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Divya Ras Bindu

क्या भगवान् समदर्शी हैं ?

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क्या भगवान् समदर्शी हैं अथवा कृपालु हैं?क्या भगवान् समदर्शी हैं अथवा कृपालु हैं?
हमारे शास्त्र भगवान् के सम्बन्ध में दो परस्पर विरोधी विचार प्रस्तुत करते हैं l

१. भगवान् पूर्णतया समदर्शी हैं
२.भगवान् शरणापन्न जीवों पर कृपा करते हैं 

संत जन भी इन दोनों विचारों की पुष्टि करते हैं l तो भगवान् समदर्शी हैं अथवा कृपालु हैं ? आइए इसका समाधान कर लें

१. भगवान् पूर्णतया समदर्शी हैं : भगवान् स्वयं ही जीव के कर्मों का लेखाजोखा रखते हैं और निर्पेक्ष रूप से उनका मूल्याङ्कन करके उचित प्रतिफल प्रदान करते हैं l वे ये कार्य ना तो अपने स्वांश (अन्य अवतार ) को सौंपते हैं और ना ही अपने परम प्रिय भक्तों (संतों ) को करने देते हैं l हमारे अच्छे व बुरे कर्म कर्मबंधन को और दृढ़ करते हैं l पाप कर्मों के लिए हमको नरक की यातनाएँ भोगनी पड़ती हैं, और पुण्य कर्मों के लिए स्वर्ग प्राप्त होता है l स्वर्ग की सुख सुविधाएँ क्षणभंगुर होती हैं, जिसके पश्चात् जीव निम्न योनियों में डाल दिया जाता है l
 
२.भगवान् कृपा के मूर्तिमान स्वरुप हैं : भगवान् अपनी असीम कृपा से अपने शरणापन्न जीव, अपने भक्त के पाप एवं पुण्यों को भस्म कर देते हैं, अर्थात​ उन कर्मों के प्रतिफल से जीव को मुक्त कर देते हैं l एवं चिरकाल तक के सब कर्मों का ठेका स्वयं लेते हैं । इसके अनन्तर करुणावरुणालय प्रभु अपनी कृपा से उस जीव को चिरकाल के लिए नित्य नवीन, नित्य वर्धमान होने वाला दिव्यानंद प्रदान करते हैं l

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दिव्य जगत की न्याय प्रणाली सांसारिक जगत की न्याय प्रणाली से सर्वथा भिन्न है
अब प्रश्न यह उठता है कि, यदि प्रभु केवल अपने भक्तों को ही कर्मफल से मुक्त​ करते हैं तो वे निष्पक्ष व समदर्षी कैसे कहलायेंगे ? यह न्यायोचित नहीं है, कि वे अपने भक्तों को कर्मफल से मुक्त​ कर दें और बाकी सब को कर्मफल दें l यदि वे समदर्शी हैं, भक्तों के कर्मफल भोगने के पश्चात ही उनको दिव्यानंद प्रदान करें l
 
जो लोग केवल मायिक जगत की न्याय प्रणाली से ही अवगत हैं उनका यह तर्क प्रस्तुत करना स्वाभाविक है । जैसे एक न्यायाधीश अपने निर्णय में कहता है कि,”अपराधी अपने किये हुए अपराध का दंड भोगेगा, तत्पश्चात यदि वह अपराध नहीं करेगा तब उसको दंड देने की आवश्यकता नहीं होगी, और वह आनंद से जीवन यापन कर सकता है” l परन्तु दिव्य जगत की न्याय प्रणाली सांसारिक जगत की न्याय प्रणाली से सर्वथा भिन्न है l
 
सनातन, शाश्वत, न्याय एवं धर्म का ग्रन्थ, वेद कहता है कि, सामान्य न्याय विधि यह है कि, "भगवान् ही सबके कर्मों के फल प्रदान करते हैं “ l 

पुण्येन पुण्यलोकं नयति पापेन पापमुभाभ्यामेव मनुष्यलोकम्॥    वेद
शुभकृच्छुभमाप्नोति पापकृत्पापमुच्यते ॥      वेद
"पुण्य करने से जीव को स्वर्ग की प्राप्ति होती है जहाँ इन्द्रियों के समस्त सुख भोगने को मिलते हैं l  पाप कर्म हमको नरक ले जाते हैं जहाँ जीव अनेक प्रकार की यातनाएँ सहता है l पाप पुण्य दोनों कर्म करने वाला जीव पुनः पृथ्वी लोक यानी मृत्युलोक को प्राप्त होता है" l
 
गीता में भी यही कहा गया है :
यान्ति देवव्रता देवान् पितृन् यान्ति पितृव्रताः । भूतानि यान्ति भूतेज्या, यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ॥
"जो स्वर्गादि देवताओं की आराधना करते हैं, उनको देवताओं का लोक प्राप्त होता है l जो पित्रों की उपासना करते हैं उनको पितृलोक में स्थान प्राप्त होता है l जो नश्वर शरीरधारी मनुष्य से स्नेह करता है, वो उस योनि में जन्म लेता है जहाँ उनका प्रेमास्पद अपने कर्म वश जन्म लेता है l "
 
उपर्युक्त न्याय विधि की एक उपविधि तब लागू होती है जब निम्न बातें पूरी होती है l श्री कृष्ण बड़ी स्पष्टता से कहते हैं- 
सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज । अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥ गीता १८.६६
“ओ अर्जुन ! संसार के समस्त बंधनो का परित्याग कर, शत प्रतिशत मेरे शरणापन्न हो जा, मैं तुझको  समस्त अच्छे व बुरे कर्मो के फल से मुक्त कर दूँगा l"  यह नियम उन पर ही लागू होता है जो पूर्णरूपेण भगवान् के शरणागत होते हैं l

भगवान् ने इसकी उद्घोषणा कई बार, भगवद गीता, श्रीमद भागवत, वेद और अनेक ग्रंथों में की है l
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्यस्य मत्परः । अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते।
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्यसंसार सागरात् । भवामि न चिरात्पार्थ मय्यावेशित चेतसाम्॥ गीता १२.६-७
“ओ अर्जुन ! जो जीव केवल मेरे ही शरणागत हो अनन्य भाव से मेरी भक्ति करते हैं मैं उनको शीघ्रातिशीघ्र भवसागर से उबार देता हुँ ।“
 
इस नियम के पीछे एक रहस्य है l प्रत्येक कार्य का कर्ता मन है, जब मन भगवान् के शरणागत हो गया, तब मन भगवान् के ध्यान में निरंतर तल्लीन होगा और वह कोई और कर्म नहीं कर सकता l भगवान् ऐसे भक्त का ही पूर्णतया योगक्षेम वहन करेते हैं । ऐसी स्थिति में यदि कोई भक्त कोई कार्य करता दीखता है, वे सब कार्य वस्तुतः ईश्वर द्वारा ही क्रियान्वित होते हैं l
 
जिस प्रकार से, एक सिपाही दुश्मन को मार गिराता है, वह असल में अपने सेनानायक का आदेश पालन मात्र कर रहा है l अतः उस सैनिक को किसी की मृत्यु के लिए दंड नहीं दिया जाता अपितु उसके शौर्य के लिए उसको सम्मानित किया जाता है l इसीलिए भगवद गीता में भगवान् कृष्ण बारम्बार ' ही ' शब्द का प्रयोग करते हैं (एव,एकं,अनन्य) l अतः यह स्पष्ट है कि, " यदि तुम्हारा मन मेरे(श्री कृष्ण के) ' ही ' शरणागत होगा, तभी मैं तुम्हारा योगक्षेम वहन करूंगा l
 
अतः ईश्वर की कृपा कार्मिक नियम की एक उपविधि है, और भगवान् अपने नियमों से सम्बद्ध हैं l यदि किसी को भगवान् की कृपा प्राप्त करनी है तो शरणागति का नियम अपना ले, वे निरपेक्षता से अपनी असीम कृपा लुटा देंगे l

वे करुणा के प्रतीक हैं, और कहते हैं -
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥

“अर्जुन ! शरणागति के पश्चात् मैं तेरे (इस जन्म के एवं अनंत पिछले जन्मों के) सब कर्मों को भस्म कर दूंगा । तू चिंता न कर "l यह भगवान् का सार्वभौमिक नियम है l

इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं, जहाँ हमारा निर्णय था "लोक विरुद्ध आचरण है, अतः दंड मिलना चाहिये" परन्तु उन महान हस्तियों को ईश्वर के विधान के अनुसार कोई दंड नहीं मिला l  जैसे -
  • अर्जुन ने कुरु सेना के सैकड़ों योद्धाओं को मार गिराया, अर्जुन के खाते में एक भी हत्या नहीं  लिखी
  • पाँचों पांडवों ने एक ही स्त्री, द्रौपदी, से विवाह किया
  • बली ने अपने गुरु की आज्ञा का उल्लंघन किया
  • प्रह्लाद ने अपने पिता की आज्ञा का पालन नहीं किया
  • भरत ने अपनी माँ कैकेयी का निरादर किया
  • गोपियों ने शास्त्र, परिवार, समाज की मर्यादाओं की अवहेलना की
यह सब करने के बावजूद इन सबको कोई दंड नहीं भोगना पड़ा, अपितु इन सबने परम पद प्राप्त किया l क्यों ? क्योंकि उनका मन भगवान् के शरणापन्न था l अतः वे स्वयं कर्ता थे ही नहीं । किसी कर्म में यदि मन आसक्त नहीं है, वह अकर्म कहलाता है, और ऐसे कर्म पारितोषिक व दंड से परे होता है l
 
अतः ईश्वर ही एक मात्र निरपेक्ष हैं l भगवान् के अतिरिक्त और कौन अनंत ब्रह्माण्डों में रहने वाले,अनंत जीवों के, अनंत जन्मों के, अनंत कर्मों का लेखा जोखा रख सकता है l ईश्वर सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ और कण कण में व्याप्त है l भगवान् हमारा परम पिता है और प्रत्येक जीव के परम हितैषी है l करुणावरुणालय भगवान् ने अपने शास्त्रों में अनेक लक्ष्य और उन लक्ष्य को प्राप्त करने के अनेक मार्गों का विवरण है l प्रभु ने अपने बच्चों को अपनी रूचि एवं विवेक के अनुसार अपना लक्ष्य चुनने की परम स्वतंत्रता प्रदान की है l  इसलिए हम भगवान् पर कोई प्रत्यारोपण नहीं कर सकते, क्योंकि हम अपनी लापरवाही से, शास्त्रों और संतों की अवज्ञा कर, अपने ही द्वारा किये हुए कर्मों का फल भोगते हैं l
 
अतः भगवान् उनके लिए समदर्शी हैं जो भगवान् के शरणापन्न नहीं हैं और शरणागत के लिए वे परम कृपालु हैं l


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अर्जुन ! वैसे तो मैं समदर्शी हूँ, न कोई मेरा मित्र है, फिर भी, जो मेरे भक्त हैं उनमें मैं नित्य निवास करता हूँ ॥
- जगद्गुरुत्तम कृपालु जी महाराज​
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