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जीव का उद्देश्य

इस लेख को हिंदी में पढ़ें
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सभी योनियों में, सभी उम्र के सभी प्राणी, हर समय, हर जगह और हर स्थिति में कुछ प्राप्त करना चाहते हैं। उनके कार्य एक-दूसरे के विपरीत हैं और फिर भी, उद्देश्य​ हर समय एक ही है। एक प्रतिभावान  व्यक्ति, साधारण जीव​, यहाँ तक कि पागल भी उसी लक्ष्य को प्राप्त करने की प्रयत्नशील है । यहाँ तक कि संत और भगवान के भी प्रत्येक कार्य उसी उद्देश्य की पूर्ती हेतु होते हैं।

यह कथन हास्यास्पद लग सकता है, क्योंकि जुड़वाँ बच्चों का स्वभाव, आदतें और विचार भी एक जैसे नहीं होते । इसके अतिरिक्त, उनकी विचारधारा अलग-अलग परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न होती है ! फिर कोई इस कथन​ पर कैसे विश्वास कर सकता है? ऐसा प्रतीत होता है जैसे  व्यक्ति विभिन्न प्रयोजनों के लिए अनेकानेक कार्य करता है।

यदि कोई निष्पक्ष हो कर​ वांछित परिणाम पर विचार करे तो यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाएगा ।  लेकिन जरा सोचिए, अगर आपका लक्ष्य उच्च शिक्षा प्राप्त करना है, तो स्वयं से पूछें -

"मैं अपनी सुख-सुविधाएँ और रुचियाँ छोड़कर इतनी पढ़ाई क्यों कर रहे हूँ"?

"क्योंकि, मुझे एल.एल.बी (कानून) की डिग्री प्राप्त करनी है"।

"क्यों?"

"अच्छा पैसा कमाने के लिए"।

"मैं अच्छा पैसा क्यों कमाना चाहता हूँ?"

"ताकि मैं अपनी पसंद की अच्छी कार, कोठी आदि खरीद सकूँ।"

"मैं यह सब क्यों खरीदना चाहते हूँ?"

"चूँकि, मैं एक सुखी जीवन जीना चाहता हूँ।"

"मैं सुखी  क्यों रहना चाहता हूँ?"

बस​, अब इस प्रश्न का कोई उत्तर​ नहीं है । सीधे शब्दों में कहें तो- "हर जीव​ बिना किसी के सिखाय पढ़ाये सुखी रहना चाहता है"। इसी प्रकार कोई अन्य​ जीव धन, प्रसिद्धि, परिवार, मित्र या किसी अन्य वस्तु की इच्छा कर सकता है। पूछते रहो "क्यों"। प्रत्येक प्रश्नावली एक ही उत्तर के साथ समाप्त होगी कि "मैं सुख प्राप्त करना चाहता हूँ"। इसका मतलब है कि कोई धन, संपत्ति, नाम, प्रसिद्धि या कोई अन्य वस्तु प्राप्त नहीं करना चाहता है। बल्कि इन सब को उस सुख की प्राप्ति का साधन मानता है । शांति, आनंद, खुशी, इतमिनान​ लुत्फ़​, मज़ा ये सभी पर्यायवाची शब्द हैं। इस प्रकार यह सिद्ध है कि सभी का एकमात्र लक्ष्य सुख की प्राप्ति ही है।

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यह इच्छा इतनी सार्वभौमिक क्यों है? 

केवल इसलिए कि हमारे ग्रंथ वेद, भागवत, गीता, रामायण, कुरान शरीफ और बाइबिल आदि के अनुसार हम भगवान के सनातन अंश हैं और भगवान ही सुख है । 

प्राकृतिक नियम के अनुसार सभी अंश स्वाभाविक रूप से अपने अंशी से मिलना चाहते हैं। अत: ईश्वर का अंश होने के कारण हम स्वाभाविक रूप से ईश्वर को प्राप्त करना चाहते हैं। उदाहरण के लिए लौ अपने स्रोत, सूर्य से मिलने के लिए ऊपर की ओर उठती है। सारी नदियाँ सागर की ओर बहती हैं। इसी प्रकार, जीव स्वाभाविक रूप से भगवान या आनंद से मिलने की इच्छा रखते हैं।

हमने अपने आनंद का स्रोत क्यों नहीं प्राप्त किया? 

रात-दिन अनवरत आनंद की खोज के बाद भी हमने इसे प्राप्त नहीं किया क्योंकि हम गलत क्षेत्र में खोज रहे हैं यानी हम माया के संसार में उस दिव्य​ आनंद की खोज कर रहे हैं।

अब हमें सुख कैसे प्राप्त हो सकता है? 

हमें निरंतर चिंतन द्वारा इस ज्ञान को पुष्ट करना होगा
  • मैं केवल भगवान का हूँ
  • संसार माया से बना है, जहाँ लेशमात्र भी आनंद नहीं है। ईश्वर ही मेरा एकमात्र सम्बन्धी [1] है । मेरे सारे सम्बन्धी उनसे ही हैं ।

त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव । त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्वं मम देवदेव ॥
"तुम ही मेरी माता, मेरे पिता, मेरे मित्र, मेरी विद्या, मेरा धन, मेरा सर्वस्व हो"
वह अनन्त आनंद है

फिर यह संसार हमें क्यों दिया गया है?

यह संसार हमें आनंद प्राप्ति के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए दिया गया है। अन्यथा, यदि जीव निष्क्रिय होकर भगवान् के महोदर में पड़ा रहता, तो अनंत आनंद की प्राप्ति का लक्ष्य नहीं हल हो पाता । उन्होंने अपनी माया की शक्ति से संसार की रचना की और फिर माया ने हमें ज्ञान प्राप्त करने के लिए इंद्रियों, मन और बुद्धि के साथ इस शरीर की रचना की [2] कि भगवान हमारे एकमात्र सम्बन्धी हैं और आनंद के सागर हैं। परमानन्द की प्राप्ति हमारी विरासत है।

इन कुछ​ बातों पर​ अडिग 100% विश्वास ही भगवद्-दर्शन, अनंत आनंद की प्राप्ति के लिये पर्याप्त है ।
Bibliography - Learn More
[1] The one and only eternal relative​
[2] ​सृष्टि
​Bliss (आनंद)
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