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Divya Ras Bindu

प्रारब्ध का रचयिता कौन ?

Read Article in English
प्रख्यात धर्म ग्रन्थ, महाभारत में वर्णन है कि धृतराष्ट्र राजा विचित्रवीर्य की पहली पत्नी अम्बिका के पुत्र थे I उनको जन्म देने वाले पिता ऋषि वेदव्यास थे I धृतराष्ट्र जन्म से नेत्रहीन थे I  विचित्रवीर्य की दूसरी पत्नी के पुत्र​, नेत्रवान,कुशल तथा शस्त्र एवं शास्त्र में निपुण थे I अपितु अनेक परिस्थितिवश धृतराष्ट्र हस्तिनापुर के राजा बने I धृतराष्ट्र अपनी पत्नी गांधारी द्वारा सौ पुत्रों के पिता भी थे I राजा कुरु इनके पूर्वज थे अतः ये सौ पुत्र कौरवों के नाम से प्रसिद्ध हुए I

समस्त कौरव भ्राता अत्यंत शूरवीर, बलशाली योद्धा, एवं युद्ध शैली में पारंगत थे । परन्तु महाभारत के युद्ध में ये सारे के सारे अपने ही चचेरे भाईयों के द्वारा मारे गये । इन पाँच चचेरे भाईयों को पांडवों के नाम से जाना जाता है ।
Shri Krishna with Dhritrashtra
श्री कृष्ण धृतराष्ट्र को सांत्वना देते हुए
अपने सौ पुत्रों की मृत्यु से दुखी धृतराष्ट्र ने श्री कृष्ण से पूछा, " मैं जानता हूँ आप भगवान् हैं । आप वह​ युद्ध रोक सकते थे जिस में मेरे सौ पुत्र मृत्यु को प्राप्त हुए, जबकि वे सब बलशाली नवयुवक थे । ऐसा मुझ जैसे, नेत्रहीन और बूढ़े पिता, के साथ क्यों हुआ ? मैंने ऐसा कोई जघन्य पाप नहीं किया था जिसका मुझको इतना भयंकर दुष्परिणाम भुगतना पड़ रहा है !"
 
श्री कृष्ण ने प्रश्न के उत्तर में धृतराष्ट्र से प्रश्न पुछा, " क्या आपको अपने समस्त पूर्व मानवीय जन्मों में किये सारे कर्म याद हैं ?" धृतराष्ट्र बड़े ही धर्मनिष्ठ, विद्वान् एवं शास्त्रों के ज्ञाता थे । वे बोले," मुझे अपने चार पूर्व जन्मों के समस्त कर्म याद हैं । मैंने सदा विशुद्ध जीवन व्यतीत किया और कोई भी पाप नहीं किया ।”
 
वर्तमान जन्म से पूर्व​ प्रत्येक जी के अनंत जन्म हो चुके हैं । यदि किसी जीव ने प्रत्येक​ पूर्व मानव जन्म में केवल​ एक ही पाप किया हो तो भी प्रत्येक जीव अनंत पाप कर चुका | वस्तुतः समस्त जीव अनंत पूर्व जन्मों में अनंत अच्छे बुरे कर्म कर चुके हैं |

श्री कृष्ण उनसे बोले, "अनंत पूर्व जन्मों में से केवल चार जन्म याद हैं ! आपने अपने अनंत पूर्व जन्मों में अनंत अच्छे व बुरे कर्म किये हैं । तो केवल चार जन्मों के कर्मों को दृष्टि में रखकर अनंत जन्मों के कर्मफल का निर्णय कैसे लिया जा सकता है ?" 

हम प्रति क्षण कर्म करते हैं और हर कर्म का प्रतिफल होता है । परन्तु कृपालु परमेश्वर हमारी हर क्रिया का फल हमें तुरंत नहीं देते । हमारे कुछ ही कर्मों का फल तुरंत हमारे समक्ष आता है, जैसे भोजन करने से क्षुधा शान्त होती है । समस्त कर्मों के फल हमारे सूक्ष्म अंतःकरण में संगृहीत होते हैं, जो 'संचित' कर्म कहलाते हैं । 

पुनः समस्त संचित कर्मों में से भगवान् पाँच फल, आने वाले मनुष्य जन्म में हमारे भोग के लिए सुनिश्चित करते हैं ।
आयुः कर्म च वित्तं च विद्या निधनमेव च। पंचैत्यान्यपि सृज्यन्ते गर्भस्थस्यैव देहिनः ॥
                                                                            हितोपदेश
भगवान पर दोषारोपणभगवान पर खुले आम दोषारोपण करते हैं ।
वह पाँच फल जो प्रत्येक मनुष्य जन्म में अनिवार्य रूप से भोगने ही पड़ते हैं, वे हैं -
1. आयु
2. व्यवसाय
3. धन धान्य
4. विद्यार्जन
5. मृत्यु का समय 

इनको भाग्य या प्रारब्ध कहा जाता है l बाकी समस्त कर्मों के फल को हमें शनैः शनैः भविष्य में आने वाले जन्मों में भोगना पड़ेगा l

मनुष्य योनी में प्रत्येक जीव को कर्म करने की पूर्ण स्वतंत्रता होती है, जिससे वह-

1.अपने भविष्य को बिगाड़ सकता है 
2.अपने सुंदर भविष्य का निर्माण कर सकता है 
3.अपने जीवन का परम चरम लक्ष्य प्राप्त कर सकता है  

इन कर्मों का फल मिलता है अतः ये 'क्रियमाण' कर्म कहलाते हैं ।
 
जीव अनादि अनंत है तथा उसके कर्मफल भी अगण्य हैं । हमें हमारी पूर्व जन्म की स्थिति का, अथवा पूर्व जन्म में किये अच्छे और बुरे कर्मों का भान नहीं है । परन्तु सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, भगवान अपनी अकारण करुणा के वशीभूत हो हमारे प्रत्येक कर्म का लेखा-जोखा रखते हैं । यदि हमने बहुत अच्छे कर्म किये हैं, तो भगवान हमें पुरस्कृत करते हैं । हमको पता भी नहीं चलता हमें क्यों इस जन्म में, बिना परिश्रम के, श्रेष्ठ लाभ मिल रहा है । इसके लिए हम कृतज्ञता भी नहीं दिखाते, अपितु जब हम अपने बुरे कर्मों का फल भोगते हैं तब भगवान पर खुले आम दोषारोपण अवश्य​ करते हैं । 

जब महापुरुष हमको हमारे पाप कर्मों के दुष्परिणाम के बारे में समझाते हैं, और पाप कर्म करने से रोकते हैं, तब हम लापरवाही से कहते हैं, " उस समय देखा जाएगा । " नहीं ! निर्णय लेने का समय कर्म करने से पहले होता है, पश्चात तो हम केवल फल भोगने के लिए बाधित होंगे l

हमें गले से लगा लेते हैंहमारे सब कर्मों को भस्म​ कर​, हमें गले से लगा लेते हैं
महापुरुष हमको समझाते हैं, भक्ति ही एक है जो-

1. हमारे समस्त अच्छे बुरे कर्मों के फल को जला कर हमको
2.हमारे इस जीवन का परम लक्ष्य ('दिव्य प्रेम रस') प्रदान करती है 

भक्ति का अर्थ है भगवान के साथ सदा के लिये नाता जोड़ना एवं उनसे ही प्रेम करना  है ।

क्योंकि अनपायनी भक्ति ही हमारे ह्रदय को स्वच्छ कर हमें पाप कर्म करने से रोकती है । भक्त भगवान को याद करता है और उनके परमानन्द में सराबोर हो भौतिक जगत की मलिनता से दूर हो जाता है । भगवान के शरणागत हो वह भगवत् प्राप्ति कर लेता है, जीव की पूर्ण भगवद् शरणागति उसे भगवान् से मिला देती है और उसको सदा के लिये दिव्य आनंद मिल जाता है ।
 
परम करुणावरुणालय भगवान् हमारे हृदय में सदा से विद्यमान हैं । वे हमारे प्रत्येक कर्म पर ध्यान रखते हैं और हम पर अपनी कृपा और दिव्यानंद न्योछावर करने को आतुर रहते हैं । किन्तु हम ही उनके उपदेशों को जो महापुरुषों एवं शास्त्र वेद द्वारा  हमें प्राप्त होते रहते हैं, मानना अस्वीकार कर देते हैं । भगवान स्वयं भी अवतार लेकर हमारा मार्गदर्शन करने आते हैं ।वह हमें अपना जीवन सुधारने के लिए अनेक सुअवसर प्रदान करते हैं । भगवान को संत स्वयं से भी अधिक प्रिय हैं, इतिहास साक्षी है हमने अनेक महान संत जैसे तुलसीदास, सूरदास, मीरा, कबीर, नानक, तुकाराम, प्रह्लाद, ध्रुव, का अनादर किया है । भगवान परम दयालु हैं, अतः जब उनकी या उनके संतों की अवहेलना करने के उपरान्त भी जब हम उनके शरणापन्न हो जाते हैं, तब वे हमारे सब कर्मों को भस्म कर, हमें गले से लगा लेते हैं । तथा हमें अपनी सारी दिव्य सामग्री, जैसे दिव्य आनंद, दिव्य ज्ञान, दिव्य लोक और अपनी समस्त दिव्य शक्तियां सदा के लिये प्रदान कर देते हैं ।

अस्तु, नि:संदेह हम ही अपने प्रारब्ध के रचयिता हैं | ऐसा नहीं है कि ये कहीं से ला कर हम पर थोपा जा रहा है । हमारा वर्तमान में किया हुआ कर्म ही भविष्य में हमारा प्रारब्ध बन जाता है । 


अच्छा काम जल्दी करो, पाप करने में उधार कर दो ॥
                                                                                                                                        - जगद्गुरु कृपालु जी महाराज​


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