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A DIVINE MESSAGE                 
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2022 शताब्दी संस्करण

सिद्धांत
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रागात्मिका या रागानुगा भक्ति?

क्या श्री कृष्ण हमें ललिता विशाखा आदि अष्ट महासखियों से अधिक प्रेम कर सकते हैं ?
कृपालु लीलामृतम​​
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गुरु रक्षा करते हैं

गुरु शरणागत जीवों की, उनकी शरणागति की मात्रा के अनुसार, रक्षा करते हैं।
कहानी
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श्री कृष्ण की रसमय लीला

​श्री कृष्ण हर द्वापर में अवतरित होते हैं और अनेकानेक लीलाएँ करते हैं।जानिए ​राधा रानी के अवतरण से कैसे वही लीलाएँ रस पूरित हो जाती हैं। 

रागात्मिका या रागानुगा भक्ति

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प्रश्न :
क्या भगवान हमें ललिता विशाखा आदि अष्ट महासखियों से अधिक प्रेम कर सकते हैं ?
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ललिता एवं विशाखा सखी - भक्ति मंदिर​, मनगढ़ धाम​
उत्तर :
​इस प्रश्न का उत्तर गीता में श्रीकृष्ण ने स्वयं देते हुए कहा है - 
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् | ​
​मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश: ||
गीता 4.11
अर्थात् “जो मुझसे जितनी मात्रा में जिस भाव से प्रेम करता है, मैं उसको उसी मात्रा में उसी भाव से प्राप्त होता हूँ”।

“हरि गुरु के क्षेत्र में आप बस यही एक बात समझ लीजिए तो सदा के लिए यह प्रश्न समाप्त हो जाएगा। हरि गुरु हमसे कितना प्रेम करते हैं? इसका उत्तर सीधा सा है जितना हम हरि गुरु से प्रेम करते हैं उतना ही प्रेम उन्हें हमसे करना पड़ेगा, कर रहे हैं। बिल्कुल नपा तुला।“  - जगदगुरूतम श्री कृपालुजी महाराज
तथापि इस शंका के समाधानार्थ समस्त साधकों के लिए इस बात को समझ लेना अत्यावश्यक है कि भगवत प्राप्त​ संत मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं - 
1. नित्य सिद्ध व 
2. साधन सिद्ध
जिन्हें कभी माया नहीं लगी, जो सदा से माया मुक्त भगवान के परिकर व पार्षद के रूप में भगवत्सेवा में रत रहते हैं, वे नित्य सिद्ध महापुरुष हैं। यथा ललिता विशाखादी अष्ट महासखियाँ।
एवं जो कभी मायाबद्ध​ थे किंतु कालांतर में किसी महापुरुष की कृपा से उन्हें भगवत दर्शन भगवत प्रेम प्राप्त हो गया, वे साधन सिद्ध महापुरुष कहलाते हैं। यदि आज हम साधना द्वारा भगवद्दर्शन प्राप्त कर लें तो हम साधन सिद्ध महापुरुषों की श्रेणी में आ जायेंगे  ।
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इसी भेद से इन प्रेमी महापुरुषों की भक्ति भी दो प्रकार की होती है -  रागात्मिका व रागानुगा
इने गिने नित्य सिद्ध महापुरुषों में रागात्मिका भक्ति का आविर्भाव होता है। उन्हीं महापुरुषों के अनुगत रहकर श्री राधा कृष्ण के प्रति, शास्त्र भय से रहित, स्वाभाविकी रति रागानुगा कहलाती है। रागानुगा का अर्थ है रागात्मिका का अनुगमन करने वाली भक्ति।

आज से 5000 वर्ष पूर्व स्वयं श्री कृष्ण दिव्य वृंदावन सहित भारत में अवतरित होकर आए थे। उस समय जितने भी ब्रजवासी श्रीकृष्ण के साथ अवतरित होकर आए थे, वे सभी रागात्मिका भक्ति वाले थे।
विराजन्तीमभिमुखं ब्रजवासिजनादिषु । रागात्मिकामनुसृता या, सा रागानुगोच्यते । 
भक्ति रसामृत सिंधु
“ब्रजवासी जनों में जो भक्ति सुस्पष्ट व स्वाभाविक रूप से विद्यमान है उसे रागात्मिका भक्ति कहते हैं। उसी रागात्मिका भक्ति का अनुसरण करने वाली भक्ति को रागानुगा कहते हैं।”
​रागात्मिका भक्ति ही रागानुगा भक्ति का मूल आधार है। रागानुगा को समझने के लिए रागात्मिका भक्ति को अच्छी प्रकार समझना अनिवार्य है।
इष्टे स्वारसिकी रागः परमाविष्टता भवेत् । तन्मयी या भवेद्भक्तिः, सात्र रागात्मिकोदिता ॥
​भक्ति रसामृत सिंधु
“प्रियतम श्री कृष्ण के प्रति स्वाभाविक प्रेममई तृष्णा और इस प्रेम की अनुदिन वृद्धि हो, ऐसे विशुद्ध प्रेम का नाम रागात्मिका भक्ति है।”
​
अपने इष्ट श्री कृष्ण में बलवती तृष्णा होना राग का स्वरूप लक्षण है। और इष्ट में परम आवेश होना राग का तटस्थ लक्षण है। यथा -
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अपने प्रियतम श्री कृष्ण के संग गोपियाँ
अब खुदा की इबादत की आदत गई, हम ही तुम हो गए, तुम ही हम हो गए
“अब भगवान की भक्ति नहीं करते क्योंकि उन्हीं में तन्मय तल्लीन हो गए हैं”।
इसी भाव से युक्त भक्ति को रागात्मिका भक्ति कहते हैं। श्री कृष्ण सेवा की तीव्र तृष्णा ही रागात्मिका भक्ति का प्राण है। ऐसी तृष्णा नित्य-सिद्ध ब्रज परिकरों - गोप गोपियों आदि में ही विराजित होती है ।
ब्रज परिकरों के अनुसरण​ से जब किसी जीव के हृदय में श्री कृष्ण सेवा की तीव्र लालसा उदित होती है तो उसे रागानुगा कहते हैं। अर्थात् ब्रज परिकर के परम निष्काम सेवा भाव को आदर्श मानकर उनके पद चिन्हों पर चलना रागानुगा भक्ति का लक्षण होता है। इसका संक्षिप्त परिचय जगद्गुरु श्री कृपालु महाप्रभु ने राधा गोविंद गीत में इस प्रकार किया है - 
रागानुगा भक्ति गोविंद राधे । आनुगत्यमयी ही होती है बता दे ॥ रा. गो. गी. 5865
“रागानुगा भक्ति रागात्मिका भक्ति के अनुगत् होती है ”।
रागात्मिका भक्ति गोविंद राधे । स्वातंत्र्यमयी ही होती है बता दे ॥  रा. गो. गी. 5866
“रागात्मिका भक्ति स्वतंत्र होती है”। स्वतंत्र का अर्थ है कर्म, ज्ञान, योग, वेद-शास्त्र किसी का कोई भी नियम लागू नहीं होता।
रागात्मिका वारे गोविंद राधे । स्वरूप शक्ति के नियन्ता बता दे ॥  रा. गो. गी. 5868
“रागात्मिका भक्ति करने वाले भगवान की अंतरंग स्वरूप शक्ति के नियंता भी होते है”। 
रागात्मिका भक्ति गोविंद राधे। जीव ते है अप्राप्य बता दे॥  रा. गो. गी. 5869
“रागात्मिका भक्ति जीव श्रेणी में प्राप्त नहीं होती।”
रागानुगा भक्ति के अनुयायी पर शास्त्र का शासन नहीं होता। केवल सेवा-तृष्णा, लालसा आदि ही इसके आधार हैं।

किंतु इसका तात्पर्य शास्त्र का पूर्णतया तिरस्कार नहीं है। इसमें शास्त्र युक्ति अर्थात “कैसे, किस आचरण से हमारी रागानुगा भक्ति पुष्ट होगी”, इसकी अपेक्षा रागानुगा भक्ति में सदा रहती है।
​
शास्त्र, गुरु, आचार्य-वचनों के अनुशासन में रहकर अपने इष्ट​ की सेवा की लालसा को बढ़ाते रहना रागानुगा भक्ति के लिए आवश्यक है।
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भक्त अपने दैनिक कार्यों को करते हुए भी हरि-गुरु का सदैव स्मरण करता है।
स्मरण रहे, हमें श्री कृष्ण की स्वरूप शक्ति स्वरूप गोप/ग्वाल-बाल, नंद, यशोदा, ब्रजांगानाओं आदि की हृदयगत​ सेवा लालसा का अनुगमन करना है, अनुकरण नहीं। अर्थात् निष्काम श्री कृष्ण सुखैकतात्पर्यमयी सुकोमल भावना से ओतप्रोत होकर यह ब्रज परिकर श्री कृष्ण की सेवा करते हैं, हमें उस भावना व सिद्धांत का अनुसरण करना है। स्वयं को गोप-गोपी मानकर उनके समान आचरण करना अनुचित व अपराध होगा।

नंद-यशोदा, सुबल, मधुमंगलादि सखा, श्री राधा व ललितादि सखियों के अतिरिक्त रागात्मिका भक्ति किसी और को प्रााप्य नहीं होती। अतः रागात्मिका भक्ति वाले भक्तों के अनुकूल सेवा विधान करना ही रागानुगा भक्ति है। जीव का यहीं तक अधिकार है। कोई दासी यदि रानी की सहायिका के रूप में राजा की सेवा करें तो वह प्रशंसनीय है किंतु यदि वह दासी रानी का अनुकरण कर रानी के समान आचरण करने लग जाए तो वह निंदनीय व दंडनीय होगा।
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मा यशोदा और बाल कृष्ण लीला
कुछ लोग अज्ञाानतावश पूछते हैं कि क्या हम श्री राधा के प्रति माधुर्य भाव​ रख सकते हैं? अरे वे तो हमारी स्वामिनी हैं, माँ हैं । हमें तो इन ब्रज परिकरों के परम निष्काम भाव को अपनाते हुए केवल सेवा की भावना बनानी है। हम प्रिया-प्रियतम श्री राधा कृष्ण के दास दासी हैं।
“वे स्वेच्छा से, अपनी अकारण करुणा के वशीभूत होकर चाहे जो सेवा दें या जो भी व्यवहार करें” एकमात्र वही हमारा सुख और उनका सुख ही हमारी एकमात्र कामना निरंतर बनी रहे - यह है रागात्मिका भक्ति के अनुकरणीय आदर्श। यही रागानुगा भक्ति करने वालों को सीखना है व अपने जीवन में उतारना है। 
सा कामरूपा सम्बन्धरूपा चेति भवेद्विधा ॥
“रागात्मिका भक्ति दो प्रकार की होती है - काम रूपा व सम्बन्ध रूपा”। सम्बन्ध रूपा में सम्बन्ध की मर्यादा की प्रधानता होती है। 
सेवा सम्बन्ध के पीछे-पीछे ही चलती है। अपने सम्बन्ध की मर्यादा को छोड़ कर यहाँ न कोई सेवा कर सकते हैं न ही उनकी कोई ऐसी इच्छा भी होती है। आइए इन दोनों को थोड़ा विस्तार से समझ लें।

काम रूपा

गोपियों का प्रेम केवल स्वाभाविक राग युक्त था, जिसमें संबंधों की कोई सीमा नहीं।
रागबन्धेन केनापि तं भजन्तो ब्रजन्तयमी । 
अंघ्रिपद्मसुधा प्रेम रूपास्तस्य प्रियाः जनाः ॥

भ.र​.सिं 281
भगवान की परम प्रिय गोपियाँ अनिर्वचनीय अनुराग से श्री कृष्ण का भजन करते हुए उनके कमल समान चरणों के रूप माधुर्य का नित्य रसास्वादन करती हैं”​।
सा कामारूपा सम्भोगतृष्णा या नयति स्वताम्।
यदस्यां कृष्णसौख्यार्थमेव केवमुद्यमः ॥

भ.र​.सिं 283
“गोपियों की अपने संभोग सुख की तृष्णा भी श्री कृष्ण की इच्छा के आधीन होती है, उसे कामरूपा भक्ति कहते हैं”। क्योंकि उसमें केवल श्रीकृष्ण के सुख के लिए ही उद्य​म किया जाता है। अर्थात् गोपियों की कोई भी कामना अपनी ओर से नहीं होती। गोपियों की कामुकता की तृ​ष्णा भी श्रीकृष्ण की इच्छा और उनके सुख के आधीन रहती है। वे स्वेच्छा से कुछ भी करें, कुछ भी कहें, कुछ भी दे, उसमें गोपियों को अनंत आनंद मिलता है। उनकी अपनी इच्छा कभी कुछ भी होती ही नहीं। श्री कृष्ण को सर्वतोभावेन सुखी करने की इनमें परमाविष्टता है। यहाँ तक की अपना शरीर भी श्रीकृष्ण सेवा में समर्पित करने में भी उन्हें कोई संकोच नहीं होता।
माधुर्य भाव की तो गोविंद राधे । कृष्ण भक्ति कामानुगा है बता दे ॥
​- रा. गो. गी.5652
“माधुर्य भाव से श्रीकृष्ण की उपासना करना काम रूपा भक्ति है”। इसलिए रसवेत्ताओं ने इस अनुपमेय​ विशिष्ट प्रेम को काम संज्ञा दी है - 
प्रेमैव गोपरामाणां काम इत्यगमत्प्रथाम्।  भ.र​.सिं 285
“यह ऐसा प्रेम है कि गोपियों की कामुकता को भी दिव्यता प्रदान कर  देता है। जो केवल श्रीकृष्ण के सुख व सेवा के लिए ही है। इसमें आत्मेन्द्रिय​ सुख की तो गंध भी नहीं है।
यह भी प्रश्न उठता है कि क्या गोपियों के हृदय​ में आलिंगन अथवा चुंबन आदि की भावना थी ही नहीं? थी। किंतु चुम्बन आदि प्रेम को प्रकाशित करने का उपाय मात्र है। जैसे पिता अपनी पुत्री को अथवा बहन भाई को हृदय से लगाते हैं या चुंबन करते हैं। छोटे बच्चे अपनी माँ या पिता आदि का आलिंगन चुंबन आदि कर लेते हैं। किंतु इसमें अलौकिक काम की गंध भी नहीं होती। ये क्रियाएँ पार्श्विक नहीं कहलाती। उसी प्रकार गोपियाँ भी श्रीकृष्ण के सुख के लिए उनका आलिंगन आदि करती हैं क्योंकि श्री कृष्ण का सुख ही उनका सबसे बड़ा सुख है। यह परम निष्काम स्वसुखकामनागंध​लेशशून्य​ प्रेम उन्हें एक अद्भुत् अनिर्वचनीय माधुरी का आस्वादन कराता है। इसलिए,
इत्युद्धवादयोऽप्येतं वाञ्छति भगवत्प्रियाः ॥  भ.र​.सिं 286
“भगवान के अति प्रिय सखा उद्धव, मुमुक्षु एवं मुक्त जन आदि भी इसी कामरूपा भक्ति की प्रार्थना करते हैं किंतु प्राप्त नहीं कर पाते”।  इसलिए उद्धव जी कहते हैं - 
एताः परं तनुभृतो भुवि गोपवध्वो गोविन्द एव निखिलात्मनि रूढ़​भावा: ।
वांछन्ति यद्भवभियो मुनयो वयं च, किं ब्रह्मजन्मभिरनन्त-कथारसस्य ॥
भागवत 10.47.58
“अर्थात् इस पृथ्वी पर केवल इन गोपियों का शरीर धारण करना ही धन्य है, जो सर्वात्मा भगवान श्री कृष्ण के परमोत्कृष्ट​ महाभाव​ में स्थित हैं। इस अवस्था की सभी महान मुमुक्षु, मुनि आदि भी वाञ्छा करते हैं। यदि गोपियों के समान श्रीकृष्ण की लीलाकथा रस का चस्का नहीं लगा तो महाकल्पों तक भी बारंबार ब्रह्मा का जन्म पाने का क्या लाभ?” इसलिए श्री कृष्ण गोपियों से कहते हैं - 

न पारयेऽहं निरवद्यसंयुजां स्वसाधुकृत्यं विबुधायुषापि व: ।
या मा भजन् दुर्जर गेह 
श्रृंखलाः संवृश्च्य तद् वः प्रतियातु साधुना ॥
“तुम्हारी निष्काम सेवा के लिए, ब्रह्मा के जीवनकाल में भी, मैं अपना ऋण चुकाने में सक्षम नहीं हूँ। मेरे साथ तुम्हारा संबंध निन्दा से परे है। लोक वेद के बंधनों को तोड़ना मुश्किल है। फिर भी तुमने लोक वेद के बंधनों को तोड़कर मेरी उपासना की है। इसलिए उज्जवल चरित्र ही तुम्हारा उपहार है।” इन गोपियों के अनुगत​ हो कर, इसी निष्काम सेवा के भाव​ का नित्य निरंतर पोषण करना ही कामरूपा रागानुगा भक्ति है।

संबंध रूपा

संबंधरूपा गोविन्दे पितृत्वद्यभिमानता । अत्रोपलक्षणातया वृष्णीनां वल्लवा मता । 
यदैश्यज्ञानशून्यत्वादेषां रागे प्रधानता ॥  

​ भ.र​.सिं 288
“पितृत्व, मातृत्व, सख्यत्व​ आदि का आश्रय लेकर श्रीकृष्ण से निरन्तर प्रेम ही संबंध रूपा भक्ति (दिव्य ​संबंध)है। काम रूपा भक्ति परिकरों की भाँति इनका भी प्रेममात्र स्वरूप है। जैसे काम रूपा के आश्रय गोपीवृंद हैं वैसे ही यशोदादि नित्य सिद्ध संबंधरूपा भक्ति के मूल आश्रय हैं।”
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दास्य सख्य​ वात्सल्य गोविंद राधे । सम्बंधानुगा है भक्ति बता दे ॥ 
​ - रा.गो.गी 5651
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है की ललिता, विशाखा आदि के स्तर पर तो जीव पहुँच ही नहीं सकता। अतः उनके समान प्रेम पाने की कामना बनाना भोलापन है। तथा उनके अथवा उनके अनुगत महापुरुषों की कृपा से हमें इस दिव्य प्रेम आनंद की प्राप्ति होगी - वही अनंत व अनिर्वचनीय है। श्री राधा कृष्ण की तो कौन कहे, इन महापुरुषों की ही सेवा मिल जाए तो अनंत कोटी ब्रह्मानंद​ धूमिल हो जाये।
सारांशतः हमें उनका कितना प्रेम प्राप्त होगा, यह बात भूल कर, हमें अपना अनन्य प्रेम व निष्कामता को उत्तरोत्तर वृद्धी की लालसा को बढ़ाना है। इसी से अतुलनीय, अपरिमेय, परमोत्कृष्ट​ दिव्य प्रेमानंद की प्राप्ति होगी।
​यह ब्रजरस​, ज्ञानी, विज्ञानी परमहंस​, आदि से भी अतीत रस है। यह तो केवल ब्रजगोपियों के दासानुदास - रूप रसिक की कृपा से ही प्राप्त होता है। जो बड़भागी इस रहस्य को समझ लेता है, वह कभी न कभी इस रस का पान अवश्य कर लेता है।
​-  जगद्गुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज​
प्रेम रस सिद्धांत
Jagadguruttam Swami Shri Kripalu Ji Maharaj
जगद्गुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज
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गुरु रक्षा करते हैं

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श्री महाराज जी के एक भक्त थे जो अपनी पत्नी और छोटे से बेटे के साथ रहते थे। उनके माता पिता भी उनके साथ ही रहते थे। 

वार्षिक शरद पूर्णिमा साधना शिविर के समय उनके बेटे की अर्धवार्षिक परीक्षा चल रही थी। इस कारण वे आधे समय के लिए साधना में शामिल होने के लिए मनगढ़ आये। शिविर के चलते कुछ ही दिन पश्चात उनका बेटा बहुत ज़्यादा बीमार हो गया था। उन्हें अपनी पत्नी का एक टेलीग्राम मिला जिसमें उन्हें जल्दी ही घर वापस आने के लिए लिखा था। उन्होंने श्री महाराज जी से घर जाने की अनुमति मांगी। लेकिन महाराज जी ने उन्हें घर वापिस जाने की अनुमति नहीं दी। उनका दिल नहीं माना और अगले ही दिन वो फिर से महाराज के पास अनुमति माँगने गए। इस बार महाराज जी ने अनुमति देते हुए उनसे कहा - "तुम्हारी पत्नी आ रही है। उससे मेरे लिए खास मघई पान लाने के लिए कहना।" हम में से अधिकांश लोगों की तरह, उनको श्री महाराज जी की ये बात समझ में नहीं आयी, न ही उन्हें ये पसंद आया। खैर, अपनी पत्नी को अपने वापिस आने की सूचना देते हुए टेलीग्राम भेजकर वो मनगढ़ से घर वापस चले गए।
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जब वो घर पहुँचे तो उन्होंने देखा की सिर्फ उनके बूढ़े माता पिता घर में हैं। उन्होंने उनसे पूछा कि उनकी पत्नी और बेटा कहाँ हैं। उनके माता-पिता ने उनसे कहा कि तुम्हारी पत्नी तो साधना में शामिल होने के लिए मनगढ़ चली गई और तुम्हारा बेटा बगीचे में खेल रहा है। वे यह बात समझ नहीं पाये क्योंकि उनकी पत्नी के टेलीग्राम के मुताबिक उनका बेटा तो मरणासन्न था। फिर उनके माता-पिता ने उनसे कहा कि कल दोपहर को अचानक तुम्हारे बेटे की तबीयत ठीक हो गई। इसलिए तुम्हारी पत्नी महाराज जी के लिए पान ले आई और आज सुबह मनगढ़ चली गई। 

अब उनको समझ में आया कि उनकी ये गलत धारणा थी की वे अपने परिवार की देखभाल करते हैं। शरणागति की मात्रा के अनुसार गुरु स्वयं शरणागत जीवों की ज़िम्मेदारियों को संभाल लेते हैं। इसी कारण महाराज जी चाहते थे कि मैं वहीं रुककर और साधना कर लूँ न कि अपने परिवार में आसक्त रहूँ।
नैतिक :
गुरु हमेशा सही होते हैं चाहे हमें उनकी क्रिया समझ में न आये। उनकी हर आदेश में हमारा कल्याण निहित है। 
आजकल संसार में कई ढोंगी गुरु हैं। रोज़ समाचार में कोई न कोई ढोंगी संत के निंदाजनक कांड पढ़ने-सुनने को मिलते हैं। इसलिए सही तरीके से छान बीन कर एक वास्तविक महापुरुष को ढूंढिए। जब आपको वास्तविक संत मिल जाएँ, तो अपनी खोज को बंद कर दीजिये। अपनी बुद्धि को उनकी बुद्धि से जोड़ दीजिये और उनके आदेशानुसार चलिए। वह वास्तविक संत आपको भगवान की ओर अवश्य ले जायेंगे।

श्री कृष्ण की रसमय लीला

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हमारे प्यारे श्री महाराज जी हमें हरि गुरु दोनों की उपासना करने को कहते हैं। यद्यपि गुरु भगवान के ही दूसरे रूप हैं, प्रत्यक्ष होने के कारण हमारी दोष बुद्धि लग जाती है। श्री महाराज जी समन्वयवादी जगद्गुरु हैं। इसलिए वे हमें हरि गुरु दोनों को साथ लेकर चलने की सलाह देते हैं, ताकि यदि कभी गुरु में दोष बुद्धि हो जाये, तो भगवान की अनेक प्रकार की मधुर लीलाओं का अवलंब लेकर साधक घोर पतन से बच जाएगा तथा दोबारा भक्ति में लग सकता है। अगस्त सितंबर के महीने में ही राधा कृष्ण दोनों  का अवतरण हुआ था। 
श्री राधा के नाम का विश्वव्यापी प्रचार-प्रसार करने का सेहरा श्री महाराज जी के सिर पर ही बँधा है। श्री महाराज जी की 100वीं जयंती (शताब्दी) पर श्री राधा के अवतरण के प्रभाव की चर्चा करना ही उचित होगा।
चलिए इस कथा में जानते हैं कि केवल श्री कृष्ण की अवतरण की अपेक्षा श्री राधारानी के अवतरण से लीलाओं में किस प्रकार परिवर्तन होता है।
श्री कृष्ण हर द्वापर में अवतरित होते हैं। लेकिन राधा रानी केवल एक कल्प में एक बार अवतार लेकर आती हैं। इसका मतलब श्री कृष्ण 993 बार श्री राधा के बिना अवतार लेते हैं। हर बार जब वे अवतार लेते हैं, तो वे राक्षसों का वध करते हैं, महाभारत का युद्ध लड़ते हैं इत्यादि। ये सब ऐश्वर्य लीलाएँ हैं। लेकिन राधा रानी तो मधुरता की प्रतीक हैं। इसलिए जब वे अवतार लेती हैं तो उनके प्रभाव के कारण ऐश्वर्य लीलाएँ भी माधुर्य लीलाओं में परिवर्तित हो जाती हैं।

केशी ने एक भयानक घोड़े का रूप धारण किया और नंदगांव वासियों को आतंकित करना शुरू कर दिया। श्री कृष्ण समझ गए कि वह दैत्य उन्हें युद्ध करने के लिए ललकार रहा था। इसलिए श्रीकृष्ण उस घोड़े के सम्मुख आ गए। उस छोटे बच्चे को देखकर, घोड़ा उन पर प्रहार करने लगा। लपक कर श्रीकृष्ण ने घोड़े का एक पैर पकड़ा और उसे सौ गज की दूरी पर फेंक दिया। जब केशी को होश आया, उसने दोबारा अपना मुँह खोलकर फिर श्री कृष्ण पर प्रहार किया। भगवान ने अपने दाहिने हाथ को घोड़े के मुँह के अंदर धकेल दिया जिससे उसके सारे दाँत गिर गए। फिर उन्होंने अपनी भुजा को बड़ा करना प्रारम्भ किया जिससे उस दैत्य की मृत्यु हो गई। इस प्रकार केशी और उसके आतंक का अंत हुआ।  
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श्री कृष्ण और केशी लीला
नैतिक :
श्रीकृष्ण लगभग पाँच हज़ार साल पहले श्री राधा रानी के साथ पृथ्वी पर अवतरित हुए। श्री कृष्ण के अनंत ऐश्वर्य होते हुए भी, जब वह श्री राधा रानी के साथ अवतरित होते हैं, उनकी ऐश्वर्य लीलाएँ माधुर्य में बदल जाती हैं। कोई यह सोच सकता है कि उन्होंने गुस्से में आकर दैत्य को मारा, लेकिन लीला को दोबारा पढ़िए। उन्होंने सिर्फ अपना आकार बढ़ाया और उसी से उस दैत्य की मृत्यु हो गई। राधा रानी की प्रबल उपस्थिति के कारण श्री कृष्ण ये लीलाएँ मुस्कुराते हुए करते हैं। बाकी अवतारों की तरह इन लीलाओं में क्रोध नहीं होता। राधा रानी इन ऐश्वर्य लीलाओं को भी मधुर बना देती हैं। 

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