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सिद्धा भक्ति​

Read this article in English
भगवान की अंतरंग कर्तुमकर्तुम अन्यथा कर्तुम समर्था दिव्य शक्ति है जिसे स्वरूप शक्ति कहा जाता है। जैसे ही साधक साधना भक्ति आरंभ​ करता है, गुरु की कृपा से, स्वरूप शक्ति साधक के मन में प्रवेश करती है और उसे सभी भौतिक कामनाओं से मुक्त करना आरंभ​ कर देती है । भाव भक्ति की चरम सीमा पर, मन सभी भौतिक कामनाओं से मुक्त हो जाता है और भगवान से मिलने की लालसा चरम सीमा पर होती है। इसी क्षण में गुरु साधक के मन को दिव्य बनाते हैं और दिव्य प्रेम प्रदान करते हैं। भगवान तुरंत भक्त के सामने प्रकट हो जाते हैं और माया को हमेशा के लिए दूर कर देते हैं। यह सिद्ध भक्ति दिव्य उपहार है और इसे प्रेमा भक्ति भी कहा जाता है।

परात्पर ब्रह्म श्री कृष्ण आनंद-स्वरूप हैं । आनंददायिनी शक्ति को ह्लादिनी शक्ति कहा जाता है जिसका अर्थ है "आनंद देने वाली"। ह्लादिनी शक्ति का सार भूत तत्व​ प्रेम है। भगवद्-प्राप्ति पर गुरु इस​ प्रेम का दान करते हैं​ इसलिए यह​​ ​प्रेम साधना भक्ति का फल नहीं है ।

प्रेमा भक्ति के स्तर

भगवद् प्रेम अनंत मात्रा का और सनातन तत्व​ है। फिर भी श्रीकृष्ण के साथ सम्बन्ध​ की मधुरता और अंतरंगता के आधार पर इसे आठ स्तरों में विभाजित किया जाता है -
Relation ship between Bhav and levels-of-bhakti
आसानी से समझने के लिए कृपया चित्र पर क्लिक करें और इसे फिल्म के रूप में देखें

प्रेमा भक्ति

यह​ दिव्य​ प्रेम का पहला सोपान है​, जो भगवद्-प्राप्ति पर गुरु की कृपा से ही प्राप्त होती है। दो प्रकार के भक्त इस अवस्था को प्राप्त करते हैं - 
1. वे जो श्री कृष्ण के ही ऐष्वर्य वाले परमात्मा स्वरूप महाविष्णु की उपासना करते हैं
2. वे जो साधारणी रति से श्री कृष्ण की उपासना करते हैं

स्नेह भक्ति

संस्कृत शब्द स्नेह का अर्थ तेल है । इस अवस्था में प्रेम उत्कृष्टता को प्राप्त होता है। प्रेमिका हर समय प्रियतम​ को अपने संग अनुभव करती है और इससे प्रेमिका का हृदय​ द्रविभूत हो जाता है।

जब हृदय में स्नेह का प्रादुर्भाव होता है​ तो श्यामसुन्दर से मिलने की लालसा बढ़ती जाती है ।
आरूह्य परमां काष्ठां प्रेमा चिद्दिपदीपनः । हृदयं द्रावयन्नेष, स्नेह इत्यभिधीयते ।

अत्रोदिते भवेज्जातु न तृप्तिर्दशनादिषु ॥ उ.नी.म​. ७९

हमारो सहज सनेही श्याम​... प्रेम रस मदिरा (विरह माधुरी २०४)

अङ्गसङ्गे विलोके च श्रवणादौ स च कमात् । कनिष्ठो मध्यमो श्रेष्ठस्त्रिविधोऽयं मनोद्रवः । उ.नी.
"जब चित्त श्याम सुन्दर के अङ्ग सङ्ग से द्रविभूत होता है तो इसे कनिष्ठ कहते हैं । जब दर्शन से होता है तो इसे मध्यम और जब श्रवण मात्र से ही उत्पन्न हो तो उसे श्रेष्ठ माना जाता है ।"
स्नेह दो प्रकार का - घृत स्नेह​, मधु स्नेह ॥

घृत स्नेह

स घृतं मधुचेत्यक्तः  स्नेहो द्वेधा स्वरूपतः ॥ आत्यन्तिकादरमयः स्नेहो घृतमितीर्यते ॥
घृत का अर्थ है घी । घी गर्म होने पर पिघल जाता है लेकिन ठंड में जम जाता है। इसी प्रकार, घृत स्नेह प्रेमी का हृदय प्रेम में तब​ पिघलता है जब प्रियतम का लाड़-दुलार तथा संग​ प्राप्त​ होता और उनके अभाव में उसका प्रेम में न्यूनता आ जाती है । घी तभी मीठा लगता है जब उसे चीनी के साथ मिलाया जाए, अन्यथा नहीं।

घृत स्नेह में भाव है "मैं उन​की हूँ" भाव की प्रधानता होती है ​।
Ghrit Sneh
घी को गर्म करने से वह पिघल जाता है ।

मधु स्नेह

घी के विपरीत, शहद (मधु) मीठा होता है और तापमान में उतार-चढ़ाव से इसकी स्थिरता पर कोई विशेष​ प्रभाव नहीं पड़ता है। मधु स्नेह शहद के समान है । यह प्रेम प्रियतम के लाड़-दुलार तथा सानिध्य की अपेक्षा नहीं रखता अतः उन​के बिना भी बढ़ता है, तथा कभी न्यूनता नहीं आती ।
मदीयत्वादतिशयभाक् प्रिये स्नेहो भ्वेन्मधुः ।
मधु स्नेह में प्रमुख भावना है "श्री कृष्ण मेरे हैं" इसलिए मैं उनसे प्यार करती हूँ । मधु स्नेह को घृत स्नेह से श्रेष्ठ माना गया है।
प्रेम का एक और रूप है जिसे लाक्षावत स्नेह कहा जाता है । लक्ष (लाख​) एक राल है जिसका उपयोग लिफ़ाफ़े बंद (सील) करने के लिए किया जाता है। इसे पिघलाने के लिए इसे बहुत​ गर्म करना पड़ता है । जब तक यह गर्म रहता है तब तक यह पिघला हुआ रहता है । इस श्रेणी के भक्तों का हृदय तभी पिघलता है जब उन्हें अपने प्रियतम की भरपूर सानिध्य व प्रेम प्राप्त हो । भरपूर सानिध्य व प्रेम के अभाव में उनका प्रेम शिथिल​ हो जाता है । प्रेम का यह रूप घृत स्नेह से भी निम्नतर है।
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लिफाफा सीलिंग वैक्स से सील किया गया

मान भक्ति

स्नेहस्तूकृष्टतावाप्त्या माधुर्यंमानयन्नवम्। यो धारयत्यदाक्षिण्यं स मान इति कीर्त्यते ॥
जब प्रेम प्रफुल्लित होता है, तो व​ह मधुर हो जाता है और भक्त को युगल सरकार के समीप लाता है। मान अवस्था में भक्त सभी औपचारिकताओं को त्याग देता है। अत्यधिक​ प्रेम होने पर भी प्रेमिका प्रेमास्पद पर​ ​कोप करती है, झिटक​ देती है । उदाहरण के लिए, गोपी के हृदय में प्रियतम श्याम सुंदर के लिए प्रेम उमड़ रहा है । प्रियतम श्यामसुंदर गोपी पर अपना प्रेमामृत बरसाना चाहते हैं परंतु वह प्रेम को अस्वीकार करने का नाटक करती है। वह अपनी अनिच्छा दर्शाने हेतु श्यामसुंदर को डाँटती भी है -
मुंचांचलं चंचल पश्य लोकं बालोऽसि नालोकयसे कलंकम्।
भावं न जानासि विलासिनीनां गोपाल गोपाल पंडितोऽसि ॥

"मेरा हाथ छोड़ दे । क्या तू नहीं जानता कि लोग मुझे बदनाम करने के लिए कहानियाँ गढ़ेंगे। कान्हा ! तू बिल्कुल गँवार है और गाय चराने के अलावा कुछ नहीं जानता ।”

एक गोपी श्यामसुंदर से मिलने के लिए पूरी रात बेचैन रही । पौ फटते ही दही बेचने के बहाने से, वह श्यामसुंदर ​के दर्शन करने के लिये घर से निकली । फिर भी जब श्रीकृष्ण गोपी से मिलने आये है तो वह डाँ​​ट​ती हुई कहती है -
हट खोलो न घूँघट पट ओ नटखट ।
आगे है ननद सास है पाछे, अबहिं होयगी झट खटपट ।
द्वै दिन भये ब्याहु
कहँ मो कहँ, अबहिं जायेगो पिट चटपट ।
"अरे नटखट ! हट जा । मेरे घूँघट न उठा । देख मेरी ननद आगे जा रही है और सास पीछे आ रही है । यदि वे देख लेंगी तो अभी झगड़ा बढ़ जायेगा । वे जाकर मेरे पति को बता देंगी, तो वह लठ से तुझे पीटने आ जायेगा, क्योंकि मेरे विवाह को अभी दो ही दिन हुये हैं । "

प्रणय भक्ति

मान की उच्चतर​​ अवस्था को प्रणय कहा जाता है -
मानोदधानो विश्रम्भं प्रणयः प्रोच्यते बुधैः ॥
प्रेमास्पद श्याम सुंदर से इतनी आत्मीयता है कि वहाँ प्रेमास्पद और प्रेमिका में भेद ही नहीं दृष्टिगोचर होता है । वह कहती है -
कान्ह भये प्राणमय प्राण भये कान्हमय​, हृदै ते न जानि परे प्राण हैं कि कान्ह हैं ।
​“जब मैं श्रीकृष्ण को देखती हूँ तो मुझे लगता है यह मैं हूँ और जब मैं अपना प्रतिबिंब देखती हूँ तो मुझे मेरे प्रियतम दिखाई देते हैं । मैं असमंजस में हूँ कि श्रीकृष्ण कौन हैं और मैं कौन हूँ”।

राग भक्ति

दुखमप्यधिकं चित्ते सुखत्वेनैव व्यंज्यते । यतस्तु प्रणयोत्कर्षात स राग इति कीर्त्यते ॥
"राग में अत्यधिक प्रेम के कारण प्रियतम के सुख के लिए दुःख का अनुभव करना महान आनंद का स्रोत बन जाता है"।

पूर्णता के स्तर पर सहज प्रेम में कई गुणा वृद्धि हो जाती है और भक्त अपने प्रियतम की सेवा करके उसे प्रसन्न करने के अवसर का लाभ उठाए बिना एक क्षण भी नहीं बिता सकता । भक्त को बड़े से बड़े दुःख में भी सुख मिलता है यदि उसका परिणाम श्री राधा कृष्ण की प्रसन्नता हो । इसके विपरीत, यदि स्व​-सुख युगल सरकार के सुख में कोई व्यवधान उत्पन्न करता है तो वही वस्तु भक्त के दुख का कारण बन जाता है । नीचे दिए गए उदाहरण को देखें -
यत्तेसुजातचरणाम्बुरूहं स्तनेषु भीताः शनैः प्रियदधीमहि कर्कषेषु ।
तेनाटवीमटसि तद्व्यथते न किंस्वित्। कूर्पादिभिर्भ्रमतिधीर्भवदायुषां नः ॥

​भाग १०.३१.१०
श्रीकृष्ण के वियोग में गोपियों को एक क्षण एक युग के समान प्रतीत होता है । उनके विरह की व्यथा की कोई सीमा नहीं है ।   विरह की पीड़ा को शांत करने के लिए वे श्यामसुंदर के चरण कमलों का आलिंगन करने के लिए अत्यंत​ व्याकुल​ हैं । श्यामसुंदर के चरण कमल के फूल की पंखुड़ियों से भी अधिक कोमल हैं।  गोपियों के लिए उन चरणों के स्पर्श का आनंद अवर्णनीय है । फिर भी, गोपियों को उनके चरणों की कोमलता और अपनी छाती की कठोरता का भान है । विरह की व्यथा का शांत​ करने के लिये वे बहुत धीरे से उन​के चरणों को अपनी स्तनों पर रखती हैं कि उनके कठोर कुच प्रियतम​ के कोमल चरणों में चुभ न जायें ।

कल्पना करिये ! गोपियों के लिए, श्री कृष्ण को कष्ट पहुँचाने का विचार मात्र विरह की भयानक पीड़ा से भी अधिक असहनीय है । इस प्रेम को कौन समझ सकता है?

अनुराग भक्ति

सदानुभूतमपि यः कुर्यान्नवनवः प्रियम् रागो भवन्नवभवः सोऽनुराग इतीर्यते ॥
अनुराग इतनी उच्च कोटि का प्रेम है कि प्रेयसी श्यामसुंदर की सुंदरता, मधुर वाणी, हावभाव का कितना भी आस्वादन कर ले, वे उसे सदा नए-नए लगते हैं। हर बार उसकी व्यग्रता इतनी होती है मानो वह अपने प्रियतम से प्रथम बार मिल रही है । श्यामसुन्दर दिन भर गौचारण हेतु वन में विचरण करने के उपरांत सायंकाल को वापस लौटते हैं । तो एक गोपी कहती है
अटति यद् भवानह्नि कानने, त्रुतिर्युगायते त्वामपश्यताम्।
कुटिल कुन्तलं च श्रीमुखं च ते, जड़ उदीक्षतां पक्ष्मकृद्दृशाम्॥ भाग १०.३१.१५

भागवत 10.31.15​
"पूरे दिन विरह में तड़पने के बाद, जब मैं तुम्हें देखती हूँ तो मेरे लिये पलकें झपकने के कारण​ एक निमिष के लिए तुम मेरी आखओं से ओझल हो जाते हो । इतना विरह मेरे लिये असहनीय है"। इसलिए वे सृष्टिकर्ता ब्रह्मा पर पलकें बनाने के लिए क्रोध करती हैं कि "ब्रह्मा सठिया गया है। प्रथम​ उसने दो ही आँखें बनाईं । और उनमें भी पलकें बना दीं जो स्वाभाविक रूप से झपकती हैं । जिससे दर्शन में व्यवधान पड़ता है "।
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गोपियों के लिए पलकों का झपकना असहनीय है क्योंकि इससे उन्हें श्रीकृष्ण के दर्शन नहीं होते
अनुराग भक्ति​ में निम्नलिखित विशिष्ट लक्ष्ण स्वतः ही प्रकट ​हो जाते हैं -
परस्पर वशीभावः प्रेमवैचित्त्यकम् तथा । अप्राणिन्यपि जन्माप्त्यै लालसाभर उन्न्तः ।
उज्ज्वल नीलमणि 14.149​
"प्रिया-प्रियतम का एक दूसरे को नियंत्रित करना, प्रेम की विचित्रता, वस्तुओं का मानवीकरण आदि"।

​भगवान कृष्ण कहते हैं -
साधवो हृदयं मह्यं साधूनां हृदयं त्वहम्। मदन्यत्। ते न जानन्ति नाहं तेभ्यो मनगपि ।
भागवत 9.4.68
“मेरा भक्त सदैव मेरे हृदय में रहता है, और मैं सदैव भक्त के हृदय में रहता हूँ । मेरे भक्त मेरे अतिरिक्त और किसी को नहीं जानते और मैं भी उनके अतिरिक्त किसी और को नहीं जानता।" इससे सिद्ध होता है कि श्रीकृष्ण पूर्ण रूपेण अपने भक्तों द्वारा नियंत्रित हैं और उनके भक्त उनके द्वारा नियंत्रित हैं ।

मुरली जड़ वस्तु है ।  श्री राधा मुरली की प्रशंसा करती हुई कहती हैं "मुरली के क्या भाग्य हैं कि श्रीकृष्ण उससे विलग नहीं होते हैं ।"
अलि ! मुरलि के बड़ भाग रे ।
याने जाने कौन कियो तप​, नित मोहन मुख लाग रे ।
निधरक पियत अधर रस निशि दिन, सरस प्रेम रस पाग रे ।
कबहुँक कर कबहुँक उर हरि नहिं, इक छिन कहँ नहिं त्याग रे ।
शुक सनकादि शंभु से योगिहुँ, याय करत अनुराग रे ।
कह कृपालु यह लोकहिं वेदहिं, कुलहिं लगावति दाग रे ॥
प्रे. र​. म.  मुरलि माधुरी
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श्री राधा मुरली की सराहना करते हुए कहती हैं; यह श्री कृष्ण को प्रिय है
"O Sakhi! the flute is extremely blessed. I don't know what austerity it performed to be so intimate with ShyamSundar. Imbued with ShyamSundar's love, it unhesitatingly drinks the nectar of His lips day and night. Besides, sometimes ShyamSundar holds it in His hands and at other times clasps it to His heart. The inference is that ShyamSundar does not leave it even a moment. Up to what extent can we say, even the greatest gyanis Shuk, Sanak etc and the greatest yogis - like  Bhagavan Shankar - are mad about it. In the words of Jagadguru Kripalu Ji Maharaj, the most concerning thing is that it blemishes our ancestral propriety (because, mesmerizing us by its enchanting music , it forces us to forget all decorum)."

इस प्रकार गोपियाँ मुरली से ईर्ष्या करती हैं । वे श्यामसुंदर का अधिक प्रेम और सानिध्य पाने के लिए मुरली बनना चाहती हैं।

अनुराग भक्ति की प्रारंभिक अवस्था सख्य भाव के भक्तों को प्राप्त हो सकती है। वात्सल्य भाव से श्रीकृष्ण की आराधना करने वाले भक्त इस स्तर की शिखर तक पहुँच सकते हैं । और साथ ही माधुर्य भाव की समंजसा रति के भक्त भी इस कक्षा की अन्तिम सीमा तक पहुँच सकते हैं ।

भावावेश भक्ति

अनुरागः स्वसंवेद्यदशां प्राप्य प्रकाशितः । यावदाश्रयवत्तिश्चेद् भव इत्यभिधीयते।
उज्ज्वल नीलमणि 14.154
अनुराग भक्ति की वृद्धि पर  प्रेम और परिष्कृत हो जाता है तब​ भावावेश की समाधि हो जाती है । इस अवस्था में पूर्णता प्राप्त होने पर गोपियाँ महाभाव की अवस्था में प्रवेश करती हैं। ऐसे भक्तों के हृदय में प्रेम की नित नवीन लहरें प्रस्फूटित होती रहती हैं । इस आवस्था में प्रेम के लक्षण छिप नहीं पाते । एक गोपी कहती है -

अनुपम रूप नीलमणि को री ।
प्रति अंगनि छवि कोटि अनंगनि, सुष्मा सुधा सार रस बोरी ।
जिनहिन अंगनि नैनन निरखत​, तिनहिन कहँ कह सरस बड़ो री ।
नख शिख लखि सखि अँखियनहुँ ते, पल पल तलफति देखन को री ।
कह ‘कृपालु’ गागर महँ सागर​, आव न यतन करोर करो री ।
प्रे. र​. म. श्री कृ. माधुरी
Shri Krishna playing flute
"The beauty of Shri Krishna's Divine Form is matchless. Every part of His body is more beautiful that the beauty of countless cupids. Whosoever sees His divine form says it is imbued with divine nectar. Even after seeing His whole form with my own eyes, I still wriggle to see Him. Poet Kripalu Maharaj says -No matter how hard you try, you cannot contain the whole ocean in a pitcher".

महाभाव भक्ति

भाव की पराकाष्ठा महा-भाव में परिवर्तित हो जाती है। यह सूर्य के समान है, जो दो लाभ देता है -
1. अंधकार को समाप्त कर देता है और
2. अपनी किरणों से सब को आच्छादित कर देता है

इसी  प्रकार, श्री राधा-कृष्ण की असिम अनुकम्पा से इन भक्तों के हृदय में महाभाव का संचार होता है । इस स्थिति में स्व-सुख रूपी कामना का अंधकार निर्मूल हो जाता है और भक्त का दिव्य अंतःकरण प्रतिक्षण वर्धमान दिव्य प्रेम के नित नवीन तेज से दैदिप्तमान हो जाता है ।

महाभाव के दो स्तर होते हैं -
स रूढ़श्चाधिरूढ़श्चेत्यच्यते द्विविधो बुधैः । उ. नी
1. रूढ़ भाव​
​2. अधिरूढ़ भाव​

रूढ़ भाव​

उद्दीप्ता सात्विका यत्र स रूढ़ इत्यभिधीयते ।
रूढ़ भाव में अष्ट सात्विक भाव के अनेक लक्षण प्रकट होते हैं। रूढ़ भाव में गोपियाँ उद्दीप्त अवस्था का आनंद लेती हैं । परमानंद की इस अवस्था में प्रेम के लक्षणों को छिपाया या नियंत्रित नहीं किया जा सकता है। यह अवस्था इतनी दुर्लभ है कि श्रीकृष्ण की प्रमुख रानियों को भी अप्राप्य है । जैसा कि रूप गोस्वामी कहते हैं -
मुकुन्दमहिषीवृन्दैरर्प्यसावतिदुर्लभः । ब्रजदेव्यैकसंवेद्यो महाभावाख्ययोच्यते ॥
“रूढ़ भाव केवल उन गोपियों के परम निष्काम हृदय में प्रकट होता है जो एकमात्र श्री राधा कृष्ण के सुख के बारे में ही सोचती हैं अर्थात अन्य कोई विचार उनके मस्तिष्क में आता ही नहीं । इन गोपियों को आत्म-सुख की किन्ञित मात्र भी इच्छा नहीं है"। स्व​-सुख कामना गंध लेशशून्य श्रीकृष्ण सुखैक भक्ति करती हैं ।

अधिरूढ़ भाव​

रूढ़ोत्येभ्योऽनुभावेभ्यः कामप्याप्ता विशिष्टताम् । यत्रानिभावा दृश्यन्ते, सोऽधिरूढ़ो निगद्यते ॥
उ. नी.
"अधिरूढ़ भाव में प्रेम के अनेक लक्षण प्रकट होते हैं। अधिरूढ़ भाव में गोपियाँ अष्ट सात्विक भाव की उद्दीप्त अवस्था तक जाती हैं । परमानंद की इस अवस्था में प्रेम के लक्षणों को छिपाया या नियंत्रित नहीं किया जा सकता है" । यह अवस्था इतनी दुर्लभ है कि श्रीकृष्ण की प्रमुख रानियों को भी अप्राप्य है ।

जैसा कि रूप गोस्वामी कहते हैं
मोदनो मादनाख्यचासाव​धिरूढ़ो निगद्यते
अधिरूढ़ भाव दो प्रकार के होते हैं - ​मोदन महाभाव, मोहन महाभाव

मोदन महाभाव

मोदनः स द्वयोऽत्र सात्विकोद्दीप्त सौष्ठवम् ।
मोदन महाभाव की उच्च अवस्था में भक्त​ अष्ट सात्विक भाव की उद्दीप्त अवस्था में निरंतर रहता है
राधिकायूथ एवासौ मोदनो न तु सर्वतः । यः श्रीमान् ह्लादिनी शक्तेः सुविलासः प्रियो वरः ॥           उ. नी.
“यह श्री राधा के परम अंतरंग सखियों में ही पाया जाता है। सात्विक भावों के अनेक लक्षण निरन्तर प्रकट होते रहते हैं । इस अवस्था में कोई कष्ट नहीं होता”।

​यह स्थिति श्री राधा, श्री कृष्ण और अष्ट महासखी में पाई जाती है। ये लक्षण केवल​ श्रीराधा की कृपा से ही प्रकट होते हैं ।

मोहन महाभाव

वही मोदन महाभाव वियोग में और भी अधिक अस्पष्ट रूप में परिवर्तित हो जाता है और उस परमानंद की स्थिति को मोहन महाभाव कहा जाता है।
मोदनोऽयं प्रविश्लेषदशायां मोहनो भवेत्। यस्मिन् विरहवैवश्यात् सूद्दीप्ता एव सात्विकाः ॥
"प्रेम की इस अनिर्वचनीय स्थिति में अष्ट सात्विक भाव लुप्त हो जाते है और केवल विरह वेदना रह जाती है। यह भावना इतनी विलक्ष्ण है कि प्रियतम शयामसुंदर को आलंगित करते समय भी, श्री राधा को विरह की असहनीय पीड़ा अनुभव होती है। श्रीकृष्ण उसी सिंहासन पर विराजमान हैं अथवा श्रीकृष्ण की गोद में अपना सिर रखकर भी श्रीराधा विरह का अनुभव करती हैं । प्रियतम श्यामसुन्दर उन्हें याद दिलाते रहते हैं, “हे मेरी प्यारी राधे ! देखो मैं यहीं हूँ । तुम मेरी बाहों में हो. मैं तुम से बात कर रहा हूँ।" लेकिन उन्हें विरह की असहनीय पीड़ा हो रही है। प्रियतम की भुजाएँ श्रीराधा को सर्प प्रतीत हो रही हैं । यह स्थिति सृष्टिकर्ता ब्रह्मा और भगवान शंकर जैसी बुद्धि से भी परे है ।
   
श्री राधा रानी की विरह अवस्था में उनकी अवरणीय गरिमा की झलक मात्र निम्नलिखित श्लोक में दर्शायी है -
और्वस्तोमात्कटुरपि कथं दुर्बलेनोरसा मे, तापः प्रौढ़ो हरि विरहजःसह्यते तत्र जाने ।
निष्कान्ता चेद्भवति हृदयाद्यस्य धूमच्छटाऽपि, ब्रह्माण्डामपि सखि ज्वालया जाज्वलेति ॥

बहुत समय तक श्री कृष्ण से विरह की ज्वाला सहने के बाद श्री राधा अपनी अंतरतम सखी विशाखा से कहती हैं, “हे सखी! श्याम सुन्दर के वियोग में मेरा हृदय बड़वानल* से भी अधिक झुलसाने वाली अग्नि में जल रहा है। मुझे समझ नहीं आता कि मैं इसे किस शक्ति से इसे सहन कर रही हूँ । हाय​! यदि इस लौ के आभास की जितनी (थोड़ी सी) ऊष्मा भी यदि मेरे हृदय से बाहर निकल जाए तो पूरी सृष्टि तुरंत जलकर राख हो जाएगी । 

* प्रलयकाल में भगवान शिव के तीसरे नेत्र से जो धधकती अग्नि निकलती है उसे बड़वानल कहते हैं । यह किसी का विचार नहीं करती, अपने मार्ग में आने वाली हर वस्तु को भस्म कर देती है।

यह प्रेम मुख्य रूप से दो प्रकार से व्यक्त होता है - उद्घुर्णा और चित्रजलप ।

उद्घुर्णा

उदघुर्णा, प्रियतम श्रीकृष्ण से वियोग के असहनीय वेदना में उत्पन्न विभिन्न भावों की स्थिति है।

चित्रजलप

श्रीकृष्ण के महारास से अलक्षित होने पर गोपियों का विलापश्रीकृष्ण के महारास से अलक्षित होने पर गोपियों का विलाप
विरह वेदना को भीतर​ छिपा कर रखने पर​ प्रस्फुटित भावों को चित्रजल्प की संज्ञा दी जाती है । यह​ अनुपस्थित प्रियतम से हृदय विदारक अनुनय की अवस्था है । चित्र जल्प 10 प्रकार के होते हैं - 
  1. प्रजल्प
  2. परिजल्प
  3. विजल्प
  4. उज्जल्प
  5. सन्जल्प
  6. अभिजल्प
  7. अविजल्प
  8. आजल्प
  9. प्रतिजल्प
  10. सुजल्प

चित्रजल्प की इन सभी अवस्थाओं की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति श्रीमद्भागवत महापुराण के 10वें स्कंध के गोपी गीत में है। गहनतम प्रेम की इस दिव्य अवस्था को दिव्योन्माद के नाम से भी जाना जाता है।

मादन​

अधिरूढ़ महाभाव की दो अवस्थाओं में से मादन (केलि रस की मादकता) अवस्था में दिव्य प्रेम के सभी लक्ष्णों का पूर्ण विकास है। इस आनंद का अनुभव एकमात्र​ श्रीराधा ही करती हैं ।
सर्वभावोद्रगमोल्लासी मादनोऽयं परत्परः ।  
राजते ह्लादिनी सारो राधायामेव यः सदा ॥

यहाँ तक कि पूर्णब्रह्म श्री कृष्ण (जिन्हें पर तत्व कहा जाता है) भी प्रेम की इस विशिष्ट स्थिति तक नहीं पहुँच सकते । इस आनंद से परे कुछ भी नहीं है । इसीलिए इस अवस्था को परात्पर कहा जाता है, जिसका अर्थ है कि यह पर (अर्थात श्री कृष्ण) से परे है । महाभाव के प्रकट होने पर, श्री राधा एक ही समय में, प्रिय श्री कृष्ण के सभी गुणों के असीमित आनंद का अनुभव करती हैं । जैसे एक साथ उनके दर्शन का, उन्हें स्पर्श करने का, उससे बात करने का, उनके चुम्बन का, उनके आलिंगन का, उनकी सुगंध आदि का आनंद लेती हैं ।

यद्यपि श्री राधा प्रेम की सर्वोच्च कक्षा का मूर्तिमान स्वरूप हैं, अर्थात वह seat जहाँ श्री कृष्ण भी नहीं पहुँच सकते, फिर भी वे प्रियतम श्यामसुंदर की हर वस्तु पर मोहित हैं । यह बात मनुष्य तो क्या, सृष्टिकर्ता भगवान ब्रह्मा, भगवान शंकर, महर्षि नारद आदि की भी समझ से परे है ।
श्री राधा, प्रेम, सर्वोच्च कक्षा , मूर्तिमान स्वरूप
श्री राधा - प्रेम की सर्वोच्च कक्षा का मूर्तिमान स्वरूप
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