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2022 होली अंक

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सार गर्भित सिद्धान्त
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भगवान को सदैव अपने साथ अनुभव कीजिए

कोई भी व्यक्ति लगातार कीर्तन नहीं कर सकता अतः मन बुद्धि का समर्पण करने हेतु श्री महाराज जी ने ये सबसे सरल उपाय बताया है ।
कृपालु लीलामृतम्
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निराधार का आश्रय लेना मूर्खता है

श्री महाराज जी के बचपन की लीला से भगवत प्राप्ति के मार्गों का निरीक्षण करें
कहानी
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तनिक ठहरो ! इतनी भी क्या जल्दी है?

शरीर ठीक ठीक चल जाए और शेष समय आत्म कल्याण के हेतु इस प्रकार बिताएँ

सार गर्भित सिद्धान्त

भगवान को सदैव अपने साथ अनुभव कीजिए

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भगवान को सदैव अपने साथ अनुभव करियेभगवान को सदैव अपने साथ अनुभव कीजिए
​सभी धर्म एक स्वर से एकमत हैं कि भगवान सर्वत्र समान रूप से व्याप्त है। यद्यपि कोई भी पंथ इस आस्था को झुठलाता नहीं  तथापि अज्ञानता वश विभिन्न पंथवादी खुदा,अल्लाह, ब्रह्म, भगवान, सत श्री अकाल, आदि भगवान के भिन्न-भिन्न नामों को लेकर लड़ते रहते हैं।

​सभी  पंथों के अनुयायियों का यही दावा है कि हम जिसकी पूजा अर्चना करते हैं इस संसार को उसी भगवान ने बनाया है । सबका भगवान सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी, सर्वेश्वर है।

तनिक विचार कीजिये - ​जब संसार एक है तो क्या उसे बनाने वाले भगवान अनेक होंगे? तो फिर नाम को लेकर लड़ाई क्यों? परंतु इस प्रश्न का उत्तर हमारे प्रकरण से भिन्न है अतः इसकी चर्चा हम बाद में करेंगे।

​भगवान सर्वव्यापी है। यही होली के पावन पर्व का संदेश है ।

सर्वव्यापी का अर्थ है वे कण-कण में समान रूप से व्याप्त हैं । वे केवल जड़ प्रकृति में ही नहीं वरन सभी जीवों में भी व्याप्त हैं । वे केवल मनुष्यों के हृदय में ही नहीं व​रन समस्त चराचर प्राणियों यथा कुत्ता, बिल्ली, चिड़िया ,कीड़े, पेड़ आदि सभी में निवास करता हैं ।  सच तो यह है कि वो कभी किसी जीव को एक पल के लिए भी अकेला नहीं छोड़ते।​यह कहना अतिशयोक्ति नहीं यथार्थ सत्य है कि भगवान् किसी जीव से निमिष मात्र के लिए भी अलग नहीं होते, अथवा ये समझिये कि वे अलग हो ही नहीं सकते​ ।

नरसिंह अवतार​नरसिंह अवतार​
आपको याद होगा कि दैत्य राज​ हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र​ 5 वर्षीय​ प्रह्लाद को चुनौती  देकर कहा , "क्या तेरा भगवान सब जगह रहता है?"
प्रह्लाद ने दृढ़ता से कहा , "हाँ वो सभी जगह है"।
फिर उसने पूछा, " क्या वो मुझ जैसे राक्षस के महल में भी है?"
प्रह्लाद ने कहा, “हाँ वो यहाँ भी है। वो केवल आपके महल में ही नहीं आपके हृदय में भी है”।
हिरण्यकशिपु ने फिर कहा, "क्या वो इस खंभे में भी है?"
प्रह्लाद ने कहा, "हाँ पिताजी है।"
हिरण्यकशिपु ने जोर से उस खंभे में एक गदा मारी। वह खंभा टूट गया और नरसिंह भगवान प्रकट होकर कहते हैं, "देख मैं सभी जगह रहता हूँ।" 

भगवान प्रत्येक जीवात्मा के अंदर उसको बिना भनक लगे शांति पूर्वक निरीक्षक की भांति हमारे प्रत्येक कर्म को नोट करता है और उसी के अनुसार फल देता है ।आप यह जानना चाहते होंगे कि वो हमारे प्रत्येक कर्म को क्यों नोट करते हैं ? भगवान उस क्षण की प्रतीक्षा में है जब जीव पूर्णतया भगवान के शरणागत हो जाएगा । तो भगवान को अपने वचनानुसार, बिना एक क्षण के विलंब के, उस जीव पर अहैतुकी कृपा करके दिव्यानंद प्रदान करना होगा। केवल शरणागत मात्र होने पर वह कृपा कर देते हैं इसीलिए उनको अकारण करुण भी कहा जाता है। 

पूर्ण शरणागति का अर्थ है मन-बुद्धि का पूर्ण समर्पण -

मय्येव मन आधत्स्व​ मयि बुद्धिं निवेशय॥ गीता। 12.8
“अपने मन और बुद्धि को मुझे समर्पित कर दे”।

वो तो ठीक है लेकिन यह शरणागति होगी कैसे ?
इसी कलियुग में जगद्गुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज ने शास्त्र वेद में  प्रतिपादित अनेक लक्ष्यों में से परम चरम लक्ष्य प्रमाणित किया साथ ही उस लक्ष्य को प्राप्त करने की साधना भी विस्तार पूर्वक बताई। उन्होंने हरि गुरु के श्री चरण कमलों में मन-बुद्धि सहित​ सर्वस्व समर्पण करने के लिए एक​ उपाय बताया,”उन को सदा सर्वत्र अपने साथ मानने का अभ्यास करो”। यह कोरी कल्पना नहीं है । यह वास्तविकता है कि वे अनंत कोटि ब्रह्माण्डों के प्रत्येक कण में समान रूप से व्याप्त हैं । फिर भी हम उनको देख इसलिए नहीं पाते क्योंकि उनका शरीर दिव्य है और हमारी इंद्रियाँ मायिक हैं । जब मायिक आँख से मायिक शब्द नहीं ग्रहण हो सकता तो मायिक आँख से दिव्य​ शरीर ग्रहण नहीं हो सकता इसमें कोई अचरज की बात नहीं है।

​वास्तविक आनंद का साकार रूप ही भगवान है । उसी भगवान को जीव अनादिकाल से हर क्षण खोज रहा है। हम स्वभावतः उस अनंत, अपरिमेय, प्रतिक्षण वर्द्धमान, असीम आनंद को प्राप्त करना चाहते हैं जिसकी तुलना में और सब आनंद तुच्छ लगें । यदि बाकी सब आनंद तुच्छ ना लगें तो बड़े आनंद को प्राप्त करने की लालसा में प्राप्त आनंद से मिलने वाला सुख समाप्त हो जाता है और दुख में परिणित हो जाता है। इंद्रियाँ बिना मन के कोई भी क्रिया नहीं कर सकतीं क्योंकि सभी इंद्रियाँ मन के द्वारा शासित हैं।

वेद कहता है -
इन्द्रियेभ्य: परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च पर मन:॥ कठोपनिषद 2.8
" मन इंद्रियों पर शासन करता है। "

मन का यह अटूट विश्वास है कि आनंद संसार में ही कहीं है और इसी पूर्वानुमान के आधार पर वह माया के इस संसार से आनंद प्राप्ति की खोज में लगा हुआ है।

यह अत्यंत खेद की बात है कि मायिक संसार से आनंद प्राप्ति की खोज में हम इतने व्यस्त हैं कि वास्तविक आनंद प्राप्ति के सही मार्ग को जानने के लिए भी हमारे पास समय नहीं है । संत अवतरित होकर आते हैं और

सत्संग देने के लिए बुलाते हैं और हमारा उत्तर होता है, "क्षमा कीजिए! मैं व्यस्त हूँ ।"

किस काम में व्यस्त हूँ? "आनंद की खोज में।"

संत कहते हैं कि तुम गलत क्षेत्र में  आनंद की खोज कर रहे हो । मेरे पास आओ मैं तुम्हें आनंद प्राप्ति का रास्ता बताता हूँ। हम अहंकार वश उत्तर देते हैं,

"तुम्हें सुनने के लिए हमारे पास समय नहीं है (1)।"  इतनी दयनीय दशा है हमारी !
हमारा अनुभव ही प्रमाण है कि आनंद प्राप्ति हेतु हमने जितने भी हाथ-पैर मारे उससे संसार भले ही मिला हो परंतु आनंद नहीं मिला। अर्थात आनंद प्राप्ति के लिए हम जिस दिशा में अग्रसर हैं वह गलत है । और अज्ञानता की सीमा यह कि गलत दिशा में भागने में इतने व्यस्त हैं कि हमारे पास सही दिशा जानने का समय नहीं है। अतः सर्वप्रथम हमें यह निश्चय करना होगा कि हमारे जीवन का लक्ष्य क्या है?
आदौ श्रद्धा ततः साधुसङ्गोऽथ भजनक्रिया॥ भक्तिरसामृतसिन्धु १.४.१५
 "सर्वप्रथम किसी संत में अटूट श्रद्धा हो तब उसका संग करो । सच्चे संत के सत्संग से परम चरम लक्ष्य का ज्ञान होगा । अब अपने वास्तविक लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए, रूप ध्यान के साथ भजन कीर्तन करो ।"​
हरि गुरु सदैव हमारे साथ हैंहरि गुरु को सदैव अपने साथ अनुभव करने का अभ्यास कीजिए
कोई भी व्यक्ति लगातार कीर्तन नहीं कर सकता अतः मन बुद्धि का समर्पण करने हेतु श्री महाराज जी ने सबसे सरल उपाय बताया है कि हरि गुरु को सदैव अपने साथ अनुभव करने का अभ्यास कीजिए। पहले-पहल कुछ मुश्किल लगेगा परंतु कुछ दिन लगातार अभ्यास करने से धीरे-धीरे आसान होता जाएगा।

​जैसे-जैसे अभ्यास द्वारा अंतःकरण शुद्ध होता जाएगा वैसे-वैसे सर्वदा सर्वत्र प्रत्येक व्यक्ति में स्वतः उनके दर्शन होंगे । फिर धीरे-धीरे साधक को भगवान के नाम संकीर्तन में आनंद की अनुभूति होगी व कीर्तन में मन निमज्जित  होने लगेगा । चूँकि नाम में नामी का निवास होता है अतः भगवन्नाम आनंद से लबालब भरा है परंतु हमारा मलिन मन उसका अनुभव नहीं कर पाता । लगातार कीर्तन करने तथा उनको अपने साथ सदैव मानने के अभ्यास से मन की मलिनता धुलती जाएगी इसलिए उनका नाम लेने में आनंद का अनुभव होने लगेगा । और उस दिव्यानंद का आभास मिलने के कारण साधक की भगवान के नाम संकीर्तन में रुचि तीव्र गति से बढ़ने लगेगी।

अतएव​ जिसे नित्य, प्रतिक्षण वर्द्धमान,  नित्य नवायमान आनंद प्राप्त करना  हो उसे कटिबद्ध होकर ​इस अभ्यास को करना होगा। जब साधक इस अभ्यास को पूरे मनोयोग से करता है तो गुरु अपनी शक्ति से उस साधक को शीघ्र परिणाम प्राप्त करने में सहायता करते हैं।

अतः साधक को भक्ति मार्ग के किसी सच्चे गुरु के चरण कमलों की शरण लेनी होगी । निष्ठा पूर्वक पहले रूपध्यान और फिर हरि गुरु को प्रत्येक क्षण अपने साथ अनुभव करने की व्यक्तिगत साधना को परिपक्व करना होगा। ऐसी साधना आपको भगवत प्राप्ति की ओर अग्रसर कर देगी जिसके परिणाम स्वरूप आपको अनंतानंद, अनंत ज्ञान, अनंत दैवीय​ गुण प्राप्त होगा।

अन्यथा करोड़पति को अरबपति बनने का लोभ असंतुष्ट करता रहेगा । और यदि भाग्यवश​ एक दिन पर्याप्त संपत्ति मिल भी गई तो आयु का कोई ठिकाना नहीं । क्या पता उस संपत्ति को छोड़ने का समय आ चुका हो? यह तो आपको ज्ञात ही है कि कोई भी मायिक वस्तु, धन ,संपत्ति आदि अपने साथ नहीं ले जा सकता । जिस संपत्ति को एकत्र करने में अपने बहुमूल्य समय और शक्ति का निवेश किया मृत्यूपरांत​ उस संपत्ति से वंचित हो जाएँगे । अतः जीवन भी समाप्त हो गया और जीवन भर की कमाई ने भी साथ छोड़ दिया । अर्थात संपूर्ण जीवन व्यर्थ में नष्ट हो गया ! मृत्यु के समय आत्मा  के साथ सूक्ष्म इंद्रियों, मन, बुद्धि तथा इस जीवन में किए गए कर्म साथ जाते हैं । दोहरी मार यह कि संसारी संपत्ति को कमाने व उसकी रक्षा करने में किए गए अनंत पाप भी आपके साथ जाएँगे।

कुछ ही दिन अभ्यास करके तो देखिये । यह एक साधना आपका भविष्य बना देगी !
यदि आपको यह लेख पसंद आया तो संभवतः निम्नलिखित लेख भी पसंद आयेंगे 
(1) ​हम संतों के शब्दों का मूल्य क्यों नहीं समझ पाते?
(2) कुसंग से सावधान​
(3) Roopadhyan - Devotional Remembrance

कृपालु लीलामृतम्

निराधार का आश्रय लेना मूर्खता है

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बचपन में श्री महाराज जी अत्यंत नटखट थे। अपने कुछ मित्रों के साथ मनगढ़ से कुंडा स्कूल पैदल जाया करते थे।स्कूल जाते समय रास्ते में पड़ने वाले गन्ने के खेतों, आम के बागों, तालाबों के किनारे खेला करते थे ।जब प्रार्थना की घंटी बजने का कुछ समय शेष बचता तो दौड़ कर समय से प्रार्थना में शामिल हो जाते थे।

​
श्री महाराज जी पेड़ों पर बंदर की तरह बड़ी फुर्ती से चढ़ जाते थे ।एक बार वे अपने मित्रों के साथ आम के बगीचे में गए । सभी लड़कों  ने अधिक ऊंचाई पर एक पके हुए आम को देखा। पत्थर मारकर उसे गिराने की कोशिश की परंतु कामयाब नहीं हुए । अन्य सखाओं ने उस आम तक पहुंचने की हिम्मत नहीं की। परंतु श्री महाराज जी ने चुनौती देते हुए कहा कि मैं इसे तोड़ सकता हूँ।

आम के लालच में कुछ लड़कों ने उनसे उसको तोड़ने के लिए कहा। महाराज जी फुर्ती से उस पेड़ पर चढ़े और आम तक पहुंचने की चेष्टा की परंतु आम उनकी पहुंच से दूर था और डाल बहुत पतली थी । क्योंकि आम पका नहीं था इसलिए स्पर्श  मात्र से नहीं टूटा और श्री महाराज जी ने उस पतली सी डाल पर चढ़कर उसको तोड़ने की कोशिश की परंतु वह महाराज जी का भार सहन न कर सकी अतः वह डाल टूट गई और श्री महाराज जी नीचे गिरने लगे।

गिरते समय उन्होंने दूसरी शाखा को पकड़ने की कोशिश की परंतु वह भी टूट गई और श्री महाराज जी नीचे जमीन पर उन दोनों शाखाओं के साथ आ गिरे और उनको काफी चोट लग गई।​

संदेश : वेद कहता है
प्लवा ह्येते अदृढा यज्ञरूपाः
आनंद प्राप्त करने के लिए कर्म मार्ग का पुल अत्यंत दुर्बल है। यह बीच में ही टूट जाएगा । अतः अनंतानंद प्राप्त करने के लिए कर्म मार्ग का अवलंब लेना नितांत मूर्खता है। कर्म का अंतिम फल स्वर्ग है जहां सीमित सुख  है और वह भी सीमित काल के लिए है। उसके पश्चात पुनः 84 लाख हीन योनियों में भटकना होता है। इसी प्रकार भक्ति रहित ज्ञान का अंतिम उद्देश्य अज्ञान का नाश है  । अज्ञान को समाप्त करने के पश्चातज्ञान स्वयं भी समाप्त हो जाता है और सच्चे ज्ञान के अभाव में वो आत्मज्ञानी  के अहंकार को बढ़ा देता है जिससे ज्ञानी का पतन हो जाता है।
इसका तात्पर्य यह है कि सच्ची भक्ति के बिना सभी पथ कमजोर टहनियों के समान हैं और वो हमें हमारे आनंद प्राप्ति के लक्ष्य तक नहीं पहुंचा सकते ।अतः बुद्धिमता इसी में है कि भक्ति का आश्रय ले क्योंकि यही वो पथ है जो हमें भवसागर से पार पहुंचा कर आनंद की प्राप्ति कराने में सक्षम है।

कहानी

तनिक ठहरो ! इतनी भी क्या जल्दी है?

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एक समय की बात है एक सेठ जी (धनवान व्यापारी) थे। उनकी पत्नी बहुत पूजा पाठ करती थी परंतु सेठ जी की संतो, धार्मिक क्रियाकलापों और भक्ति में आस्था नहीं थी। जब कभी उनकी पत्नी उनको कुछ धार्मिक कार्य करने के लिए कहतीं तो वो उनसे यों ही कहते, "तनिक ठहरो । इतनी भी क्या जल्दी है?" इस प्रकार उनके पति ने अपना पूरा यौवन सांसारिक संपत्ति के संच​य में बिता दिया। अब दोनों वृद्ध हो चले। पत्नी अपने पति के नास्तिक होने के के कारण उदास रहती थी ।

एक दिन उनके पति को तेज बुखार हो गया । उन्हें अपने पति को सबक सिखाने का यह अच्छा मौका दिखा। पत्नी ने उन्हें डॉक्टर को दिखाने के पश्चात रास्ते से दवाइयां भी खरीद ली। जब दोनों घर पहुंचे तो सेठ जी बहुत थक चुके थे अतः वे लेट गए और उन्होंने पत्नी से दवाइयां देने के लिए कहा। उसने आज्ञाकारीणी पत्नी की भांति कहा, " तनिक ठहरो । मैं अभी लाती हूँ।" काफी समय बीत जाने के पश्चात सेठ जी ने पुनः पत्नी से कहा, "मुझे दवाइयां दे दो"। पत्नी ने पुनः वही उत्तर दिया, "तनिक ठहरो । मैं अभी लाती हूँ"। थोड़ी देर इंतजार करने के पश्चात सेठ जी ने कमजोर आवाज से चिल्ला कर कहा, " मुझे मेरी दवाइयाँ दे दो।" पत्नी ने पुनः वही उत्तर दिया, "ठहरो, मै अभी लाती हूँ"। दवाइयाँ लेकर घर पहुंचने के पश्चात अब तक 2-3 घंटे बीत चुके थे और अभी तक उसकी पत्नी ने उसको दवाइयाँ नहीं दी । सेठ जी बुखार में तप रहे थे । सारा शरीर दर्द से टूट रहा था । अतः बहुत दुखी थे और दवा न मिलने के कारण​ गुस्से से भर गए। वो बिस्तर से उठ कर लड़खड़ाते हुए पत्नी के पास पहुँचे तो देखा उनकी पत्नी आराम से बैठी हुई थी और कोई काम भी नहीं कर रही थी। यह देखकर सेठ जी आपे से बाहर होकर बोले, "तुम मुझे दवाइयाँ क्यों नहीं दे रही हो ?" पत्नी ने फिर वही उत्तर दिया, "तनिक ठहरो । इतनी भी क्या जल्दी है? दवाई दे दूँगी"।

​अचानक सेठजी को याद आया कि ये वही शब्द हैं जो वो अपनी पत्नी से कहते थे जब वो सत्संग जाने के लिए कहती थी । सेठजी सांसारिक क्रियाओं में इतने व्यस्त थे कि उन्होंने अपनी आत्मा के कल्याण के लिए जो करना चाहिए था उसको नजरअंदाज कर दिया। सेठ जी को दो-तीन घंटा दवाई न मिलने के कारण ही इतना क्रोध आ गया जबकि उनकी पत्नी ने पूरे जीवन आत्मा की दवाई के लिए इंतजार किया और फिर भी क्रोधित नहीं हुई। सेठ जी का गुस्सा अचानक गायब हो गया। अपने पति के पश्चाताप को देखकर उसने सेठ जी को दवाइयाँ दी तथा उससे वो ठीक हो गए।

शिक्षा
​शरीर दो घटकों से मिलकर बना है एक दिव्य है जिसे आत्मा कहते हैं और एक माया का बना है जिसे स्थूल शरीर कहते हैं ।आत्मा को "मैं" से संबोधित किया जाता है तथा शरीर को "मेरा" से संबोधित किया जाता है । मानव शरीर को आत्मा के उपयोग के लिए बनाया गया है जिससे आत्मा अपने परम चरम लक्ष्य दिव्यानंद अर्थात भगवान को प्राप्त कर सके। परंतु अधिकतर लोग सेठ जी की तरह अपने शरीर के विषय में ही सोचते हैं ।आत्मा के विषय में उधार कर देते हैं। हम शरीर को "मैं" मान लेते हैं और यह भूल जाते हैं कि मानव देह हमारे परम चरम लक्ष्य "दिव्यानंद" को प्राप्त करने का साधन है। हम सभी आनंद चाहते हैं और दिन-रात इसी की खोज में लगे रहते हैं।

शरीर जड़ है। भौतिक संपन्नता से "मुझे" अर्थात "आत्मा" को संतुष्ट नहीं किया जा सकता। अतः हमें आत्मा की संतुष्टि पर ध्यान देना चाहिए। यदि आत्मा संतुष्ट है तो भौतिक आवश्यकताएँ स्वतः कम होती जाएँगी । यथार्थ सत्य यह है कि उच्चतम भौतिक संपन्नता भी आत्मा को कदापि संतुष्ट नहीं कर सकती बल्कि यह आग में घी डालने जैसा है अर्थात उल्टी दवाई है जो आत्मा को संतुष्ट करने के विपरीत दुख को बढ़ाती है।

अतः बुद्धिमता इसी में है कि उतना ही उद्यम किया जाए जिससे शरीर ठीक ठीक चल जाए और शेष समय आत्मा के कल्याण हेतु बिताना चाहिए। शरीर के माध्यम से ही आध्यात्मिक उन्नति हो सकती है अतः शरीर को हष्ट पुष्ट रखकर अपने परम चरम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अथक अटूट प्रयास करिए ।

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