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भक्ति ज्ञान प्रदान करती है

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जीव में ज्ञानार्जन की स्वाभाविक उत्कंठा रहती हैजीव में ज्ञानार्जन की स्वाभाविक उत्कंठा रहती है
कुछ लोग सुबह पूजा-पाठ या व्यायाम करते होंगे परंतु आजकल अधिकांश लोग सोशल मीडिया ऐप्स और दैनिक समाचार से ही अपने दिन का आरंभ करते हैं। जीव में ज्ञानार्जन की स्वाभाविक उत्कंठा रहती है, जो कि करंट अफेयर्स, कला और विज्ञान, फैशन, इतिहास, धर्म ग्रंथ​ या अन्य विषय को ग्रहण करने के रूप में प्रकट होती है। वास्तव में प्रत्येक जीव शैशवावस्था से ही सर्वज्ञ बनने का प्रयास करता है। एक नन्हा शिशु भी दूसरों को देख कर उनकी नकल कर कुछ न कुछ सीखने का प्रयास करता है।

आधुनिक विज्ञान और टेक्नोलॉजी की उन्नति के कारण ज्ञान के स्रोत बढ़ गए हैं यथा समाचार पत्र, श्वेतपत्र, ऑडियो पुस्तकें, धार्मिक ग्रंथ, व्याख्यान, इंटरनेट, सोशल मीडिया, घूमने की जगहें आदि। कोई सोचेगा कि ज्ञानर्जन के इतने साधनों से ज्ञानर्जन की इच्छा तृप्त हो ग​ई होगी ।

परन्तु बहुत कुछ सीखने के बावजूद भी ज्ञान की वह भूख आज भी उतनी ही अपूर्ण​ है ।

क्या आपने कभी यह सोचा कि हरेक जीव​ ज्ञान की खोज​ क्यों करता है ? और कभी तृप्त क्यों नहीं होता है ?
​
इस प्रश्न का उत्तर वेद देते हैं -  

अमृतस्य वै पुत्राः
“जीव भगवान् के पुत्र हैं”। जीव सत चित् आनंद ब्रह्म का अंश है। चित् माने अनंत-ज्ञान-युक्त। जीव के सनातन अंशी सर्वज्ञ भगवान् हैं अतः जीव स्वाभाविक रूप से अपने अंशी को प्राप्त करना चाहता है।
माया के आधीन होने के कारण जीव भगवान् के साथ अपने संबंध को नहीं जानता मानता है। इसलिए जीव इस खोज के कारण से अनभिज्ञ है (1)। फिर भी, स्वभावतः जन्म से ही हर बच्चा लोगों को देखना शुरू कर देता है और कुछ ही महीनों में औरों को देख-देख कर सीखना आरंभ कर देता है। यद्यपि, हम में से प्रत्येक ने अपना अधिकांश जीवन ज्ञान की खोज में बिताया है, तथापि आत्म निरीक्षण यह सिद्ध करेगा कि हमारा ज्ञान विशाल महासागर की एक बूंद के बराबर भी नहीं है। चाहे वह चिकित्सा क्षेत्र हो, ज्योतिष, विज्ञान या अन्य कोई क्षेत्र हो। फिर भी, भूख समाप्त होने की बात ही छोड़िए, ज्ञान की भूख में कम भी नहीं हुई।
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अत: ज्ञानरूपी जल की खोज में हम अनेक छिछले गड्ढे खोद रहे हैं लेकिन लक्ष्य अद्यावधि एक बार भी नहीं मिला। 

​तो क्या सब कुछ जानने की इच्छा हमेशा के लिए अधूरी रह जाएगी?

श्री महाराज जी कहते हैं, "नहीं। भगवान् के समान सर्वज्ञ बनना संभव है।"


तो, सर्वज्ञ ​बनने के लिये क्या हमें अधिक स्वाध्ययन करना होगा?

क्या स्वाध्ययन से सर्वज्ञ हो जायेंगे?

ज्ञान की खोज में, यदि कोई स्वाध्ययन करने चलता है , तो वह अपने संस्कारों या वर्तमान की रुचियों के आधार पर विषय का चयन कर उस का अध्ययन करता है । इनमें से कुछ सामग्री आध्यात्मिक विकास को बढ़ावा भले ही सहायक हों अधिकांश​ सामग्री आध्यात्मिक पतन ही​ कराती हैं ।

वह स्वाध्याय दो प्रकार के ग्रंथों का हो सकता है।
  • मायाधीन जीवों द्वारा रचित ​ग्रंथ अर्थात कृत ग्रंथ​
  • भगवत् प्रणीत​ ग्रंथ अर्थात​ स्मृत ग्रन्थ तथा विनिर्गत ग्रंथ

कृत ग्रंथ का स्वाध्ययन

किसी मायिक जीव द्वारा रचित ग्रंथ (कृत ग्रंथ​) में अनंत ज्ञान समाहित हो ही नहीं सकता। इसका कारण यह है कि मायाधीन जीव स्वयं अल्पज्ञ है । 

​
साथ ही मायिक मन द्वारा लिखे गए प्रत्येक ग्रंथ​ में 4 दोष​ होते हैं, यथा ​
  • भ्रम - किसी वस्तु के वास्तविक ज्ञान के अभाव में उसे कुछ और समझ बैठना । 
  • प्रमाद - मन की असावधानी, लापरवाही । 
  • विप्रलिप्सा - अपने दोष को छुपाना । जीव में स्वभावत: अपने आप को अच्छे कहलवाने की इच्छा रहती है। इस कारण वह अपने दोषों का छुपाता है अथवा अपनी अच्छाइयों को बढ़ा चढ़ाकर बताता है।  
  • कर्णापाटव - अनुभवहीन होने पर भी अपने को अनुभवी सिद्ध करना। जीव में अपने आप को अच्छा कहलवाने की इच्छा होने के कारण और साथ ही अनुभवहीन होने के कारण यह दोष स्वत: प्रकट हो जाता है। 

भौतिक क्षेत्र के ज्ञान को अपरा विद्या कहा जाता है। इस विद्या के सम्बन्ध में दो बातों का ध्यान रखना चाहिए -
  • भले ही इस ज्ञान को अनंत जन्मों तक संचित किया जाए, फिर भी यह कभी पूरा नहीं होगा।
  • यह ज्ञान मन को शुद्ध नहीं करता है। इसलिए जीव को त्रिताप सताते रहते हैं।

यह स्पष्ट है कि कृत ग्रंथ का अध्ययन पूर्ण ज्ञान प्रदान नहीं कर सकता है । इसलिए भौतिक विषयों को ग्रहण करना कुसंग का ही एक रूप माना गया है। साथ ही, इस ज्ञान को प्राप्त करने के प्रयास में जो समय और परिश्रम लगाया, वह दिव्य ज्ञान प्राप्त करने में लगाया जा सकता था।

हालाँकि, इस स्थूल शरीर को बनाए रखने के लिए कुछ अपरा विद्या प्राप्त करना अनिवार्य है । और मानव शरीर ही लक्ष्य प्राप्ति का एकमात्र उपाय है (2) । अतः कुछ हद तक अपरा विद्या प्राप्त करना आवश्यक है। फिर भी, इस प्रकार के ज्ञान को केवल उसी सीमा तक अर्जित करना बुद्धिमानी होगी जितना जीवन चलाने के लिए आवश्यक है। उससे अधिक प्राप्त करना आध्यात्मिक प्रगति में बाधक सिद्ध होगा।

भगवत् प्रणीत​ ग्रंथों का स्वाध्यायन

जानकारी के अन्य स्रोत हैं स्मृत ग्रंथ जो कि ​भगवत्प्राप्त संतो द्वारा रचित ग्रंथ हैं, या वेद की किसी ने कभी भी नव रचना नहीं की । इसलिये वेद को विनिर्गत ग्रंथ भी कहा जाता है।

​बहुत से लोग इन भगवत् प्रणीत​ शास्त्रों का स्वाध्याय करते हैं ।

​हालांकि,
श्रुति पुरान बहु कहेउ उपाई । छूटै न अधिक अधिक अरुझाई ।।
“श्रुति और पुराण में आध्यात्मिक उत्थान के लिए विभिन्न मार्ग लिखे हैं जो कि विरोधाभासी प्रतीत होते हैं। इन सब को पढ़ कर जीव और उलझ जाता है।” इसलिए अनेकानेक धर्म ग्रंथों का अध्ययन भी कुसंग माना जाता है।

इसलिए, न तो कृत ग्रंथ और न ही भगवत् प्रणीत​ ग्रंथ हमें अनंत ज्ञान प्रदान कर सकते हैं । अब यह जटिल समस्या खड़ी हो गई कि ज्ञान की प्यास कैसे बुझाई जाए?

उपरोक्त चर्चा से यह स्पष्ट है कि मायिक ​मन-बुद्धि सीमित हैं इसलिए ये भौतिक संसार के बारे में सब कुछ नहीं सीख सकती है।

वेद कहते हैं
यस्मिन् ज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति
"उस ज्ञान को प्राप्त करो जिसे जानने के बाद और कुछ भी जानना शेष न रहे"।

​जब मायिक मन मायिक क्षेत्र का ही समस्त ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकता, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि एक मायिक मन से कोई भी ईश्वरीय क्षेत्र के बारे में कुछ भी नहीं जान सकता। इसके अतिरिक्त वेद हमें निर्देश देते हैं कि "उसको जानो जिसे जानने के बाद और कुछ भी जानना शेष नहीं रहता"। ​तो वह ज्ञान क्या है ? कौन देगा ? वह ज्ञान प्रप्त करने के लिये हमें क्या करना होगा ?  ​इत्यादि प्रश्नों  के उत्तर के लिये आगे पढ़िये ​।

सर्वज्ञ कैसे बनें?

किसी भी प्राप्तव्य को प्राप्त करने की निर्धारित विधि होती है । यदि आप सर्वज्ञ बनने की विधि जानना चाहते हैं, तो आगे चार प्रश्नों का उत्तर है । इन पर अमल करिये और इस ज्ञान को अपने व्यवहार में लाईये । ​
  • अनंत ज्ञान कौन दे सकता है?
  • वह ज्ञान क्या है?
  • इसे कैसे प्राप्त करें?

अनंत ज्ञान कौन दे सकता है?

स्पष्ट है कि जिनको दिव्य ज्ञान प्राप्त है वे ही दिव्य मन में दिव्य ज्ञान प्रदान कर सकते हैं । शास्त्रों के अनुसार केवल भगवान् और भगवत्प्राप्त के पास दिव्य ज्ञान है। भगवदीय कानून के अनुसार स्वयं भगवान् ​ज्ञान नहीं देते । अत: गुरु (3) के अतिरिक्त दिव्य ज्ञान प्राप्त करने का कोई और उपाय नहीं है। संत सब पर कृपा करते हैं और जीव उस कृपा को अपनी शरणागति की मात्रा में ही प्राप्त करते हैं ।

अनंत ज्ञान ज्ञान क्या है?

वह ज्ञान परात्पर ब्रह्म है। हर अंश पूर्ण होना चाहता है। जीव ब्रह्म का अंश होने के कारण परात्पर ब्रह्म को पाना चाहता है, ज्ञानेन्द्रियों से उसका साक्षात्कार करना चाहता है। एक बार जब जीव को परात्पर ब्रह्म का बोध हो जाए तो ज्ञान की खोज पर विराम लग जायेगा ।

गीता ने श्रीकृष्ण को ज्ञान कहा है। श्रीकृष्ण
मात्र​ ज्ञान ही नहीं हैं, वे ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेय (जिसे जाना जाता है​) तीनों​ हैं।

वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् || गीता 15.15||
"मैं ही समस्त वेदों द्वारा जाना जाने वाला, वेदों का रचयिता और वेदों के अर्थ का ज्ञाता हूँ।"

उस ज्ञान को प्राप्त कैसे करें?

अब तक हमने 2 सवालों के जवाब दिए हैं। कौन दे सकता है और क्या देगा। और हमने यह भी निष्कर्ष निकाला कि असीमित दिव्य ज्ञान केवल दिव्य मन में ही दिया जा सकता है। हमारे पास भौतिक मन है! तो अब प्रश्न उठता है कि मन को दिव्य कैसे बनाया जाए जिससे हम उस ज्ञान को ग्रहण कर सकें? 

वेदों ने आध्यात्मिक उत्थान के लिए 3 मार्ग (कर्म, ज्ञान, भक्ति) बताए गए हैं। उन मार्गों में से एकमात्र​ भक्ति ही परात्पर ब्रह्म और जीव को आमने-सामने ला सकती है।

भक्ति के मार्ग पर पहली सीढ़ी है किसी भगवत्प्राप्त संत के शरणागत होना (4)।
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया । उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः ॥ गीता ४.३४
श्री कृष्ण ने कहा, "किसी एक भगवत्प्राप्त संत के शरणागत होकर जिज्ञासु भाव से प्रश्न पूछो। गुरु कृपा द्वारा आपके अज्ञान को दूर करेंगे और आपको दिव्य ज्ञान देंगे।"

​​जब जीव गुरु के शरणागत होकर दीनता पूर्वक जिज्ञासु भाव से  प्रश्न करता है तब सद्गुरु तत्वज्ञान (5) प्रदान करते हैं। इस तत्त्वज्ञान के आधार पर जीव जितनी साधना कर लेता है, वह उसके संस्कार बनकर अगले जन्म में भी उसके साथ रहती है। तो, अगले जन्म में जीव को उतनी शरणागति स्वतः प्राप्त हो जाएगी। मान लीजिये कि मृत्यु से पहले आपने 10% शरणागति कर ली। तो अगले जन्म में भगवान आपको वह 10% बिना मेहनत के प्रदान कर देते हैं। फिर आप 10% से शुरू करते हैं (0% से नहीं)। इस प्रकार जीव धीरे-धीरे संचय करता है और एक दिन लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है।
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सभी ने अलग-अलग मात्रा में भक्ति का अभ्यास किया है, इसलिए भक्ति करने की लालसा सब की भिन्न-भिन्न होती है। तुलसी, सूर, मीरा आदि ने अपने पिछले जन्म में बहुत भक्ति की थी। इसलिए उनका थोड़ा सा प्रयास ही भगवत्प्राप्ति के लिए काफी था । जबकि औरों को भक्ति में रुचि पैदा करने के लिये बहुत प्रयास करना पड़ता है।

लेकिन क्रियामण कर्म संस्कार से अत्यधिक प्रभावशाली होते हैं। तो, यदि कोई यह ठान ले कि उसे भगवत्प्राप्ति करनी ही है और तदर्थ साधना करने में जुट जाए तो इसी जन्म में भगवत्प्राप्ति संभव है। यदि कोई वर्तमान जीवन में ही भगवत्प्राप्ति का दृढ़ संकल्प कर ले, तो वह जीव साधना भक्ति के लिए पर्याप्त समय और प्रयास लगायेगा । जीव के प्रयत्न करने मात्र से गुरु कृपा का अधिक एहसास होगा जिसके परिणामस्वरूप अधिक भक्ति होगी और चक्र चलता रहेगा । भक्ति और कृपा का यह चक्र इसी जीवनकाल में ईश्वर (और अनंत ज्ञान) को प्राप्त करा देगा।

इसलिए, यदि आप वह सब-कुछ जानना चाहते हैं तो कल तक गुरु के निर्देशों का पालन न टालिये । गुरु आदेश का पालन करना बहुत अधिक​ सरल​ है और उससे लक्ष्य भी प्राप्त हो जायेगा। इसके विपरीत​, सभी शास्त्रों और मायिक विज्ञान में अपने बल पर पारंगत होना असंभव है । हमारा अनुभव भी इस निष्कर्ष की पुष्टि करता है ।

तो, हमें केवल एक बात को आत्मसात करना चाहिए - अपने मन को गुरु के समर्पित करें। वेद शास्त्र में बताए गए वास्तविक संत के लक्षणों को जानकर, संत का संग करके जब आपको विश्वास हो जाए (5) कि यह ही वास्तविक संत  हैं जिन्हें  श्री कृष्ण ने मेरे  कल्याण के लिए भेजा है तब बिना किसी तर्क, वितर्क, कुतर्क किये और बिना उधार किये, भोले बालक की भांति गुरु (6)(7) के आदेशों का अक्षरशः पालन करना । फिर वे अनंत ज्ञान शरण्य जीव को (8) तुरंत दे देंगे । शरणागत होने में उधार करने की आदत ही हमारी अब तक की अज्ञानता का कारण है।
​
संतों ने अनेक प्रकार से अधिकारी जीवों को प्रेम दान किया है यथा देखकर, आलिंगन आदि द्वारा, जैसे चैतन्य महाप्रभु ने गले लगाकर वह ज्ञान दिया। इतिहास साक्षी है कि संतों ने अनेक प्रकार से वह ज्ञान प्रदान किया है। ध्यान देने वाली बात यह है कि गुरु ही शरण्य जीव के अंतःकरण में वह ज्ञान प्रकट करते हैं। जीव के महानतम प्रयास से भी सर्वज्ञता अर्जित नहीं की जा सकती है।

वर्तमान में, हमारे लिए यह समझना असंभव है कि उस ज्ञान को हृदय में "कैसे" प्रकट किया जाता है क्योंकि अभी हमारे पास  इसका अनुभवात्मक ज्ञान नहीं है।  भगवत प्राप्ति के बाद जीव को भी वह शक्ति प्राप्त  हो जाएगी। तब समझ में आएगा कि ज्ञान "कैसे" प्रदान किया जाता है।

भोला बालक बनकर संसार में कैसे रहें?

आपको यह चिंता हो सकती है कि यदि मैं सारी चालाकी भूल कर​ भोले बालक की भाँति सरल हृदय बन गया तो लोग मेरा फायदा उठाएँगे ! फिर मैं इस संसार में कैसे रहूँगा?

यह स्वाभाविक​ प्रश्न है और इसके दो पूरक उत्तर हैं।
  • सांसारिक मामलों में व्यक्ति को अपरा विद्या का उपयोग करते रहना चाहिए और बहुत चतुर होना चाहिए ताकि आप ठगाई में न आयें ।
  • ऐसा करते हुए भी ईश्वर और गुरु के सामने भोला बालक की भाँति सरल हृदय होना चाहिए ।
ये दोनो विपरीत कार्य साथ​-साथ करने होंगे ।

और यदि मैं इतना चतुर नहीं हूँ कि कोई मुझे ठग न सके तो क्या होगा? डरिये मत। भक्ति मार्ग में साधनावस्था से ही सर्व-समर्थ​ गुरु व​ भगवान् जीव के समर्पण की मात्रा के अनुसार​ योगक्षेम कर​ते हैं  (9)। साधना भक्ति की पूर्णता पर, भगवत्प्राप्ति  के समय, गुरु शरण्य​ के हृदय में कृपा से गुह्य​ विद्या का प्राकृट्य​ करते हैं, जिसके बाद और कुछ (भौतिक और दिव्य) अज्ञात नहीं रहता है । दूसरे शब्दों में, जीव सर्वज्ञ हो जाता है । ध्रुव 5 वर्ष का बालक था । आपने 5 साल के बच्चों की बौद्धिक क्षमताएँ देखी होंगी - वे ज्यादा नहीं होती। जब भगवान् उनके सामने प्रकट हुए, तो ध्रुव के पास भगवान् की महिमा गाने के लिए कोई शब्द नहीं था, इसलिए वे चुपचाप खड़े रह गए । तब भगवान् ने अपने शंख से ध्रुव को छुआ तब​ ध्रुव सर्वज्ञ हो गए और वेद मंत्रों से भगवान् की स्तुति की। इसी प्रकार प्रह्लाद 5 वर्ष की अल्पावस्था में राजा बने । इतने छोटे होते हुए भी प्रह्लाद विवेकशील व न्यायी राजा थे (10)।
​
​इतनी कम उम्र में भी वे इतने कुशल हो गए क्योंकि ईश्वर प्राप्ति के बाद भगवान् अनंतकाल तक उस जीव का 100% ​योगक्षेम (11) ​स्वयं वहन करते हैं । इसलिए शरणागत जीव को जो कोई हानि पहुंचाना चाहेगा उसको पहले भगवान् को हराना होगा। आपको राजा अम्बरीष और ऋषि दुर्वासा (12) की कहानी याद है? भगवान् के बराबर तो कोई भी नहीं हो सकता  तो उनको हराने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता। इसलिए भगवत्प्राप्ति के पश्चात् ​जीव की हानि तो हो ही नहीं सकती। जीव सदा अनंत ज्ञान और अनंत आनंद से परिपूर्ण रहता है। 

अतः चतुराई सीखने के बजाय शरणागति बढ़ाने पर विशेष ध्यान दें ।​
निष्कर्ष
श्रीकृष्ण अनंत ज्ञान भक्ति जीव श्रीकृष्ण ही अनंत ज्ञान हैं जिनसे केवल भक्ति ही जीव को मिला सकती है
विचार करें - अभी तक हमने अनगिनत जन्मों तक बिना सफलता के ज्ञान इकट्ठा करने की कोशिश की है। इससे भी बुरी बात यह है कि ज्ञान ने हमें वह आनंद नहीं दिया है जिसकी हम खोज कर रहे हैं, बल्कि हमारे तौर-तरीकों के परिणामस्वरूप बार-बार वही दुख मिल रहा है।

क्यों न इस बार कुछ अलग करें? ईश्वर ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेय है। तो इस बार समझदार बनें और भक्ति करें । हरि-गुरु के प्रति अपने समर्पण की सीमा को बढ़ाने के लिए जुट जाओ । भक्ति से शुद्ध अंतःकरण रूपी पात्र तैयार होगा जसमें वह दिव्य ज्ञान प्रदान किया जा सके। जब मन पूरी तरह निर्मल होगा, गुरु उसे दिव्य बना देंगे । जैसे ही दिव्य अंतःकरण दिव्य ज्ञान को धारण करने के लिए तैयार हो जायेगा, गुरु उसमें दिव्य ज्ञान प्रदान करेंगे।

नि:संदेह, पूरी लगन के साथ हरि-गुरु की भक्ति करना ही उस अनंत अपरिमेय ज्ञान प्राप्त करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति को पूर्ण करने का सबसे सरल​ और एकमात्र तरीका है ।​

जो हरि सेवा हेतु हो, सोई कर्म बखान।
जो हरि भगति बढ़ावे, सोई समुझिय ज्ञान॥
- जगद्गुरूत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज​​
भक्ति शतक-66
"भगवान की भक्ति के लिए किया गया प्रत्येक कार्य ही वास्तविक कर्म है और ज्ञान वह है जो भगवान के लिए प्रेम बढ़ाता है वही सच्चा ज्ञान है।" भक्ति केवल भगवान को जानने में ही हमारी सहायता नहीं करती बल्कि यह भक्त को भगवान जैसा बना देती है और इसलिए श्रीकृष्ण कहते हैं कि भक्त मेरी प्रकृति को जान लेते हैं।
​
Jagadguruttam Swami Shri Kripalu Ji Maharaj
Jagadguruttam Shri Kripalu Ji Maharaj
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(8) How does Guru help us in spiritual growth?
(9) A metaphor to compare gyani and bhakt
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