प्रश्न :
जब हम सत्संग में आते हैं तब हमें “भगवान का दास” कहा जाता है। यह तो अपमानजनक प्रतीत होता है। मेरी प्रत्येक क्रिया मेरे सुख के लिए होती है न कि भगवान को आनंद प्रदान करने के लिये !
उत्तर :
संभव है कि "भगवान के दास" का तात्पर्य लगाया जा रहा है कि भगवान हमारे द्वारा की गई सेवा का उपभोग करके आनंदित हो रहा है और जीव आनंद से वंचित रह जाता है। अंततोगत्वा हमारी प्रत्येक क्रिया आनंदप्राप्ति हेतु ही होती है इसलिये आपका प्रश्न उत्तम है।
इस शंका के निवारण के लिए हमें भगवान, जीव एवं उनके परस्पर संबंध का ज्ञान आवश्यक है।
हमारे समस्त शास्त्रों वेदों का दुदुंभिघोष है कि भगवान ही आनंद है एवं जीव उसका सनातन अंश है।
जब हम सत्संग में आते हैं तब हमें “भगवान का दास” कहा जाता है। यह तो अपमानजनक प्रतीत होता है। मेरी प्रत्येक क्रिया मेरे सुख के लिए होती है न कि भगवान को आनंद प्रदान करने के लिये !
उत्तर :
संभव है कि "भगवान के दास" का तात्पर्य लगाया जा रहा है कि भगवान हमारे द्वारा की गई सेवा का उपभोग करके आनंदित हो रहा है और जीव आनंद से वंचित रह जाता है। अंततोगत्वा हमारी प्रत्येक क्रिया आनंदप्राप्ति हेतु ही होती है इसलिये आपका प्रश्न उत्तम है।
इस शंका के निवारण के लिए हमें भगवान, जीव एवं उनके परस्पर संबंध का ज्ञान आवश्यक है।
हमारे समस्त शास्त्रों वेदों का दुदुंभिघोष है कि भगवान ही आनंद है एवं जीव उसका सनातन अंश है।
अकाट्य शाश्वत सिद्धांत है कि अंश अपने अंशी की ही सेवा करता है और उसके अतिरिक्त कुछ कर ही नहीं सकता। इसीलिए हमारे समस्त शास्त्र कहते हैं कि जीव भगवान का नित्य दास है। एक दिन दास बना एसा नहीं है वरन सनातन दास है और रहेगा।
उदाहरण के लिए पेड़ के पत्ते, शाखाएँ, उपशाखाएँ तना अपने अंशी पेड़ की ही सेवा करते हैं। यदि पेड़ मर जाए तो उसका कोई भी अंश जीवित नहीं रह सकता। चैतन्य महाप्रभु जी भी कहते हैं-- जीवेर स्वरूप होय कृष्णेर नित्य दास ।
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स्वरुप अर्थात स्वभाव। आदत तो बदली जा सकती है परंतु स्वभाव प्राकृतिक होता है जिसको अथक प्रयास करके भी कदापि नहीं बदला जा सकता।
दास कह कर संबोधित पर अधिकांश लोगों को आपत्ति होती है क्योंकि दास शब्द अपमानजनक प्रतीत होता है । अतः सभ्य लोगों की भाषा में अन्य शब्दों का प्रयोग प्रचलित है जैसे कर्मचारी, मज़दूर, सेवक इत्यादि। परंतु सत्य यही है कि, नियुक्त व्यक्तियों को अपने मालिक के उद्देश्य को सिद्ध करना आवश्यक है अन्यथा उसे पद से निष्कासित कर दिया जाता है। दास की इसके अतिरिक्त और क्या परिभाषा होती है?
परिवार में भी माता-पिता अपने बच्चों के भरण पोषण के लिए धन-धान्य की व्यवस्था करके उनकी सेवा करते हैं।
जब हम अपने मित्रों या नातेदारों को खाने पर बुलाते हैं तो हम अपने घर को साफ करते हैं, भोजन पकाते हैं, उनके मनोरंजन के लिए व्यवस्था करते हैं। जब हम उनके घर जाते हैं तो वे भी इसी प्रकार सब क्रियाएँ करते हैं। समय के साथ दोनों पक्षों के संबंध प्रगाढ़ हो जाते हैं। परंतु यदि एक ही पक्ष सभी व्यवस्थाएँ करे और दूसरा पक्ष ना करे तो संबंध टूट जाते हैं।
सारांश यह है कि हम किसी ना किसी रूप में एक दूसरे की सेवा करते रहते हैं अतः हम सभी सेवक अर्थात दास हैं।
हम आनंद की सतत खोज में हैं। यदि हमें सेवा करने से आनंद मिलता है तो हम अवश्य करेंगे अन्यथा नहीं। अतः हम लोग आनंद के दास हैं। त्रैलोक्य में न तो कोई ऐसा जीव हुआ न भविष्य में होगा जो दुख चाहे। हम चाहें जानें या न जानें, चाहें मानें या न मानें परंतु सत्य यही है कि दासता हमारा स्वभाव है।
दास कह कर संबोधित पर अधिकांश लोगों को आपत्ति होती है क्योंकि दास शब्द अपमानजनक प्रतीत होता है । अतः सभ्य लोगों की भाषा में अन्य शब्दों का प्रयोग प्रचलित है जैसे कर्मचारी, मज़दूर, सेवक इत्यादि। परंतु सत्य यही है कि, नियुक्त व्यक्तियों को अपने मालिक के उद्देश्य को सिद्ध करना आवश्यक है अन्यथा उसे पद से निष्कासित कर दिया जाता है। दास की इसके अतिरिक्त और क्या परिभाषा होती है?
परिवार में भी माता-पिता अपने बच्चों के भरण पोषण के लिए धन-धान्य की व्यवस्था करके उनकी सेवा करते हैं।
जब हम अपने मित्रों या नातेदारों को खाने पर बुलाते हैं तो हम अपने घर को साफ करते हैं, भोजन पकाते हैं, उनके मनोरंजन के लिए व्यवस्था करते हैं। जब हम उनके घर जाते हैं तो वे भी इसी प्रकार सब क्रियाएँ करते हैं। समय के साथ दोनों पक्षों के संबंध प्रगाढ़ हो जाते हैं। परंतु यदि एक ही पक्ष सभी व्यवस्थाएँ करे और दूसरा पक्ष ना करे तो संबंध टूट जाते हैं।
सारांश यह है कि हम किसी ना किसी रूप में एक दूसरे की सेवा करते रहते हैं अतः हम सभी सेवक अर्थात दास हैं।
हम आनंद की सतत खोज में हैं। यदि हमें सेवा करने से आनंद मिलता है तो हम अवश्य करेंगे अन्यथा नहीं। अतः हम लोग आनंद के दास हैं। त्रैलोक्य में न तो कोई ऐसा जीव हुआ न भविष्य में होगा जो दुख चाहे। हम चाहें जानें या न जानें, चाहें मानें या न मानें परंतु सत्य यही है कि दासता हमारा स्वभाव है।
हम ही दास नहीं हैं, सर्वशक्तिमान भगवान भी हम सबकी दासता करते हैं। वास्तविकता यह है कि जितनी सेवा भगवान करते हैं वह हमारी बुद्धि के परे है। भगवान -
- सृष्टि की रचना करके हम सभी जीवों के लिए खाना, हवा, जल, मिट्टी आदि उपलब्ध करा देते हैं,
- ब्रह्माण्ड के प्रत्येक कण में व्याप्त होते हैं, जिससे प्रकृति अलौकिक दिव्य नियमों के अनुसार कार्य करे,
- प्रत्येक जीव को उसके पूर्व मानव जन्म के कर्मों के आधार पर ही जीवन यापन हेतु वस्तुएँ प्रदान करते हैं,
- प्रत्येक जीव के कर्मों को नोट करते हैं,
- प्रत्येक जीव के पूर्व में किए गए कर्म के फलों को देते हैं,
- सभी जीवों की श्वासों को संचालित करते हैं,
- हमारे भोजन को पचाते हैं,
- अपने कुपूतों के मार्गदर्शन के लिये अपने प्राणप्रिय साधुजनों को पृथ्वी पर भेजते हैं,
- और यह सूची अनंत है….
वे केवल उन लोगों की ही सेवा नहीं करते जो उनको सर्वशक्तिमान भगवान मानते हैं तथा उनसे प्रेम करते हैं बल्कि उन लोगों की भी वह सेवा करते हैं जो उनकी सत्ता को ही नहीं नकारते वरन उनके अस्तित्व तक को नहीं मानते । भगवान इतनी उत्कृष्ट सेवा करते हैं कि उनसे अधिक करना तो दूर कोई उनकी बराबरी भी नहीं कर सकता । अतः यह सिद्ध हुआ कि सभी जीव भगवान के दास हैं तथा भगवान सभी जीवों के दास हैं।
क्या भगवत प्राप्ति के बाद हम स्वामी बन जाएंगे?
भगवत प्राप्ति के बाद भी जीव भगवान का दास ही रहेगा । भगवत प्राप्त संत साक्षात भगवान के प्रत्यक्ष सेवक हैं। रामावतार से पूर्व भगवान राम ने साकेत लोक में कुछ लोगों को अपनी लीला में भाग दे दिये । अंत में भगवान राम ने पूछा कि कैकई का अभिनय कौन करेगा? तब भी सभी ने हाथ उठा दिए । तो भगवान राम को आश्चर्य हुआ कि कदापि यह लोग ठीक से सुन नहीं पाए इसलिए उन्होंने पुनः प्रश्न किया,”मैं कैकई के अभिनय की बात कर रहा हूँ न कि कौशल्या की । सभी ने एक स्वर में पुनः उत्तर दिया,“हम समझ गए हैं। हम यह भी जानते हैं कि बिना कैकई के रामायण नहीं हो सकती । हम रामलीला में आपकी सहायता करके कृतार्थ हो जाएँगे "। श्रीराम ने सुनिश्चित करने के लिये पुनः पूछा ,“कोई भी अपनी पुत्री का नाम कैकई नहीं रखेगा। फिर से सोच लीजिए”। परंतु फिर भी सभी ने लीला में कैकई बनने के लिए हामी भरी । सब इसलिए क्योंकि वह सभी अपने स्वामी की प्रसन्नता के लिए कुछ भी करने को तत्पर रहते हैं। ऐसी होती है सच्ची सेवा।
भगवान की इच्छापूर्ति हेतु संत अनंत आनंद से परिपूर्ण दिव्य धाम त्याग कर हम पामर जीवों को मोहनिद्रा से जगाने के लिये धरती पर सहर्ष अवतरित होते हैं। कुशल ममतामई माता के समान संत जीवों का देखरेख करते हैं। माँ अपने बच्चे की गंदगी को साफ करती है, उसे पढ़ा लिखा कर गुणवति, कलावती बनाती है। ठीक उसी प्रकार संत हमारे अपमानजनक वचनों, कटु वचनों, शारीरिक प्रतारणाओं की अवहेलना कर हम कुपूतों को सदमार्ग पर अग्रसर करने के लिये दुष्कर प्रयास करते रहते हैं। वह यह सब भगवान को सुख देने के लिए करते हैं।
भगवान की इच्छापूर्ति हेतु संत अनंत आनंद से परिपूर्ण दिव्य धाम त्याग कर हम पामर जीवों को मोहनिद्रा से जगाने के लिये धरती पर सहर्ष अवतरित होते हैं। कुशल ममतामई माता के समान संत जीवों का देखरेख करते हैं। माँ अपने बच्चे की गंदगी को साफ करती है, उसे पढ़ा लिखा कर गुणवति, कलावती बनाती है। ठीक उसी प्रकार संत हमारे अपमानजनक वचनों, कटु वचनों, शारीरिक प्रतारणाओं की अवहेलना कर हम कुपूतों को सदमार्ग पर अग्रसर करने के लिये दुष्कर प्रयास करते रहते हैं। वह यह सब भगवान को सुख देने के लिए करते हैं।
अन्य संबंधों का क्या होगा?
भगवान इतने उदार स्वामी हैं कि वे अपने सेवकों को दासत्व के अतिरिक्त अन्य भावों से संबंध स्थापित करने का अधिकार देते हैं। वे हमारे स्वामी, सखा, पुत्र एवं यहाँ तक कि प्रेमी भी बनने को तैयार रहते हैं। वे हमारी भावना अनुसार संबंध निभाते हैं। इन संबंधों कि बारे में अधिक जानकारी के लिये भाव अर्टिक्ल पढ़ें।
परमानंद की प्राप्ति कैसे होगी?
सभी सेवक बराबर नहीं होते। छोटी सी कंपनी के मालिक का व्यक्तिगत सहायक बहुत कम अधिकार रखता है जबकि अमेरिका के राष्ट्रपति के व्यक्तिगत सहायक की प्रतिष्ठा, अधिकार, प्रभाव कहीं अधिक होता है। वर्तमान में हम माया के सेवक हैं। माया भगवान की सेविका है। हमें माया की सेवा न करके सीधे भगवान का सेवक बनना है। निष्ठापूर्वक भगवान की सेवा के आनंद की कल्पना कौन कर सकता है ?
भगवान राम ने हनुमान जी से कहा ,”हनुमान तुमने मेरी बहुत निष्काम सेवा की है। मैं तुम्हें इसका फल देना चाहता हूँ । तुम कुछ भी मुझसे मांग लो मैं तुम्हें सब कुछ दे सकता हूँ यहां तक कि मुक्ति भी”।
हनुमान जी ने तुरंत कहा, “नहीं नहीं स्वामी मुझे मुक्ति नहीं चाहिए”। हनुमान जी ने ऐसा उत्तर क्यों दिया? - भवबानधच्छिदे तस्मै स्पृहयामि न मुक्तये ।
भवान्। प्रभुरहं दास, इति यत्र विलुप्यते ॥ "मैं भगवान राम का दास हूँ यह सोचने मात्र से मेरा हृदय प्रफुल्लित हो जाता है। परंतु मुक्ति मिलने के बाद मेरा यह आनंद सदा के लिए समाप्त हो जाएगा।” मुक्ति में जीव निर्गुण निराकार ब्रह्म में अनंत काल के लिये लीन हो जाता है। सभी दुख सदा के लिए समाप्त हो जाते हैं साथ ही भगवान की सेवा से मिलने वाले परमानंद की उम्मीद भी समाप्त हो जाती है।
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सारांश
अतः शास्त्र वेद का कथन “भगवान का दास“ अपमान नहीं अपितु अतिशय सम्मानवाचक है। वर्तमान स्थिति से उबर कर भगवान का दास बनकर अपना सही स्थान प्राप्त कीजिए। भगवान को प्रसन्न करके परमानंद प्राप्त कीजिए। सेवा करने के लिये भाव के चयन की स्वतंत्रता भी जीव को दी गई है। भगवान का दास बनने के उपरांत सभी देवी-देवता (हाँ यमराज भी) आपके सामने नतमस्तक हो जायेंगे । |
अरे भक्त के सामने भी जाता है यमराज तो सिर नीचा कर के बैठता है और प्रार्थना करता है, "महाराज आप का समय हो गया है। यदि आप चाहें तो मैं विमान लाया हूँ।" वहाँ भी वो अपना शासन नहीं चला सकता है। तो भक्त उसके सिर पर पैर रखकर पुष्पक विमान पर बैठता है।
- जगद्गुरूत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज
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