
हजारों साल पहले, रत्नाकर नाम का एक भयानक डाकू था, जिसका डर पूरे राज्य में व्याप्त था। यद्यपि रत्नाकर ब्राह्मण परिवार में पैदा हुआ था, तथापि वह अपने परिवार का पालन डकैती करके करता था । वह अत्यंत ही क्रूर और निर्दयी व्यक्ति था। वह पहले यात्रियों को मारता था और फिर उनकी जेब टटोलता था। वह कई वर्षों तक इसी प्रकार अपने परिवार का पालन करता रहा । दूर-दूर तक लोग उसके नाम से कांपते थे । राही उसके इलाके से गुज़रने में डरते थे और यदि यात्रा करना अत्यंत आवश्यक हो, तो रत्नाकर के हमले से बचने के लिए वे समूहों में यात्रा करते थे ।
एक दिन एक सड़क के किनारे पेड़ों के पीछे छिपे हुए रत्नाकर अपने शिकार की प्रतीक्षा कर रहा था। अचानक वहाँ उसने अत्यंत विचित्र व्यक्ति को गुज़रते देखा । यात्री धोती पहने, वीणा बजाता और भगवान की महिमा गाता हुआ अकेला चल रहा था।
जैसे ही यात्री रत्नाकर के सामने से गुज़रा, रत्नाकर उस पर प्रहार करने के लिए सामने कूद पड़ा । वह यात्री कोई और नहीं बल्कि स्वयं नारद मुनि थे। डाकू को देखकर नारद मुनि न डरे न वहां से हटे । इसके बजाय वे शांति से वहां खड़े रहे और बहुत ही दयालु स्वर में डाकू को संबोधित करते हुए कहा, "भाई! मेरे पास ऐसा कुछ भी नहीं है जो तुम चाहते हो"।
रत्नाकर को पता नहीं था कि वह नारद मुनि के सामने खड़ा है । लेकिन वह निश्चित रूप से यात्री के शांत स्वभाव से बहुत हैरान था और यात्री से पूछ बैठा, "मैं रत्नाकर, कुख्यात डाकू और एक निर्दयी हत्यारा हूँ। क्या तुम मुझसे नहीं डरते?" नारद जी ने उत्तर दिया, "नहीं, मैं तुमसे नहीं डरता। मेरे पास ऐसा कोई ख़ज़ाना नहीं है जिसके लिए तुम मुझे मारना चाहो । फिर भी, अगर तुमको मुझे मारने में सुख मिलता है, तो आगे बढ़ो और अपने आप को सुखी बना लो। लेकिन ऐसा करने से पहले मुझे ये बता दो कि तुम निरपराध लोगों की नृशंस हत्या क्यों करना चाहते हो?' रत्नाकर ने उत्तर दिया, "मेरा परिवार बड़ा है । उनका लालन-पालन करने के लिए मैं लोगों को लूटता हूँ और उस धन से अपने परिवार का पेट पालता हूँ ”।
संतों का हृदय मक्खन से भी कोमल होता है । रत्नाकर के अज्ञानता को देखकर नारद जी का दिल पिघल गया । उन्होंने घोर पापी रत्नाकर पर कृपा करने की ठानी । उन्होंने रत्नाकर को बताया कि पाप से अर्जित आजीविका जघन्य पाप है। फिर उन्होंने रत्नाकर से पूछा कि क्या उसके परिवारजन, जिनके लिए वह इस तरह के पाप कमा रहा है, उसके पापों के भागीदार बनेंगे ? रत्नाकर ने पूर्ण विश्वास के साथ उत्तर दिया, "क्यों नहीं ? मैं यह सब केवल उन्हीं के लिए करता हूँ।" नारद जी ने सुझाव दिया कि रत्नाकर अपने परिवार से पूछ कर अपनी समझ की पुष्टि करें ।
रत्नाकर को पूर्ण विश्वास था कि उसकी मान्यता सही थी फिर भी सुझाव के अनुसार उसने अपनी मान्यता की पुष्टि करने के लिए घर जाकर परिवारजन से पूछने का फैसला किया । परंतु जाने से पहले उसने नारद जी को रस्सी से पेड़ में बांध दिया ताकि वह भाग न जाएँ । घर पहुँचने पर, उसने अपने परिवार के प्रत्येक सदस्य - पिता माँ, पत्नी और बच्चों से प्रश्न किया, "मैं आपके पोषण के लिए लोगों को मारता व लूटता हूँ । यह पाप है । क्या आप उस पाप में भागी बनेंगे ?” सब ने मना कर दिया । उसने कभी यह सपने में भी नहीं सोचा था कि उसके परिवारजन इतने स्वार्थी होंगे । उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा, कि “हमारा पालन पोषण करना आपकी जिम्मेदारी है। अपने उत्तरदायित्व को निभाने के लिए चाहे आप पाप कमाएँ, चाहे पुण्य । वे पाप-पुण्य आपके साथ जाएँगे। आपके कर्मों का हम भागीदार नहीं बन सकते।”
रत्नाकर अवाक रह गया। उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि उसका परिवार, जिसके लिए उसने इतनी मेहनत की और हर तरह से उसका पालन पोषण किया, इतने स्वार्थी होंगे । उसी क्षण उसे संसार की स्वार्थी प्रकृति का बोध हो गया और वह पूरी तरह से विरक्त और उदासीन हो गया । रत्नाकर नारद जी से मिलने के लिए वापस गया, जिन्हें वह रस्सियों से एक पेड़ से बांधकर सड़क के किनारे छोड़ गया था। उसने रस्सी खोलकर उनसे क्षमा याचना की और संसार का सच्चा स्वरूप दिखाने के लिए धन्यवाद दिया । वह नारद जी के चरणों में गिरकर फूट-फूट कर रोने लगा और उनसे सही मार्गदर्शन करने की विनम्र प्रार्थना की।
नारद मुनि ने तब रत्नाकर को भगवान "राम" के नाम का लगातार जप करने का निर्देश दिया। अत्यधिक पाप के कारण रत्नाकर 'रा' तथा 'म' तो बोल सकता था, परंतु राम का उच्चारण नहीं कर पा रहा था ।
एक दिन एक सड़क के किनारे पेड़ों के पीछे छिपे हुए रत्नाकर अपने शिकार की प्रतीक्षा कर रहा था। अचानक वहाँ उसने अत्यंत विचित्र व्यक्ति को गुज़रते देखा । यात्री धोती पहने, वीणा बजाता और भगवान की महिमा गाता हुआ अकेला चल रहा था।
जैसे ही यात्री रत्नाकर के सामने से गुज़रा, रत्नाकर उस पर प्रहार करने के लिए सामने कूद पड़ा । वह यात्री कोई और नहीं बल्कि स्वयं नारद मुनि थे। डाकू को देखकर नारद मुनि न डरे न वहां से हटे । इसके बजाय वे शांति से वहां खड़े रहे और बहुत ही दयालु स्वर में डाकू को संबोधित करते हुए कहा, "भाई! मेरे पास ऐसा कुछ भी नहीं है जो तुम चाहते हो"।
रत्नाकर को पता नहीं था कि वह नारद मुनि के सामने खड़ा है । लेकिन वह निश्चित रूप से यात्री के शांत स्वभाव से बहुत हैरान था और यात्री से पूछ बैठा, "मैं रत्नाकर, कुख्यात डाकू और एक निर्दयी हत्यारा हूँ। क्या तुम मुझसे नहीं डरते?" नारद जी ने उत्तर दिया, "नहीं, मैं तुमसे नहीं डरता। मेरे पास ऐसा कोई ख़ज़ाना नहीं है जिसके लिए तुम मुझे मारना चाहो । फिर भी, अगर तुमको मुझे मारने में सुख मिलता है, तो आगे बढ़ो और अपने आप को सुखी बना लो। लेकिन ऐसा करने से पहले मुझे ये बता दो कि तुम निरपराध लोगों की नृशंस हत्या क्यों करना चाहते हो?' रत्नाकर ने उत्तर दिया, "मेरा परिवार बड़ा है । उनका लालन-पालन करने के लिए मैं लोगों को लूटता हूँ और उस धन से अपने परिवार का पेट पालता हूँ ”।
संतों का हृदय मक्खन से भी कोमल होता है । रत्नाकर के अज्ञानता को देखकर नारद जी का दिल पिघल गया । उन्होंने घोर पापी रत्नाकर पर कृपा करने की ठानी । उन्होंने रत्नाकर को बताया कि पाप से अर्जित आजीविका जघन्य पाप है। फिर उन्होंने रत्नाकर से पूछा कि क्या उसके परिवारजन, जिनके लिए वह इस तरह के पाप कमा रहा है, उसके पापों के भागीदार बनेंगे ? रत्नाकर ने पूर्ण विश्वास के साथ उत्तर दिया, "क्यों नहीं ? मैं यह सब केवल उन्हीं के लिए करता हूँ।" नारद जी ने सुझाव दिया कि रत्नाकर अपने परिवार से पूछ कर अपनी समझ की पुष्टि करें ।
रत्नाकर को पूर्ण विश्वास था कि उसकी मान्यता सही थी फिर भी सुझाव के अनुसार उसने अपनी मान्यता की पुष्टि करने के लिए घर जाकर परिवारजन से पूछने का फैसला किया । परंतु जाने से पहले उसने नारद जी को रस्सी से पेड़ में बांध दिया ताकि वह भाग न जाएँ । घर पहुँचने पर, उसने अपने परिवार के प्रत्येक सदस्य - पिता माँ, पत्नी और बच्चों से प्रश्न किया, "मैं आपके पोषण के लिए लोगों को मारता व लूटता हूँ । यह पाप है । क्या आप उस पाप में भागी बनेंगे ?” सब ने मना कर दिया । उसने कभी यह सपने में भी नहीं सोचा था कि उसके परिवारजन इतने स्वार्थी होंगे । उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा, कि “हमारा पालन पोषण करना आपकी जिम्मेदारी है। अपने उत्तरदायित्व को निभाने के लिए चाहे आप पाप कमाएँ, चाहे पुण्य । वे पाप-पुण्य आपके साथ जाएँगे। आपके कर्मों का हम भागीदार नहीं बन सकते।”
रत्नाकर अवाक रह गया। उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि उसका परिवार, जिसके लिए उसने इतनी मेहनत की और हर तरह से उसका पालन पोषण किया, इतने स्वार्थी होंगे । उसी क्षण उसे संसार की स्वार्थी प्रकृति का बोध हो गया और वह पूरी तरह से विरक्त और उदासीन हो गया । रत्नाकर नारद जी से मिलने के लिए वापस गया, जिन्हें वह रस्सियों से एक पेड़ से बांधकर सड़क के किनारे छोड़ गया था। उसने रस्सी खोलकर उनसे क्षमा याचना की और संसार का सच्चा स्वरूप दिखाने के लिए धन्यवाद दिया । वह नारद जी के चरणों में गिरकर फूट-फूट कर रोने लगा और उनसे सही मार्गदर्शन करने की विनम्र प्रार्थना की।
नारद मुनि ने तब रत्नाकर को भगवान "राम" के नाम का लगातार जप करने का निर्देश दिया। अत्यधिक पाप के कारण रत्नाकर 'रा' तथा 'म' तो बोल सकता था, परंतु राम का उच्चारण नहीं कर पा रहा था ।

लेकिन संतों के पास बड़े पापियों पर कृपा करने के अपने रहस्यमय उपाय होते हैं। नारद जी ने रत्नाकर को "मरा" शब्द दोहराने का आदेश दिया क्योंकि इस शब्द का एक बार उच्चारण करने के बाद, वे स्वाभाविक रूप से "म राम राम" का उच्चारण ही करेगा । नारद जी ने उसे निर्देश दिया “जब तक मैं वापस न आ जाऊं, तब तक यूँ ही जप करते रहो।” रत्नाकर ने “म राम राम” का उच्चारण करना शुरू किया।
रत्नाकर का वैराग्य इतना प्रबल था और गुरु के वचनों में उसका विश्वास इतना दृढ़ था कि “मेरे गुरु कब वापस आयेंगे”, “मुझे कब तक "म राम राम" का जप करना होगा”आदि जैसे प्रश्न उसके मन में आए ही नहीं । वह हजारों वर्षों तक "म राम राम" का जप करता रहा । दीमक ने उसके शरीर को अपना घर बना लिया। नारद जी उनकी भक्ति से अत्यंत प्रसन्न हुए और हजारों वर्षों तक भगवान के नाम जपने के बाद जब उनके सारे पाप धुल गए, तो नारद जी उसे ज्ञान देने के लिए उसके सामने प्रकट हुए ।
नारद जी ने उनके शरीर को पुनः ठीक कर दिया और उन्हें नया नाम दिया - 'वाल्मीकी' (दीमकों के घर में रहने वाला)। नारद मुनि ने उन्हें ब्रह्म ऋषि की विशेष उपाधि भी प्रदान की। इतिहास में यह पहली बार हुआ है कि एक सामान्य व्यक्ति को एक ही जीवनकाल में ब्रह्म ऋषि के पद पर पदोन्नत किया गया।
रत्नाकर का वैराग्य इतना प्रबल था और गुरु के वचनों में उसका विश्वास इतना दृढ़ था कि “मेरे गुरु कब वापस आयेंगे”, “मुझे कब तक "म राम राम" का जप करना होगा”आदि जैसे प्रश्न उसके मन में आए ही नहीं । वह हजारों वर्षों तक "म राम राम" का जप करता रहा । दीमक ने उसके शरीर को अपना घर बना लिया। नारद जी उनकी भक्ति से अत्यंत प्रसन्न हुए और हजारों वर्षों तक भगवान के नाम जपने के बाद जब उनके सारे पाप धुल गए, तो नारद जी उसे ज्ञान देने के लिए उसके सामने प्रकट हुए ।
नारद जी ने उनके शरीर को पुनः ठीक कर दिया और उन्हें नया नाम दिया - 'वाल्मीकी' (दीमकों के घर में रहने वाला)। नारद मुनि ने उन्हें ब्रह्म ऋषि की विशेष उपाधि भी प्रदान की। इतिहास में यह पहली बार हुआ है कि एक सामान्य व्यक्ति को एक ही जीवनकाल में ब्रह्म ऋषि के पद पर पदोन्नत किया गया।

त्रेता युग में भगवान राम के "होने से पूर्व ही वाल्मीकि ने प्रसिद्ध ग्रंथ रामायण की रचना की, जिसमें 27,000 श्लोक हैं । इसमें उन्होंने भगवान राम की लीलाओं का चित्रण किया है ।
गुरु के वचनों में अटल विश्वास का यही चमत्कार है। संत तुलसीदास जी के शब्दों में,
गुरु के वचन प्रतीति न जेही | सपनेहु सुख सिधि सुलभ न तेही ||
जे गुरु पद पंकज अनुरागी | ते लोकहुँ वेदहुँ बड़भागी ||
"जिसको गुरु द्वारा प्रदत्त तत्वज्ञान और उनके शब्दों में अटूट विश्वास नहीं है वह सपने में भी अनंत आनंद प्राप्त नहीं कर सकता। वेद के अनुसार जिसको अपने गुरु चरणों से प्रेम है वह अत्यंत भाग्यशाली है"।
केवल विश्वास ही असंख्य पिछले जन्मों में अर्जित असंख्य पापों के विशाल पहाड़ को धो सकता है। उपवास, यज्ञ या योग आदि कठोर तपस्या किए बिना, केवल गुरु के वचनों में दृढ़ विश्वास हमें माया के चंगुल से छुड़ाने की शक्ति रखता है।
चूँकि भगवान की असीम अनुकंपा से हमको जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज गुरु के रूप में प्राप्त हुए हैं, इसलिए हमें उनकी बातों पर दृढ़ विश्वास करना चाहिए और उनके निर्देशों का निष्ठापूर्वक पालन करना चाहिए। उनके निर्देशों का पूर्णतया पालन करना ईश्वर प्राप्ति का सबसे सरल और निश्चित मार्ग है।
गुरु के वचनों में अटल विश्वास का यही चमत्कार है। संत तुलसीदास जी के शब्दों में,
गुरु के वचन प्रतीति न जेही | सपनेहु सुख सिधि सुलभ न तेही ||
जे गुरु पद पंकज अनुरागी | ते लोकहुँ वेदहुँ बड़भागी ||
"जिसको गुरु द्वारा प्रदत्त तत्वज्ञान और उनके शब्दों में अटूट विश्वास नहीं है वह सपने में भी अनंत आनंद प्राप्त नहीं कर सकता। वेद के अनुसार जिसको अपने गुरु चरणों से प्रेम है वह अत्यंत भाग्यशाली है"।
केवल विश्वास ही असंख्य पिछले जन्मों में अर्जित असंख्य पापों के विशाल पहाड़ को धो सकता है। उपवास, यज्ञ या योग आदि कठोर तपस्या किए बिना, केवल गुरु के वचनों में दृढ़ विश्वास हमें माया के चंगुल से छुड़ाने की शक्ति रखता है।
चूँकि भगवान की असीम अनुकंपा से हमको जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज गुरु के रूप में प्राप्त हुए हैं, इसलिए हमें उनकी बातों पर दृढ़ विश्वास करना चाहिए और उनके निर्देशों का निष्ठापूर्वक पालन करना चाहिए। उनके निर्देशों का पूर्णतया पालन करना ईश्वर प्राप्ति का सबसे सरल और निश्चित मार्ग है।