ब्रह्म, ईश्वर, खुदा, अल्लाह ये सब उस परात्पर ब्रह्म के पर्यायवाची हैं जो अखिल ब्रह्माण्ड का नियंत्रक है । ब्रह्म का शाब्दिक अर्थ है, वृहत् अर्थात बड़ा ।
ब्रह्म बड़ा ही नहीं अपितु वह सबसे बड़ा है। पेड़ बड़ा होता है, उससे बड़ा समुद्र एवं आकाश समुद्र से भी बड़ा होता है । संसार में एक से एक बड़ी वस्तुएँ हैं । स्पष्टतः ब्रह्म से बड़ा कुछ भी नहीं है, अन्यथा प्रलय के समय में समस्त चराचर जगत ब्रह्म के महोदर में कैसे विलीन होता? तो इस संसार के प्रत्येक प्राणी व प्रत्येक वस्तु से वह सबसे बड़ा है परन्तु कितना बड़ा है? वेद कहता है - सत्यं ज्ञानमनंतम् ब्रह्म । (वेद)
“वह अनंत मात्रा का बड़ा है”, अर्थात उसकी कोई सीमा नहीं है।
अतः संस्कृत व्याकरण के अनुसार ब्रह्म की दो परिभाषाएँ वेदों ने की हैं - |
वृहति वृंहयति इति तत्परं ब्रह्म । - रहस्य अग्नाय ब्राह्मण
तो वह किसको बड़ा करते हैं ? जो जीव शरणागत हो जाए उस जीव को उसी क्षण ब्रह्म अपनी सभी शक्तियाँ देकर अपने समान बड़ा बना देते हैं । इन्हीं मायातीत जीवों को भगवत् प्राप्त संत कहते हैं। जानत तुमहिं तुमहिं है जाई ॥
"जो तुम्हें जान ले वह तुम्हारे समान हो जाता है।" यद्यपि वेद कहता है -
न तत्स्मश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते । श्वेताश्वतरोपनिषद् ६-८
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"कोई भी तत्व भगवान के समकक्ष भी नहीं है, उनसे बड़ा होना तो असम्भव है” । यद्यपि वे सबसे बड़े हैं तथापि वे पामर जीव के शरणागत होने पर कृपा द्वारा जीव को अपने समान बना देता है। अर्थात ब्रह्म अपनी सभी शक्तियाँ जीव को भगवत् प्राप्ति के उपरांत प्रदान कर अपने समान बना देते हैं ।
संपूर्ण ब्रह्मांड में केवल तीन ही अनादि अनंत तत्व हैं, ब्रह्म, जीव एवं माया । ब्रह्म तथा जीव चेतन हैं और माया जड़ है । यद्यपि माया अनादि अनंत है तथापि माया से उत्पन्न संसार सादि सांत है। जीव और ब्रह्म में भेदाभेद सम्बंध है । दोनों चेतन तथा अनादि हैं अतः जीव और ब्रह्म में अभेद है । अभेद के साथ-साथ बहुत से भेद भी हैं । उनमें से कुछ तालिका में दी गये हैं । |
भगवान के अनंत स्वरूप होते हैं परंतु मूल रूप से हम भगवान को 2 रूपों में विभक्त किया जा सकता है - एक निराकार स्वरूप दूसरा साकार स्वरूप ।
भगवान का निर्गुण निर्विशेष सर्वव्यापक स्वरूप निराकार स्वरूप कहलाता है। इस स्वरूप में भगवान की सभी शक्तियाँ सुसुप्त अवस्था में रहती हैं अर्थात उनका विकास नहीं होता । केवल सत् अर्थात सर्वव्यापकता, चित अर्थात सर्वज्ञता, आनंद अर्थात नित्यानंद की शक्तियां ही विकसित होती हैं अतः इस निराकार ब्रह्म को सच्चिदानंद कहा जाता है। ब्रह्म के इस रूप के उपासक को ज्ञानी कहा जाता है और उनका अंतिम लक्ष्य मोक्ष होता है । मुक्ति होने पर जीव सदा के लिए माया के बंधन से मुक्त हो जाता है । मुक्तज्ञानी मरणोपरांत सदा के लिये निर्गुण निराकार ब्रह्म में विलीन हो जाता है । यह सुख सदा एकरस रहता है ।
ब्रह्म का सगुण सविशेष साकार रूप भी होता है । साकार ब्रह्म के दो स्वरूप होते हैं ।
साकार रूप में परमात्मा का नाम, रूप, गुण एवं धाम होता है परंतु लीला परिकर नहीं होते । यह ऐश्वर्य प्रधान रूप है जिसमें उनकी चार भुजाएँ होती हैं और उनको महाविष्णु कहा जाता है । परमात्मा योगियों के उपास्य हैं । महाविष्णु के धाम का नाम वैकुंठ है। इस मार्ग के अनुगामी भी अनंत आनंद अनंत ज्ञान को प्राप्त कर वैकुंठ को प्राप्त करते हैं । वहां वे निरंतर परमात्मा के दर्शन व सानिध्य से दिव्यानंद प्राप्त करते हैं । सगुण साकार परमात्मा के आनंद का वैलक्षण्य ब्रह्मानंद से अनंत गुना अधिक होता है ।
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सगुण साकार रूप का जब मृत्युलोक में अवतरण होता है तो भगवान कहते हैं। इस स्वरूप में वे अपनी समस्त ऐश्वर्य युक्त शक्तियों को छिपाकर केवल प्रेमा शक्ति को अपने नाम, रूप, लीला, गुण, धाम एवं परिकर के रूप में प्रकट करते हैं।
भगवान का यह स्वरूप भक्तों को अधिक प्रिय होता है क्योंकि इसमें प्रेम की प्रधानता होती है । भक्तगण प्रभू के प्रेम के वशीभूत होकर उनकी भगवता को भूल जाते हैं तथा उन को चार भावों से प्रेम करते हैं वे चार भाव हैं दास्य,सख्य, वात्सल्य एवं माधुर्य। भगवान की भगवतता को बिसारकर उनके साथ निःसंकोच प्रेम करने का आनंद अपरिमेय है। इसीलिए साधक गण मोक्ष तथा वैकुंठ दोनों के आनंद को ठुकरा देते हैं । यहाँ तक कि आत्मज्ञानी अपने ब्रह्मानंद को ठुकरा कर प्रेमानंद में निमज्जित हो जाते हैं यथा श्री शुकदेव परमहंस, राजा जनक । स्वयं श्री कृष्ण के मित्र उद्धव अपने ब्रह्मानंद को छोड़कर प्रेमानंद में निमग्न हो गए । परंतु संपूर्ण इतिहास में एक भी उदाहरण नहीं है जिसने प्रेमानंद को छोड़कर ब्रह्मानंद को अपनाया हो ।
जब भगवान राम ने हनुमान जी की निःस्वार्थ सेवा से प्रसन्न होकर उन्हें मोक्ष देना चाहा तो हनुमान जी ने साफ़ इंकार कर दिया -
भगवान का यह स्वरूप भक्तों को अधिक प्रिय होता है क्योंकि इसमें प्रेम की प्रधानता होती है । भक्तगण प्रभू के प्रेम के वशीभूत होकर उनकी भगवता को भूल जाते हैं तथा उन को चार भावों से प्रेम करते हैं वे चार भाव हैं दास्य,सख्य, वात्सल्य एवं माधुर्य। भगवान की भगवतता को बिसारकर उनके साथ निःसंकोच प्रेम करने का आनंद अपरिमेय है। इसीलिए साधक गण मोक्ष तथा वैकुंठ दोनों के आनंद को ठुकरा देते हैं । यहाँ तक कि आत्मज्ञानी अपने ब्रह्मानंद को ठुकरा कर प्रेमानंद में निमज्जित हो जाते हैं यथा श्री शुकदेव परमहंस, राजा जनक । स्वयं श्री कृष्ण के मित्र उद्धव अपने ब्रह्मानंद को छोड़कर प्रेमानंद में निमग्न हो गए । परंतु संपूर्ण इतिहास में एक भी उदाहरण नहीं है जिसने प्रेमानंद को छोड़कर ब्रह्मानंद को अपनाया हो ।
जब भगवान राम ने हनुमान जी की निःस्वार्थ सेवा से प्रसन्न होकर उन्हें मोक्ष देना चाहा तो हनुमान जी ने साफ़ इंकार कर दिया -
भवबंधच्छिदे तस्मै स्पृहयामि नमुक्तये।
भवान्प्रभुरहं दास इति यत्र विलुप्यते।।
भवान्प्रभुरहं दास इति यत्र विलुप्यते।।
बा. रामायण
"मुक्ति को अपनाने से मैं अपने स्वामी राम की सेवा के अनिर्वचनीय आनंद से वंचित हो जाऊँगा । अतः मुझे मोक्ष नहीं चाहिए।"
अवतारों का क्रम
भगवान श्री कृष्ण ही परात्पर ब्रह्म हैं । वे सभी अवतारों का स्रोत हैं अर्थात अवतारी हैं तथा कालांतर में अनंत अवतार लेते रहते हैं । ये अवतार परात्पर ब्रह्म की किसी कला विशेष के अवतार होते हैं और उद्देश्य अनुसार गुणों को प्रदर्शित करते हैं । परंतु जब पूर्णतम पुरुषोत्तम भगवान श्री कृष्ण के रूप में अवतरित होते हैं तो वे अपनी समस्त कलाओं व गुणों के साथ अवतरित होते हैं ।
सृष्टि से पूर्व भगवान श्री कृष्ण ने अपनी एक कला को प्रकट किया जिन्हें कार्णार्णवशायी महाविष्णु कहते हैं । श्रीमद्भागवत कहती हैं-
सृष्टि से पूर्व भगवान श्री कृष्ण ने अपनी एक कला को प्रकट किया जिन्हें कार्णार्णवशायी महाविष्णु कहते हैं । श्रीमद्भागवत कहती हैं-
यस्यैक निःश्वसितकालमथावलम्ब्य जीवन्ति लोमविलजाः जगदण्ड नाथा।
विष्णुर्महान्स इह यस्य कलाविशेषो, गोविंदमादि पुरुषं तमहं भजामि ।। भागवत
विष्णुर्महान्स इह यस्य कलाविशेषो, गोविंदमादि पुरुषं तमहं भजामि ।। भागवत
यह प्रथम अवतार है अतः उन्हें प्रथम पुरुष भी कहा जाता है ।
कार्णार्णवशायी से गर्भोदशायी महाविष्णु प्रकट हुए । इनको द्वितीय पुरुष कहा जाता है ।
इसी प्रकार क्षीरोदशायी महाविष्णु का प्राकट्य गर्भोदशायी महाविष्णु से हुआ । इनको तृतीय पुरुष कहा जाता है ।
एक चतुर्युग में 10 प्रमुख अवतारों का प्राकट्य क्षीरोदशायी महाविष्णु से होता है।
कार्णार्णवशायी से गर्भोदशायी महाविष्णु प्रकट हुए । इनको द्वितीय पुरुष कहा जाता है ।
इसी प्रकार क्षीरोदशायी महाविष्णु का प्राकट्य गर्भोदशायी महाविष्णु से हुआ । इनको तृतीय पुरुष कहा जाता है ।
एक चतुर्युग में 10 प्रमुख अवतारों का प्राकट्य क्षीरोदशायी महाविष्णु से होता है।
कृपया ध्यान दीजिये: प्रत्येक कल्प में 994 द्वापर युग होते हैं और प्रत्येक द्वापर युग में श्री कृष्ण अवतार लेते हैं । परंतु 994 में से 993 बार क्षीरोदशायी महाविष्णु भगवान श्री कृष्ण के रूप में अवतार लेते हैं। यह अवतार ऐश्वर्य की लीलाएँ जैसे महाभारत आदि करते हैं परंतु प्रेम की अंतरंग लीलाएँ नहीं करते ।
वे लीलाएँ कल्प के सातवें मनवन्तर के 28वें द्वापर युग में स्वयं श्री राधा कृष्ण एक साथ अवतरित होकर करते हैं । इस कल्प में श्री राधा रानी व स्वयं श्री कृष्ण ने 5000 वर्ष पूर्व अवतरित हो महारास आदि की परम रसमयी लीलाओं का रसास्वादन अधिकारी भक्तों को कराया था।
वे लीलाएँ कल्प के सातवें मनवन्तर के 28वें द्वापर युग में स्वयं श्री राधा कृष्ण एक साथ अवतरित होकर करते हैं । इस कल्प में श्री राधा रानी व स्वयं श्री कृष्ण ने 5000 वर्ष पूर्व अवतरित हो महारास आदि की परम रसमयी लीलाओं का रसास्वादन अधिकारी भक्तों को कराया था।
सर्वेश्वर ब्रह्म श्री कृष्ण एक कल्प में एक बार आते हैं। एक कल्प ब्रह्मा का 1 दिन होता है।
चतुर्युग 4,320,000 मानव वर्ष का होता है । प्रत्येक चतुर्युग में क्षीरोदशायी महाविष्णु अनेकों बार मत्युलोक में अवतरित होते हैं। अतः ऐसे अवतार युगवतार कहलाते हैं । जो लोग इस रहस्य से अवगत नहीं हैं वे क्षीरोदशायी महाविष्णु को ही सर्वेश्वर मान लेते हैं । हमारे सनातन शास्त्रों के अनुसार क्षीरोदशायी महाविष्णु चतुर्थ श्रेणी पर हैं ।
भगवान श्री कृष्ण ही सर्वेश्वर हैं । उनको प्राप्त करके ही जीव परमानंद की प्राप्ति करता है। उस परमानंद की प्राप्ति उनकी कृपा के बिना असंभव है । उनकी कृपा की प्राप्ति अनन्य भाव से निरंतर निष्काम साधना भक्ति द्वारा ही संभव है। भगवान श्री कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए उनसे निरंतर निष्काम प्रेम (3) करने की साधना करनी होगी ।