प्रश्न: आत्मज्ञानी को भी संसार से वैराग्य होता है तथा भक्त को भी संसार से वैराग्य होता है। आत्मज्ञानी का वैराग्य भक्त के वैराग्य से किस प्रकार भिन्न है?
उत्तर : भगवत-प्रप्ति के हेतु ज्ञान मार्ग (पढ़ें Gyan) का अव्लम्ब लेने वाले ज्ञानी का लक्ष्य, भगवान के निर्गुण निराकार रूप (ब्रह्म) में लीन होना है । वह भगवान के साकार रूप (अवतारों में) में विश्वास नहीं करता है। इस पथ का अव्लम्ब लेने में अधिकारित्व की आवश्यकता है निर्विण्णानां ज्ञानयोगः
“ज्ञान मार्ग पूर्णतया संसार से विरक्त जीवों के लिये है”।
सर्वप्रथम ज्ञान मार्ग की प्रवेशिका में, ज्ञानाकांक्षी को भौतिक संसार के सभी पदार्थों का संपूर्ण त्याग करके मन पर विजय प्राप्त करना होता है । मन की इस अवस्था को साधन चतुष्टय संपन्न (अधिक जानकारी के लिए Gyan देखें) कहते हैं । |
तत्पश्चात साधक को आठ वैराग्य के स्तरों को पार करना होता है (अधिक जानकारी के लिए Gyan देखें) । इतना कठिन परिश्रम करने के पश्चात भी मोक्ष प्राप्ति निश्चित नहीं है क्योंकि ज्ञान मार्ग अत्यधिक दुर्गम है । भागवत कहती है --
येऽन्येरविन्दाक्ष विमुक्तमानिनस्त्वय्यस्तभावादविशुद्ध बुद्धयः ।
आरुह्यकृच्छ्रेण परं पदं ततः पतन्त्यधो नादृतयुष्मदंघ्र्यः॥ भाग. १०.२.३३
आरुह्यकृच्छ्रेण परं पदं ततः पतन्त्यधो नादृतयुष्मदंघ्र्यः॥ भाग. १०.२.३३
"ज्ञान के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचने से पूर्व ज्ञानी का कई बार पतन होता है क्योंकि इस पथ पर अनेक बाधाएँ हैं “।
गीता में श्री कृष्ण कहते हैं --
गीता में श्री कृष्ण कहते हैं --
मनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये । यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः गीता ७.३
“इने गिने व्यक्ति ही इस मार्ग पर चलने का साहस करते हैं । और उनमें से भी हजारों में कोई एक मुझे प्राप्त करता है” । अतः जो लोग हजारों जन्मों तक कठिन परिश्रम करना चाहते हैं वे ही इस पथ पर चलने का दुस्साहस करें।
भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं --
भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं --
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान मां प्रपद्यते। वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥ गीता ७.१९॥
“इस प्रकार की हजारों जन्मों की साधना के बाद जो मुझे समर्पण करते हैं वे अति सौभाग्यशाली हैं”।
ज्ञान मार्ग की तुलना में भक्ति मार्ग अति सरल है।
ज्ञान मार्ग की तुलना में भक्ति मार्ग अति सरल है।
नातिसक्तो न वैराग्यभागस्यामधिकार्यसौ॥ भ. र.सिं.
“जो संसार से न पूर्ण विरक्त हो और संसार में न ही पूर्ण आसक्त हो वह भक्ति करने का अधिकारी है” । संसार में किसी को पराकष्ठा का आनंद नहीं मिलता अतः सब ही भक्ति के अधिकारी हैं ।
शास्त्रतः श्रूयते भक्तौ नृमात्रस्याधिकारिता ॥ भ. र.सिं.
“भक्ति मार्ग में किसी अधिकारित्व की अपेक्षा नहीं है । ज्ञान मार्ग केवल बुद्धिमान एवं तर्कशील व्यक्तियों के लिए है”। परंतु भक्ति मार्ग का अनुसरण तो ध्रुव प्रहलाद जैसे छोटे बच्चे भी कर सकते हैं ।
ज्ञानी को स्वंय के बल पर ही संसारी प्रलोभनों को त्यागना होता है । इसलिए ज्ञानी का बार-बार पतन होता है। अन्ततोगत्वा ज्ञानी को भी साकार ब्रह्म की भक्ति करे बिना लक्ष्य की प्रप्ति नहीं होगी।
भगवान के सगुण साकार रूप की उपासना करने वाला भक्त सदा ही भगवान की कृपा पर निर्भर रहता है । वह केवल भगवान के आश्रित होकर इस पथ पर चलता है अतः भगवान उसको सहारा देते हैं तथा हर क्षण उसकी रक्षा करता है। श्रीमद्भागवत कहती है ---
ज्ञानी को स्वंय के बल पर ही संसारी प्रलोभनों को त्यागना होता है । इसलिए ज्ञानी का बार-बार पतन होता है। अन्ततोगत्वा ज्ञानी को भी साकार ब्रह्म की भक्ति करे बिना लक्ष्य की प्रप्ति नहीं होगी।
भगवान के सगुण साकार रूप की उपासना करने वाला भक्त सदा ही भगवान की कृपा पर निर्भर रहता है । वह केवल भगवान के आश्रित होकर इस पथ पर चलता है अतः भगवान उसको सहारा देते हैं तथा हर क्षण उसकी रक्षा करता है। श्रीमद्भागवत कहती है ---
तथा न ते माधव तावकाः क्वचिद् भ्रश्यंति मार्गात् त्वयि बद्धसौहृदाः।
“भगवान स्वयं साधक की रक्षा करते हैं अतः साधक निडर हो कर चलता है "। ज्ञानी बंदर के उस बच्चे के समान है जो स्वयं अपनी माँ को पकड़ता है। क्योंकि बच्चा कमजोर होता है, जब उसकी माँ एक शाखा से दूसरी शाखा पर छलांग लगाती है तो, कई बार वह गिरकर घायल हो जाता है। जबकि भक्त बिल्ली के उस बच्चे के समान है जिसकी माँ स्वयं उसे अपने मुख में लेकर चलती है । अतः उसके गिरकर घायल होने की संभावना कम होती है ।
ज्ञानार्जन तथा त्याग अंतःकरण की शुद्धि के लिए पर्याप्त नहीं है। ज्ञानी अपने बल पर माया के राजस व तामस गुणों को तो पार कर लेता है परंतु सत्वगुण फिर भी रहता है । आत्मज्ञान सत्वगुण से उत्पन्न होता है। इस अवस्था को प्राप्त जीव को आत्मज्ञानी कहते हैं। (पढ़ें ज्ञानी मायिक बुद्धि से दिव्य आत्मा के कैसे?) अपने परम चरम लक्ष्य, परिपूर्ण ब्रह्म ज्ञान एवं मोक्ष की प्राप्ति तथा भवसागर से उत्तीर्ण होने हेतु ज्ञानी को भगवान श्री कृष्ण की भक्ति करनी ही होगी। ज्ञान के सर्वोच्च प्रवर्तक जगदगुरु शंकराचार्य के अनुसार ये द्वन्द मोह विनीर्मुक्ता भजम्ते मां दृढ़व्रताः ॥
शुद्धयति हि नान्तरात्मा कृष्णपदाम्भोजभक्तिमृते ॥ शंकराचार्य |
“भगवान श्री कृष्ण की भक्ति किये बिना कोई भी अपने मन (अंतःकरण) को पूर्णतया शुद्ध नहीं कर सकता है “।अतः यह स्पष्ट है कि बिना श्री कृष्ण भक्ति के मोक्ष की प्राप्ति असंभव है ।
मोक्ष साधन सामग्र्यां भक्तिरेव गरीयसी ।
“मोक्ष प्राप्ति के सभी साधनों में भक्ति सर्वोच्च एवं अपरिहार्य है”। भक्त भगवान के सगुण साकार रूप की भक्ति करता है जिसके फल स्वरूप भगवान उस पर विशेष कृपा कर उसका पथ निष्कंटक करते हैं । अतः भक्त को भक्ति प्रारंभ करने से पूर्व कठिन परिश्रम नहीं करना पड़ता है । भक्त किसी रसिक संत के निर्देशानुसार निष्ठा पूर्वक साधना भक्ति (पढ़े Sadhana Bhakti) करते हुये आगे बढ़ता है ।
यद्यपि ज्ञानी और भक्त दोनों के लिए वैराग्य अनिवार्य है किन्तु मन को संसार से हटाने के लिए दोनों की साधना पद्धति में बहुत बड़ा अंतर है।
1. निवृत्ति मार्ग : ज्ञानी संपूर्ण त्याग करके वैरागी होता है।
2. प्रवृत्ति मार्ग : भक्त भगवान से संबंधित सभी चीजों को स्वीकार करके वैरागी होता है ।
भक्त मन बुद्धि की आवश्यकताओं का परित्याग करके वैराग्य नहीं प्राप्त करता, अपितु वह अपनी इच्छाओं की दिशा बदल देता है। उदाहरण के तौर पर अधिकांश लोगों को स्वादिष्ट भोजन खाने की इच्छा होती है इसलिए भक्ति-मार्गी रसिक संत इच्छा त्यागने का उपदेश नहीं देते । वे निर्देश देते हैं कि अपना समय इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने में मत गवाँओ क्योंकि भगवत-प्राप्ति से पहले किसी भी इच्छा का परित्याग नहीं किया जा सकता । बल्कि अपने इष्ट देव को खिलाने के लिए और भी स्वादिष्ट भोजन पकाओ। अतः जब साधक भगवान को भोग लगाने के लिए भोजन पकाता है तो वह अपना सारा समय और धन भगवान के लिए खर्च करता है।
यद्यपि ज्ञानी और भक्त दोनों के लिए वैराग्य अनिवार्य है किन्तु मन को संसार से हटाने के लिए दोनों की साधना पद्धति में बहुत बड़ा अंतर है।
1. निवृत्ति मार्ग : ज्ञानी संपूर्ण त्याग करके वैरागी होता है।
2. प्रवृत्ति मार्ग : भक्त भगवान से संबंधित सभी चीजों को स्वीकार करके वैरागी होता है ।
भक्त मन बुद्धि की आवश्यकताओं का परित्याग करके वैराग्य नहीं प्राप्त करता, अपितु वह अपनी इच्छाओं की दिशा बदल देता है। उदाहरण के तौर पर अधिकांश लोगों को स्वादिष्ट भोजन खाने की इच्छा होती है इसलिए भक्ति-मार्गी रसिक संत इच्छा त्यागने का उपदेश नहीं देते । वे निर्देश देते हैं कि अपना समय इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने में मत गवाँओ क्योंकि भगवत-प्राप्ति से पहले किसी भी इच्छा का परित्याग नहीं किया जा सकता । बल्कि अपने इष्ट देव को खिलाने के लिए और भी स्वादिष्ट भोजन पकाओ। अतः जब साधक भगवान को भोग लगाने के लिए भोजन पकाता है तो वह अपना सारा समय और धन भगवान के लिए खर्च करता है।
भगवान को भोग लगाने के पश्चात जब वह प्रसाद को ग्रहण करता है तो संसार की दृष्टि में साधक स्वादिष्ट भोजन कर रहा है परंतु उसका मन भक्ति भाव से भरा हुआ अपने इष्टदेव के उच्छिष्ट को ग्रहण कर आनंदित होता है ।
उद्धव परमहंस, श्री कृष्ण के बचपन के मित्र व द्वापर युग के सर्वोच्च ज्ञानी थे। गोपियों से मिलने के बाद वे ज्ञान मार्ग का परित्याग करके भक्त बन गए । तब उन्होंने श्रीकृष्ण को चुनौती दी और कहा -- त्वयोपभुक्त्तसृग्गंघवासोलड्कारचर्चिताः । उच्छिष्टभोजिनोदासास्तव मायां जयेमहि ॥
भाग १.६.४६
“मैं आपके द्वारा धारण की गई सुगंधित मालाओं को, रेशमी वस्त्रों को, चमकदार आभूषणों को पहनकर तथा आपके उच्छिष्ट को खाकर आप की शक्ति माया को जीत लूंगा”।
दूसरे शब्दों में भक्त माया के सर्वश्रेष्ठ पदार्थों का प्रयोग भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित करके करता है । अतः उसका मन सदा भगवान में रत रहता है और शरीर संसारी कार्यों में। इसलिये भक्त की मायिक पदर्थों में आसक्ति भी नहीं होती । यही मायिक जगत का सर्वोत्कृष्ट उपयोग है । आध्यात्मिक नियम के अनुसार जब तक मन किसी क्रिया में सुख या दुःख का अनुभव नहीं करें तब तक उसका कोई फल नहीं मिलता। |
गोपियाँ सर्वोच्च कक्षा की भक्त हैं । श्रीमद्भागवत महापुराण गोपियों की स्थिति का निरूपण करता है-
या दोहने वहनने मथनोपलेप प्रेंखेंखनार्भ रुदितो क्षणमार्जनादौ ।
गायन्ति चैनमनुरक्तधियोश्रुकंठ्यो, धन्या ब्रजस्त्रिय उरुक्रम चित्तायानाः । भा १०.४४.१५
“गोपियाँ दैनिक गृहस्थ के कार्य करते हुए निरंतर श्रीकृष्ण का स्मरण करती हैं । गायों को दूहते हुए, दही मथकर मक्खन निकालते हुए, घर साफ करते हुए, अपने बच्चों को प्यार करते हुए आदि अन्य क्रियाएँ करते हुए निरंतर आँसू बहाते हुए भगवान श्री कृष्ण के नाम गुण लीला आदि का गान करती हैं”। अर्थात उनका मन दैनिक गृह कार्य करते हुए निरंतर भगवान में निमग्न रहता था।
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भगवान श्री कृष्ण को सुख देने के लिए गोपियाँ सुंदर वस्त्र व आभूषण धारण किया करती थीं जैसा की भगवान श्री कृष्ण कहते हैं --
निजाङ्गमपि या गोप्यो ममेति समुपासते । ताभ्यः परं न मे पार्थ निगूढ़प्रेमभाजनम् ।
आदि पु.
“ओ पार्थ! संपूर्ण ब्रह्मांड में गोपियों के अतिरिक्त कोई भी मेरा पराकाष्ठा का प्रेम प्राप्त करने का अधिकारी नहीं है। वे अपना श्रृंगार भी मुझे प्रसन्न करने के लिये करती हैं” ।
यह सभी उदाहरण सिद्ध करते हैं कि साधक संसारी आसक्ति को हठात नहीं छोड़ता है। शनैः शनैः जितना भक्त का मन भगवान में डूबता जाता है उसी मात्रा में उसका मन संसार से विरक्त होता जाता है । इस प्रकार वह स्वतः संसार से दूर होता जाता है।
भक्त का वैराग्य सहज व क्रमिक होता है जबकि ज्ञानी का वैराग्य हठात होता है। ज्ञान मार्ग पर चलने से पूर्व ज्ञानी समझदारी से संसारीय आसक्ति कम करता है, जबकि भक्ति धीरे-धीरे भक्त का वैराग्य बढ़ा देती है ।
कोई तार्किक प्रश्न कर सकता है कि भगवान भक्तों का पक्ष क्यों लेते हैं? गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं
यह सभी उदाहरण सिद्ध करते हैं कि साधक संसारी आसक्ति को हठात नहीं छोड़ता है। शनैः शनैः जितना भक्त का मन भगवान में डूबता जाता है उसी मात्रा में उसका मन संसार से विरक्त होता जाता है । इस प्रकार वह स्वतः संसार से दूर होता जाता है।
भक्त का वैराग्य सहज व क्रमिक होता है जबकि ज्ञानी का वैराग्य हठात होता है। ज्ञान मार्ग पर चलने से पूर्व ज्ञानी समझदारी से संसारीय आसक्ति कम करता है, जबकि भक्ति धीरे-धीरे भक्त का वैराग्य बढ़ा देती है ।
कोई तार्किक प्रश्न कर सकता है कि भगवान भक्तों का पक्ष क्यों लेते हैं? गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्
“जो जीव जिस प्रकार, जिस भाव से, जितनी मात्रा में मुझ से प्रेम करता है, मैं भी उस जीव से उसी प्रकार, उसी भाव से, उतनी ही मात्रा में प्रेम करता हूँ"। भगवान जीव की इच्छानुसार ज्ञानी को मोक्ष और भक्तों को भक्ति देते हैं।