सर्वशक्तिमान भगवान की अनंत शक्तियाँ है। उनमें से एक माया है जो पूर्णतया भगवान के द्वारा शासित है।
मायां तु प्रकृतिं मायिनं तु महेश्वरम् ।
तस्यावयव भूतैस्तु व्यापतं सर्वमिदं जगत।। श्वेता. 4.10
परात्पर ब्रह्म की प्रमुख रूप से तीन शक्तियाँ हैं।
परात्पर ब्रह्म तथा जीव चेतन है और माया जड़ है । यद्यपि तीनों अनादि अनंत हैं परंतु तीनों स्वतंत्र नहीं हैं । परात्पर ब्रह्म जीव तथा माया का शासक है । माया भगवान की जड़ शक्ति है अतः स्वयं से कुछ नहीं कर सकती। यद्यपि यह भगवान की तरह न तो दिव्य है और न ही चेतन तथापि यह सृष्टि जैसे आश्चर्यजनक कार्य करती है क्योंकि यह भगवान के द्वारा नियंत्रित है। यह तुच्छ, जड़, भगवान की बहिरंगा शक्ति इतनी बलवती है कि बड़े बड़े ज्ञानी भी इससे डरते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो यह उतनी ही शक्तिशाली है जितने भगवान हैं क्योंकि यह भगवान की शक्ति से शक्तिमति बनी है। |
माया के प्रकार
माया के तीन गुण होते हैं अतः इसे त्रिगुणात्मिका माया भी कहते हैं ।
सत्व गुण
प्रेम, सत्य, दया, धर्म आदि दैवीय गुण वाली सत्वगुणी माया कहलाती है। स्वर्ग लोक के देवी देवताओं में माया के इस गुण की प्रधानता होती है। सत्वगुण माया के अन्य दोनों गुणों से यह गुण उच्च है ।
रजोगुण
अपने सुख की वासना माया का रजोगुण है। मनुष्यों में माया के इस गुण की प्रधानता होती है। एक सीमा तक दूसरों की सहायता करना, ईमानदार रहना, सहनशीलता, उदारता आदि गुण माया के रजोगुण के द्योतक हैं। अर्थात इन गुणों से युक्त जीव न ही बहुत अच्छे और न ही बहुत बुरे होते हैं।
तामस गुण
मानवीय गुणों के विरोधी गुण अर्थात राक्षसी प्रवृत्ति तामस गुण कहलाता है। क्रोध, हिंसा, छल, कपट, बेईमानी, क्रूरता आदि गुण तामसी होते हैं।
माया की अभिव्यक्ति
संसार माया की अभिव्यक्ति है। प्रत्येक मायिक पदार्थ जड़, अनित्य तथा परिवर्तनशील है। हमारा शरीर पंचमहाभूत से निर्मित है अतः यह भी अनित्य तथा परिवर्तनशील है। एक दिन यह इसका आरंभ होता है, फिर जन्म लेता है, वृद्धि होती है, ढ़लने लगता है तथा मृत्यु के पश्चात छय हो जाता है। जड़ शरीर चेतन की भाँति अनंत क्रियाएँ यथा देखना, सुनना, सोचना, सुनना, निर्णय लेना, स्पर्श करना आदि करता है। यह कमाल हृदय में बैठी हुई चेतन आत्मा का है कि पूरे शरीर को चैतन्यवत कर्म कर देती है । जैसे कक्ष के एक कोने में रखा हुआ दीपक संपूर्ण कक्ष को रोशनी प्रदान करता है उसी प्रकार हृदय में रहकर आत्मा इंद्रिय, मन तथा बुद्धि सबको चैतन्य बना देती है।
इसको एक उदाहरण से समझते हैं। मेज जड़ वस्तु है परंतु फिर भी यह कक्ष के एक कोने से दूसरे कोने में पहुँच जाती है। कैसे? इसको हमारे चेतन हाथ उठाकर रखते हैं। इन हाथों को चेतनता हमारा मन देता है। मन भी जड़ है । इसको आत्मा से चेतना प्राप्त होती है तथा आत्मा को परमात्मा से चेतना प्राप्त होती है। परमात्मा ही भगवान है जो विभूचित है तथा सभी को चेतना प्रदान करता है। वह भगवान ही समस्त चेतना का स्रोत है अर्थात उसकी चेतना का कोई अन्य स्रोत नहीं है ।
आत्मा शरीर को चेतना प्रदान करती है यही कारण है कि जब आत्मा शरीर छोड़ती है तो शरीर मृत हो जाता है। यह आत्मा शरीर के हृदय में निवास करती है।
अतः माया भगवान की जड़ शक्ति है जो कि पूर्णतया भगवान के द्वारा नियंत्रित है । पूरा संसार माया का बना है। यहाँ तक कि हमारी इंद्रियाँ, मन, बुद्धि भी मायिक हैं। आत्मा दिव्य है इसलिए मन, बुद्धि, इंद्रियों से परे है। आत्मा अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुसार दिव्यानंद की प्राप्ति करना चाहती है। परंतु इंद्रिय मन बुद्धि मायिक होने के कारण दिव्यानंद से अनभिज्ञ हैं । वे नहीं जानते कि आत्मा का आनंद कहाँ है तथा कैसे प्राप्त होगा।
तो हमें क्या करना चाहिए? हमें समर्पण की भावना से दिव्य प्रेम प्राप्त मायातीत महापुरुष के पास जाकर उससे अपने आध्यात्मिक प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करके उसकी सेवा करनी चाहिए। वह तुम्हारी जिज्ञासाओं को शांत करके भगवत पथ पर सही-सही मार्गदर्शन करते हुए तुम्हें भगवान की ओर चलाता है, जो स्वयं दिव्यानंद स्वरूप है।
माया भगवान की दंड कारिणी शक्ति है जो भगवान से विमुख जीवों को मायिक वस्तुओं तथा व्यक्तियों के प्रति आकर्षित कर लेती है। जब उन व्यक्तियों तथा वस्तुओं से जीव की आनंद प्राप्ति का लक्ष्य पूर्ण नहीं होता तब जीव को ज्ञान होता है कि “ये वस्तुएँ मेरी नहीं है । मैं शरीर नहीं हूँ । मैं आत्मा हूँ तथा भगवान का अंश हूँ । मायिक वस्तुओं की प्राप्ति से दिव्य आत्मा को परमानंद नहीं मिल सकता। मैं इन व्यक्तियों तथा वस्तुओं से ममत्व क्यों बढ़ाऊँ ? सभी जीव मेरी ही तरह दिव्य प्रेम के भिखारी हैं “।
इसको एक उदाहरण से समझते हैं। मेज जड़ वस्तु है परंतु फिर भी यह कक्ष के एक कोने से दूसरे कोने में पहुँच जाती है। कैसे? इसको हमारे चेतन हाथ उठाकर रखते हैं। इन हाथों को चेतनता हमारा मन देता है। मन भी जड़ है । इसको आत्मा से चेतना प्राप्त होती है तथा आत्मा को परमात्मा से चेतना प्राप्त होती है। परमात्मा ही भगवान है जो विभूचित है तथा सभी को चेतना प्रदान करता है। वह भगवान ही समस्त चेतना का स्रोत है अर्थात उसकी चेतना का कोई अन्य स्रोत नहीं है ।
आत्मा शरीर को चेतना प्रदान करती है यही कारण है कि जब आत्मा शरीर छोड़ती है तो शरीर मृत हो जाता है। यह आत्मा शरीर के हृदय में निवास करती है।
अतः माया भगवान की जड़ शक्ति है जो कि पूर्णतया भगवान के द्वारा नियंत्रित है । पूरा संसार माया का बना है। यहाँ तक कि हमारी इंद्रियाँ, मन, बुद्धि भी मायिक हैं। आत्मा दिव्य है इसलिए मन, बुद्धि, इंद्रियों से परे है। आत्मा अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुसार दिव्यानंद की प्राप्ति करना चाहती है। परंतु इंद्रिय मन बुद्धि मायिक होने के कारण दिव्यानंद से अनभिज्ञ हैं । वे नहीं जानते कि आत्मा का आनंद कहाँ है तथा कैसे प्राप्त होगा।
तो हमें क्या करना चाहिए? हमें समर्पण की भावना से दिव्य प्रेम प्राप्त मायातीत महापुरुष के पास जाकर उससे अपने आध्यात्मिक प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करके उसकी सेवा करनी चाहिए। वह तुम्हारी जिज्ञासाओं को शांत करके भगवत पथ पर सही-सही मार्गदर्शन करते हुए तुम्हें भगवान की ओर चलाता है, जो स्वयं दिव्यानंद स्वरूप है।
माया भगवान की दंड कारिणी शक्ति है जो भगवान से विमुख जीवों को मायिक वस्तुओं तथा व्यक्तियों के प्रति आकर्षित कर लेती है। जब उन व्यक्तियों तथा वस्तुओं से जीव की आनंद प्राप्ति का लक्ष्य पूर्ण नहीं होता तब जीव को ज्ञान होता है कि “ये वस्तुएँ मेरी नहीं है । मैं शरीर नहीं हूँ । मैं आत्मा हूँ तथा भगवान का अंश हूँ । मायिक वस्तुओं की प्राप्ति से दिव्य आत्मा को परमानंद नहीं मिल सकता। मैं इन व्यक्तियों तथा वस्तुओं से ममत्व क्यों बढ़ाऊँ ? सभी जीव मेरी ही तरह दिव्य प्रेम के भिखारी हैं “।
तो हमें क्या करना चाहिए?
हमें दीनता पूर्वक दिव्य प्रेम प्राप्त मायातीत महापुरुष के पास जाकर उनकी सेवा करनी चाहिए । जिज्ञासु भाव से अपनी शंकाओं के समाधान हेतु प्रश्न करना होगा । वे तुम्हारी जिज्ञासाओं को शांत करके सही-सही मार्गदर्शन करते हुए तुम्हें भगवत पथ पर अग्रसर कर देंगे ।
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया । उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्तवदर्शिनः।। गी. 3.34
तस्माद् गुरुं प्रद्येत जिज्ञासुः श्रेय उत्तमम्। शाब्देपरे च निष्णातं ब्रह्मण्युपशमाश्रयम् । भा11.3.21
तस्माद् गुरुं प्रद्येत जिज्ञासुः श्रेय उत्तमम्। शाब्देपरे च निष्णातं ब्रह्मण्युपशमाश्रयम् । भा11.3.21
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं “किसी भगवत प्राप्त संत को सर्व समर्पण करके उससे विनय पूर्वक आध्यात्मिक जिज्ञासाओं के समाधान हेतु प्रश्न करो”।
सभी के जीवन में दुख भरे अनुभव माया जनित सांसारिक बंधनों के कारण हैं। माया दुखदाई नहीं है अपितु संसार के स्वरूप को उनके व्यवहारों के द्वारा समझाती है तथा हमको सही संबंधों का ज्ञान कराती है। मायिक व्यक्ति या वस्तु हमारे दुख का कारण नहीं होते वरन उनसे सुख प्राप्त करने की अपूर्ण कामना से हमें स्वत: दुख की प्राप्ति होती है । संसारी व्यक्तियों अथवा वस्तुओं में सुख मानना दुख को निमंत्रण देने के समान है। अतः जीव को यह ज्ञान दृढ़ करना होगा कि भगवान ही आनंद है और उसकी प्राप्ति पर ही मुझे आनंद प्राप्त हो सकता है । अतः हम सभी को भगवान से प्रगाढ़ अनुराग करना होगा । यह प्रगाढ़ता “भगवान ही आनंद स्वरूप है” का पुनः पुनः चिंतन करके आएगी । यह ज्ञान जितनी मात्रा में दृढ़ होगा उतनी मात्रा में संसार से वैराग्य तथा भगवान (आनंदसिंधु) से अनुराग स्वत: होता जाएगा।
भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं -
सभी के जीवन में दुख भरे अनुभव माया जनित सांसारिक बंधनों के कारण हैं। माया दुखदाई नहीं है अपितु संसार के स्वरूप को उनके व्यवहारों के द्वारा समझाती है तथा हमको सही संबंधों का ज्ञान कराती है। मायिक व्यक्ति या वस्तु हमारे दुख का कारण नहीं होते वरन उनसे सुख प्राप्त करने की अपूर्ण कामना से हमें स्वत: दुख की प्राप्ति होती है । संसारी व्यक्तियों अथवा वस्तुओं में सुख मानना दुख को निमंत्रण देने के समान है। अतः जीव को यह ज्ञान दृढ़ करना होगा कि भगवान ही आनंद है और उसकी प्राप्ति पर ही मुझे आनंद प्राप्त हो सकता है । अतः हम सभी को भगवान से प्रगाढ़ अनुराग करना होगा । यह प्रगाढ़ता “भगवान ही आनंद स्वरूप है” का पुनः पुनः चिंतन करके आएगी । यह ज्ञान जितनी मात्रा में दृढ़ होगा उतनी मात्रा में संसार से वैराग्य तथा भगवान (आनंदसिंधु) से अनुराग स्वत: होता जाएगा।
भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं -
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया । मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्तिते।। गीता 7.14
“माया दैवीय है तथा मेरी ही शक्ति है। मुझे प्राप्त करके ही माया पर विजय प्राप्त की जा सकती है। और मैं अजेय हूँ अतः माया भी अजेय है। परंतु यदि कोई मेरे पूर्ण शरणागत हो जाता है तो मेरी कृपा से वो माया के बंधनों से मुक्त हो जाता है।”
भावार्थ यह है कि भगवान के दो प्रकार के सेवक होते हैं:
- एक तो संत जो हमारे सच्चे मार्गदर्शक बनकर हमें दिव्यानंद की प्राप्ति के पथ पर चलाते हैं। वो प्यार-दुलार से हमें तत्व ज्ञान कराते हैं । आनंद प्राप्ति हेतु दुख के मार्ग पर न चलने को प्रेरित करते हैं ।
- परंतु यदि कोई भगवान के सच्चे संतो की बात नहीं मानता और भगवान की सेविका माया की ओर भागता है तो माया उसको सांसारिक व्यक्तियों तथा वस्तुओं में आसक्त कर देती है । सांसारिक संबंधी जब अपनी स्वार्थ सिद्धि की प्रस्तावना रखते हैं तब जीव को ज्ञान होता है कि “ये सब स्वार्थी हैं । इस संसार में हमारा सच्चा हितेषी एकमात्र गुरु तथा भगवान ही है । उनसे ही प्रेम करने से हमें हमारे लक्ष्य की प्राप्ति होगी।” इस ज्ञान से संसार से वैराग्य और हरि-गुरु में अनुराग हो जाता है।
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