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कर्म

Read this article in English
हम अपने जीवन काल में जो भी क्रियाएँ करते हैं, उसे कर्म कहते हैं। भिन्न-भिन्न मानदंडों के आधार पर इन कर्मों को कई प्रकारों में बांटा गया है।

कर्म के प्रकार 

मूलतः कर्म तीन प्रकार के होते हैं जिनको त्रिकर्म कहा जाता है।
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क्रियमाण कर्म

जिन कर्मों को हम जागृत अवस्था में करते हैं और फल प्राप्त करते उन्हें क्रियमाण कर्म कहते हैं। क्रियमाण कर्म केवल मन के द्वारा अथवा मन के साथ में इंद्रियों का सहयोग लेकर  किया जा सकता है। तो वर्तमान परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए किए गए किसी कार्य को क्रियमाण कर्म कहा जाता है। कुछ कर्मों का फल हमें तुरन्त प्राप्त हो जाता है; उदाहरणतः खाना खाने पर स्वतः पेट भर जाता है। कुछ कर्मों का फल इसी जन्म में अन्यथा कुछ कर्मों का फल संचित कर्मों के रूप में प्रारब्ध बनकर अगले जन्मों में प्राप्त अवश्य होता है। क्रियमाण कर्म धनुष पर संधान किए गए उन तीरों के समान हैं जिसको हम जब चाहे, जहाँ चाहे, जिस पर चाहे चलाने का निर्णय ले सकते हैं।

संचित कर्म

संचित कर्म हमारे द्वारा किए गए पूर्व जन्मों के अनंत कर्म फलों का भंडार है जिसको अभी तक हमने भोगा नहीं है।

भगवान ही हमारे वास्तविक पिता हैं तथा वे अत्यंत दयालु हैं। वे क्रियमाण कर्म फलों को तुरंत नहीं भोगवाते हैं। वो हमारे मन में संचित कर्म के रूप में विद्यमान रहते हैं। कुछ क्रियमाण कर्मों का फल इसी जन्म में प्राप्त हो जाता है परंतु अन्य सभी फल उसी प्रकार संचित रहते हैं जैसे तुणीर में बाण। 
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१) क्रियमाण कर्म २) संचित कर्म ३) प्रारब्ध कर्म

प्रारब्ध कर्म

संचित कर्मों में से वर्तमान जीवन में भोगने के जो कर्मफल निर्धारित किए जाते हैं उन्हें प्रारब्ध कर्म कहते हैं।
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पूर्व जन्मों में किए गए समस्त कर्मों में से कुछ कर्म फल वर्तमान जीवन में भोगने के लिए दिए जाते हैं, जो प्रारब्ध कर्म कहलाते हैं। इसी को हम भाग्य भी कहते हैं। भाग्य हमारे वर्तमान जीवन काल के कर्मों अथवा किसी एक जीवनकाल के कर्मों का फल नहीं होता। वह हमारे पूर्व जन्मों के समस्त कर्म फलों का एक छोटा सा भाग है।
वर्तमान जीवन काल की पाँच स्थितियों को (प्रारब्ध कर्म) भाग्य के रूप में निर्धारित कर दिया जाता है। वे हैं -
  • आयु
  • व्यव्साय​
  • धन
  • शिक्षा
  • मृत्यु का प्रकार (किस तरह मृत्यु हुई​)

5 पूर्व निर्धारित स्थितियों के अतिरिक्त जीव अपने क्रियमाण कर्मों को करने के लिए स्वतंत्र होता है।
आयुः कर्म च वित्तं च विद्या निधनमेव च। पंचैत्यान्यपि सृज्यन्ते गर्भस्थस्यैव देहिनः ॥
हितोपदेश
उपर्युक्त पाँच चीज़ें पूर्व निर्धारित हैं परंतु फिर भी हमारे भाग्य में क्या है यह हमें नहीं पता रहता इसलिए जीव को सदैव अपने जीवन में सर्वोत्कृष्ट कर्म करने की चेष्टा करते हैं। हमारे जीवन में जो अच्छा या बुरा फल पूर्व निर्धारित है वह बिना इच्छा या मेहनत के हमें अवश्य मिल जाएगा। आलसी व्यक्ति अपने उत्थान हेतु कोई प्रयत्न नहीं करता तथा भाग्य को कोसता है। अतः यह जानने के पश्चात भाग्य कैसे निर्धारित होता है,कोई भी कभी भी असफलताओं एवं नुकसान होने की दशा में किसी पर उंगली नहीं उठा सकता। समस्त फल हमारे ही पूर्व जन्म के कर्मों के आधार पर हमको मिल रहे हैं। अतः मनुष्य को अच्छे फल प्राप्त करने हेतु अच्छे कर्मों को करना ही पड़ेगा।
​
यद्यपि हम अपने जीवन का विश्लेषण करें तो हम पाएँगे कि अधिकांश जीवन सामान्य परिस्थितियों​​ में ही बीतता है। कभी-कभी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है तथापि अधिकतर लोग भगवान को अपने कठिन समय के लिए कोसते हैं। अपने अच्छे वक्त के लिए भगवान का शुक्रिया अदा करने की बजाय हमारा अधिकतर समय उन्हें कोसने में निकल जाता है। अपने जीवन को खुशहाल बनाने के लिए हमें सदा भगवान से अपने अच्छे समय के लिए धन्यवाद देना चाहिए। यही एक सिद्धांत हमारे भविष्य में हम को उत्तरोत्तर खुशियाँ  प्रदान करता है।

उपकरण के आधार पर कर्मों का वर्गीकरण​

शरीर में तीन उपकरण होते हैं जिनसे कर्म प्रतिपादित किया जा सकता है। उपकरण के आधार पर तीन वर्गों​ में वर्गीकरण किया जा सकता है यथा-

मानसिक कर्म 

मन में किए गए संकल्पों/विचारों को मानसिक कर्म कहते हैं - इसमें शारीरिक इंद्रियों का कोई योगदान नहीं होता। उदाहरण के लिए बैठे-बैठे मन में संकल्प करना अथवा स्वप्नावस्था में कर्म करना जब की इंद्रियाँ निष्क्रिय पलंग पर पड़ी हैं । बिना इंद्रियों के भी मन विभिन्न संभव तथा असंभव कर्म कर लेता है।

इंद्रियों सहित मानसिक कर्म

किसी मानसिक कर्म के संपादन में यदि इंद्रियों का योगदान रहता है तो वे मानसिक प्लस शारीरिक कर्म कहलाते हैं। इस प्रकार के कर्म पूर्णतया जागृत अवस्था में ही किए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए इस लेख को पढ़ना।

कर्मेन्द्रियों द्वारा कर्म 

इच्छा के विरुद्ध​ भी जो कर्म इंद्रियों से करने पड़ें वो मात्र शारीरिक कर्म की कक्षा में आते हैं। जैसे किसी आगंतुक का न चाहते हुए भी स्वागत करना।

​भगवान हमारे मन के संकल्पों को ही नोट करते हैं। शारीरिक क्रियाओं को नोट ही नहीं करते। अतः इंद्रियों के द्वारा किए गए कर्मों को करने से हमें माया से मुक्ति नहीं मिल सकती। मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है। हमारे द्वारा स्वप्न में अथवा मात्र ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा किए गए कर्मों का हमें कोई फल नहीं मिलता।

परिणामों के आधार पर कर्मों का वर्गीकरण​

मानव देह की प्राप्ति हमें सिर्फ अपने सही-सही कर्म का प्रतिपादन करके परम चरम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हुई है। परिणामों के आधार पर कर्म चार प्रकार का होता है। हमारे द्वारा किए गए कर्मों के परिणामों में अत्यंत विषमताएँ हैं, अतः हमें इस लेख को अत्यंत ध्यानपूर्वक समझना होगा।
Karma
Figure 1

कर्मकांड

वर्णाश्रम धर्म के अनुसार वेद विहित कर्मों के प्रतिपादन को कर्मकांड कहा गया है।
वेद प्रणिहितो ह्यधर्मस्थद्विपर्ययः ।
इस प्रकार के कर्म में भक्ति नगण्य है।
​
वेद में वर्णित 100,000 मंत्रों में से 80,000 मंत्र वर्णाश्रम धर्म हेतु कर्मकांड के हैं। वेदों में मनुष्यों को उनके कर्म और दक्षताओं के आधार पर चार वर्णों में बांटा गया है तथा शरीर की अवस्थाओं को चार आश्रमों में बांटा गया है। कुल 16 प्रकार की कक्षाएँ हैं। 80000 वेद की ऋचाएँ इन्हीं 16 कक्षाओं के लिए विधि निषेध का व्याख्यान करती हैं।

वेद में वर्णित इन सभी विधि निषेध का पूर्ण पालन करने को कर्मकांड कहते हैं और इसी को वर्णाश्रम धर्म कहते हैं। कर्मकांड में भी चार प्रकार के कर्म होते हैं।

नित्य कर्म

प्रत्येक मनुष्य को अपने अपने वर्णाश्रम धर्म के अनुसार​  प्रतिदिन अपने नित्य कर्मों को करने की आज्ञा है। जैसे ब्राह्मण को प्रतिदिन वेद का ज्ञान करना तथा कराना होगा, क्षत्रिय को सभी जीवों की सुरक्षा करनी होगी आदि।
पुण्य कर्मों के फलों का भोग करने के पश्चात जीव को स्वर्ग लोक से पुनः मृत्युलोक में हीन योनियों में भेज दिया जाता है।
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पुण्य कर्मों के फलों का भोग करने के पश्चात जीव को स्वर्ग लोक से पुनः मृत्युलोक में हीन योनियों में भेज दिया जाता है।

नैमित्तिक कर्म

नैमित्तिक कर्म वह औपचारिकताएँ हैं जिनको कुछ विशेष कारण से किया जाता है। उदाहरण के लिए घर के, वातावरण के शुद्धिकरण अथवा पापों के प्रायश्चित हेतु यज्ञ हवन आदि।

काम्य कर्म

किसी इच्छा पूर्ति के लिए किए गए कर्म काम्य कर्म कहलाते हैं। उदाहरण के लिए पुत्रेष्टि यज्ञ अथवा अच्छी फसल आदि के लिए किए गए वैदिक यज्ञ हवन।

प्रायश्चित कर्म

उपर्युक्त वर्णित कर्मों को करने में यदि कोई गलती हो जाती है तो उसके पश्चाताप के लिए प्रायश्चित कर्म किए जाते हैं।
ध्यान दें! ये कर्म मात्र सुकृत कर्म नहीं हैं। वैदिक कर्मकांड करने की एक शर्त है कि उसमें लिखे गए विधि निषेध में लेश मात्र भी कोई गलती नहीं होनी चाहिए। यदि ऐसा कोई व्यक्ति कर लेता है तो मृत्यु उपरांत उसको स्वर्ग लोक की प्राप्ति एक निश्चित समय के लिए होती है। अपने पुण्य कर्मों के फल भोगने के पश्चात उसको पुनः 84 लाख के बंधनों में आना होता है।

कर्मयोग

प्रत्येक क्षण भगवान का स्मरण करते हुए इंद्रियों से वेद विहित सांसारिक कर्मों को करते रहना कर्मयोग कहलाता है।
कर ते कर्म करहु विधि नाना । मन राखहु जहाँ कृपा निधाना ।
कर्म के इस प्रकार में जीव का पूरा ध्यान भगवत स्मरण में रहते हुए अपने उन सांसारिक कार्यों का निष्पादन करना जो भक्ति में बाधक न हों​ । इसका फल भगवत प्राप्ति है तथा इस प्रकार के कर्म को सराहा गया है।

कर्म सन्यास

इस प्रकार के कर्म में जीव सदैव भगवत स्मरण करता रहता है तथा वैदिक कर्मकांडों का पूर्णतया त्याग कर देता है। अतः इस जीव को भी भगवत प्राप्ति होती है तथा इस प्रकार के कर्म की भी सराहना की गई है।

विकर्म

वेद में विधि निषेध लिखा गया है। विधि यथा सत्य बोलना, दूसरों का सम्मान करना। निषेध यथा चोरी न करना, दूसरों को पीड़ा न पहुँचाना। वेद की 80000 ऋचाएँ हमें विधि अनुसार जीवन जीने के लिए बताती हैं परंतु यदि कोई इन ऋचाओं का उल्लंघन करे अर्थात निषेधात्मक कर्म करे तो ऐसे कर्म को विकर्म कहते हैं।
इस प्रकार के कर्म को निषेध बताया गया है। जो इस प्रकार का कर्म करता है उसे विक्रमी कहते हैं तथा इसका फल नर्क होता है।

पुण्य कर्म

पुण्य कर्म क्या है? विभिन्न प्रकार के कर्मों एवं उनके फलों को जानने के पश्चात यदि आप शायद संशय में हैं तो आप अकेले ऐसे व्यक्ति नहीं हैं। अनंत काल से हम सभी को यही विश्वास है कि वेदों में वर्णित कर्मकांडों को विधिवत करना ही पुण्य कर्म है। परंतु पूरा लेख पढ़ने के पश्चात आपको यह ज्ञान हो गया होगा कि कलयुग में कर्मकांडों को सही सही करना लगभग असंभव और यदि आपने कर भी लिया तो कर्म बंधन में बंध जाएंगे। इसलिए अब आपको आश्चर्य हो रहा होगा की पुण्य कर्म हैं क्या?

अच्छा प्रश्न किया; इसके लिए लेख को आगे पढ़ें।

कर्मकांड जीव को कर्म-बंधन में बांधता है।  अतः यद्यपि कर्मकांड निन्दनीय​ नहीं है परंतु वंदनीय भी नहीं है। अतः बुद्धिमान जीव इसे नहीं अपनाता है।

जीव के लिये  कर्मयोग तथा कर्म सन्यास दोनों अपनाने योग्य धर्म हैं। ये दोनों अपने-अपने तरीके से कर्म-बंधनों को काटते हैं और हमको सदा के लिए सुख, शांति, आनंद की प्राप्ति कराते हैं। दूसरी ओर विकर्म निन्दनीय है तथा यह कर्म बंधन को बढ़ा देता है और वर्तमान जीवन को भी दुखमय बनाता है।

गृहस्थियों के लिए कर्मयोग सर्वश्रेष्ठ अपनाने योग्य कर्म है। इसमें जीव अपने सांसारिक दायित्वों का निर्वहन करते हुए मन को भक्तिमय रखता है। कालांतर में मन पूर्णतया भक्तिमय होने के पश्चात जीव को अपने शरीर का भान भी नहीं रहता। उस समय स्वयं भगवान उसका योगक्षेम वहन करते हैं।

जैसा श्री कृष्ण ने गीता में कहा है - (9.22)
अन्याश्चिन्तयन्तो मां, ये जनाः पर्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां, योगक्षेमं व हाम्यहम्॥ गीता ९.२२
कोई भी सांसारिक अथवा आध्यात्मिक कर्म आपको दिव्य फल तब तक नहीं देगा जब तक कि आप सच्चे मन से भगवान का स्मरण नहीं करेंगे। भगवान आपके मन के चिंतन को नोट करता है। आपका मन भगवान की पूजा करते समय यदि संसार में में अनुरक्त है तो आपको पूजा का कोई फल नहीं मिलेगा। पर यदि इंद्रियों से संसार का कार्य करते समय मन भगवान में हैं तो आपको पूरा आध्यात्मिक लाभ मिलेगा।

वास्तव में भक्ति अर्थात प्रेम इंद्रियों का विषय नहीं है। हरि गुरु की पूर्ण शरणागति अर्थात मन बुद्धि का पूर्ण समर्पण ही भक्ति है।
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तृण के समान दीन भाव होना चाहिए
दीनता का विरोधी है यह​ अहंकार। चैतन्य महाप्रभु के अनुसार :-
तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना।
अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः॥
चै. महा.
Pictureजो पेड़ फलों से लदा होता है वह झुकता है, दूसरों के द्वारा फेंके गए पत्थरों का जवाब उनको मीठे फल देकर के देता है ।
जो पेड़ फलों से लदा होता है वह झुकता है, दूसरों के द्वारा फेंके गए पत्थरों का जवाब उनको मीठे फल देकर के देता है ।कोई भी जीव तृण के समान दीन तथा तरु के समान सहिष्णु भाव, स्वयं का सम्मान ना चाह कर दूसरों को सम्मान देने की भावना रखे बिना भक्ति की शुरुआत भी नहीं कर सकता क्योंकि भक्ति की आधारशिला ही दीनता है। जब कोई व्यक्ति घास पर पैर रखता है तो घास उसको कोमलता प्रदान करती है और पैर हटने के पश्चात पुनः यथावत हो जाती है ।इसी प्रकार फलों से लदा पेड़ झुक जाता है और व्यक्ति के द्वारा पत्थरों से फलों को तोड़ने पर उनको फल देता है।

इंद्रियों के द्वारा की गई क्रियाएँ  वास्तविक भक्ति में सहायक होती हैं। परंतु हमें केवल इंद्रियों की भक्ति तक ही सीमित नहीं रहना है। हमें अपने मन को ही भक्ति में लगाना है अन्यथा इंद्रियों की भक्ति किसी काम नहीं आएगी। अतः हमें अपने मन तथा इंद्रियों दोनों को भक्ति में लगाए रखना है तभी भक्ति के सकारात्मक परिणाम प्राप्त होंगे।

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