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भक्ति परिपूर्ण है

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अनन्त दिव्य आनंद की प्राप्ति ही जीव का लक्ष्य है । पिछले अंक में हमने अन्वय (जिस मार्ग से लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है)  (1) पर विस्तार से चर्चा की थी। एतदर्थ हमने वेदों में भगवत्प्राप्ति के 3 मार्गों, अर्थात् कर्म, ज्ञान और भक्ति को 'अन्वय' की कसौटी  पर कसा, तो पता चला कि कर्म तथा ज्ञान से लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती ।

​केवल भक्ति ही अन्वय की कसौटी पर खरी उतरती है ।

​अब हम कर्म, ज्ञान और भक्ति को अगली दो कसौटियों पर कसते हैं ।​

व्यतिरेक

दूसरी कसौटी है व्यतिरेक, अर्थात “जिसके बिना लक्ष्य की प्राप्ति न हो”। 
​
पिछले अंक में हमने अन्वय पर विस्तार से चर्चा की तो पता चला कि कर्म तथा ज्ञान से लक्ष्य-प्राप्ति नहीं हो सकती । लेकिन अनंत जीवों ने लक्ष्य को प्राप्त किया है । तो यह स्पष्ट है कि जीवों ने बिना कर्म या ज्ञान के ही लक्ष्य-प्राप्ति की है। इससे स्वयं सिद्ध होता है कि कर्म और ज्ञान दोनों व्यतिरेक की कसौटी पर खरे नहीं उतरे ।

अब भक्ति मार्ग को व्यतिरेक की कसौटी पर कस कर देखते हैं कि क्या यह मार्ग व्यतिरेक की कसौटी पर खरा उतरता है, अर्थात् ​भक्ति के बिना क्या भगवान् नहीं मिल सकते हैं ?

​शंकराचार्य कहते हैं - ​
शुद्धयति हि नान्तरात्मा कृष्णपदांभोज भक्तिमृते  (शं.)
"बिना भक्ति के केवल कर्म तथा ज्ञान से जीव का अंतःकरण भी शुद्ध नहीं होगा तो मुक्ति का तो सवाल ही नहीं उठता"।
इसका अर्थ यह है कि जब तक मन भगवान् का प्रेमपूर्वक स्मरण में नहीं लगा रहेगा, तब तक वह मायिक आकर्षणों से दूषित होता रहेगा। अनादि काल से मैले मन को शुद्ध करने का एकमात्र साधन भक्ति है। और मन को शुद्ध किए बिना, आत्म-ज्ञान, ब्रह्मानंद, भगवत्प्राप्ति और दिव्य प्रेम जैसे उच्च उद्देश्य सब सर्वथा अप्राप्य रहेंगे।

श्रीमद् भागवतम में कहा गया है - ​
धर्म: स्वानुष्ठित: पुंसां विष्वक्सेन कथासुय: । तोत्पादयेद्यदिरतिं श्रम एव हि केवलम् ॥
(भा.)
“वेद विहित कर्म यदि भगवान् ​श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम तथा रुचि न उत्पन्न करें तो ऐसे कर्म निंदनीय हैं । अतः बिना भक्ति के कोई भी कर्म, ज्ञान या योग मात्र व्यर्थ श्रम है"। अर्थात् ईश्वर प्राप्ति के लिए भक्ति अनिवार्य है ।
तुलसीदास जी ने रामायण में कहा है - 
वारि मथे बरु होय घृत,  सिकता ते बरु तेल ।
​ बिनु हरि भजन न भव तरिय,  यह सिद्धांत अपेल।
रा. च. मा
“असंभव भले ही संभव हो जाए, किन्तु बिना ईश्वर-भक्ति के भवसागर से कोई पार नहीं जा सकता ।”  भक्ति के बिना भगवान् नहीं मिल सकते - यह सत्य है इसलिए एकमात्र भक्ति ही व्यतिरेक की कसौटी पर खरी उतरती है। 

​
तो भक्ति के बिना भगवान् नहीं मिल सकते, किंतु क्या भक्ति को अन्य मार्गों की अपेक्षा है?
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हाँ यह प्रश्न उचित है, अतः तीसरी कसौटी पर ध्यान दें।

अन्य निरपेक्षता

यह तीसरी कसौटी है अन्य निरपेक्षता, जिसका अर्थ है “उसको अन्य साधन की अपेक्षा न हो “।

कर्म से भगवत्प्राप्ति नहीं होती। इसलिए कर्म मार्ग की अन्य निरपेक्षता का तो सवाल ही नहीं उठता। कर्म मार्ग पर चलकर जिसने भी भक्ति प्राप्त की है उसने कर्म के साथ-साथ निरन्तर व प्रधान रूप से भक्ति भी की है, तब उसको भगवत्प्राप्ति हुई है। केवल कर्म तो स्वर्ग तक ले जाकर साथ छोड़ देता है।

ऐसे ही ज्ञान से भी भगवत्प्राप्ति नहीं होती । यह केवल आत्मज्ञान देता है (3) और कुछ नहीं। जिन लोगों ने ब्रह्मानंद को प्राप्त किया है, उन्होंने ज्ञान के साथ भक्ति भी की है । यानी ज्ञान में भक्ति का मिश्रण होने पर ही लक्ष्य प्राप्त होता है । अतः ज्ञान में भी अन्य-निरपेक्षता नहीं है । 
क्या भक्ति अन्य निरपेक्ष है ? अर्थात् जीव को भगवान् से मिलाने के लिए क्या भक्ति को कर्म एवं ज्ञान की आवश्यकता नहीं है ? 

​
भक्ति को अन्य किसी मार्ग की अपेक्षा नहीं है। भक्ति स्वयं जीव को ब्रह्म से मिलाने में तथा प्रेमानंद दिलाने में समर्थ है। परंतु शास्त्रों में प्रत्येक अपर धर्मावलंबियों को यह प्रमुख आदेश दिया गया है कि अपर-धर्म के साथ-साथ पर-धर्म का पालन सदा होता रहे। ब्रह्मचारी, गृहस्थी, वानप्रस्थ और सन्यासी चारों आश्रमों को तथा चारों वर्णों को ईश्वर भक्ति का आदेश दिया गया है। भावार्थ यह कि अपर धर्म-स्वरूप वर्णाश्रम धर्म में पर धर्म-स्वरूप ईश्वर भक्ति संयुक्त कर देने से पर-धर्म का ही परिणाम प्राप्त होता है। केवल अपर या आगंतुक, प्राकृत-धर्म से ईश्वर-प्राप्ति या माया-निवृत्ति की समस्या हल नहीं हो सकती ।

अब यह प्रश्न उठता है कि यह ठीक है कि वर्णाश्रम धर्म के साथ-साथ पर-धर्म परमावश्यक है परंतु कर्म सन्यासी तो वर्णाश्रम धर्म का स्वरूपतः परित्याग कर देता है जो सर्वथा अनुचित सा दिखता है, क्योंकि भगवान् ने कहा है - 
श्रुतिस्मृति ममैवाज्ञे यस्ते उल्लंघ्य वर्तते। आज्ञाच्छेदी मम द्वेषी मद्भक्तोऽपि न मे प्रियः ॥
अर्थात् “मेरी वर्णाश्रम धर्म की वैदिक आज्ञा को​ जो नहीं मानता वह मेरा शत्रु है । वह मुझे कैसे प्रिय हो सकता है”? किंतु इस प्रश्न का उत्तर वेदव्यास ने श्रीमद् भागवत महापुराण में​ भगवान् ​के मुख से ही दिला दिया -
आज्ञायैवं गुणान् दोषान् मयादिष्टानपि स्वकान् । 
धर्मान् सन्त्यज्य य: सर्वान् मां भजेत स तु सत्तम: ॥ 11.11.32 ॥
अर्थात्  “यद्यपि वर्णाश्रम धर्म मेरी ही आज्ञा है एवं उसके उल्लंघन का दंड मिलता है तथापि जो उसका परित्याग कर मेरी भक्ति करता है वह मुझे अत्यंत प्रिय है”। भावार्थ यह कि ईश्वर भक्ति युक्त व्यक्ति के लिए धर्म का नियम लागू नहीं होता, जैसा कि वेद में बताया है - 
यज्ञपतियों की आज्ञा का उल्लंघन करके यज्ञपत्नियाँ सारा प्रसाद श्रीकृष्ण के पास ले आईं।
यज्ञपतियों की आज्ञा का उल्लंघन करके यज्ञपत्नियाँ सारा प्रसाद श्रीकृष्ण के पास ले आईं। श्रीकृष्ण उनकी भक्ति से प्रसन्न हुए
 
​सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ती तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्ति  । क. 1-2-14
“अर्थात्  वेद की समस्त ऋचाएँ केवल ईश्वर की ओर ही प्रेरित करती हैं।” 

शांडिल्य मुनि भी कहते हैं - ​
न क्रिया कृत्यनपेक्षणाज्ज्ञानवत् ॥7॥
अर्थात “जैसे ज्ञानमार्गीय को कर्म की अपेक्षा नहीं है ऐसे ही भक्ति मार्गीय के लिए कर्म अनिवार्य नहीं है“। यह उसकी इच्छा पर निर्भर है कि वो कर्म करे या न करे। इसी कारण तो भक्ति को स्वतंत्र बताया गया है। 
donation
श्री महाराज जी दान देकर संसार में आदर्श स्थापित कर रहे हैं।
वेदव्यास के अनुसार - ​
अहैतुक्यव्यवहिता या भक्तिः पुरुषोत्तमे ॥3.29.12॥
“भक्ति के ऊपर ज्ञान कर्म आदि किसी का आवरण नहीं रह सकता”। रामायण के अनुसार - 

भक्ति स्वतंत्र सकल सुख खानी
“भक्ति स्वतंत्र है तथा सभी सुखों की खान है”। रूप गोस्वामी आदि रसिकों के मतानुसार -
​
अन्याभिलाषिता शून्यं ज्ञानकर्म्माद्यनावृतम् ।
अर्थात्  “ज्ञान कर्म तपश्चार्य आदि से भक्ति अनाछन्न​ रहती है "। वह स्वतंत्र है।

अतः वेद से लेकर रामायण तक सबका एक मत है कि ​लक्ष्य प्रदान करने में एकमात्र भक्ति ही स्वतंत्र है ।  बाकी सब मार्ग अपने-अपने मार्गों का फल देने के लिए भी भक्ति महादेवी का ही मुँह ताकते हैं ।
जगद्गुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज
जगद्गुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज
शरणागत-साधक को अन्य किसी भी कर्मादि की अपेक्षा नहीं, उसे तो केवल अपने भक्तिमार्ग-सम्बन्धी विधि-निषेधों का ही पालन करना चाहिए । संक्षेप में विधि यह (कि साधक को) निरंतर श्रीकृष्ण का स्मरण करना चाहिए, तथा निषेध यह (कि उसे) श्रीकृष्ण को कभी न भूलना चाहिए । जो शरणागत भक्त इस विधि-निषेध का पालन करता है, उसके लिए किसी भी अन्य अलौकिक, वैदिक, विधि-निषेध की अपेक्षा नहीं है ।
प्रेम रस सिद्धांत ​
यदि आपको यह लेख लाभप्रद लगा तो संभवतः निम्नलिखित लेख भी लाभप्रद लगेगें
(1) भक्ति ही भगवान् के सन्मुख कराती है
(2) ​ ​Sadhana Is Indispensable
(3) आत्म-ज्ञान बनाम ब्रह्मज्ञान
(4) भक्ति ज्ञान प्रदान करती है

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