श्री महाराज जी दिव्य आध्यात्मिक प्रवचनों में दो विरोधी तथ्यों को प्रकट करते हैं
अतः प्रश्न उठता है कि क्या प्रारब्ध के कारण पुरुषार्थ करने पर भी हम इच्छित वस्तु से वंचित रह जायेंगे या पुरुषार्थ के द्वारा हम अधिक विद्या, धन, इच्छित वस्तुएँ प्राप्त कर सकते हैं?
- "मानव देह ‘कर्म योनि’ है अतः केवल इस योनि में ही जीव अपने किसी भी स्वेच्छित फल को प्राप्त कर सकता है” । हम सभी ने कथानक सुने हैं कि अमुक व्यक्ति ने घोर विपरीत स्थितियों में भी उच्चतर शिक्षा प्राप्त की है। शास्त्रों में भी ऐसे वृतांत हैं जिनमें मनुष्यों ने तपश्चर्या करके राजगद्दी प्राप्त की या पुत्र प्राप्ति की ।
- अन्य प्रवचनों में श्री महाराज जी कहते हैं कि “मनुष्य अपना संपूर्ण जीवन भरण-पोषण और भौतिक सम्पत्ति के संचय में बर्बाद न करे । कम से कम समय संसार में लगाये बाकी सारा समय आध्यात्मिक विकास में लगाये । अधिक परिश्रम करने से अधिक धन की प्राप्ति नहीं होगी। देखो एक मजदूर 12 से 14 घंटे काम करके भी अपने परिवार के पेट नहीं पाल पाता है क्योंकि उसके प्रारब्ध में उतना ही लिखा है । परंतु कुछ लोग दिन में कुछ ही घंटे काम करके अरबपति बन जाते हैं “।
अतः प्रश्न उठता है कि क्या प्रारब्ध के कारण पुरुषार्थ करने पर भी हम इच्छित वस्तु से वंचित रह जायेंगे या पुरुषार्थ के द्वारा हम अधिक विद्या, धन, इच्छित वस्तुएँ प्राप्त कर सकते हैं?
उत्तर -
हम सभी चेतन जीव हैं और हमारा मन हर क्षण जागृत तथा स्वप्न दोनों अवस्थाओं में क्रियाशील रहता है । जब हम गहरी नींद (सुषुप्ति अवस्था) में सोते हैं केवल तब मन निष्क्रिय होता है । मन का कर्म है संकल्प-विकल्प करना । उन मन के विचारों में से कुछ ही शारीरिक कर्मों में परिणत होते हैं । भगवान विचारों का फल प्रदान करते हैं उन शारीरिक कर्मों का नहीं ।
जैसा कि हमारे शास्त्र कहते हैं -
हम सभी चेतन जीव हैं और हमारा मन हर क्षण जागृत तथा स्वप्न दोनों अवस्थाओं में क्रियाशील रहता है । जब हम गहरी नींद (सुषुप्ति अवस्था) में सोते हैं केवल तब मन निष्क्रिय होता है । मन का कर्म है संकल्प-विकल्प करना । उन मन के विचारों में से कुछ ही शारीरिक कर्मों में परिणत होते हैं । भगवान विचारों का फल प्रदान करते हैं उन शारीरिक कर्मों का नहीं ।
जैसा कि हमारे शास्त्र कहते हैं -
पुण्येन पुण्यलोकं नयति पापेन पापमुभाभ्यामेव मनुष्यलोकम्॥ वेद
शुभकृच्छुभमाप्नोति पापकृत्पापमुच्यते ॥ वेद “पुण्य कर्मों के फलस्वरूप मृत्योपरांत स्वर्ग के भौतिक सुखों की प्राप्ति होती है और पाप कर्मों के फलस्वरूप नरकादि में दंड दिया जाता है । अच्छे बुरे मिश्रित कर्मों के फलस्वरूप जीव को पुनः मृत्युलोक में आना पड़ता है ।”
ये हमारा दुर्दैव है कि हमारे अधिकांश कर्म पाप की श्रेणी में आते हैं । गीता में भगवान श्रीकृष्ण पाप और पुण्य कर्मों की व्याख्या करते हुए कहते हैं - मन्निमित्तं कृतं पापं मद्धर्माय च कल्पते ।
मामनादृत्य धर्मोऽपि पापं स्यान्मत्प्रभावतः । |
"मुझे समर्पित किया गया पाप कर्म भी पुण्य है । इसके विपरीत मेरा विस्मरण करके किया गया पुण्य भी पाप है ।"
इसका कारण तर्क सम्मत है । जीव के अतिरिक्त दो सनातन तत्व है - माया और भगवान । अतः जीव का मन या तो भगवान के क्षेत्र में होगा या माया के क्षेत्र में होगा । तीसरा कोई क्षेत्र ही नहीं है जहाँ मन विचरण कर सके । भगवान केवल मन के कर्म का ही फल देते हैं । यदि मन भगवान में आसक्त नहीं है, तो निश्चित रूप से वह संसार में होगा । भगवान को भूल कर किया गया कार्य मायिक है अतः पाप है । मायिक कक्षा के होने के कारण पाप-पुण्य दोनों
जीव को कर्मजाल में और फंसा देते हैं । इसके अतिरिक्त जीव का मन मायिक विकारों - काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य - से त्रस्त रहता है । इसलिये भगवान को भूल कर किया गया पुण्य भी वस्तुतः पाप ही है ।
भगवान बहुत ही कृपालु है । वे हमें हमारे समस्त बुरे कर्मों के फल का भोग तुरंत नहीं देते हैं । कुछ कर्मों का फल ही तुरंत मिलता है अधिकांश कर्मों के फल संचित कर्म के रूप में संग्रहीत होते हैं जिनको हम शनैः शनैः आने वाले जन्मों में भोगते हैं। संचित-कर्म अनन्त है अतः अनंत काल के भोग के पश्चात भी अनंत संचित-कर्म बाकी रहते हैं ।
संचित कर्मों में से कुछ कर्म फलों का भोग वर्तमान जीवन के लिये निर्धारित किया जाता हैं । वह हमारा प्रारब्ध या भाग्य कहलाता हैं। इनमें से पांच भाग्य के लेख अपरिवर्तनीय हैं।
इसका कारण तर्क सम्मत है । जीव के अतिरिक्त दो सनातन तत्व है - माया और भगवान । अतः जीव का मन या तो भगवान के क्षेत्र में होगा या माया के क्षेत्र में होगा । तीसरा कोई क्षेत्र ही नहीं है जहाँ मन विचरण कर सके । भगवान केवल मन के कर्म का ही फल देते हैं । यदि मन भगवान में आसक्त नहीं है, तो निश्चित रूप से वह संसार में होगा । भगवान को भूल कर किया गया कार्य मायिक है अतः पाप है । मायिक कक्षा के होने के कारण पाप-पुण्य दोनों
जीव को कर्मजाल में और फंसा देते हैं । इसके अतिरिक्त जीव का मन मायिक विकारों - काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य - से त्रस्त रहता है । इसलिये भगवान को भूल कर किया गया पुण्य भी वस्तुतः पाप ही है ।
भगवान बहुत ही कृपालु है । वे हमें हमारे समस्त बुरे कर्मों के फल का भोग तुरंत नहीं देते हैं । कुछ कर्मों का फल ही तुरंत मिलता है अधिकांश कर्मों के फल संचित कर्म के रूप में संग्रहीत होते हैं जिनको हम शनैः शनैः आने वाले जन्मों में भोगते हैं। संचित-कर्म अनन्त है अतः अनंत काल के भोग के पश्चात भी अनंत संचित-कर्म बाकी रहते हैं ।
संचित कर्मों में से कुछ कर्म फलों का भोग वर्तमान जीवन के लिये निर्धारित किया जाता हैं । वह हमारा प्रारब्ध या भाग्य कहलाता हैं। इनमें से पांच भाग्य के लेख अपरिवर्तनीय हैं।
आयुः कर्म च वित्तं च विद्या निधनमेव च। पंचैत्यान्यपि सृज्यन्ते गर्भस्थस्यैव देहिनः ॥
हितोपदेश
पांच पहलू पूर्व निर्धारित होते हैं - "आयु, व्यवसाय, धन, विद्या एवं मृत्यु का कारण"।
यद्यपि जीवन के इन पाँच पहलुओं को नहीं बदला जा सकता फिर भी जीव को पुरुषार्थ करने की स्वतंत्रता दी गई है । वर्तमान काल के ये क्रियमाण-कर्म पुनः शुभाशुभ कर्मों के खाते में संचित होते जाते हैं ।
यज्ञ, हवन के नियमों का अक्षरशः पालन करने के फलानुसार कुछ इच्छित वस्तुएँ प्राप्त की जा सकती हैं परन्तु यदि उनका भोग भाग्य में नहीं है तो प्राप्ति के उपरांत भी उनका क्षय हो जाता है । हमारे शास्त्रों में उदाहरणार्थ एक कथा है कि सतयुग में राजा चित्रकेतु ने पुत्र प्राप्ति के लिये एक करोड़ स्त्रियों से विवाह किया परंतु एक भी पुत्र नहीं जन्मा । वैदिक विधि से पुत्रेष्टि यज्ञ के सफलतापूर्वक सम्पन्न करने से उनको पुत्र तो प्राप्त हुआ परंतु ईर्ष्या वश दूसरी रानियों ने उसको मार दिया। अब वह राजा पुनः अपने भाग्य के अनुसार पुत्र के अभाव के दुख में डूब गए ।
यह दृष्टांत दर्शाता है कि आप अपने इस जीवन में उद्यम करके कुछ भी प्राप्त करने के लिए स्वतंत्र हैं परंतु उपर्युक्त पाँच चीजें आप कठिन परिश्रम करके भी नहीं बदल सकते ।
यद्यपि जीवन के इन पाँच पहलुओं को नहीं बदला जा सकता फिर भी जीव को पुरुषार्थ करने की स्वतंत्रता दी गई है । वर्तमान काल के ये क्रियमाण-कर्म पुनः शुभाशुभ कर्मों के खाते में संचित होते जाते हैं ।
यज्ञ, हवन के नियमों का अक्षरशः पालन करने के फलानुसार कुछ इच्छित वस्तुएँ प्राप्त की जा सकती हैं परन्तु यदि उनका भोग भाग्य में नहीं है तो प्राप्ति के उपरांत भी उनका क्षय हो जाता है । हमारे शास्त्रों में उदाहरणार्थ एक कथा है कि सतयुग में राजा चित्रकेतु ने पुत्र प्राप्ति के लिये एक करोड़ स्त्रियों से विवाह किया परंतु एक भी पुत्र नहीं जन्मा । वैदिक विधि से पुत्रेष्टि यज्ञ के सफलतापूर्वक सम्पन्न करने से उनको पुत्र तो प्राप्त हुआ परंतु ईर्ष्या वश दूसरी रानियों ने उसको मार दिया। अब वह राजा पुनः अपने भाग्य के अनुसार पुत्र के अभाव के दुख में डूब गए ।
यह दृष्टांत दर्शाता है कि आप अपने इस जीवन में उद्यम करके कुछ भी प्राप्त करने के लिए स्वतंत्र हैं परंतु उपर्युक्त पाँच चीजें आप कठिन परिश्रम करके भी नहीं बदल सकते ।
कर्मणां संचितादीनां जीवोऽधीनस्तथापि हि । स्वतंत्रः क्रियमाणे वै कृतो भगवता विदा ॥
“यद्यपि सभी जीव संचित कर्मों से सीमित हैं तथापि वे वर्तमान में अच्छे या बुरे क्रियमाण कर्म करने के लिए स्वतंत्र हैं”।
अतः मन-बुद्धि से भली-भांति सोच-विचार कर कर्म योनि में जीव को क्रियमाण कर्मों पर ध्यान देना चाहिए तथा भाग्य पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। अत्यधिक परिश्रम करने पर भी यदि इच्छित फल की प्राप्ति न हो तो समझ लेना चाहिए यह हमारे प्रारब्ध में नहीं लिखा है। उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मी, र्दैवेन देयमिति कापुरुषा वदन्ति |
दैवं निहत्य कुरु पौरुषमात्मशक्त्या, यत्ने कृते यदि न सिध्यति कोऽत्र दोषः ॥ |
|
“लक्ष्मी (धन की देवी) पुरुषार्थ करने वाले कार्यशील-पुरुष के पास आती है, ‘ईश्वर कृपा या भाग्यवश प्राप्त होगा’, ये तो आलसी पुरुष कहते हैं | इसलिए देव (भाग्य) को छोड़ कर अपनी शक्ति से पौरुष (कर्म) करो, प्रयत्न करने पर भी यदि कार्य सिद्ध नहीं होता है तो यह सांत्वना अवश्य रहेगी कि प्रयत्न में कोई कमी नहीं थी”।
कातर मन कहँ एक अधारा । दैव दैव आलसी पुकारा ॥
आपे बीजि आपे ही खाहु । नानक हुकमी आवहु जाहु ॥ गुरु ग्रंथ साहब
आपे बीजि आपे ही खाहु । नानक हुकमी आवहु जाहु ॥ गुरु ग्रंथ साहब
उपर्युक्त उक्तियों से यह निष्कर्ष निकलता है कि प्रत्येक जीव को इच्छित फल की प्राप्ति के लिये कठिन परिश्रम करना होगा । परंतु उसमें नियति के अनुसार सफलता या असफलता मिल सकती है ।
यत्ने कृते यदि न सिध्यति कोऽत्र दोषः
“यदि कठिन परिश्रम से भी वांछित फल की प्राप्ति न हो तो यह सुनिश्चित हो जाता है कि यह भाग्य का परिणाम है अकर्मठता का नहीं “।
जब कोई कठिन परिश्रम से उच्च शिक्षा प्राप्त करता है तो यह निश्चित हो जाता है कि उसके भाग्य में वह लिखा था । इसी प्रकार जब गरीब को लॉटरी के द्वारा अत्यधिक धन की प्राप्ति होती है तो यह भी उसके भाग्य का ही परिणाम है । यद्यपि प्रत्येक जीव अनंतानंद की खोज में है फिर भी हर एक के जीवन में सुख-दुख आते-जाते रहते हैं। सुख - दुःख दोनों हमारे भाग्य में लिखे जाते हैं । क्योंकि हम अपने भाग्य से अनभिज्ञ हैं अतः हमको पूरी निष्ठा के साथ यथाशक्ति क्रियमाण कर्मों को कर शांति पूर्वक जीवन व्यतीत करना चाहिए। |
सारांश यह है कि जो भी दुःख या सुख हमें बिना किसी परिश्रम के प्राप्त होते हैं वे हमारे भाग्य का परिणाम हैं । क्योंकि जीव अपने भाग्य से अपरिचित हैं अतः इस लोक और परलोक में सुख शांति हेतु यथाशक्ति परिश्रम करना चाहिए । आवश्यक शारीरिक कर्म (धनार्जन) तथा लौकिक कर्म के अतिरिक्त जो भी समय बचे उसका उपयोग आध्यात्मिक उन्नति हेतु ही करना चाहिए।
श्री महाराज जी भगवत प्राप्ति करने के लिए रोज समय बांध कर कर्मसन्यास की साधना करने का निर्देश देते हैं । परंतु इसका यह तात्पर्य नहीं कि हम पूर्णतया आलसी हो जाएं । सभी मनुष्यों को समृद्ध जीवन यापन हेतु शारीरिक कर्म, मानसिक एवं कुछ लौकिक कर्म करने होंगे ।
परंतु विवेकपूर्वक हमें विचार करना चाहिए कि संसार के अत्यधिक लोभ से मन की सुख-शांति समाप्त हो जाती है । धन-संपत्ति से सुख मिलेगा यह एक भ्रम है । धन से भौतिक सुख- सुविधाएँ तो प्राप्त हो जायेंगी साथ ही यह भी सत्य है कि संपत्ति से परिवार में काम, क्रोध, लोभ, ईर्ष्या, चिंता, अविश्वास, शत्रुता और विवाद भी आते हैं । मन और परिवार की शांति का ह्रास होता है ।
विवेकी पुरुष को कठिन परिश्रम करके भरण-पोषण हेतु पर्याप्त धन-धान्य अर्जित करना होगा परंतु उससे अधिक संचय करना अविवेक का द्योतक है । अतः बुद्धिमान व्यक्ति अपना बाकी समय साधना करके भगवत प्राप्ति की ओर अग्रसर हो अपना वर्तमान तथा भविष्य संवार लेता है ।
अतः जीवन को सुखद बनाने हेतु सही चुनाव करना अत्यधिक महत्वपूर्ण है।
श्री महाराज जी भगवत प्राप्ति करने के लिए रोज समय बांध कर कर्मसन्यास की साधना करने का निर्देश देते हैं । परंतु इसका यह तात्पर्य नहीं कि हम पूर्णतया आलसी हो जाएं । सभी मनुष्यों को समृद्ध जीवन यापन हेतु शारीरिक कर्म, मानसिक एवं कुछ लौकिक कर्म करने होंगे ।
परंतु विवेकपूर्वक हमें विचार करना चाहिए कि संसार के अत्यधिक लोभ से मन की सुख-शांति समाप्त हो जाती है । धन-संपत्ति से सुख मिलेगा यह एक भ्रम है । धन से भौतिक सुख- सुविधाएँ तो प्राप्त हो जायेंगी साथ ही यह भी सत्य है कि संपत्ति से परिवार में काम, क्रोध, लोभ, ईर्ष्या, चिंता, अविश्वास, शत्रुता और विवाद भी आते हैं । मन और परिवार की शांति का ह्रास होता है ।
विवेकी पुरुष को कठिन परिश्रम करके भरण-पोषण हेतु पर्याप्त धन-धान्य अर्जित करना होगा परंतु उससे अधिक संचय करना अविवेक का द्योतक है । अतः बुद्धिमान व्यक्ति अपना बाकी समय साधना करके भगवत प्राप्ति की ओर अग्रसर हो अपना वर्तमान तथा भविष्य संवार लेता है ।
अतः जीवन को सुखद बनाने हेतु सही चुनाव करना अत्यधिक महत्वपूर्ण है।