मेरी भक्ति क्यों नहीं बढ़ रही है? |
प्रश्न
मैं नियमित रूप से साधना कर रहा हूँ और रूपध्यान का प्रयास कर रहा हूँ । फिर भी मेरी भक्ति में कोई उल्लेखनीय सुधार क्यों नहीं हो रहा है?
उत्तर
'साधना' शब्द का अर्थ है कुछ हासिल करने के लिए प्रयास करना । भक्ति के अभ्यास को साधना भक्ति की संज्ञा दी जाती है। इस साधना भक्ति का एकमात्र लक्ष्य अपने मन को सांसारिक वस्तुओं से हटाकर भगवान् से जोड़ने का अभ्यास करना है। अर्थात साधना भक्ति का उद्देश्य मन की शुद्धि है । संसार जड़ है अतः इसमें कोई सुख या दुःख नहीं है। इसलिए यह संसार सुख दुःख कुछ भी नहीं दे सकता। लेकिन संसारी पदार्थों को प्राप्त करने की पूर्ण तथा अपूर्ण कामनाओं के कारण जीव सुखी-दुखी होता रहता है [1]। जी हाँ, कामना की अपूर्ति पर तो दुःख मिलता ही है, कामना के पूर्ण होने पर भी जीव को दुःख प्राप्त होता है। जब कामना पूर्ण हो जाती हैं तो क्षणिक सुख की अनुभूति होती है और फिर लोभ बढ़ जाता है। वह लोभ व्यक्ति को दुःख देता है। संसार के विपरीत भगवान् आनंद का अथाह सागर है। तो, मन को उससे जोड़ने से आपको (जीव को) आनंद मिलता है।
दूसरे शब्दों में, मायिक संसार से वैराग्य बढ़ाने और दिव्य असीम आनंद सिंधु भगवान् से प्रीति बढ़ाने के लिए साधना करनी होगी। आनंद और भगवान् पर्यायवाची हैं। जीव चेतन है परंतु अकर्ता है। यद्यपि मन जड़ है, फिर भी जीव से प्राप्त शक्ति से मन सभी इंद्रियों[2][3] पर शासन करता है। अत: शास्त्र मन को ही कर्ता मानते हैं। मायाबद्ध जीव का मन मायिक है इसलिये इसका मायिक संसार से तादात्म्य संबंध है। अत: मन का मायिक जगत् के प्रति स्वाभाविक आकर्षण होता है [4]। इसलिए, दो अभ्यास करने होंगे -
1. भगवान् से प्रेम बढ़ाने का अभ्यास [5][6],
2. मायिक जगत् से वैराग्य ।
मैं नियमित रूप से साधना कर रहा हूँ और रूपध्यान का प्रयास कर रहा हूँ । फिर भी मेरी भक्ति में कोई उल्लेखनीय सुधार क्यों नहीं हो रहा है?
उत्तर
'साधना' शब्द का अर्थ है कुछ हासिल करने के लिए प्रयास करना । भक्ति के अभ्यास को साधना भक्ति की संज्ञा दी जाती है। इस साधना भक्ति का एकमात्र लक्ष्य अपने मन को सांसारिक वस्तुओं से हटाकर भगवान् से जोड़ने का अभ्यास करना है। अर्थात साधना भक्ति का उद्देश्य मन की शुद्धि है । संसार जड़ है अतः इसमें कोई सुख या दुःख नहीं है। इसलिए यह संसार सुख दुःख कुछ भी नहीं दे सकता। लेकिन संसारी पदार्थों को प्राप्त करने की पूर्ण तथा अपूर्ण कामनाओं के कारण जीव सुखी-दुखी होता रहता है [1]। जी हाँ, कामना की अपूर्ति पर तो दुःख मिलता ही है, कामना के पूर्ण होने पर भी जीव को दुःख प्राप्त होता है। जब कामना पूर्ण हो जाती हैं तो क्षणिक सुख की अनुभूति होती है और फिर लोभ बढ़ जाता है। वह लोभ व्यक्ति को दुःख देता है। संसार के विपरीत भगवान् आनंद का अथाह सागर है। तो, मन को उससे जोड़ने से आपको (जीव को) आनंद मिलता है।
दूसरे शब्दों में, मायिक संसार से वैराग्य बढ़ाने और दिव्य असीम आनंद सिंधु भगवान् से प्रीति बढ़ाने के लिए साधना करनी होगी। आनंद और भगवान् पर्यायवाची हैं। जीव चेतन है परंतु अकर्ता है। यद्यपि मन जड़ है, फिर भी जीव से प्राप्त शक्ति से मन सभी इंद्रियों[2][3] पर शासन करता है। अत: शास्त्र मन को ही कर्ता मानते हैं। मायाबद्ध जीव का मन मायिक है इसलिये इसका मायिक संसार से तादात्म्य संबंध है। अत: मन का मायिक जगत् के प्रति स्वाभाविक आकर्षण होता है [4]। इसलिए, दो अभ्यास करने होंगे -
1. भगवान् से प्रेम बढ़ाने का अभ्यास [5][6],
2. मायिक जगत् से वैराग्य ।
यह हमारा रोजमर्रा का अनुभव है कि बीमारी को ठीक करने के लिए दवा के साथ-साथ परहेज भी करना होता है। डायबिटीज के मरीज को दवा देते समय डॉक्टर उन्हें चीनी कम खाने की हिदायत भी देते हैं। इसी प्रकार, वेद शास्त्र जीव को भक्ति का अभ्यास करते समय मन को संसारी विषयों से दूर रखने की सलाह देते हैं। जब तक आग को ईंधन मिलता रहेगा वह बुझेगी नहीं ।
तो, वे कौन सी चीजें हैं जिनसे जीव को बचना चाहिए? यह अगले भाग का विषय है।
तो, वे कौन सी चीजें हैं जिनसे जीव को बचना चाहिए? यह अगले भाग का विषय है।
अनर्थ
अधिकांश लोग अभ्यास पर अधिक ध्यान देते हैं और परहेज का पालन नहीं करते [7]। कुछ परहेज स्पष्ट और पालन करने में आसान हैं, जैसे नास्तिकों की संगति से बचना, झूठ बोलना, चोरी करना आदि। अनेक कर्म साधारण लग सकते हैं लेकिन अनजाने में उनसे भक्ति की हानि हो सकती हैं। इन दोषों को अनर्थ कहते हैं और ये आपकी साधना में बाधा उत्पन्न कर सकते हैं।
अनर्थ मुख्यतः चार प्रकार के होते हैं -
अनर्थ मुख्यतः चार प्रकार के होते हैं -
वैदिक अनुष्ठान करने और वर्णाश्रम धर्म का पालन करने से सदाचारी व्यक्ति होने का अहंकार पैदा हो सकता है [8]। सदाचारी होना स्वर्गीय सुखों की प्राप्ति की कामना को जन्म देता है [4][9] । वेद प्रणीत वर्णाश्रम धर्म का पालन करने से जब स्वर्ग के ऐश्वर्य के भोग की कामना प्रधान हो जाती है, तब भक्ति प्राप्त करने की कामना गौड़ हो जाती है। इससे भक्ति के उज्ज्वल पट पर कलंक लग जाता है। वेदों की प्रत्येक ऋचा साधक को परमब्रह्म की ओर प्रेरित करती है। वैदिक ज्ञान के उद्देश्य को सदा मस्तिष्क में रखना अत्यावश्यक है। वैदिक उपदेशों का पालन बाहरी पुरस्कार या मान-सम्मान पाने के लिए नहीं होना चाहिए। वरन् वैदिक उपदेशों का पालन करने का एकमात्र लक्ष्य आंतरिक शांति और परमब्रह्म के सम्मुख होना होना चाहिए ।
इसलिए, वर्णाश्रम धर्म का पालन, वैदिक अनुष्ठान आदि करना भक्ति में बाधा डालता है इसलिये इन्हें सुकृतजात अनर्थ कहा जाता है।
इसलिए, वर्णाश्रम धर्म का पालन, वैदिक अनुष्ठान आदि करना भक्ति में बाधा डालता है इसलिये इन्हें सुकृतजात अनर्थ कहा जाता है।
दूसरों को पीड़ा पहुँचाना, मादक पदार्थों का सेवन (नशा), चोरी और जुआ जैसी आदतों को दुष्कृतजात अनर्थ कहा जाता है। यद्यपि अधिकांश जनता इस बात से सहमत होगी कि यह कुकर्म है [10] अतः इनको नहीं करना चाहिए। तथापि जीव अपनी आसक्ति अथवा सुख के लिए ऐसे कार्य करते हैं। प्रत्येक साधक को इन अनर्थों से बचाना चाहिए क्योंकि ये आपकी भक्ति की गति को मंद कर देते हैं।
भक्त के प्रति किए गए गए छोटे-बड़े सभी अपराध अपराधजन्य अनर्थ कहलाते हैं। इन अपराधों के कारण प्रेम का अंकुर सूख जाता है। किसी भक्त का अपमान करना या उसकी अन्य से तुलना करना, उसकी भक्ति को कम आंकना, उन्हें मानसिक या शारीरिक पीड़ा पहुँचाना और उनकी आध्यात्मिक प्रगति पर संदेह करना जैसे कर्म भक्त के प्रति अपराध माने जाते हैं।
श्री रूप गोस्वामी कहते हैं -
श्री रूप गोस्वामी कहते हैं -
भावोऽप्यभावमायाति कृष्णप्रेष्ठापराधतः ।
"भगवत-प्राप्त संत के प्रति अपराध से आध्यात्मिक पतन निश्चित है [11], भले ही साधक भाव भक्ति की स्थिति तक पहुँच चुका हो।"
अपने गुरु में दोष देखना या उनका अनादर करना अक्षम्य आध्यात्मिक अपराध [12] हैं।
अपने गुरु में दोष देखना या उनका अनादर करना अक्षम्य आध्यात्मिक अपराध [12] हैं।
विष्णुस्थाने कृतं पापं गुरुस्थाने प्रमुच्यते । गुरुस्थाने कृतं पापं बज्रलेपो भविष्यति ॥
"भगवत-प्राप्त संत को भगवान् के प्रति किए गए अपराध को क्षमा करने की अनुमति है। परंतु गुरु के प्रति किया गया अपराध भगवान् क्षमा नहीं करते। उनका फल जीव को भोगना ही पड़ता है।”
वेदों में इन अपराधों के प्रायश्चित [12] के लिए कोई कर्म नहीं हैं। भगवान् के लिए अपने प्राणों-से-अधिक-प्रिय-जन के प्रति किया गया अपराध असहनीय है। अतः संत के विरुद्ध अपराध करने का दण्ड तो भोगना ही पड़ता है [12]।
वेदों में इन अपराधों के प्रायश्चित [12] के लिए कोई कर्म नहीं हैं। भगवान् के लिए अपने प्राणों-से-अधिक-प्रिय-जन के प्रति किया गया अपराध असहनीय है। अतः संत के विरुद्ध अपराध करने का दण्ड तो भोगना ही पड़ता है [12]।
अपनी थोड़ी सी भक्ति का अहंकार करना तथा दूसरों को हीन समझना भक्तिजात अनर्थ कहलाता है। ऐसी वृत्ति से भक्ति का बीज सूख जाता है। उदाहरण के लिए, मन की शुद्धि के लिए प्रेम के आँसू बहाने होंगे और प्रियतम से मिलने की लालसा बढ़ानी होगी। यदि प्रेम को गुप्त रखने के स्थान पर जीव लोकरंजन के लिए दिखावा करे, मानो उसे गोपी-प्रेम नामक दिव्य प्रेम का आनन्द प्राप्त हो गया हो तो इस व्यवहार के परिणामस्वरूप अब तक की गई भक्ति छिन जाती है। शास्त्र कहते हैं -
गुहितस्य भवद् वृद्धिः, कीर्तितस्य भवेत् क्षयः॥
महाभारत
महाभारत
"ईश्वरीय प्रेम की प्रकृति के अनुसार, छुपाने पर यह बढ़ता है और दिखावा करने पर कम हो जाता है।" यदि इसे छुपाया न जाए तो इससे अहंकार बढ़ता है जो कि ईश्वर का विरोधी है।
तो, जब ये अपराध इतने हानिकारक हैं तो इसका उपचार क्या है? उत्तर जानने के लिए आगे पढ़ें ।
तो, जब ये अपराध इतने हानिकारक हैं तो इसका उपचार क्या है? उत्तर जानने के लिए आगे पढ़ें ।
अब प्रश्न यह उठता है कि माया के चंगुल में असंख्य जन्मों से फंसे जीव अभ्यास वश अपराध करते आ रहे हैं । ऊपर से इन अनर्थ का परिणाम इतना भयंकर है । इनसे जीव बचे कैसे ? मेरी बिगड़ी कैसे बनेगी ? हाँ आपका प्रश्न सुंदर है । उत्तर के लिये आगे पढ़ें ।
इन अनर्थों की जानकारी, बचाव की ओर पहला कदम है। जैसा कि पहले चर्चा की गई है, उपरोक्त अनर्थों से बचकर साधना भक्ति का निरंतर अभ्यास ही एकमात्र उपाय है। साधना से धीरे-धीरे सारे अनर्थ कम हो जाएँगे। निष्ठापूर्वक नियमित साधना करने के अतिरिक्त कोई अन्य प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है। जिस प्रकार भोजन के सेवन से स्वतः ही शक्ति और संतुष्टि मिलती है, उसी प्रकार भक्ति के अभ्यास से ज्ञान और वैराग्य स्वतः आते हैं ।
जैसे-जैसे भक्ति बढ़ती है, अनर्थ धीरे-धीरे समाप्त हो जाता है। इस अपव्यय को अनर्थ-निवृत्ति कहा जाता है -
जैसे-जैसे भक्ति बढ़ती है, अनर्थ धीरे-धीरे समाप्त हो जाता है। इस अपव्यय को अनर्थ-निवृत्ति कहा जाता है -
1. एकदेशवर्तनी अनर्थ-निवृत्ति
इस दृढ़ संकल्प के साथ साधना आरंभ करें कि मन को श्री कृष्ण में संलग्न करना ही लक्ष्य है। इसे एकदेशवर्तनी अनर्थ-निवृत्ति कहा जाता है।'
2. बहुदेशवर्तिनी अनर्थ-निवृत्ति
बार-बार अभ्यास करके जीव मायिक विकारों पर कुछ नियंत्रण कर लेता है । मन भी भगवान् का आसानी से ध्यान कर देता है । जब यह हो जाए तो यह बहुदेशवर्तिनी अनर्थ-निवृत्ति है। यह साधना भक्ति के उन्नत चरण में होता है।
3. प्रायिकी अनर्थ-निवृत्ति
अपने मायिक विकारों पर काफी हद तक नियंत्रण रखने को प्रायिकी अनर्थ-निवृत्ति कहा जाता है। यह भाव भक्ति के मध्य चरण में होता है । इस स्थिति में मन अच्छी तरह रूप ध्यान करने का अभ्यस्त हो जाता है और अधिकांश सांसारिक आसक्ति नष्ट हो जाती है।
4. पूर्णा अनर्थ-निवृत्ति
यह भी भागवत-प्राप्ति से पहले होता है। इस अवस्था में लगभग सभी सांसारिक मोह-माया समाप्त हो जाते हैं। साथ ही माया के सभी विकार भी लगभग समाप्त हो जाते हैं। इस अवस्था को पूर्ण अनर्थ-निवृत्ति के नाम से जाना जाता है। यह स्थिति भाव भक्ति के शिखर पर पहुँचने पर आती है। कृपया जान लें कि इस स्तर पर भी, माया का आवरण अभी भी है, इसलिए संसार से बहुत कम मात्रा में राग-द्वेष अभी भी रहता है।
5. आत्यन्तिक अनर्थ निवृत्ति
इस अवस्था में सभी प्रकार के अनर्थ सदा सदा के लिए नष्ट हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त समस्त अनर्थ तथा पूर्ण अनर्थों को जन्म देने वाली माया दोनों का अत्यंताभाव हो जाता है। इसे आत्यंतिक अनर्थ-निवृत्ति कहा जाता है। यह अवस्था माया निवृत्ति और ईश्वर-प्राप्ति के बाद प्राप्त होती है।
इस दृढ़ संकल्प के साथ साधना आरंभ करें कि मन को श्री कृष्ण में संलग्न करना ही लक्ष्य है। इसे एकदेशवर्तनी अनर्थ-निवृत्ति कहा जाता है।'
2. बहुदेशवर्तिनी अनर्थ-निवृत्ति
बार-बार अभ्यास करके जीव मायिक विकारों पर कुछ नियंत्रण कर लेता है । मन भी भगवान् का आसानी से ध्यान कर देता है । जब यह हो जाए तो यह बहुदेशवर्तिनी अनर्थ-निवृत्ति है। यह साधना भक्ति के उन्नत चरण में होता है।
3. प्रायिकी अनर्थ-निवृत्ति
अपने मायिक विकारों पर काफी हद तक नियंत्रण रखने को प्रायिकी अनर्थ-निवृत्ति कहा जाता है। यह भाव भक्ति के मध्य चरण में होता है । इस स्थिति में मन अच्छी तरह रूप ध्यान करने का अभ्यस्त हो जाता है और अधिकांश सांसारिक आसक्ति नष्ट हो जाती है।
4. पूर्णा अनर्थ-निवृत्ति
यह भी भागवत-प्राप्ति से पहले होता है। इस अवस्था में लगभग सभी सांसारिक मोह-माया समाप्त हो जाते हैं। साथ ही माया के सभी विकार भी लगभग समाप्त हो जाते हैं। इस अवस्था को पूर्ण अनर्थ-निवृत्ति के नाम से जाना जाता है। यह स्थिति भाव भक्ति के शिखर पर पहुँचने पर आती है। कृपया जान लें कि इस स्तर पर भी, माया का आवरण अभी भी है, इसलिए संसार से बहुत कम मात्रा में राग-द्वेष अभी भी रहता है।
5. आत्यन्तिक अनर्थ निवृत्ति
इस अवस्था में सभी प्रकार के अनर्थ सदा सदा के लिए नष्ट हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त समस्त अनर्थ तथा पूर्ण अनर्थों को जन्म देने वाली माया दोनों का अत्यंताभाव हो जाता है। इसे आत्यंतिक अनर्थ-निवृत्ति कहा जाता है। यह अवस्था माया निवृत्ति और ईश्वर-प्राप्ति के बाद प्राप्त होती है।
तो संक्षेप में, केवल भक्ति ही श्री कृष्ण की सनातन दासता प्राप्त करने का [15] और संसार के दुखों से मुक्त होने का उपाय है।
तो सभी दुखों को समाप्त करने वाली अमोघ दवा केवल भक्ति है [16]।
जब आप भोजन ग्रहण करते हैं, तो हर निवाले के साथ आपका पेट थोड़ा और भरता है, तृप्ति होती है और ताकत मिलती है । इसी प्रकार, साधना भक्ति करने पर सांसारिक वस्तुओं की आसक्ति कम होती है [17] , दुख की अनुभूति कम हो जाती है और सुख में वृद्धि होती है। जब गुरु की कृपा से आप प्रेमा भक्ति तक पहुँचते हैं तो सभी दुःख हमेशा-हमेशा के लिए दूर हो जाते हैं। इसे आत्यंतिक अनर्थ निवृत्ति कहा जाता है। दुःख का अभाव हो गया और साथ ही असीम सुख के स्रोत ईश्वर की भी प्राप्ति हो जाती है ।
अपनी भक्ति बढ़ाने के लिए साधना भक्ति करें और ऊपर बताए गए अनर्थ न करें । और ऐसा करने के लिए एक सरल नियम और एक निषेध का पालन सदा करें
श्री महाराज जी कहते हैं, मच्छर के काटने पर खुजलाने जैसा साधारण कार्य करते समय भी यह सोचो कि वे तुम्हें देख कर मुस्कुरा रहे हैं। नींद तामसी क्रिया है। सोते समय सोचो कि अब सो जाऊँ जिससे वे मेरे सपने में आएँगे। इस प्रकार अपने मन को हर समय उनमें लगाए रखो। इतने छोटे से परिश्रम से आप अनंत आनंद प्राप्त कर सकते हैं और वह आनंद सदा आपके साथ रहेगा। साथ ही, यह सुख नित्य नया-नया लगता है और सदा बढ़ता रहेगा जिसके कारण आप कभी भी उससे ऊबेंगे नहीं ।
तो सभी दुखों को समाप्त करने वाली अमोघ दवा केवल भक्ति है [16]।
जब आप भोजन ग्रहण करते हैं, तो हर निवाले के साथ आपका पेट थोड़ा और भरता है, तृप्ति होती है और ताकत मिलती है । इसी प्रकार, साधना भक्ति करने पर सांसारिक वस्तुओं की आसक्ति कम होती है [17] , दुख की अनुभूति कम हो जाती है और सुख में वृद्धि होती है। जब गुरु की कृपा से आप प्रेमा भक्ति तक पहुँचते हैं तो सभी दुःख हमेशा-हमेशा के लिए दूर हो जाते हैं। इसे आत्यंतिक अनर्थ निवृत्ति कहा जाता है। दुःख का अभाव हो गया और साथ ही असीम सुख के स्रोत ईश्वर की भी प्राप्ति हो जाती है ।
अपनी भक्ति बढ़ाने के लिए साधना भक्ति करें और ऊपर बताए गए अनर्थ न करें । और ऐसा करने के लिए एक सरल नियम और एक निषेध का पालन सदा करें
- भगवान् को सदैव याद रखें
- भगवान् को कभी न भूलें
श्री महाराज जी कहते हैं, मच्छर के काटने पर खुजलाने जैसा साधारण कार्य करते समय भी यह सोचो कि वे तुम्हें देख कर मुस्कुरा रहे हैं। नींद तामसी क्रिया है। सोते समय सोचो कि अब सो जाऊँ जिससे वे मेरे सपने में आएँगे। इस प्रकार अपने मन को हर समय उनमें लगाए रखो। इतने छोटे से परिश्रम से आप अनंत आनंद प्राप्त कर सकते हैं और वह आनंद सदा आपके साथ रहेगा। साथ ही, यह सुख नित्य नया-नया लगता है और सदा बढ़ता रहेगा जिसके कारण आप कभी भी उससे ऊबेंगे नहीं ।
वैसे तो हमारे धर्मग्रंथ ईश्वर प्राप्ति के लिए अन्य कई उपाय बताते हैं, लेकिन श्रीकृष्ण स्पष्ट कहते हैं -
न साधयति मां योगो न साङ्ख्यं धर्म उद्धव ।
न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो यथा भक्तिर्ममोर्जिता ॥
भा 11.14.20
न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो यथा भक्तिर्ममोर्जिता ॥
भा 11.14.20
“मेरे प्रिय उद्धव, मेरे भक्त निष्काम भक्ति द्वारा मुझे अपना दास बना लेते हैं । मैं योग, सांख्य दर्शन, वेद-विदित वर्णाश्रम धर्म, वैदिक अध्ययन, तपस्या या त्याग से प्रसन्न नहीं होता हूँ”।
यद्यपि योग, सांख्य आदि भगवत-प्राप्ति के साधन प्रतीत हो सकते हैं तथापि इनमें से कोई भी भक्ति-के-अंतिम-लक्ष्य (श्रीकृष्णसुखैक तात्पर्यमयी सेवा) प्राप्त करने का साधन नहीं है। जब भक्ति इन साधनों से प्राप्त नहीं होती तो श्रीकृष्ण कैसे प्राप्त हो सकते हैं? भक्ति केवल श्री कृष्ण से मिलन कराने में ही सक्षम नहीं है, बल्कि यह श्री कृष्ण को मोहित करके अपने वश में कर लेती है ।
यद्यपि योग, सांख्य आदि भगवत-प्राप्ति के साधन प्रतीत हो सकते हैं तथापि इनमें से कोई भी भक्ति-के-अंतिम-लक्ष्य (श्रीकृष्णसुखैक तात्पर्यमयी सेवा) प्राप्त करने का साधन नहीं है। जब भक्ति इन साधनों से प्राप्त नहीं होती तो श्रीकृष्ण कैसे प्राप्त हो सकते हैं? भक्ति केवल श्री कृष्ण से मिलन कराने में ही सक्षम नहीं है, बल्कि यह श्री कृष्ण को मोहित करके अपने वश में कर लेती है ।
स्वल्पाऽपि रुचिरेव स्याद्भक्तितत्त्वावबोधिका । युक्तिस्तु केवला नैव यदस्या अप्रतिष्ठिता ॥
उज्जवल नीलमणी
उज्जवल नीलमणी
“थोड़ी सी रुचि या विश्वास भी भक्ति का बीज बो सकता है, लेकिन भक्ति के पहलुओं को किसी तरकीब या नीरस तर्क से आत्मसात नहीं किया जा सकता है। बौद्धिक तर्क मात्र से साध्य प्राप्त नहीं होता । वास्तविक ज्ञान का परिणाम दृढ़ विश्वास होता है।”
येत्नेनापादितोऽयर्थः कुशलैर्नुमातृभिः । अभियुक्ततरैरन्यैरन्यथैवोपपाद्यते ।
“महान विद्वान तर्कशील तर्क के साथ एक सिद्धांत को साबित करते हैं। भविष्य में, उनसे बड़े तर्कशील पिछले सिद्धांत का खंडन करते हैं और दूसरे सिद्धांत की स्थापना करते हैं। इसलिए तर्क कभी टिकता नहीं।”
भक्ति का स्थायी फल प्राप्त करने के लिए
भक्ति का स्थायी फल प्राप्त करने के लिए
सा भक्तिः साधनं भावः प्रेमा चेति त्रिधोदिता ।
भक्ति रसामृत सिन्धु 2.1
भक्ति रसामृत सिन्धु 2.1
भक्ति तीन प्रकार की होती है 1. साधना भक्ति 2. भाव भक्ति 3. प्रेमा भक्ति
यद्यपि भक्ति के महान विद्वानों द्वारा भक्ति के तीन प्रकार बताए गए हैं, जीव गोस्वामी जी महाराज के अनुसार, वास्तव में, भक्ति केवल दो प्रकार की होती है - साधना भक्ति और साध्य भक्ति । साधना भक्ति साध्य भक्ति प्राप्त करने के लिए की जाने वाली भक्ति है, जबकि साध्य भक्ति अधिकरी जीव को उपहार के रूप में दी जाती है।
यद्यपि भक्ति के महान विद्वानों द्वारा भक्ति के तीन प्रकार बताए गए हैं, जीव गोस्वामी जी महाराज के अनुसार, वास्तव में, भक्ति केवल दो प्रकार की होती है - साधना भक्ति और साध्य भक्ति । साधना भक्ति साध्य भक्ति प्राप्त करने के लिए की जाने वाली भक्ति है, जबकि साध्य भक्ति अधिकरी जीव को उपहार के रूप में दी जाती है।
अब आप समझ गये होंगे -
इसके अतिरिक्त,
- आपका लक्ष्य [20][21][22];
- उसे प्राप्त करने का साधन [23];
- साधना कैसे प्रारंभ करें (साधना भक्ति का दैनिक अभ्यास);
- भक्ति की उन्नति को मापने के लिए मील के पत्थर [24];
- इस मार्ग पर सावधानियाँ ।
इसके अतिरिक्त,
कर्म प्रधान विश्व रचि राखा, जो जस करहि सो तस फल चाखा ।
"मानव रूप में सभी जीव अपनी इच्छानुसार कोई भी कर्म करने में स्वतंत्र हैं, और वे उन कर्मों के फल भोगने में परतंत्र हैं।"
श्री महाराज जी ने जीव को अपने आध्यात्मिक उत्थान में रुचि लेने के लिए शिक्षण, मार्गदर्शन, निर्देश, आदेश, और विनती करते हुए 91 वर्ष बिताए । श्री महाराज जी के प्रचारक के रूप में बनचरी दीदी ने अपने जीवन के 76 वर्षों तक ऐसा ही किया । श्री महाराज जी मुख्यतः हिन्दी में बोलते थे। दीदी ने श्री महाराज जी के सिद्धांत को अंग्रेजी में प्रस्तुत किया, जिससे दुनिया भर में अंग्रेजीभाषी भी भक्ति के गूढ़ रहस्यों को जान सकें और उनका लाभ उठा सकें ।
इस साइट पर 60 दिव्य संदेश, 108 दिव्य रस बिंदु और आध्यात्मिक विषयों पर 48 लेख हैं। साथ ही, आपको पिछले 13 वर्षों में प्रकाशित 36 त्योहारों, 7 दर्शन लेखों और श्री महाराज जी पर दीदी की काव्य रचनाएँ भी ब्लॉग में मिलेंगी । कृपया ध्यान दें कि यह इस वेबसाइट पर अंतिम प्रकाशन है । हालाँकि आपकी आध्यात्मिक उन्नति में सहायता के लिए पिछले सभी प्रकाशन निःशुल्क उपलब्ध हैं।
|
आवृत्ति रस्कृत उपदेशात
कृपया कर्म ज्ञान आदि से अनाछन्न भक्ति से संबंधित तत्व ज्ञान हेतु श्री महाराज जी द्वारा प्रकट और बनचरी दीदी द्वारा संकलित इस अमूल्य खजाने का उपयोग करें। आप आवश्यकतानुसार इन लेखों को दोबारा पढ़ें और अधिकतम लाभ प्राप्त करने के लिए इन विषयों पर विचार करें ।
आध्यात्मिक उत्थान में सहायक इस सामग्री को प्राप्त करने के लिए हमसे जुड़ने के लिए सभी पाठकों को राधे-राधे। इस ज्ञान को व्यावहार में लाकर इसका लाभ प्राप्त करने के लिए (अथवा उधार करने के लिए) आप स्वतंत्र हैं । याद रहे जीव कर्म करने में स्वतंत्र है परंतु फल भोगने में परतंत्र है ।
आध्यात्मिक उत्थान में सहायक इस सामग्री को प्राप्त करने के लिए हमसे जुड़ने के लिए सभी पाठकों को राधे-राधे। इस ज्ञान को व्यावहार में लाकर इसका लाभ प्राप्त करने के लिए (अथवा उधार करने के लिए) आप स्वतंत्र हैं । याद रहे जीव कर्म करने में स्वतंत्र है परंतु फल भोगने में परतंत्र है ।
संदर्भग्रंथ सूची - और अधिक जानें
[2] Karmendriyan
|
[3] Gyanendriyan
|
[8] Deadliest Poison - Praise
|
[9] Upper Planets
|
[16] भक्ति ही क्यों करें
|
[20] जीव का उद्देश्य
|
[21] आनंद की खोज
|
[22] आपको किस आनंद की खोज है
|
[23] भक्ति का प्रमुख फल
|
यह लेख पसंद आया ?
उल्लिखित कतिपय अन्य प्रकाशनों के आस्वादन के लिये चित्रों पर क्लिक करें
दिव्य संदेश - सिद्धान्त, लीलादि |
दिव्य रस बंदु - सिद्धांत गर्भित लघु लेखप्रति माह आपके मेलबोक्स में भेजा जायेगा
|
शब्दावली - सिद्धांत को गहराई से समझने हेतु पढ़ेवेद-शास्त्रों के शब्दों का सही अर्थ जानिये
|
हम आपकी प्रतिक्रिया जानने के इच्छुक हैं । कृप्या contact us द्वारा
|
नये संस्करण की सूचना प्राप्त करने हेतु subscribe करें
|