भक्ति के आनुषंगिक फल |
श्री महाराज जी ने कई बार भक्ति संबंधी तत्वज्ञान [1] को पक्का करने पर जोर दिया है । तत्त्वज्ञान इतना दृढ़ होना चाहिए कि उसे ज़बर्दस्ती आचरण में लाने की आवश्यकता ही न पड़े। बल्कि, यह इतना आत्मसात हो कि आप ऐसा कुछ कर ही न सकें जो आपकी आध्यात्मिक उन्नति की गति मंद कर दे [2]। तत्वज्ञान दृढ़ होने से आप भगवान् को प्राथमिकता देंगे । यदि कभी आपको भगवान् के और संसारी काम में चुनना पड़े, तो आप पहले भगवान् का काम करेंगे । उसके बाद यदि समय बचा, तो संसारी काम करेंगे । दृढ़ तत्त्वज्ञान ही एकमात्र आधार है जिसके बल पर जीव भक्ति मार्ग पर लगातार आगे बढ़ सकता है और जीवन के सर्वोच्चतम लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। जहाँ तक सांसारिक कर्तव्य हैं, वे तो भगवान् को प्राथमिकता देंने वालों के कभी नहीं रुकते ।
प्रत्येक मायाबद्ध जीव [3] का प्रत्येक कार्य किसी लक्ष्य को पाने के लिए होता है। तो भक्ति करने का लक्ष्य क्या है?
प्रत्येक मायाबद्ध जीव [3] का प्रत्येक कार्य किसी लक्ष्य को पाने के लिए होता है। तो भक्ति करने का लक्ष्य क्या है?
इसका वर्णन पिछले अंकों में किया गया था। मन शुद्ध होने पर गुरु कृपा से भगवान् अपना दिव्य रूप जीव को दिखाते हैं [4], तो वर माँगने का आदेश दते हैं । यह निष्कामता की परीक्षा होती है । पक्के गुरु का पक्का चेला अंतरंगतम (अंतरंग में अंतरंग में अंतरंग) शक्ति चाहता था जो भगवान् को अपने वश में कर ले अर्थात परम निष्काम भक्ति [5] की याचना करता है। उस दिव्य प्रेम से जीव श्री कृष्ण की सेवा करता है [6] और यही सेवा भक्ति का प्रमुख फल है [7]।
आपने कागभुशुण्डि की कहानी तो सुनी ही होगी । भगवान् राम ने स्वेच्छा से रिद्धि, सिद्धि और मुक्ति देने का प्रस्ताव रखा । लेकिन कागभुशुण्डि ने उन सभी को अस्वीकार कर दिया । क्योंकि कागभुशुण्डि की निगाह भक्ति पर थी क्योंकि वह भक्त को अनंत काल तक भगवान् से जोड़े रखेगी । भगवान् के दर्शन कराती रहेगी, भगवान् के शब्द सुनाती रहेगी, भगवान् का स्पर्श दिलाती रहेगी । भगवान् प्रेमपूर्वक की गई सेवा को अस्वीकार नहीं कर सकते हैं । यही उनका सनातन नियम है । |
भक्ति का मुख्य फल गोविंद राधे। दिव्य प्रेम युक्त कृष्ण सेवा बता दे॥
राधा गोविंद गीत 3974
राधा गोविंद गीत 3974
"भक्ति का प्रधान फल श्री कृष्ण की प्रेमपूर्वक सेवा करना है" [8]।
इसके अतिरिक्त भक्ति अन्य साध्य भी प्रदान करती है। उनमें से कुछ की चर्चा 2023 शरद पूर्णिमा - दिव्य सन्देश अंक में की गई थी । इस अंक में श्री महाराज जी द्वारा रचित राधा गोविंद गीत के दोहों के द्वारा अन्य आनुषंगिक फलों का वर्णन किया जा रहा है ।
इसके अतिरिक्त भक्ति अन्य साध्य भी प्रदान करती है। उनमें से कुछ की चर्चा 2023 शरद पूर्णिमा - दिव्य सन्देश अंक में की गई थी । इस अंक में श्री महाराज जी द्वारा रचित राधा गोविंद गीत के दोहों के द्वारा अन्य आनुषंगिक फलों का वर्णन किया जा रहा है ।
श्रीकृष्ण की सेवा प्रदान करने के साथ-साथ
आनुषंगिक फल गोविंद राधे। माया निवृत्ति अपवर्ग बता दे ॥
राधा गोविंद गीत 3975
राधा गोविंद गीत 3975
"भक्ति माया के बंधन से मुक्त कर देती है"।
यद्यपि भक्त मुक्ति को पिशाची मानकर उसका तिरस्कार [9] कर देता है फिर भी भक्ति भक्त को मुक्ति प्रदान करती है । और उसका एक कारण है ।
कोई भी मायिक वस्तु दिव्य क्षेत्र में नहीं जा सकती। सूर्य, चंद्रमा, तारे, पृथ्वी, जो आप देखते हैं, इनमें से कुछ भी दिव्य परव्योम लोक [10] में प्रवेश नहीं कर सकता । परव्योम लोक में श्रीकृष्ण स्वयं ही सूर्य, चंद्रमा, तारागण, पृथ्वी सब कुछ बन जाते हैं । स्पष्ट है कि दैवीय क्षेत्र में प्रवेश करने से पहले जीव को माया के चंगुल से मुक्त होना होगा पश्चात् जीव को भगवदीय क्षेत्र में प्रवेश प्राप्त होगा । माया के चंगुल से मुक्त होना ही मुक्ति है । जीव अपने बल पर मुक्त नहीं हो सकता नहीं तो अब तक यह दयनीय दशा क्यों होती। तो, यह स्पष्ट है कि पहले भक्ति भक्त को माया के चंगुल से मुक्त करेगी, तत्पश्चात् भक्ति श्री कृष्ण की सेवा के लिए गोलोक में प्रवेश देगी ।
यद्यपि भक्त मुक्ति को पिशाची मानकर उसका तिरस्कार [9] कर देता है फिर भी भक्ति भक्त को मुक्ति प्रदान करती है । और उसका एक कारण है ।
कोई भी मायिक वस्तु दिव्य क्षेत्र में नहीं जा सकती। सूर्य, चंद्रमा, तारे, पृथ्वी, जो आप देखते हैं, इनमें से कुछ भी दिव्य परव्योम लोक [10] में प्रवेश नहीं कर सकता । परव्योम लोक में श्रीकृष्ण स्वयं ही सूर्य, चंद्रमा, तारागण, पृथ्वी सब कुछ बन जाते हैं । स्पष्ट है कि दैवीय क्षेत्र में प्रवेश करने से पहले जीव को माया के चंगुल से मुक्त होना होगा पश्चात् जीव को भगवदीय क्षेत्र में प्रवेश प्राप्त होगा । माया के चंगुल से मुक्त होना ही मुक्ति है । जीव अपने बल पर मुक्त नहीं हो सकता नहीं तो अब तक यह दयनीय दशा क्यों होती। तो, यह स्पष्ट है कि पहले भक्ति भक्त को माया के चंगुल से मुक्त करेगी, तत्पश्चात् भक्ति श्री कृष्ण की सेवा के लिए गोलोक में प्रवेश देगी ।
आनुषंगिक फल गोविंद राधे। चित का निरोध स्वयमेव करा दे ॥
राधा गोविंद गीत 3976
राधा गोविंद गीत 3976
"भक्ति के द्वारा मन पर पूर्ण नियंत्रण अपने आप हो जाता है"।
एक बार मन भगवान् में अनुरक्त हो गया तो फिर चंचल नहीं रह सकता। [11]
एक बार मन भगवान् में अनुरक्त हो गया तो फिर चंचल नहीं रह सकता। [11]
एक बार नारद जी ब्रज में गए और उन्होंने एक गोपी को समाधि में बैठे देखा। वह गोपी की तंद्रा भंग होने की प्रतीक्षा करते रहे । जब गोपी ने आँखें खोलीं तो नारदजी ने प्रणाम किया और पूछा, “हे माँ! क्या आप श्रीकृष्ण का ध्यान कर रही थीं ?”
गोपी ने नारद जी को डाँटते हुए कहा, “कभी मेरे सामने उसका नाम मत लेना। मैं उसे अपने हृदय से निकालने का अभ्यास कर रही थी “। नारद मुनि भौचकके रह गए तो गोपी ने आगे बताया,”उसी के कारण मेरे सारे कार्य अस्त-व्यस्त हो जाते हैं । जब मैं खाना बनाती हूँ तो मेरी आँखों से आँसू बहते रहते हैं और लकड़ी की आग बुझ जाती है। रोटी सेकते-सेकते उसके ध्यान में मग्न हो जाती हूँ तो रोटी जल जाती है । मैं उससे तंग आ चुकी हूँ इसलिए मैं उसे अपने हृदय से निकालने का अभ्यास कर रही हूँ ।”
मन इतना श्रीकृष्ण पर केन्द्रित हो जाता है । यदि कोई श्री कृष्ण को मन से निकालने का प्रयास भी करे तो भी श्री कृष्ण नहीं निकल सकते । यह बहुत बड़ी कृपा है। जीव मन का स्वामी है । मन का काम जीव को तृप्त करने हेतु रूप, रस, गंध इत्यादि का सेवन करना है । जीव भगवान् का अंश है अतः भगवान् को पाना ही जीव का उद्देश्य है। जीव भगवान् की खोज में 84 लाख में चक्कर लगा रहा है । जब भगवान् मन में आ गए तो मन का स्वामी (जीव) कह देता है बस-बस हो गया "और कुछ नहीं चाहिए बस अब तुम्हारी छुट्टी" । भगवान् ने जीव को सनातन कर्तव्यपरायण सेवक दिया हुआ है । वह मन है अतः मन आज्ञा की अवहेलना, हड़ताल, तथा जीव की इच्छा के विपरीत कुछ नहीं कर सकता । अतः एक बार पूर्ण शरणागत होने के उपरांत मन श्री कृष्ण से विलग नहीं हो सकता ।
फिर गोपी निकलने का अभ्यास क्यों कर रही है? गोपी "रसिक शैली" में कह रही है जिसमें शब्द भले विपरीत हों परंतु वह प्रेम केवल श्री कृष्ण से ही करती है । इस आशय से श्री महाराज जी ने प्रेम रस मदिरा में एक पद प्रकट किया है
गोपी ने नारद जी को डाँटते हुए कहा, “कभी मेरे सामने उसका नाम मत लेना। मैं उसे अपने हृदय से निकालने का अभ्यास कर रही थी “। नारद मुनि भौचकके रह गए तो गोपी ने आगे बताया,”उसी के कारण मेरे सारे कार्य अस्त-व्यस्त हो जाते हैं । जब मैं खाना बनाती हूँ तो मेरी आँखों से आँसू बहते रहते हैं और लकड़ी की आग बुझ जाती है। रोटी सेकते-सेकते उसके ध्यान में मग्न हो जाती हूँ तो रोटी जल जाती है । मैं उससे तंग आ चुकी हूँ इसलिए मैं उसे अपने हृदय से निकालने का अभ्यास कर रही हूँ ।”
मन इतना श्रीकृष्ण पर केन्द्रित हो जाता है । यदि कोई श्री कृष्ण को मन से निकालने का प्रयास भी करे तो भी श्री कृष्ण नहीं निकल सकते । यह बहुत बड़ी कृपा है। जीव मन का स्वामी है । मन का काम जीव को तृप्त करने हेतु रूप, रस, गंध इत्यादि का सेवन करना है । जीव भगवान् का अंश है अतः भगवान् को पाना ही जीव का उद्देश्य है। जीव भगवान् की खोज में 84 लाख में चक्कर लगा रहा है । जब भगवान् मन में आ गए तो मन का स्वामी (जीव) कह देता है बस-बस हो गया "और कुछ नहीं चाहिए बस अब तुम्हारी छुट्टी" । भगवान् ने जीव को सनातन कर्तव्यपरायण सेवक दिया हुआ है । वह मन है अतः मन आज्ञा की अवहेलना, हड़ताल, तथा जीव की इच्छा के विपरीत कुछ नहीं कर सकता । अतः एक बार पूर्ण शरणागत होने के उपरांत मन श्री कृष्ण से विलग नहीं हो सकता ।
फिर गोपी निकलने का अभ्यास क्यों कर रही है? गोपी "रसिक शैली" में कह रही है जिसमें शब्द भले विपरीत हों परंतु वह प्रेम केवल श्री कृष्ण से ही करती है । इस आशय से श्री महाराज जी ने प्रेम रस मदिरा में एक पद प्रकट किया है
बसे रे मेरे, नैनन पिय! तेरे नैन ।
नैनन को नहिं डर पिय! उतनो, डर उन नैन सैन । पुनि सैननहूँ डर नहीं उतनो, डर उन सैनन पैन । जब चह सैन निकारन दृग कह, पैन किंतु सुख-दैन । अब नैन करकत तिन छिन छिन, चैन न मोहिं दिन-रैन । कह ‘कृपालु’ यह रोग लाग जेही, कैसेहूँ कबहूँ छूटै न ॥ प्रेम रस मदिरा |
(श्रीकृष्ण के प्रेम में ओत-प्रोत एक माननी गोपी अटपटे वचनों में उलाहना दे रही है)
हे प्रियतम ! मेरे नयनों में तुम्हारे नयनों ने घर बना लिया है । मुझे तुम्हारे नयनों से उतना कष्ट नहीं है जितना उनके कटाक्षों से कष्ट मिलता है । औ कटाक्षों के बस जाने का भी उतना भय नहीं है जितना भय उनके नुकीले होने के कारण है (अर्थात नुकीले होने के कारण कटाक्ष कोमल नयनों में और गहरे धंस गये हैं) । समस्या ये है कि जब में उनको निकालना चाहती हूँ तो मेरे नयन कहते हैं - ऐसा कदापि न करना । वे नुकीले अवश्य हैं परंतु अत्यंत आनंद प्रदान करते हैं । अब वे पैने कटाक्ष अहर्निश किरकिरी की भाँति मेरे नयनों में चुभते रहते हैं (इसलिये अश्रुधारा प्रवाह होती रहती है)।
जगद्गुरु कृपालु जी महाराज कहते हैं - यह असाध्य रोग जिसे भी लग गया उसे सदा के लिये लग गया । इसको कोई भी, किसी भी प्रकार से समाप्त नहीं कर सकता है ।
हे प्रियतम ! मेरे नयनों में तुम्हारे नयनों ने घर बना लिया है । मुझे तुम्हारे नयनों से उतना कष्ट नहीं है जितना उनके कटाक्षों से कष्ट मिलता है । औ कटाक्षों के बस जाने का भी उतना भय नहीं है जितना भय उनके नुकीले होने के कारण है (अर्थात नुकीले होने के कारण कटाक्ष कोमल नयनों में और गहरे धंस गये हैं) । समस्या ये है कि जब में उनको निकालना चाहती हूँ तो मेरे नयन कहते हैं - ऐसा कदापि न करना । वे नुकीले अवश्य हैं परंतु अत्यंत आनंद प्रदान करते हैं । अब वे पैने कटाक्ष अहर्निश किरकिरी की भाँति मेरे नयनों में चुभते रहते हैं (इसलिये अश्रुधारा प्रवाह होती रहती है)।
जगद्गुरु कृपालु जी महाराज कहते हैं - यह असाध्य रोग जिसे भी लग गया उसे सदा के लिये लग गया । इसको कोई भी, किसी भी प्रकार से समाप्त नहीं कर सकता है ।
जब तक मन पर माया का आवरण रहेगा तब तक मन माया के विकारों से ग्रस्त रहेगा । भगवद्-प्राप्ति पर भक्ति जीव के
आनुषंगिक फल गोविंद राधे। काम क्रोध आदि को सदा को नसा दे॥
राधा गोविंद गीत 3977
राधा गोविंद गीत 3977
“माया के सभी दोषों यथा काम, क्रोध, लोभ आदि को सदा के लिये समाप्त कर देती है। ” औरों के उपर हावी रहेंगे केवल उस जीव को छोड़ देंगे ।
माया सभी विकारों का मूल कारण है। भक्ति पहले जीव के ऊपर से माया का पर्दा हटाती है और भगवान् के ऊपर से योगमाया का पर्दा तब जीव भगवान् का मिलन होता है । जब कारण गया तो कार्य भी साथ में जाएगा । जब माया नौ दो ग्यारह हो गई तो माया के सभी विकार भी स्वतः जीव को छोड़कर चले जाते हैं।
फिर भी आपने सुना होगा कि भगवान् शिव क्रोधित हो जाते हैं, संत दुर्वासा क्रोधित हो जाते हैं । ये सभी लीलाएँ हैं जो जीव कल्याण के लिए की जाती हैं [12]। कुछ लीलाएँ शिक्षाप्रद होती है तथा कुछ लीलाएँ भक्तों के रसास्वादन हेतु होती हैं । भगवान् और भगवत्-प्राप्त संतों के कार्य क्रोध, काम, वासना, लोभ आदि से प्रेरित नहीं होते हैं [13]। उनके कर्म भगवत प्रेरणा से लोकहितार्थ होते हैं ।
माया सभी विकारों का मूल कारण है। भक्ति पहले जीव के ऊपर से माया का पर्दा हटाती है और भगवान् के ऊपर से योगमाया का पर्दा तब जीव भगवान् का मिलन होता है । जब कारण गया तो कार्य भी साथ में जाएगा । जब माया नौ दो ग्यारह हो गई तो माया के सभी विकार भी स्वतः जीव को छोड़कर चले जाते हैं।
फिर भी आपने सुना होगा कि भगवान् शिव क्रोधित हो जाते हैं, संत दुर्वासा क्रोधित हो जाते हैं । ये सभी लीलाएँ हैं जो जीव कल्याण के लिए की जाती हैं [12]। कुछ लीलाएँ शिक्षाप्रद होती है तथा कुछ लीलाएँ भक्तों के रसास्वादन हेतु होती हैं । भगवान् और भगवत्-प्राप्त संतों के कार्य क्रोध, काम, वासना, लोभ आदि से प्रेरित नहीं होते हैं [13]। उनके कर्म भगवत प्रेरणा से लोकहितार्थ होते हैं ।
जैसे ही जीव किसी रसिक संत के निर्देशन में साधना भक्ति प्रारंभ करता है, भक्ति महादेवी शुभदायिनी होने के कारण दिव्य गुण प्रदान करना प्रारंभ कर देती हैं [14]। और भगवद्-प्राप्ति पर भक्ति की कृपा से जीव को
आनुषंगिक फल गोविंद राधे । सत्य अहिंसा आदि दिलवा दे॥
राधा गोविंद गीत 3978 "सत्य, अहिंसा आदि अगणित दिव्य गुण बिना परिश्रम के असीमित मात्रा में स्वतः प्राप्त हो जाते हैं " [15]।
ये सब दैवीय गुण भगवान् में अनंत मात्रा में हैं । जब सक्षात भगवान् जीव के अंतःकरण में विद्यमान हैं तो ये सब गुण तो अपने आप होंगे ही । |
आनुषंगिक फल गोविंद राधे। त्रिगुण त्रिकर्म त्रिताप नसा दे॥
राधा गोविंद गीत 3979
राधा गोविंद गीत 3979
"त्रिगुण, त्रिताप, त्रिदोष आदि हमेशा-हमेशा के लिए नष्ट हो जाते हैं।"
त्रिगुण माया के तीन गुण हैं। जब माया चली जायेगी तो माया के तीनों गुण का आधिपत्य आप पर नहीं रहेगा । तीनों ताप भी अब कष्ट नहीं दे सकते । साथ ही वात, पित्त, कफ तीनों दोष भी कष्ट नहीं दे सकते । ये सब माया की संवित, संधिनी, ह्लादिनि शक्ति से होते हैं। जब माया चली जाती है तो उसका परिवार भी उसके साथ चला जाता है।
उदाहरण के लिए - आपने चैतन्य महाप्रभु के समय में कोढ़ी वासुदेव की कहानी सुनी होगी । कोढ़ के कारण [17] उसका शरीर इतना गल गया था कि उसमें कीड़े पड़ गए थे [18] । यदि कभी उन कीड़ों में से कोई गिर जाता तो वासुदेव उसे उठाकर वापस अपने शरीर पर रख लेते थे और कहते थे “यह आपका भोजन है। आप अपने भोजन से क्यों वंचित रहें “? वासुदेव को उन कीड़ों के काटने से कोई कष्ट नहीं होता था ।
भक्ति के प्रभाव से देहाभिमान कम होता जाता है इसलिए शारीरिक कष्ट (जो आध्यात्मिक ताप में से एक है) व्यक्ति को अशांत नहीं कर सकते हैं। दैवीय विपदाओं से होने वाले कष्ट को आधिभौतिक ताप कहा जाता है। जब "मैं शरीर हूँ" की भावना कम हो जाती है तो आधिभौतिक ताप भी कम कष्टदायी हो जाते हैं। और ईश्वर-प्राप्ति पर, देहाभिमान समाप्त हो जाता है इसलिए त्रिताप, त्रिदोष आदि जीव को कष्ट नहीं दे सकते ।
त्रिगुण माया के तीन गुण हैं। जब माया चली जायेगी तो माया के तीनों गुण का आधिपत्य आप पर नहीं रहेगा । तीनों ताप भी अब कष्ट नहीं दे सकते । साथ ही वात, पित्त, कफ तीनों दोष भी कष्ट नहीं दे सकते । ये सब माया की संवित, संधिनी, ह्लादिनि शक्ति से होते हैं। जब माया चली जाती है तो उसका परिवार भी उसके साथ चला जाता है।
उदाहरण के लिए - आपने चैतन्य महाप्रभु के समय में कोढ़ी वासुदेव की कहानी सुनी होगी । कोढ़ के कारण [17] उसका शरीर इतना गल गया था कि उसमें कीड़े पड़ गए थे [18] । यदि कभी उन कीड़ों में से कोई गिर जाता तो वासुदेव उसे उठाकर वापस अपने शरीर पर रख लेते थे और कहते थे “यह आपका भोजन है। आप अपने भोजन से क्यों वंचित रहें “? वासुदेव को उन कीड़ों के काटने से कोई कष्ट नहीं होता था ।
भक्ति के प्रभाव से देहाभिमान कम होता जाता है इसलिए शारीरिक कष्ट (जो आध्यात्मिक ताप में से एक है) व्यक्ति को अशांत नहीं कर सकते हैं। दैवीय विपदाओं से होने वाले कष्ट को आधिभौतिक ताप कहा जाता है। जब "मैं शरीर हूँ" की भावना कम हो जाती है तो आधिभौतिक ताप भी कम कष्टदायी हो जाते हैं। और ईश्वर-प्राप्ति पर, देहाभिमान समाप्त हो जाता है इसलिए त्रिताप, त्रिदोष आदि जीव को कष्ट नहीं दे सकते ।
आनुषंगिक फल गोविंद राधे । पंचक्लेश अत्यंतभाव करा दे॥
राधा गोविंद गीत 3981
राधा गोविंद गीत 3981
“भक्ति पंचक्लेश को हमेशा के लिए नष्ट कर देती है।”[20] भगवत प्राप्ति के बाद यह क्लेश अनंत काल तक कभी भी जीव को नहीं सता सकते । ये दुःख तभी तक रहते हैं जब तक जीव सोचता है कि "मैं यह शरीर हूँ" । जब सोच बदल जाती है और जीव अपने को भगवान का नित्य दास मान लेता है तो शरीर से संबंधित कष्ट स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं।
उदाहरण के लिए अभिनिवेश एक क्लेश है जिसका अर्थ है "मृत्यु का भय"। लोग मौत से डरते हैं [21][22]। आपने अंबरीश का प्रसंग सुना होगा जिन्होंने दुर्वासा को प्रसन्न करने के लिए स्वेच्छा से मृत्युदंड स्वीकार कर लिया था।
इसके अलावा आपने प्रह्लाद और उसके पुत्र विरोचन की कहानी भी सुनी होगी। प्रह्लाद ने विरोचन को मृत्युदंड दिया था [23]। और ऐसा करते समय उन्हें कोई पछतावा या ख़ुशी नहीं थी क्योंकि उनका संसार में न कहीं राग था ना द्वेष था (ये दोनों पंचक्लेश हैं) ।
भक्तों को शरीर या उसके परिजनों में कोई आसक्ति नहीं होती । इसलिए, मृत्यु किसी भक्त को डरा नहीं सकती । आसक्ति उन्हें सही काम करने से रोक नहीं सकती । साधनावस्था से ही सभी 5 क्लेश नष्ट होने लगते हैं [24]। इस प्रकार, ईश्वर-प्राप्ति पर ये सभी पूर्णतया नष्ट हो जाते हैं।
इसके अलावा आपने प्रह्लाद और उसके पुत्र विरोचन की कहानी भी सुनी होगी। प्रह्लाद ने विरोचन को मृत्युदंड दिया था [23]। और ऐसा करते समय उन्हें कोई पछतावा या ख़ुशी नहीं थी क्योंकि उनका संसार में न कहीं राग था ना द्वेष था (ये दोनों पंचक्लेश हैं) ।
भक्तों को शरीर या उसके परिजनों में कोई आसक्ति नहीं होती । इसलिए, मृत्यु किसी भक्त को डरा नहीं सकती । आसक्ति उन्हें सही काम करने से रोक नहीं सकती । साधनावस्था से ही सभी 5 क्लेश नष्ट होने लगते हैं [24]। इस प्रकार, ईश्वर-प्राप्ति पर ये सभी पूर्णतया नष्ट हो जाते हैं।
अनादिकाल से स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर मयिक जीवों के पीछे लगे हैं । ईश्वर-प्राप्ति के समय जीव के ये तीन शरीर नष्ट हो जाते हैं । उनके स्थान पर जीव को दिव्य शरीर प्राप्त हो जाता है
आनुषंगिक फल गोविंद राधे । मायिक तनु भी दिव्य करा दे॥
राधा गोविंद गीत 3982
राधा गोविंद गीत 3982
"भक्ति शरीर को दिव्य शरीर में परिवर्तित कर देती है"। इसका मतलब यह है कि जीव का शरीर भगवत प्राप्ति के उपरांत पंच महाभूत या किसी भौतिक पदार्थ से नहीं बनता है। शरीर पहले जैसा ही दिखेगा परंतु यह दिव्य पदार्थ [25] से बना होगा ।
पूतना राक्षसी थी जिसे कंस ने 6 दिन के श्री कृष्ण को मारने के लिए भेजा था । उसने स्तन में विष लगाकर श्रीकृष्ण को दुग्धपान कराया । श्री कृष्ण पयपान करने के बहाने उसके प्राण पी लिए और उसे अपने परम धाम गोलोक भेज दिया [25] । उसके मृत शरीर को गोकुल वासियों ने परंपरानुसार जला दिया । जलने पर मानव शरीर से बदबू आती है। राक्षसों के शरीर और भी गंदे होते हैं, इसलिए उसे जलाने पर बहुत अधिक दुर्गंध आनी चाहिये थी । इसके विपरीत, पूतना के शरीर से दिव्य सुगंध निकली और पूरे ब्रज क्षेत्र में व्याप्त हो गई। नंद बाबा कंस को कर चुकाकर मथुरा से लौट रहे थे । उन्हें भी दूर से दिव्य सुगंध आई तो उन्होंने सोचा यज्ञ आदि हो रहा होगा ।
जीव को मायिक शरीर दिया गया है जिसमें मायिक इंद्रियाँ, मायिक मन और मायिक बुद्धि हैं। भगवान् ने जीव को भगवद्-प्राप्ति के लिए ये उपकरण दिये हैं [26]। गुरु अज्ञानी जीव को ज्ञान प्रदान करते हैं । गुरु की इस अहैतुकी कृपा से यदि बुद्धि मान ले कि उसमें जीव (अपने स्वामी) को वांछित वस्तु देने की क्षमता नहीं है तो वह गुरु को पथ प्रदर्शन करने देगी । गुरु वह दिव्य व्यक्तित्व है जो सभी इच्छुक जीवों को ईश्वर के पास ले जाने के लिए नश्वर संसार में अवतरित होते हैं । भगवद्-प्राप्ति के पल में
आनुषंगिक फल गोविंद राधे । इंद्रिय मन बुधि दिव्य करा दे॥
राधा गोविंद गीत 3983
राधा गोविंद गीत 3983
"भक्ति मायिक इंद्रिय, मन और बुद्धि को दिव्य इंद्रिय, दिव्य मन और दिव्य परिवर्तित कर देती है"। श्री कृष्ण के दिव्य शरीर को केवल दिव्य चक्षु ही देख सकते हैं । मायिक शरीर और मन में असीमित मात्रा के आनंद सहन करने की क्षमता नहीं होती है । इसलिए गुरु पहले उन्हें दिव्य बनाते हैं फिर दिव्य प्रेम प्रदान करते हैं । तभी जीव श्री कृष्ण के सौरस्य, सौकुमार्य आदि का आनंद ले सकता है । और जितना अधिक जीव उनका आनंद लेता है उतना ही अधिक जीव का श्री कृष्ण के प्रति प्रेम बढ़ता जाता है। और उतनी ही अधिक जीव की प्यास बढ़ती जाती है । श्री कृष्ण के माधुर्य और जीव के प्रेम में अनंतकाल तक यूँ ही होड़ चलती रहती है । श्री महाराज जी ने गोपी की अवस्था की व्याख्या इस प्रकार की है
नख शिख लखि सखिअखियनहूँ ते, पल पल तलफती देखन को री।
प्रेम रस मदिरा श्रीकृष्ण माधुरी 1
प्रेम रस मदिरा श्रीकृष्ण माधुरी 1
"सिर से चरण तक उनके दर्शन करने पर भी उनके दर्शन कि लिये तड़पती रहती हूँ"।
केवल दिव्य इंद्रिय, मन और बुद्धि ही उनके दिव्य रूप का साक्षातकार कर सकते हैं अतः केवल दिव्य इंद्रिय, मन और बुद्धि ही उनके दिव्य अपरिमेय रूप का आस्वादन कर सकते हैं ।
केवल दिव्य इंद्रिय, मन और बुद्धि ही उनके दिव्य रूप का साक्षातकार कर सकते हैं अतः केवल दिव्य इंद्रिय, मन और बुद्धि ही उनके दिव्य अपरिमेय रूप का आस्वादन कर सकते हैं ।
श्री कृष्ण का चिन्मय धाम गोलोक है। साक्षात श्रीकृष्ण की सेवा के लिए गोलोक जाना होगा।
आनुषंगिक फल गोविंद राधे । दिव्य हरीधाम बिन मांगे दिला दे॥
राधा गोविंद गीत 3984
राधा गोविंद गीत 3984
"भक्ति भक्त को बिना माँगे ही भगवान् के दिव्य धाम भेज देती है"।
परमात्मा के भक्त सालोक्य मुक्ति नाम की द्वैत मुक्ति माँगते हैं । श्री कृष्ण के भक्त को बिना माँगे ही जीवन काल में ही गोलोक में निवास मिल जाता है । जब भक्त को दिव्य शरीर प्राप्त हो जाता है, तो वह इस धराधाम पर रहते हुए भी गोलोक में रह सकता है । यह बात फिलहाल समझ से परे हो सकती है क्योंकि यह शब्दों का नहीं बल्कि अनुभव गम्य विषय है । तो जब ऐसा होगा तब होने दीजिये । वर्तमान समय में दो बातों पर ध्यान देना होगा
अब आप जान गये हैं
अभी एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण बात रह गई । साधना द्वारा आध्यात्मिक पूँजी की कमाई करने के साथ-साथ उन चोरों को भी जानना आवश्यक है जो आपकी आध्यात्मिक पूँजी लूट लेते हैं । जानने से जीव सतर्क होकर उनसे अपनी भक्ति की रक्षा कर सकता है।
आगामी दिव्य रस बिंदु में बनचरी दीदी इसी पॉइंट पर प्रकाश डालेंगी।
परमात्मा के भक्त सालोक्य मुक्ति नाम की द्वैत मुक्ति माँगते हैं । श्री कृष्ण के भक्त को बिना माँगे ही जीवन काल में ही गोलोक में निवास मिल जाता है । जब भक्त को दिव्य शरीर प्राप्त हो जाता है, तो वह इस धराधाम पर रहते हुए भी गोलोक में रह सकता है । यह बात फिलहाल समझ से परे हो सकती है क्योंकि यह शब्दों का नहीं बल्कि अनुभव गम्य विषय है । तो जब ऐसा होगा तब होने दीजिये । वर्तमान समय में दो बातों पर ध्यान देना होगा
- तत्व ज्ञान को जानना
- तत्व ज्ञान को व्यवहार में लाना
अब आप जान गये हैं
- "भक्ति भगवान् को पाने का सबसे अच्छा तरीका है" पूर्णतया सही कथन नहीं है । सही कथन यह है कि "जीव को भगवान् के सम्मुख करने का एकमात्र तरीका भक्ति ही है"।
- भक्ति श्री कृष्ण की सेवा प्रदान करती है जो सभी फलों में सबसे बड़ा साध्य है। और भक्ति सेवा के अतिरिक्त अन्य साध्य भी प्रदान कर देती है।
- सेवा प्राप्त करने के लिए प्रथम सोपान है किसी रसिक संत के निर्देशन में साधना - दैनिक भक्ति करने का दृढ़ निश्चय ।
अभी एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण बात रह गई । साधना द्वारा आध्यात्मिक पूँजी की कमाई करने के साथ-साथ उन चोरों को भी जानना आवश्यक है जो आपकी आध्यात्मिक पूँजी लूट लेते हैं । जानने से जीव सतर्क होकर उनसे अपनी भक्ति की रक्षा कर सकता है।
आगामी दिव्य रस बिंदु में बनचरी दीदी इसी पॉइंट पर प्रकाश डालेंगी।
नित सेवा माँगूँ श्यामा श्याम तेरी । न भुक्ति न मैं मुक्ति मागूँ मैं ।
बाढ़े भक्ति निष्काम नित मेरी । न भुक्ति न मैं मुक्ति मागूँ मैं । Reference
हे श्यामा श्याम! मेरी प्रार्थना है कि आप मुझे अपनी नित्य सेवा प्रदान करें । ऐसी कृपा करो कि मेरी एक ही कामना हो । वह ये कि मेरा निःस्वार्थ प्रेम सदैव बढ़ता रहे । मुझे संसार के ऐश्वर्य या माया के चंगुल से मुक्त होने की किञ्चितमात्र भी इच्छा नहीं है।
- जगद्गुरूत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज
|
संदर्भग्रंथ सूची - और अधिक जानें
[10] Lok
|
[13] Friend of Humble
|
[14] भक्ति शुभ दायनी है
|
[16] स्थूल शरीर
|
[16] daihik taap
|
[17] bhakutik taap
|
[18] daivik taap
|
[20] भक्ति क्लेश भस्म करती है
|
[24] शरीर के प्रकार
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