आपको किस आनंद की खोज है? |
प्रश्न :
आप कहते हैं कि संसार में सुख नहीं है इसलिए भगवान से प्यार करो। मैं इस बात से असहमत हूँ। मुझे काम के बीच में कॉफ़ी शॉप में जाकर कॉफ़ी पीने में आनंद मिलता है। दोस्तों के साथ बाहर खाने और घूमने में मुझे बहुत मज़ा आता है। अपने परिवार के साथ मिलकर रात का खाना और फिल्म देखने के लिए मैं कुछ भी देने को तैयार हूँ। मुझे दुनिया घूमना, सैर-सपाटा करना बहुत ही पसंद है। ऐसे मैं आपको बहुत सारे उदहारण दे सकता हूँ। मेरा यह अनुभव है कि संसार में सुख है।
मेरे इस तर्क को आप कैसे काट पायेंगी ? मेरे जैसा कोई व्यक्ति भगवान की परवाह क्यों करें?
आप कहते हैं कि संसार में सुख नहीं है इसलिए भगवान से प्यार करो। मैं इस बात से असहमत हूँ। मुझे काम के बीच में कॉफ़ी शॉप में जाकर कॉफ़ी पीने में आनंद मिलता है। दोस्तों के साथ बाहर खाने और घूमने में मुझे बहुत मज़ा आता है। अपने परिवार के साथ मिलकर रात का खाना और फिल्म देखने के लिए मैं कुछ भी देने को तैयार हूँ। मुझे दुनिया घूमना, सैर-सपाटा करना बहुत ही पसंद है। ऐसे मैं आपको बहुत सारे उदहारण दे सकता हूँ। मेरा यह अनुभव है कि संसार में सुख है।
मेरे इस तर्क को आप कैसे काट पायेंगी ? मेरे जैसा कोई व्यक्ति भगवान की परवाह क्यों करें?
उत्तर
आपका संसार में आनंद पाने का कथन कुछ ही महीने पहले यूक्रेन वासी भी कहते होंगे, और अब जीवन-मरण की परिस्थिति का सामना कर रहे हैं । यह प्रत्यक्ष उदहारण है कि संसार का सुख क्षणिक है । अगर सांसारिक हानि यूक्रेन की स्थिती जैसी, या अंत्य रोग पीड़ित रोगी जैसी दारुण न भी हो, तो भी यह सत्य है कि सांसारिक सुख का एक दिन अंत होता ही है। उदहारण के लिए अगर आपको कॉफ़ी की एक कप में सुख मिलता है, तो यह सत्य है कि कॉफ़ी की एक कप आपको अनंत सुख तो नहीं दे सकता । बल्कि आप कॉफ़ी के ज़्यादा कप पिएँगे तो सुख मिलने के बजाय आपके स्वास्थ्य को हानि पहुँचेगी जिससे और दुख मिलेगा।
इस विषय के अन्वेषण से पूर्व इन प्रश्नों पर विचार कीजिए :-
इनमें से किसी भी प्रश्न का उत्तर “हाँ” नहीं होता (अथवा हो सकता) क्योंकि जीव का स्वभाव है कि वह अनंतकाल तक नित्य नवायमान व अनंत मात्रा का आनंद चाहता है जिसको दुख कभी भी आच्छादित न कर सके । यह जीव का स्वभाव है, अभ्यास द्वारा डाली गई आदत नहीं है।
आपके प्रश्न से स्पष्ट है कि आप आनंद को मानते हैं और चाहते हैं । तो आइए आनंद के विभिन्न प्रकार की चर्चा करते हैं।
आनंद के अनेक प्रकार होते हैं । प्रत्येक प्राप्तव्य को प्राप्त करने के लिए साधन करना होता है । इसलिए आइए सबसे पहले आनंद के प्रकार और उनको प्राप्त करने के साधन की चर्चा करते हैं । उसके पश्चात् आप अपनी इच्छा अनुसार इच्छित आनंद को प्राप्त करने की साधना करके लक्ष्य प्राप्त कर सकते हैं।
तो आइए अब आनंद के चार प्रकार का दिग्दर्शन करते हैं
इस विषय के अन्वेषण से पूर्व इन प्रश्नों पर विचार कीजिए :-
- क्या आपको ऐसे सुख की कामना है जो कुछ समय पश्चात समाप्त हो जाए?
- क्या आप प्राप्त वस्तुओं में इतने आसक्त हैं कि कोई नई वस्तु नहीं पाना चाहते ?
- क्या आप प्राप्त वस्तु के सेवन में इतने निमज्जित हैं कि उससे अच्छी वस्तु का तिरस्कार कर देंगे ?
इनमें से किसी भी प्रश्न का उत्तर “हाँ” नहीं होता (अथवा हो सकता) क्योंकि जीव का स्वभाव है कि वह अनंतकाल तक नित्य नवायमान व अनंत मात्रा का आनंद चाहता है जिसको दुख कभी भी आच्छादित न कर सके । यह जीव का स्वभाव है, अभ्यास द्वारा डाली गई आदत नहीं है।
आपके प्रश्न से स्पष्ट है कि आप आनंद को मानते हैं और चाहते हैं । तो आइए आनंद के विभिन्न प्रकार की चर्चा करते हैं।
आनंद के अनेक प्रकार होते हैं । प्रत्येक प्राप्तव्य को प्राप्त करने के लिए साधन करना होता है । इसलिए आइए सबसे पहले आनंद के प्रकार और उनको प्राप्त करने के साधन की चर्चा करते हैं । उसके पश्चात् आप अपनी इच्छा अनुसार इच्छित आनंद को प्राप्त करने की साधना करके लक्ष्य प्राप्त कर सकते हैं।
तो आइए अब आनंद के चार प्रकार का दिग्दर्शन करते हैं
आनंद के विभिन्न प्रकार
हमारा मन, बुद्धि तथा इंद्रियां जड़ हैं परंतु वे जीव शक्ति के कारण चैतन्यवत् प्रतीत होती हैं।संसार जड़ माया से प्रकट हुआ है अतः जड़ है। जब जड़ मन जड़ संसार के भोग से आनंद प्राप्त करता है तो उसे जड़-जड़ संयोगजन्य सुख कहते हैं । ऐसा सुख क्षणिक और सीमित मात्रा का होता है क्योंकि यह माया की आनंद दायिनी शक्ति (ह्लादिनी शक्ति) से प्राप्त होता है। यह राजस / तामस आनंद है जो हमें दिन-रात अनंत काल से मिलता रहा है। क्योंकि यह क्षणिक है इसलिए समाप्त हो जाता है और प्राप्त सुख से बड़ा सुख भी होता है जिसको पाने के लिए जीव ललचाता रहता है।
वेदों में एक मंत्र है -
वेदों में एक मंत्र है -
सैषाऽऽनंदस्य मीमांसा भवति । युवा स्यात्साधु युवाध्यायकः ।
आशिष्ठो दृढ़िष्ठो बलिष्ठो तस्येयं सर्वा पृथिवी वित्तस्य पूर्णा स्यात् स एको मानुष आनन्दः ॥
आशिष्ठो दृढ़िष्ठो बलिष्ठो तस्येयं सर्वा पृथिवी वित्तस्य पूर्णा स्यात् स एको मानुष आनन्दः ॥
”संपूर्ण विश्व का एक राजा हो । और उसकी युवावस्था हो, स्वस्थ हो, गुणवान हो, रूपवान हो, धनवान हो, सारे वान उसके पीछे लगे हों, संतान भी अनुकूल हो, प्रजा भी अनुकूल हो । यदि ऐसा कोई राजा हो तो उसको मृत्यु लोक का सबसे सुखी मनुष्य कहा जाएगा”। उस मनुष्य का जो सुख होगा उसका हजार गुना मनुष्य गंधर्व के लोक का सुख होता है। मनुष्य गंधर्व से हजार गुना देव गंधर्व का सुख, देव गंधर्व से हजार गुना पितृदेव का सुख, पितृदेव से हजार गुना आजानज देव का सुख, आजानज देव से हजार गुना कर्म देव का सुख, कर्म देव से हजार गुना बड़ा नित्य देव का सुख, नित्य देव से हजार गुना बड़ा इंद्र का सुख, इंद्र से हजार गुना बड़ा बृहस्पति का सुख, बृहस्पति से हजार गुना बड़ा प्रजापति का सुख, प्रजापति से हजार गुना बड़ा ब्रह्म लोक का सुख। ब्रह्मलोक में मायिक आनंद की पराकाष्ठा है । प्रत्येक जीव अनंत बार इन सब लोकों के सुख को भोग चुका है । परंतु हमें अपना पूर्व जन्म तो अभी याद नहीं है। इसलिए केवल इस जन्म की ही बात करते हैं। इस जन्म में हमने जन्म से लेकर अभी तक अनंत कामनाएँ बनाईं। उनमें से कई पूरी भी हुईं फिर भी तृष्णा ज्यों की त्यों बनी हुई है। हाथ कंगन को आरसी क्या? अतृप्ति यह सिद्ध करती है कि जिस आनंद की खोज में हम माया का सेवन करते हैं वो यहाँ है ही नहीं ।
जिस सुख का आपने वर्णन किया है वह इस श्रेणी में आता है । इस सुख को प्राप्त करने का हमें पर्याप्त ज्ञान है क्योंकि यही तो हम लोग करते हैं। इसका कारण यह है कि अनादिकाल से हमारा मन संसार में आसक्त है और इसलिए संसार में ही सुख को मानता है। हम दो हैं - एक शरीर और एक आत्मा। शरीर प्राकृत है और आत्मा दिव्य है। माया के कारण हमने अपने आप को सर्वदा देह माना है और अपने देह व इद्रियों के विषयों में ही सुख माना है।
कुछ इने गिने सौभाग्यशाली जीव हैं जो भगवत्प्राप्त संत से यह जान पाते हैं कि इससे आगे आत्मा के सुख के और स्तर हैं। चलिए अब इनके बारें में जानते हैं।
कुछ इने गिने सौभाग्यशाली जीव हैं जो भगवत्प्राप्त संत से यह जान पाते हैं कि इससे आगे आत्मा के सुख के और स्तर हैं। चलिए अब इनके बारें में जानते हैं।
जीव (आत्मा) सच्चिदानंद ब्रह्म का अंश है अतः चेतन है। जड़ मन को जब आत्मा की अनुभूति होती है तो वह जड़ चेतन संयोगजन्य सुख कहलाता है। इसी को आत्म-ज्ञान भी कहते हैं । यह आनंद इतने उच्च कोटि का होता है कि आत्म ज्ञानी स्वतः भौतिक वस्तुओं से विरक्त हो जाता है । ज्ञानी के मन को भौतिक पदार्थ नीरस लगने लगता है । उसको यह ज्ञात हो जाता है की मायिक पदार्थों से सुख प्राप्ति की कामना मृगतृष्णा के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । इसके अलावा, भौतिक पदार्थ से प्राप्त आनंद क्षणभंगुर है और फिर उसके विरह में पुनः दुख मिलता है। आत्मा दिव्य है । अत: आत्म-सुख की प्राप्ति पर जीव को नीरस संसार से सुख प्राप्त करने की चेष्टा करना व्यर्थ लगता है।
अंतःकरण की निर्विकल्प समाधि में ज्ञानी को ऐसे आनंद की अनुभूति होती है । ऐसी स्थिति में सत्व गुण की प्रधानता होती है तथा राजस व तामस गुण जन्य भौतिक संसार की इच्छाएँ और चिंताएँ प्रसुप्त हो जाती हैं । यह सुख जीव की ह्लादिनी शक्ति का फल है। यह ईश्वर की दिव्य ह्लादिनी शक्ति (आनंद दायिनी शक्ति) का परिणाम नहीं है। अतः ऐसा ज्ञानी राजस तथा तामस माया को जीत लेता है परंतु सात्विक माया के पार नहीं जा पाता। क्योंकि -
अंतःकरण की निर्विकल्प समाधि में ज्ञानी को ऐसे आनंद की अनुभूति होती है । ऐसी स्थिति में सत्व गुण की प्रधानता होती है तथा राजस व तामस गुण जन्य भौतिक संसार की इच्छाएँ और चिंताएँ प्रसुप्त हो जाती हैं । यह सुख जीव की ह्लादिनी शक्ति का फल है। यह ईश्वर की दिव्य ह्लादिनी शक्ति (आनंद दायिनी शक्ति) का परिणाम नहीं है। अतः ऐसा ज्ञानी राजस तथा तामस माया को जीत लेता है परंतु सात्विक माया के पार नहीं जा पाता। क्योंकि -
सत्वाद् संजायते ज्ञानम्
“सत्त्वगुण से ज्ञान का उदय होता है"; यह ज्ञान माया के सत्त्वगुण से उत्पन्न होता है।
माया दो प्रकार की होती है
1. स्वरूपावरिका माया (अविद्या माया) जो जीव के असली रूप को भुला देती है,
2. गुणावरिका माया (त्रिगुणात्मक माया, विद्या माया) जो जीव को संसार में आसक्त कर देती है ।
इस स्तर पर आत्मज्ञानी
जब तक ऐसा ज्ञानी समाधिस्थ अवस्था में रहता है तब तभी तक वह मायिक प्रलोभनों से बचा रहता है । बाहर आते ही तनिक सी असावधानी से पुनः पतन हो सकता है । अतः यह सुख भी वह आनंद नहीं है जिसको हम चाहते हैं।
इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए ज्ञान मार्ग का अवलंब लेना होगा।
माया दो प्रकार की होती है
1. स्वरूपावरिका माया (अविद्या माया) जो जीव के असली रूप को भुला देती है,
2. गुणावरिका माया (त्रिगुणात्मक माया, विद्या माया) जो जीव को संसार में आसक्त कर देती है ।
इस स्तर पर आत्मज्ञानी
- स्वरूपावरिका माया से मुक्त हो जाता है ।
- क्योंकि गुणावरिका माया अभी भी हावी है अतः ज्ञान की इस अवस्था से पतन होने का भय बना रहता है। जड़ भरत इस तरह के पतन का उदाहरण हैं ।
जब तक ऐसा ज्ञानी समाधिस्थ अवस्था में रहता है तब तभी तक वह मायिक प्रलोभनों से बचा रहता है । बाहर आते ही तनिक सी असावधानी से पुनः पतन हो सकता है । अतः यह सुख भी वह आनंद नहीं है जिसको हम चाहते हैं।
इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए ज्ञान मार्ग का अवलंब लेना होगा।
इसे ब्रह्मानंद भी कहते हैं। यह सुख दिव्य आत्मा को दिव्य परात्पर ब्रह्म के निराकार रूप के मिलन पर मिलता है । इस अवस्था में, आत्मा अनंत काल के लिए माया के चंगुल से मुक्त हो जाती है और ब्रह्म के दिव्य चिन्मय स्वरूप का अनुभव करती है । ब्रह्मलीन होने पर अंतः करण नहीं रहता अतः वह जीव भगवान के दिव्य प्रेम, रूप और लीलाओं के निरंतर बढ़ते (प्रतिक्षण वर्धमान), निरंतर नए (नित्य नवायमान) और असीमित (भूमा) आनंद का रस नहीं ले सकता है। वह कभी माया के जाल में नहीं फँसेगा और 84 लाख के आवागमन से भी मुक्त हो जाएगा । शुद्ध आत्मा परमात्मा में लीन हो जाएगी । तो, वो उस आनंद का आनंद लिए बिना हमेशा आनंद के अथाह सागर में रहेगा । इस अवस्था की तुलना अनंतकाल के लिए निश्चेतनावस्था (coma) से की जा सकती है।
तो, इस अवस्था में दुख के साथ-साथ सुख का भी अभाव हो गया अतः इस तरह का आनंद भी हमारा वांछित लक्ष्य नहीं है।
इस आनंद को प्राप्त करने के लिए ज्ञानयोग का अवलंब लेना होगा। अर्थात ज्ञान मार्ग के साथ-साथ निर्गुण निराकार बह्म की उपासना करनी होती है ।
तो, इस अवस्था में दुख के साथ-साथ सुख का भी अभाव हो गया अतः इस तरह का आनंद भी हमारा वांछित लक्ष्य नहीं है।
इस आनंद को प्राप्त करने के लिए ज्ञानयोग का अवलंब लेना होगा। अर्थात ज्ञान मार्ग के साथ-साथ निर्गुण निराकार बह्म की उपासना करनी होती है ।
यह दिव्य मन का ज्ञानावस्था में दिव्य परमात्मा से मिलन पर मिलता है । यह इतना वृहद है कि यदि आप ब्रह्मानंद को नील (1 के बाद 17 शून्य) से गुणा कर दें तो भी वह इस आनंद की एक बूंद से भी कम होगा । यह आनंद प्रतिक्षण बढ़ता ही जाता है, नित्य नवायमान होता है और अनंत काल के लिए मिल जाता है। इससे बड़ा कुछ होता ही नहीं तो प्राप्त वस्तु से अच्छी वस्तु देखकर प्राप्त वस्तु का आनंद समाप्त होने वाली स्थिति आ ही नहीं सकती।
तो, यह वह वांछनीय आनंद है जिसे हम खोज रहे हैं। और इसीलिए हमें पहले 2 प्रकार के सुख अनगिनत बार मिले, फिर भी हम संतुष्ट नहीं हैं। चूंकि हमारी नैसर्गिक तृष्णा का शमन नहीं हुआ । और तीसरे में कोई सुख या दुख नहीं है ।
इस चौथे सुख को प्राप्त करने के लिए भक्ति मार्ग का अवलंब लेना होगा।
कठोपनिषद् कहता है -
इस चौथे सुख को प्राप्त करने के लिए भक्ति मार्ग का अवलंब लेना होगा।
कठोपनिषद् कहता है -
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।
(कठोप.१-३-१४)
“उठो, जागो, महापुरुष के पास जाओ, उनसे भगवदीय ज्ञान प्राप्त करो और उनके उपदेशों का पालन करो।”
भगवान कह रहे हैं : जीव तेरा लक्ष्य ऊपर को जाना होना चाहिए । नीचे को अधोगति नहीं । ऊपर जाने के लिए महापुरुष के पास जा, जिसको मैं मिल चुका हूँ, उसके पास जा ।
जीव : और क्या करूँ जाकर ?
भगवान: निबोधत । ज्ञान प्राप्त कर खाली बोधत नहीं । निबोधत माने विश्वास कर ले, उनकी बात पर गांठ बांध ले । तब प्रैक्टिकल कर और अगर सुन लिया लापरवाही से तो उससे कुछ लाभ नहीं होगा ।
जीव : और क्या करूँ जाकर ?
भगवान: निबोधत । ज्ञान प्राप्त कर खाली बोधत नहीं । निबोधत माने विश्वास कर ले, उनकी बात पर गांठ बांध ले । तब प्रैक्टिकल कर और अगर सुन लिया लापरवाही से तो उससे कुछ लाभ नहीं होगा ।
आनंद के विभिन्न स्तरों तथा उन्हें प्राप्त करने की साधना का ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात आपको इन चारों में से एक लक्ष्य को चुनना होगा और उसके लिए साधना करनी होगी । वे चार लक्ष्य हैं -
- सीमित व क्षणिक सुख
- दुख निवृत्ति और उस स्थिति से गिरने का भय
- निर्गुण निराकार ब्रह्मानंद प्राप्त कर सुख-दुख की निवृत्ति या
- दिव्य सगुण साकार भगवान का अनंत, प्रतिक्षण वर्धमान, नित्यनवायमान आनंद।
निःसंदेह संसार में सुख है, लेकिन वह हमें तृप्त नहीं करता । यह थोड़े समय के लिए इंद्रियों को तृप्त करता है और फिर क्षीण हो जाता है, फिर अंततः दुख में परिणित हो जाता है। इसलिए भौतिक सुख को "सुख का भ्रम" नाम दिया गया है।
अनादिकाल से सांसारिक वस्तुओं में सुख मानने के अभ्यास के कारण, सांसारिक सुख का सर्वथा त्याग करना सहसा नहीं होगा। सांसारिक कामना जड़ से गुरु कृपा से ही जाएगी तदर्थ जीव को साधना करनी होगी । वास्तव में, जीव में ऐसी क्षमता ही नहीं है कि वह सारी कामनाओं को निर्मूल समाप्त कर सके। जब हम बार-बार चिंतन द्वारा संसार की जड़ वस्तुओं से आनंद मिलने की अपेक्षा में उनमें इतने आसक्त हो गए हैं तो, ज़रा सोचिये, भगवान्, जो आनंद सिंधु हैं, थोड़े से अभ्यास से मन उनमें कितना अनुरक्त हो जाएगा । बस थोड़े से अभ्यास से मन बड़ी सरलता से भगवान् की तरफ खिंच जायेगा। जब हम इस बात का लगातार मनन करके गुरु के उपदेशों का पालन करेंगे, हमारा मन शुद्ध होता जायेगा। फलस्वरूप, गुरु की कृपा का अनुभव होने लगेगा जिससे हमारी सांसारिक कामनायें कम होती जायेंगी। गुरु एक क्षण को भी साधक का साथ नहीं छोड़ते । वे तो सदैव आध्यात्मिक पथ के हर पग पर सहायता करने के लिए आतुर रहते हैं । और इस पथ की विशिष्टता यह है कि जैसे जैसे हम आगे बढ़ते जायेंगे, तैसे-तैसे हमारा आनंद भी बढ़ता जाता है। बस हमें दृढ़ विश्वास और निष्ठा के साथ अभ्यास करते जाना है।
अब हमें अपने जीवन का चरम लक्ष्य समझ में आ गया है, जो वास्तविक, अनंत आनंद है और हमें यह भी समझ में आ गया है कि वह हमें कहाँ मिलेगा। भगवान् ने जीव को उपर्युक्त चार प्रकार के आनंद में से इच्छित आनंद को चुनने की स्वतंत्रता दी है। बुद्धिमान व्यक्ति अपनी वास्तविक इच्छा से कम में कभी समझौता नहीं करते !
अनादिकाल से सांसारिक वस्तुओं में सुख मानने के अभ्यास के कारण, सांसारिक सुख का सर्वथा त्याग करना सहसा नहीं होगा। सांसारिक कामना जड़ से गुरु कृपा से ही जाएगी तदर्थ जीव को साधना करनी होगी । वास्तव में, जीव में ऐसी क्षमता ही नहीं है कि वह सारी कामनाओं को निर्मूल समाप्त कर सके। जब हम बार-बार चिंतन द्वारा संसार की जड़ वस्तुओं से आनंद मिलने की अपेक्षा में उनमें इतने आसक्त हो गए हैं तो, ज़रा सोचिये, भगवान्, जो आनंद सिंधु हैं, थोड़े से अभ्यास से मन उनमें कितना अनुरक्त हो जाएगा । बस थोड़े से अभ्यास से मन बड़ी सरलता से भगवान् की तरफ खिंच जायेगा। जब हम इस बात का लगातार मनन करके गुरु के उपदेशों का पालन करेंगे, हमारा मन शुद्ध होता जायेगा। फलस्वरूप, गुरु की कृपा का अनुभव होने लगेगा जिससे हमारी सांसारिक कामनायें कम होती जायेंगी। गुरु एक क्षण को भी साधक का साथ नहीं छोड़ते । वे तो सदैव आध्यात्मिक पथ के हर पग पर सहायता करने के लिए आतुर रहते हैं । और इस पथ की विशिष्टता यह है कि जैसे जैसे हम आगे बढ़ते जायेंगे, तैसे-तैसे हमारा आनंद भी बढ़ता जाता है। बस हमें दृढ़ विश्वास और निष्ठा के साथ अभ्यास करते जाना है।
अब हमें अपने जीवन का चरम लक्ष्य समझ में आ गया है, जो वास्तविक, अनंत आनंद है और हमें यह भी समझ में आ गया है कि वह हमें कहाँ मिलेगा। भगवान् ने जीव को उपर्युक्त चार प्रकार के आनंद में से इच्छित आनंद को चुनने की स्वतंत्रता दी है। बुद्धिमान व्यक्ति अपनी वास्तविक इच्छा से कम में कभी समझौता नहीं करते !
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उल्लिखित कतिपय अन्य प्रकाशन आस्वादन के लिये प्रस्तुत हैं
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