तु नहीं खोई । |
ध्यान दें कि भले ही भौतिक वस्तु अपरिवर्तित रही, उसके कथित मूल्य के आधार पर लोगों के दृष्टिकोण में दिन और रात का अंतर था । इस उदाहरण में, अंगूठी एक जड़ वस्तु है, और बाह्य स्थूल संसार का उदाहरण है। जबकि हीरे के मालिक होने की महत्वाकांक्षा आंतरिक-संसार का उदाहरण है। आंतरिक संसार को कथित मूल्य के आधार पर मन द्वारा गढ़ा गया था इसलिए यह बदलता रहा ।

जीव पर इन संसारों के प्रभाव को समझना महत्वपूर्ण है। बाहरी स्थूल जगत किसी जीव की कोई हानि नहीं कर सकता क्योंकि वह जड़ है । बाहरी स्थूल जगत को प्राप्त करने की इच्छा ही हमें अनैतिकता में लिप्त करती है और इस प्रकार हमें नुकसान पहुँचाती है। बाह्य जगत की वस्तुओं को प्राप्त करने से लोभ उत्पन्न होता है और उन्हें प्राप्त न करने से दुःख होता है। इस प्रकार, दोनों ही स्थितियों में बाहरी संसार की इच्छा कष्ट का कारण बनती है।
आन्तरिक जगत् ही अधिक प्रबल होता है (2) क्योंकि बाह्य वस्तु सामने न होने पर भी उसको पाने की इच्छा से आन्तरिक शान्ति भंग हो जाती है। और बाहरी संसार के संपर्क में आने से निश्चित रूप से इच्छाएँ प्रबल हो जाती हैं। कभी-कभी, बाहरी वस्तुओं को प्राप्त करने की इच्छा स्पष्ट नहीं होती, लेकिन बाहरी वस्तुओं को देखने से उन्हें प्राप्त करने की सुप्त महत्वाकाँक्षा विकराल रूप धारण कर लेती है।
इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है: एक बच्चे को कैंडी पसंद है, परंतु उसे अभी कैंडी की याद नहीं है, आराम से खेल रहा है । लेकिन कैंडी देखकर माँगने लगा और न मिलने पर मचल भी जायेगा । इसी तरह, आप-अपने लोभ को आसानी से नियंत्रित करने में सक्षम हैं, लेकिन एक सुनसान जगह पर लावारिस पैसे का एक बड़ा बैग पड़ा मिल जाए तो लोभ से कोई बिड़ला ही अपने आपको बचा सकता है । ऐसे कई ऋषियों और मुनियों के ऐतिहासिक प्रमाण हैं जिनका बाह्य संसार के संपर्क के कारण पतन हो गया - जैसे सौभरी और विश्वामित्र आदि।
अब अगर हम किसी तरह आंतरिक संसार को समाप्त कर दें (3) तो बाहरी दुनिया हमारी मानसिक शांति को भंग नहीं कर सकती है। स्थूल वस्तुएँ हमारी शांति को तभी भंग करती हैं जब जीव के अंतःकरण में उस वस्तु की प्राप्ति की कामना हो । कामना ही सभी समस्याओं का मूल कारण है। अगर कामना पर विजय प्राप्त की जा सकती है तो बाहरी संसार की उपस्थिति या अनुपस्थिति जीव की शांति को भंग नहीं कर सकती है।
एक बात निश्चित है, यदि बुद्धि दृढ़ता से यह निश्चय कर ले कि बाह्य जगत के विषय परमानंद की हमारी इच्छा को पूरा नहीं कर सकते, तो बाह्य विषयों को प्राप्त करने की इच्छा स्वतः समाप्त हो जाएगी। तो पहला सोपान है दृढ़ निश्चय, कि इस संसार में कोई सुख नहीं है । यह दृढ़ निश्चय निरंतर चिंतन से आएगा ।
अभी जो मन संसार में आसक्त होकर जीव को 84 लाख का भ्रमण करा रहा है वही मन संत के शरणागत होकर जीव को अनंत अपरिमेय आनंद दिलाएगा ।
आन्तरिक जगत् ही अधिक प्रबल होता है (2) क्योंकि बाह्य वस्तु सामने न होने पर भी उसको पाने की इच्छा से आन्तरिक शान्ति भंग हो जाती है। और बाहरी संसार के संपर्क में आने से निश्चित रूप से इच्छाएँ प्रबल हो जाती हैं। कभी-कभी, बाहरी वस्तुओं को प्राप्त करने की इच्छा स्पष्ट नहीं होती, लेकिन बाहरी वस्तुओं को देखने से उन्हें प्राप्त करने की सुप्त महत्वाकाँक्षा विकराल रूप धारण कर लेती है।
इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है: एक बच्चे को कैंडी पसंद है, परंतु उसे अभी कैंडी की याद नहीं है, आराम से खेल रहा है । लेकिन कैंडी देखकर माँगने लगा और न मिलने पर मचल भी जायेगा । इसी तरह, आप-अपने लोभ को आसानी से नियंत्रित करने में सक्षम हैं, लेकिन एक सुनसान जगह पर लावारिस पैसे का एक बड़ा बैग पड़ा मिल जाए तो लोभ से कोई बिड़ला ही अपने आपको बचा सकता है । ऐसे कई ऋषियों और मुनियों के ऐतिहासिक प्रमाण हैं जिनका बाह्य संसार के संपर्क के कारण पतन हो गया - जैसे सौभरी और विश्वामित्र आदि।
अब अगर हम किसी तरह आंतरिक संसार को समाप्त कर दें (3) तो बाहरी दुनिया हमारी मानसिक शांति को भंग नहीं कर सकती है। स्थूल वस्तुएँ हमारी शांति को तभी भंग करती हैं जब जीव के अंतःकरण में उस वस्तु की प्राप्ति की कामना हो । कामना ही सभी समस्याओं का मूल कारण है। अगर कामना पर विजय प्राप्त की जा सकती है तो बाहरी संसार की उपस्थिति या अनुपस्थिति जीव की शांति को भंग नहीं कर सकती है।
एक बात निश्चित है, यदि बुद्धि दृढ़ता से यह निश्चय कर ले कि बाह्य जगत के विषय परमानंद की हमारी इच्छा को पूरा नहीं कर सकते, तो बाह्य विषयों को प्राप्त करने की इच्छा स्वतः समाप्त हो जाएगी। तो पहला सोपान है दृढ़ निश्चय, कि इस संसार में कोई सुख नहीं है । यह दृढ़ निश्चय निरंतर चिंतन से आएगा ।
अभी जो मन संसार में आसक्त होकर जीव को 84 लाख का भ्रमण करा रहा है वही मन संत के शरणागत होकर जीव को अनंत अपरिमेय आनंद दिलाएगा ।