प्रश्न :
हमारे शास्त्रों-वेदों का मत है कि भगवान पतित-पावन हैं अर्थात "वे पापियों का शीघ्रातिशीघ्र उद्धार कर उनको अपना लेते हैं।" क्या इसका तात्पर्य यह है कि -
उत्तर :
निस्संदेह ही सही तत्व ज्ञान के अभाव में लोग शास्त्र-वेद के वचनों का उपर्युक्त गलत अर्थ लगा लेते हैं। बहुत से भोले लोग इस के आगे महापुरुषों के शब्दों को अपने मत की पुष्टि के रूप में प्रस्तुत कर देते हैं । उदाहरण के लिए चैतन्य महाप्रभु जी ने कहा है--
हमारे शास्त्रों-वेदों का मत है कि भगवान पतित-पावन हैं अर्थात "वे पापियों का शीघ्रातिशीघ्र उद्धार कर उनको अपना लेते हैं।" क्या इसका तात्पर्य यह है कि -
- मैं पतित नहीं हूँ? अन्यथा भगवान ने अभी तक मुझे क्यों नहीं अपनाया? या
- उनका अनुग्रह प्राप्त करने के लिये मुझे और पाप करने चाहिए जिससे मैं पतित बन जाऊँ और वे मुझे अपना लें।
उत्तर :
निस्संदेह ही सही तत्व ज्ञान के अभाव में लोग शास्त्र-वेद के वचनों का उपर्युक्त गलत अर्थ लगा लेते हैं। बहुत से भोले लोग इस के आगे महापुरुषों के शब्दों को अपने मत की पुष्टि के रूप में प्रस्तुत कर देते हैं । उदाहरण के लिए चैतन्य महाप्रभु जी ने कहा है--
"आपका भक्तवत्सल नाम सुन कर मेरा ह्रदय काँप जाता है (क्योंकि मैं भक्त कहलाने योग्य नहीं हूँ)। परन्तु जब मैं आपका पतित-पावन नाम सुनता हूँ तब मेरा उत्साह बढ़ता है (कि मेरा भी काम बन जाएगा)।"
इसी प्रकार जगद्गुरूत्तम स्वामी कृपालुजी महाराज कहते हैं,
“हे गोविन्द राधे ! मेरे जैसा कोई पतित नहीं है और आप जैसा कोई पवित्र नहीं है। अत: मुझ पर कृपा कर मुझे पवित्र बना दीजिये।"
भगवान पतित पावन हैं अर्थात वे पतितों को पवित्र करते हैं। परन्तु भगवान के इस गुण के आधार पर पाप करते जाना नितांत मूर्खता का द्योतक है। अन्य भगवद शक्तियों की भाँति वेदों का भी सगुण साकार स्वरूप होता है। अपने साकार रूप में वेद अल्पज्ञों से डरते हैं कि ये भोले लोग वेदों के वास्तविक अर्थ को न समझ कर अपनी सुविधानुसार मनमाना अर्थ लग लेंगे। वेद कहता है - |
विभत्यल्पश्रुताद् वेदो मामयं प्रहरिष्यति ।
|
vibhatyalpaśrutād vedo māmayaṃ prahariṣyati ।
|
"अल्प ज्ञान वाले से वेद भी डरते हैं कि अब यह मेरे ऊपर प्रहार (अर्थ को तोड़ना-मरोड़ना) करेगा।"
अत: हमें इन कथनों के वास्तविक अर्थ को समझने के लिये गहनता से विचार करना होगा। संसार में दो शब्द अत्यंत प्रचलित हैं - पाप एवं पुण्य। इन्हीं को धर्म तथा अधर्म भी कहा जाता है। पद्म पुराण में इन दोनों शब्दों की परिभाषा की है -
पद्म पुराण
"मेरे निमित्त किया गया पाप भी धर्म है तथा मुझे छोड़कर किया गया धर्म भी अधर्म है।"
सत्व गुण प्रधान क्रियाओं को पुण्य कहा जाता है यथा सत्य, अहिंसा, दया, ईमानदारी, यज्ञ, हवन आदि। |
उपर्युक्त कथन के अनुसार इन क्रियाओं को करते समय यदि मन भगवाद् चिंतन नहीं करता तो ये क्रियाएँ पाप की श्रेणी में गिनी जाएँगी अर्थात अधर्म होंगी। ऐसा क्यों? जबकि वेद में इन्हीं क्रियाओं को धर्म या पुण्य कहा गया है?
तीन तत्व अनादि अनंत हैं - ब्रह्म, जीव एवं माया। जीव सदा से आनंद की खोज कर रहा है। जीव के अतिरिक्त दो तत्व बचे - भगवान एवं माया। तो जीव को सुख इन दोनों में से एक से प्राप्त हो सकता है।अज्ञानी लोग अपने शरीर को "मैं" मानकर पंचमहाभूत के संसार के पदार्थों से अपनी इंद्रियों को संतुष्ट कर रहे हैं। जबकि बुद्धिमान जीव दिव्य आत्मा को "मैं" मानते हैं।अतः उनका मानना है कि मेरा सुख पंचमहाभूत के संसार में नहीं हो सकता है, अतः वे दूसरे तत्व भगवान में ही सुख होगा, ऐसा मानते हैं।
यह विचारणीय है कि जैसे ही मन मायिक जगत का चिंतन करेगा वैसे ही माया के विकार यथा क्रोध, लोभ, ईर्ष्या, हिंसा, अहंकार, द्वेष हमारे मन को धर दबोचेंगे। परिणामस्वरूप हमारी वृत्ति पाप के मार्ग में प्रवृत हो जायेगी। इसके विपरीत जब मन भगवान का चिंतन करेगा तो भगवान के दैवीय गुणों यथा प्रेम, सत्य, दया, अहिंसा, ईमानदारी आदि का मन में प्रादुर्भाव होने लगेगा ।
निम्नलिखित तथ्य पर विचार कीजिए - जिस क्षण हमारा मन भगवान का चिंतन नहीं करेगा उस क्षण हमारा मन पाप ही करेगा । यदि हम गूढ़ता से विचार करें तो पाएँगे कि अधिकतर समय हम पाप ही करते हैं (पढ़े Know the Results of Actions)। इसके अतिरिक्त यदि हमने प्रत्येक पूर्व जन्म में केवल एक पाप किया होगा तो भी अनंत पूर्व जन्मों में हम अनंत पाप पहले ही कर चुके हैं।
तीन तत्व अनादि अनंत हैं - ब्रह्म, जीव एवं माया। जीव सदा से आनंद की खोज कर रहा है। जीव के अतिरिक्त दो तत्व बचे - भगवान एवं माया। तो जीव को सुख इन दोनों में से एक से प्राप्त हो सकता है।अज्ञानी लोग अपने शरीर को "मैं" मानकर पंचमहाभूत के संसार के पदार्थों से अपनी इंद्रियों को संतुष्ट कर रहे हैं। जबकि बुद्धिमान जीव दिव्य आत्मा को "मैं" मानते हैं।अतः उनका मानना है कि मेरा सुख पंचमहाभूत के संसार में नहीं हो सकता है, अतः वे दूसरे तत्व भगवान में ही सुख होगा, ऐसा मानते हैं।
यह विचारणीय है कि जैसे ही मन मायिक जगत का चिंतन करेगा वैसे ही माया के विकार यथा क्रोध, लोभ, ईर्ष्या, हिंसा, अहंकार, द्वेष हमारे मन को धर दबोचेंगे। परिणामस्वरूप हमारी वृत्ति पाप के मार्ग में प्रवृत हो जायेगी। इसके विपरीत जब मन भगवान का चिंतन करेगा तो भगवान के दैवीय गुणों यथा प्रेम, सत्य, दया, अहिंसा, ईमानदारी आदि का मन में प्रादुर्भाव होने लगेगा ।
निम्नलिखित तथ्य पर विचार कीजिए - जिस क्षण हमारा मन भगवान का चिंतन नहीं करेगा उस क्षण हमारा मन पाप ही करेगा । यदि हम गूढ़ता से विचार करें तो पाएँगे कि अधिकतर समय हम पाप ही करते हैं (पढ़े Know the Results of Actions)। इसके अतिरिक्त यदि हमने प्रत्येक पूर्व जन्म में केवल एक पाप किया होगा तो भी अनंत पूर्व जन्मों में हम अनंत पाप पहले ही कर चुके हैं।
यदि हम पापी हैं अर्थात पतित हैं और भगवान (पतित पावन) पापियों का उद्धार करने वाले हैं तो अभी तक हमारा उद्धार क्यों नहीं हुआ?
प्रतिक्षण पाप करने पर भी हम अपने आप को पापी नहीं मानते (पढ़े क्या मैं पापी हूँ?) इसीलिए भगवान का "पतित पावन" गुण हम पर लागू नहीं होता ।
विचार कीजिए कि अवगुणों का आगार होते हुए भी यदि कोई हमारा केवल एक दोष भी बता दे तो हम क्रुद्ध हो जाते हैं। ऐसा क्यों है? अज्ञानतावश मिथ्या अहंकार इसका कारण है और अज्ञानता का कारण माया है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं -
"यह तीन गुणों वाली माया मेरी शक्ति है" यद्यपि माया जड़ है परंतु क्योंकि यह परात्पर ब्रह्म भगवान श्रीकृष्ण की शक्ति है अतः कोई भी इसे पार नहीं कर सकता है । भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं -
गीता 7.14
|
"कोई भी अपने बल पर माया को नहीं जीत सकता। केवल वे जो मेरी ही शरण में आते हैं वे ही मेरी कृपा से भवसागर को प्राप्त कर पाते हैं।"
निष्कर्ष
अत: अधिक पाप करने से भगवद कृपा प्राप्त नहीं होगी । भगवद कृपा के अभिलाषी जीवों को भगवान की शरणागति स्वीकार करनी ही होगी। यद्यपि हम अनादिकाल से अनंत पाप किए बैठे हैं तथा भगवान पतित पावन हैं, तथापि वे हमें भवसागर से पार नहीं लगा सके इसका केवल एक ही कारण है - मन-बुद्धि भगवान के शरणागत नहीं हुईं। भगवान कहते हैं पहले शरणागत हो तब कृपा करूँगा । जीव का हठ है पहले कृपा करो तब शरणागत होऊँगा । हमारे इसी हठ के कारण भगवान, अपने कानून के अनुसार, हमारा कल्याण नहीं कर सके।
जीव ने पूर्व जन्मों में कितने भी जघन्य पाप किए हों फिर भी जिस क्षण जीव भगवान के शरणागत हो जायेगा उसी क्षण भगवान जीव के समस्त पाप और पुण्य जलाकर भस्म कर देगें। तत्पश्चात जीव कृतकृत्य (अकर्ता) हो जायेगा तथा अकारणकरुण भगवान श्रीकृष्ण स्वयं जीव के समस्त कार्यों के कर्ता बन जायेंगे।
भगवान पूर्णकाम आत्माराम हैं। हमारी शरणागति से उन्हें कोई हो लाभ नहीं होता। परंतु शरणागत होने से हमारा पूर्ण लाभ हो जायेगा। इसीलिए मार्ग चयन (पापों का संचय करना या पूर्ण शरणागत होना) का अधिकार जीव को सौंपा गया है।
शरणागति के विषय में विस्तृत जानकारी प्राप्त करने के लिये यह आर्टिक्ल पढ़ें Divya Sandesh - 2021 Holi Edition.
निष्कर्ष
अत: अधिक पाप करने से भगवद कृपा प्राप्त नहीं होगी । भगवद कृपा के अभिलाषी जीवों को भगवान की शरणागति स्वीकार करनी ही होगी। यद्यपि हम अनादिकाल से अनंत पाप किए बैठे हैं तथा भगवान पतित पावन हैं, तथापि वे हमें भवसागर से पार नहीं लगा सके इसका केवल एक ही कारण है - मन-बुद्धि भगवान के शरणागत नहीं हुईं। भगवान कहते हैं पहले शरणागत हो तब कृपा करूँगा । जीव का हठ है पहले कृपा करो तब शरणागत होऊँगा । हमारे इसी हठ के कारण भगवान, अपने कानून के अनुसार, हमारा कल्याण नहीं कर सके।
जीव ने पूर्व जन्मों में कितने भी जघन्य पाप किए हों फिर भी जिस क्षण जीव भगवान के शरणागत हो जायेगा उसी क्षण भगवान जीव के समस्त पाप और पुण्य जलाकर भस्म कर देगें। तत्पश्चात जीव कृतकृत्य (अकर्ता) हो जायेगा तथा अकारणकरुण भगवान श्रीकृष्ण स्वयं जीव के समस्त कार्यों के कर्ता बन जायेंगे।
भगवान पूर्णकाम आत्माराम हैं। हमारी शरणागति से उन्हें कोई हो लाभ नहीं होता। परंतु शरणागत होने से हमारा पूर्ण लाभ हो जायेगा। इसीलिए मार्ग चयन (पापों का संचय करना या पूर्ण शरणागत होना) का अधिकार जीव को सौंपा गया है।
शरणागति के विषय में विस्तृत जानकारी प्राप्त करने के लिये यह आर्टिक्ल पढ़ें Divya Sandesh - 2021 Holi Edition.
- राधा गोविंद गीत
जगद्गुरूत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज In past lives we have accumulated countless sins (paap) and countless righteous deeds (punya). Bhakti burns all of them.
|