2023 शरद पूर्णिमा |
सिद्धांत
भक्ति से प्राप्त अन्य फलअनंत काल तक श्री कृष्ण की सेवा करने का अवसर प्रदान करने के साथ-साथ भक्ति अन्य उपहार भी देती है।
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सिद्धांत
धोखे में न आएँ !जानिये इस धोखाधड़ी की दुनिया में, दिव्यानंद की खोज में कैसे धोखा न खाएँ।
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बाल कथा
आज्ञा सम न सुसाहिब सेवासेवा का अर्थ समझाने वाली एक कहानी
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सिद्धांत
अब तक भक्ति के विभिन्न अंगों को उजागर करने हेतु लेखों की शृंखला में बनचरी दीदी जी ने अनेक वेद सम्मत धर्मग्रंथों से सिद्ध किया कि श्रोत्रीय, ब्रह्मनिष्ठ गुरु के निर्देशानुसार साधना भक्ति करने से जीव का मन शुद्ध होता है। तब गुरु दिव्य प्रेम प्रदान करते हैं। उस दिव्य प्रेम से जीव अपने शरण्य श्री कृष्ण की सेवा [3] करता है और वही भक्ति का प्रमुख फल है [4]।
निःस्वार्थ भाव [5] से श्री कृष्ण की सेवा [6] करने का आनंद अद्वितीय [7] है। श्री कृष्ण की सेवा के अतिरिक्त भक्ति अन्य लघु लक्ष्य जीव को बिन-माँगे प्रदान कर देती है ।
इस तथ्य को समझने के लिए इस उदाहरण पर विचार करें। कल्पना कीजिए कि एक दरिद्री की अरबों रुपए की लॉटरी लग गई। जिस क्षण वह दरिद्री अरबपति बना उसी क्षण उसे लाखों और हजारों भी मिल गए। क्योंकि अरब में करोड़, लाख सब है। इसी प्रकार, जैसे ही जीव को भगवदीय प्रेम प्राप्त होता है, उसे सभी निम्न उपलब्धियाँ भी प्राप्त हो जाती हैं। उन उपलब्धियों को आनुषंगिक फल की संज्ञा दी जाती है। और ये फल शरणागत जीव को बिना माँगे ही मिल जाते हैं।
इस अंक में कुछ आनुषंगिक फलों का विवरण नीचे किया जा रहा है।
निःस्वार्थ भाव [5] से श्री कृष्ण की सेवा [6] करने का आनंद अद्वितीय [7] है। श्री कृष्ण की सेवा के अतिरिक्त भक्ति अन्य लघु लक्ष्य जीव को बिन-माँगे प्रदान कर देती है ।
इस तथ्य को समझने के लिए इस उदाहरण पर विचार करें। कल्पना कीजिए कि एक दरिद्री की अरबों रुपए की लॉटरी लग गई। जिस क्षण वह दरिद्री अरबपति बना उसी क्षण उसे लाखों और हजारों भी मिल गए। क्योंकि अरब में करोड़, लाख सब है। इसी प्रकार, जैसे ही जीव को भगवदीय प्रेम प्राप्त होता है, उसे सभी निम्न उपलब्धियाँ भी प्राप्त हो जाती हैं। उन उपलब्धियों को आनुषंगिक फल की संज्ञा दी जाती है। और ये फल शरणागत जीव को बिना माँगे ही मिल जाते हैं।
इस अंक में कुछ आनुषंगिक फलों का विवरण नीचे किया जा रहा है।
योगियों को 8 सात्विक सिद्धियाँ प्राप्त हो सकती हैं, परंतु केवल एक सीमा तक ही प्राप्त होती हैं। प्रेमा भक्ति प्राप्त होने पर सभी सिद्धियाँ भक्त की सेवा करती हैं, लेकिन गुप्त रूप से। वे गुप्त रूप से इसलिए भक्त की सेवा करती हैं क्योंकि भक्त इन सिद्धियों को प्राप्त नहीं करना चाहता है।
उदाहरण के लिए, संत नामदेव भक्त थे और संत ज्ञानेश्वर योगी थे। एक बार वे पैदल रेगिस्तान से होकर यात्रा कर रहे थे। रास्ते में उन्हें प्यास लगी। वे काफी देर तक पानी की तलाश में इधर-उधर घूमते रहे। अंत में, उन्हें एक कुआँ दिखाई दिया जिसमें पानी का स्तर बहुत नीचा था । उसमें से पानी निकालने के लिए कोई बाल्टी और रस्सी भी नहीं थी ।
उदाहरण के लिए, संत नामदेव भक्त थे और संत ज्ञानेश्वर योगी थे। एक बार वे पैदल रेगिस्तान से होकर यात्रा कर रहे थे। रास्ते में उन्हें प्यास लगी। वे काफी देर तक पानी की तलाश में इधर-उधर घूमते रहे। अंत में, उन्हें एक कुआँ दिखाई दिया जिसमें पानी का स्तर बहुत नीचा था । उसमें से पानी निकालने के लिए कोई बाल्टी और रस्सी भी नहीं थी ।
संत ज्ञानेश्वर ने अणिमा सिद्धि का उपयोग करके सूक्ष्म रूप धारण किया और कुएँ में जाकर अपनी प्यास बुझा ली । फिर वापस ऊपर आकर, अपने नियमित रूप में आ गए । फिर उन्होंने नामदेव का मखौल उड़ाया, “देखिए, मैं योगी हूँ, इसलिए मैंने योग सिद्धियों द्वारा कुएँ में प्रवेश करके अपनी प्यास बुझा ली। आप सदैव 'राधे श्याम', 'राधे श्याम' का जप करते हैं। आपने योग का अभ्यास नहीं किया अतः आपके पास कोई सिद्धियाँ नहीं हैं। अब आप अपनी प्यास कैसे बुझाएँगे”?
इससे पहले कि संत ज्ञानेश्वर अपना व्यंग्यपूर्ण वाक्य पूरा कर पाते, उन्होंने देखा कि कुएँ में पानी लबालब भर गया है। अपने प्रभु की कृपा देखकर संत नामदेव की आँखों में आँसू आ गये और भाव मैं उनका गला भर आया और वाणी अवरुद्ध हो गई। उन्होंने कहा, “हे प्रभु! आप अपने तुच्छ सेवक की सेवा करने आये हैं। हे मेरे स्वामी! क्या मैं पानी के बिना एक दिन भी जीवित नहीं रह सकता था ! हाय ! तुमने ऐसे तुच्छ जीव के लिए कष्ट उठाया!”
हाथ कंगन को आरसी क्या! भगवान् की अपने भक्तों पर असीम अनुकंपा का प्रत्यक्ष प्रमाण पाकर संत ज्ञानेश्वर को अत्यधिक ग्लानी हुई । श्रीकृष्ण की भक्ति न करके योगाभ्यास करना अब उन्हें मूर्खता की पराकाष्ठा प्रतीत होने लगा। उस दिन से संत ज्ञानेश्वर ने अपना योग मार्ग छोड़ दिया और श्री कृष्ण के भक्त बन गए।
श्री कृष्ण सभी 23 सिद्धियों के स्वामी हैं। श्रीकृष्ण क्रीतदास (बंधुआ गुलाम) [8] की भांति अपने भक्तों की सेवा करते हैं। जब स्वामी भक्त की सेवा [9][10][11] करते हैं तो स्पष्ट ही है कि सिद्धियाँ भी स्वामी के सुख के लिये उस भक्त की सेवा करेंगी !
इससे पहले कि संत ज्ञानेश्वर अपना व्यंग्यपूर्ण वाक्य पूरा कर पाते, उन्होंने देखा कि कुएँ में पानी लबालब भर गया है। अपने प्रभु की कृपा देखकर संत नामदेव की आँखों में आँसू आ गये और भाव मैं उनका गला भर आया और वाणी अवरुद्ध हो गई। उन्होंने कहा, “हे प्रभु! आप अपने तुच्छ सेवक की सेवा करने आये हैं। हे मेरे स्वामी! क्या मैं पानी के बिना एक दिन भी जीवित नहीं रह सकता था ! हाय ! तुमने ऐसे तुच्छ जीव के लिए कष्ट उठाया!”
हाथ कंगन को आरसी क्या! भगवान् की अपने भक्तों पर असीम अनुकंपा का प्रत्यक्ष प्रमाण पाकर संत ज्ञानेश्वर को अत्यधिक ग्लानी हुई । श्रीकृष्ण की भक्ति न करके योगाभ्यास करना अब उन्हें मूर्खता की पराकाष्ठा प्रतीत होने लगा। उस दिन से संत ज्ञानेश्वर ने अपना योग मार्ग छोड़ दिया और श्री कृष्ण के भक्त बन गए।
श्री कृष्ण सभी 23 सिद्धियों के स्वामी हैं। श्रीकृष्ण क्रीतदास (बंधुआ गुलाम) [8] की भांति अपने भक्तों की सेवा करते हैं। जब स्वामी भक्त की सेवा [9][10][11] करते हैं तो स्पष्ट ही है कि सिद्धियाँ भी स्वामी के सुख के लिये उस भक्त की सेवा करेंगी !
वेदों ने आध्यात्मिक उत्थान के तीन अन्य मार्गों का वर्णन किया है यथा कर्म, ज्ञान और योग। न्याय दर्शन की कसौटिओं का वर्णन करते समय शास्त्रोक्त प्रमाणों से यह सिद्ध किया गया कि वे मार्ग बिना भक्ति महादेवी की कृपा के अपना फल भी नहीं दे सकते। वे भक्ति महादेवी का मुख ताकते हैं की कृपा करो तो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जीव को प्राप्त हों। और ये फल प्राप्त हो भी जाएँ तो जीव को अपना अंतिम लक्ष्य अपरिमेय अपौरुषेय दिव्यानंद प्राप्त नहीं होगा [12]। भागवत का डिमडिम घोष है -
यत् कर्मभिर्यत्तपसा ज्ञानवैराग्यतश्च यत् । योगेन दानधर्मेण श्रेयोभिरितरैरपि ॥
सर्वं मद्भक्तियोगेन मद्भक्तो लभतेऽञ्जसा । स्वर्गापवर्गं मद्धाम कथञ्चिद् यदि वाञ्छति ॥
भा 11.20.32-33
सर्वं मद्भक्तियोगेन मद्भक्तो लभतेऽञ्जसा । स्वर्गापवर्गं मद्धाम कथञ्चिद् यदि वाञ्छति ॥
भा 11.20.32-33
“जो कुछ भी वैदिक कर्म, तपस्या, ज्ञान, वैराग्य, योग, दान इत्यादि अन्य सभी आध्यात्मिक उत्थान के साधनों द्वारा प्राप्त किया जा सकता है, वह मेरे भक्त मेरी प्रेमपूर्ण सेवा के माध्यम से सहज ही प्राप्त कर लेते हैं। यदि किसी कारण से मेरा भक्त स्वर्ग, मुक्ति या मेरे लोक में निवास करना चाहता है, तो वह आसानी से ऐसे लक्ष्य प्राप्त कर लेता है।”
और वो चीजें बिना मांगे ही मिल जाती हैं!
और वो चीजें बिना मांगे ही मिल जाती हैं!
बहुत से लोगों की मान्यता है कि जीव को भक्ति प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम ज्ञान [13] तथा पूर्ण वैराग्य करना होगा।
वासुदेवे भगवती भक्तियोगः प्रायोजितः । नयत्याशु वैराग्यं ज्ञानं च यदहैतुकम् ॥
भा 1.2.7
भा 1.2.7
"भक्ति के माध्यम से, ज्ञान और वैराग्य स्वत: ही प्राप्त हो जाते हैं, उनके लिए अतिरिक्त प्रयास नहीं करना पड़ता है।"
भक्ति ज्ञान और वैराग्य दोनों की जननी है। भागवत में वेद व्यास और रामायण में संत वाल्मिकी कहते हैं -
भक्ति ज्ञान और वैराग्य दोनों की जननी है। भागवत में वेद व्यास और रामायण में संत वाल्मिकी कहते हैं -
भक्ति: परेशानुभवो विरक्ति-रन्यत्र चैष त्रिक एककाल: ।
प्रपद्यमानस्य यथाश्नत: स्यु-स्तुष्टि: पुष्टि: क्षुदपायोऽनुघासम् ॥
भा 11.2.४२
प्रपद्यमानस्य यथाश्नत: स्यु-स्तुष्टि: पुष्टि: क्षुदपायोऽनुघासम् ॥
भा 11.2.४२
“जिसने परम भगवान् की शरण ली है, उसकी कृपा से तीन चीजें एक साथ घटित होती हैं - 1. भक्ति, 2. पतात्पर भगवान् का अनुभव और 3. मायिक संसार से वैराग्य ।
खाना खाते समय भी ऐसा ही होता है - उसे प्रत्येक ग्रास के साथ तुष्टि (संतुष्टि), पुष्टि (पोषण) और क्षुद-निवृत्ति (भूख से राहत) एक साथ मिलती है।"
अध्यात्म रामायण में यही निर्देश दिया गया है,
खाना खाते समय भी ऐसा ही होता है - उसे प्रत्येक ग्रास के साथ तुष्टि (संतुष्टि), पुष्टि (पोषण) और क्षुद-निवृत्ति (भूख से राहत) एक साथ मिलती है।"
अध्यात्म रामायण में यही निर्देश दिया गया है,
अतो मद्भक्तियुक्तस्य ज्ञानं विज्ञानमेव च । वैराग्यं च भवेच्छीघ्रं ततो मुक्तिमवाप्नुयात्॥
आ.रा 4.78.51
आ.रा 4.78.51
“जो मेरे शरणागत होता है, उसे ज्ञान वैराग्य शीघ्र ही प्राप्त हो जाते हैं तथापि वह माया से मुक्ति मिल जाती है।"
कुछ लोगों का मानना है कि मन के पंचकोशों के भस्म होने पर ही ईश्वर की प्राप्ति हो सकती है। उसके लिए श्रीमद्भागवत महापुराण कहता है -
अनिमित्ता भागवती भक्तिः सिद्धेर्गरियसी । जरयत्याशु या कोशं निगीर्णमनलो यथा ॥
भा 3.25.33
भा 3.25.33
"भक्ति करने से धीरे-धीरे जीव के पंचकोश भस्म हो जाते हैं। पंचकोश समाप्त करने के लिए अन्य कोई साधन नहीं करनी पड़ता।"
जठराग्नि भोजन को पचा कर रस, रक्त, मांस, मेदा, मज्जा, हड्डी, वीर्ज/रज बना देती है। भोजन से ऊर्जा प्राप्त करने के लिए पाचन की प्रक्रिया को जानने की आवश्यकता नहीं है। व्यक्ति को बस स्वास्थ्यवर्धक भोजन खाने की जरूरत है और पाचन क्रिया पूरे शरीर को पोषण देने का काम करती है। उसी प्रकार, जीव को केवल भक्ति करनी है और श्री कृष्ण से मिलने की लालसा बढ़ानी है। श्रीकृष्ण से वियोग और मिलन, दोनों का रूपध्यान करके विरह वेदना को जाज्वलित करना ही जीव का कर्तव्य है। श्रीकृष्ण के वियोग की अग्नि में पाँचों कोश स्वतः ही जल जाते हैं। उन पाँच कोशों को जलाने के लिए जीव को कोई अतिरिक्त प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है।
ऐसे कई अन्य अतिरिक्त लाभ हैं जो भक्ति जीव को प्रदान करती है, भले ही जीव उनके प्रति उदासीन हो। "भक्ति के फल" लघु-श्रृंखला का समापन नवंबर अंक में आनुषंगिक फलों की चर्चा से होगा ।
जठराग्नि भोजन को पचा कर रस, रक्त, मांस, मेदा, मज्जा, हड्डी, वीर्ज/रज बना देती है। भोजन से ऊर्जा प्राप्त करने के लिए पाचन की प्रक्रिया को जानने की आवश्यकता नहीं है। व्यक्ति को बस स्वास्थ्यवर्धक भोजन खाने की जरूरत है और पाचन क्रिया पूरे शरीर को पोषण देने का काम करती है। उसी प्रकार, जीव को केवल भक्ति करनी है और श्री कृष्ण से मिलने की लालसा बढ़ानी है। श्रीकृष्ण से वियोग और मिलन, दोनों का रूपध्यान करके विरह वेदना को जाज्वलित करना ही जीव का कर्तव्य है। श्रीकृष्ण के वियोग की अग्नि में पाँचों कोश स्वतः ही जल जाते हैं। उन पाँच कोशों को जलाने के लिए जीव को कोई अतिरिक्त प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है।
ऐसे कई अन्य अतिरिक्त लाभ हैं जो भक्ति जीव को प्रदान करती है, भले ही जीव उनके प्रति उदासीन हो। "भक्ति के फल" लघु-श्रृंखला का समापन नवंबर अंक में आनुषंगिक फलों की चर्चा से होगा ।
सिद्धांत
हिंदू धर्म का शास्त्रीय नाम सनातन धर्म है। सनातन का शाब्दिक अर्थ शाश्वत है। धर्म का अर्थ है "धारण करने योग्य"। तो जो अनादि से अनंत काल तक धारण करने योग्य हो वह सनातन धर्म है।
सनातन धर्म का आधार वेद हैं। ये वेद विनिर्गत ग्रन्थ [1] कहलाते हैं क्योंकि ये भगवान् के सनातन नियम हैं [2]। संसार में एकमात्र सनातन धर्म ही ऐसा है जिसमें यदि भगवान् स्वयं आकर वेद विरुद्ध बोलें तो भगवान् की वाणी भी मान्य नहीं है। लेकिन भगवान् अपने नियमों के खिलाफ क्यों बोलेंगे? वे बोलें या ना बोलें यह बात और है। लेकिन यदि वे स्वयं वेदों के विरुद्ध बोलें तो सनातन धर्मी भगवान् को नमस्कार करेंगे, परंतु उनके सिद्धांत का बहिष्कार करेंगे ।
और इतिहास में ऐसा ही हुआ है। कलियुग में 3000 वर्ष पूर्व भगवान् का बुद्धावतार हुआ था। यद्यपि भगवान् बुद्ध भगवान् के ही आवेशावतार हैं तथापि भगवान् बुद्ध को तो नमस्कार है, परंतु उनके सिद्धांत का सनातन धर्मी बहिष्कार करते हैं।
सनातन धर्म का आधार वेद हैं। ये वेद विनिर्गत ग्रन्थ [1] कहलाते हैं क्योंकि ये भगवान् के सनातन नियम हैं [2]। संसार में एकमात्र सनातन धर्म ही ऐसा है जिसमें यदि भगवान् स्वयं आकर वेद विरुद्ध बोलें तो भगवान् की वाणी भी मान्य नहीं है। लेकिन भगवान् अपने नियमों के खिलाफ क्यों बोलेंगे? वे बोलें या ना बोलें यह बात और है। लेकिन यदि वे स्वयं वेदों के विरुद्ध बोलें तो सनातन धर्मी भगवान् को नमस्कार करेंगे, परंतु उनके सिद्धांत का बहिष्कार करेंगे ।
और इतिहास में ऐसा ही हुआ है। कलियुग में 3000 वर्ष पूर्व भगवान् का बुद्धावतार हुआ था। यद्यपि भगवान् बुद्ध भगवान् के ही आवेशावतार हैं तथापि भगवान् बुद्ध को तो नमस्कार है, परंतु उनके सिद्धांत का सनातन धर्मी बहिष्कार करते हैं।
कलियुग में प्रथम जगद्गुरु शंकराचार्य 2500 वर्ष पूर्व आए। वे भगवान् शिव के अवतार थे। भगवान् श्री कृष्ण ने उन्हें आदेश दिया था कि संसार में लोगों को मेरे साकार रूप से बहिर्मुख करने के लिए वेदों का काल्पनिक अर्थ करो। श्रीकृष्ण के सबसे बड़े भक्त होने के नाते, उन्होंने आदेश का पालन किया और कई वैदिक मंत्रों के अर्थों को विकृत कर दिया। जगद्गुरु शंकराचार्य द्वारा प्रदत्त ज्ञान में से सनातन धर्मी उतना ही स्वीकार करते हैं, जो वेदों के अनुरूप है। बाकी सब की उपेक्षा कर देते हैं।
श्रीमद्भगवदगीता को केवल इसलिए प्रामाणिक वैदिक ग्रंथ नहीं माना जाता क्योंकि वे श्री कृष्ण के शब्द हैं। वरन् गीता इसलिए प्रमाणिक है क्योंकि गीता का दर्शन वेदों के अनुरूप है। इसी प्रकार संत तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस का दर्शन भी वेदानुकूल होने के कारण सर्वमान्य है।
यह सनातन धर्म की विशिष्टता है।
1970 के दशक के आरंभ तक श्री महाराज जी आध्यात्मिक सम्मेलनों में बोलते थे। तो यह उन सम्मेलनों में से एक का वृतांत है।
रामचरितमानस के एक बहुत प्रसिद्ध कथावाचक ने माइक्रोफोन पर घोषणा की, "रामचरितमानस से कोई भी दोहा पूछ लीजिए और मैं उसकी व्याख्या करूँगा।"
श्री महाराज जी ने वापस चुनौती दी और माइक्रोफोन पर कहा, "संत तुलसीदास ने अपनी रामचरितमानस में लिखा है कि इसका प्रत्येक दोहा वेदों के अनुरूप है। कृपया अपनी पसंद का कोई भी दोहा चुनें और वेदों से प्रमाण दें कि यह दोहा वेद सम्मत है।” कथावाचक ने हस्तलिखित पर्चे में जवाब भेजा, “यह आम जनता के लिए था। आपके लिए नहीं।" अर्थात मुझे वेद-शास्त्र का कोई ज्ञान नहीं है। मैं तो अपनी बुद्धि से दोहों की सही/गलत व्याख्या कर देता हूँ ।
श्रीमद्भगवदगीता को केवल इसलिए प्रामाणिक वैदिक ग्रंथ नहीं माना जाता क्योंकि वे श्री कृष्ण के शब्द हैं। वरन् गीता इसलिए प्रमाणिक है क्योंकि गीता का दर्शन वेदों के अनुरूप है। इसी प्रकार संत तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस का दर्शन भी वेदानुकूल होने के कारण सर्वमान्य है।
यह सनातन धर्म की विशिष्टता है।
1970 के दशक के आरंभ तक श्री महाराज जी आध्यात्मिक सम्मेलनों में बोलते थे। तो यह उन सम्मेलनों में से एक का वृतांत है।
रामचरितमानस के एक बहुत प्रसिद्ध कथावाचक ने माइक्रोफोन पर घोषणा की, "रामचरितमानस से कोई भी दोहा पूछ लीजिए और मैं उसकी व्याख्या करूँगा।"
श्री महाराज जी ने वापस चुनौती दी और माइक्रोफोन पर कहा, "संत तुलसीदास ने अपनी रामचरितमानस में लिखा है कि इसका प्रत्येक दोहा वेदों के अनुरूप है। कृपया अपनी पसंद का कोई भी दोहा चुनें और वेदों से प्रमाण दें कि यह दोहा वेद सम्मत है।” कथावाचक ने हस्तलिखित पर्चे में जवाब भेजा, “यह आम जनता के लिए था। आपके लिए नहीं।" अर्थात मुझे वेद-शास्त्र का कोई ज्ञान नहीं है। मैं तो अपनी बुद्धि से दोहों की सही/गलत व्याख्या कर देता हूँ ।
आज समाज कलियुग के प्रबल प्रभाव से इतना ग्रसित है कि तथाकथित शिक्षकों, उपदेशकों, साधुओं, योगियों, गुरुओं, भिक्षुकों, महंतों, मठाधीशों और स्वामियोँ द्वारा संसार में भगवान् के नाम पर हजारों काल्पनिक मार्गों [3] का काल्पनिक शैली में प्रचार किया जा रहा है। लोग उनके झांसे में आ जाते हैं और इस प्रकार अपने गुरुओं की निष्ठापूर्ण सेवा करने के बावजूद भक्ति के वास्तविक लाभों से वंचित रह जाते हैं। यह एक ऐसा युग है जहाँ भगवद् प्रेम पिपासु जीवों के लिये सही मार्ग को ढूँढना असंभव-सा हो गया है [4] । ढोंगियों के धोखे में न आएँ । जब भी कोई बाबा आपको पट्टी पढ़ाना चाहे, तो उससे पूछें, "वेदों में यह सिद्धांत कहाँ लिखा है?"
यदि आपने इन ढोंगियों की ठगाई में न आने का निर्णय कर लिया है और भगवान् के अनंत जीवन, अनंत ज्ञान तथा अनंत आनंद पाने की लालसा है, तो जगद्गुरूतम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज के वेद-शास्त्र सम्मत प्रवचन अवश्य सुनें ।
यदि आपने इन ढोंगियों की ठगाई में न आने का निर्णय कर लिया है और भगवान् के अनंत जीवन, अनंत ज्ञान तथा अनंत आनंद पाने की लालसा है, तो जगद्गुरूतम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज के वेद-शास्त्र सम्मत प्रवचन अवश्य सुनें ।
काशी विद्वत परिषद, जो कि 500 मूर्धन्य शास्त्रज्ञ विद्वानों की 200 वर्ष पुरानी सभा है। इस सभा में सम्मिलित होने के लिए ये विद्वतजन अपना सम्पूर्ण जीवन वेदाध्यन में व्यतीत करते हैं । उन विद्वानों ने श्री महाराज जी से बदला लेने के लिए शास्त्रार्थ के लिए ललकारा था। फिर भी कुछ ही दिनों में केवल कुछ घंटों तक श्री महाराज जी का प्रवचन सुनने के बाद ही वे विद्वान श्री महाराज जी के मत से सहमत हो गए और विभोर होकर श्री महाराज जी को इस उपाधि से सम्मानित किया [5]। जगद्गुरूतम का अर्थ है सभी जगद्गुरुओं में सर्वश्रेष्ठ। श्री महाराज जी का दर्शन समकालीन विद्वानों और पंडितों द्वारा प्रचलित और प्रसारित धर्म प्रथाओं के विपरीत था फिर भी उन विद्वानों ने श्री महाराज जी को 14 जनवरी 1957 को इस विशिष्ट उपाधि से सम्मानित किया [6][7]।
जगद्गुरूतम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रामाणिक वैदिक ज्ञान सुनने/पढ़ने के लिए नीचे कुछ विकल्प दिए गए हैं । |
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- Kripalu Nidhi साइट पर जाएँ या Google Play Store या App Store से ऐप डाउनलोड करें
- यूट्यूब चैनल की सदस्यता लें
- #Jagadguru_Kripalu_Parishat_Helpline +91 8882480000, विकल्प 3 चुनें और श्री महाराज जी से इस सप्ताह का दिव्य संदेश सुनें।
- पढ़ें
- Prem Ras Siddhant - English
- Prem Ras Siddhant - Hindi
श्री महाराज जी अपने प्रवचनों में अपना मत प्रस्तुत करते हैं और अपनी बात को वेदों के श्लोकों द्वारा प्रमाणित करते हैं, फिर गीता, भागवत और फिर रामचरितमानस के श्लोकों का भी प्रमाण देते हैं [8]। आपके प्रवचन सुनकर यह विश्वास हो जाता है कि आप वेद सम्मत ज्ञान प्रदान कर रहे हैं कोई मनगढ़ंत सिद्धांत नहीं बना रहे हैं। श्री महाराज जी के मुख से निसृत वाणी आपके आध्यात्मिक उत्थान के लिए है, मात्र लोकरंजन के लिए नहीं। इसलिए ध्यान से सुनिए फिर मनन करिए। यदि लाभप्रद लगें तो ऊपर सूचीबद्ध लाभों को प्राप्त करने के लिए प्रवचनों में दिए गए तत्वज्ञान को अभ्यास में लाएँ।
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कहानी
सिख गुरु अमर दास जी की दो बेटियाँ थीं। गुरु की सबसे बड़ी बेटी, बीबी दानी का विवाह राम से हुआ था जो धर्मनिष्ठ सिख थे। वे गुरु की रसोई में सेवा करते थे और अतिथियों का आदरपूर्वक सत्कार करते थे तथा उनके विश्राम आदि की यथोचित व्यवस्था करते थे। उनकी छोटी बेटी बीबी भानी का विवाह जेठा से हुई थी।
एक दिन गुरु ने राम और जेठा को आदेश दिया कि बावली (उतरती सीढ़ियों वाला कुआँ) के दोनों ओर एक-एक मंच बनाएँ, ताकि एक पर सुबह और दूसरे पर शाम को बैठ सकें। जब चबूतरे पूरे हो गये तो गुरु उनका निरीक्षण करने गए। राम ने अपना काम दिखाया और सोचा कि उसने अच्छा किया है। लेकिन गुरु ने राम से कहा, "तुम्हारा मंच सीधा नहीं है, इसे तोड़कर इसका पुनर्निर्माण करो।" राम अंदर से असहमत था, फिर भी उसने मंच का पुनर्निर्माण किया। लेकिन वह भी गुरु को पसंद नहीं आया। उन्होंने उसे पुनः तोड़कर पुनः निर्माण करने कीआज्ञा दी। काफी देर बहस करने के बाद राम ने चबूतरे को तोड़ दिया, लेकिन तीसरी बार बनाने से इनकार कर दिया।
इसी तरह गुरु ने जेठा के मंच का भी निरीक्षण किया और कहा, ''जेठा, मुझे यह पसंद नहीं है। इसे तोड़कर दोबारा बनाओ।” जेठा ने मंच को दोबारा बनाया। लेकिन वह भी गुरु को पसंद नहीं था। जेठा ने उस चबूतरे को भी तोड़कर उसे तिबारा बनाया। इसी प्रकार जेठा ने छः बार चबूतरा बनाया और सब में गुरु अमरदास ने कोई न कोई दोष बताकर तोड़ने की आज्ञा दी। जब जेठा ने सातवीं बार चबूतरा बनाया और गुरु ने उसमें भी दोष बताया, तब जेठा गुरु के चरणों में गिर पड़ा। उसने गुरु जी से विनती की, “प्रभु! मैं मूर्ख हूँ, अज्ञानी हूँ। आप सर्वज्ञ हैं। कृपया मुझे वह बुद्धि प्रदान करें जिससे मैं आपकी पसंद का मंच बना सकूँ ।”
एक दिन गुरु ने राम और जेठा को आदेश दिया कि बावली (उतरती सीढ़ियों वाला कुआँ) के दोनों ओर एक-एक मंच बनाएँ, ताकि एक पर सुबह और दूसरे पर शाम को बैठ सकें। जब चबूतरे पूरे हो गये तो गुरु उनका निरीक्षण करने गए। राम ने अपना काम दिखाया और सोचा कि उसने अच्छा किया है। लेकिन गुरु ने राम से कहा, "तुम्हारा मंच सीधा नहीं है, इसे तोड़कर इसका पुनर्निर्माण करो।" राम अंदर से असहमत था, फिर भी उसने मंच का पुनर्निर्माण किया। लेकिन वह भी गुरु को पसंद नहीं आया। उन्होंने उसे पुनः तोड़कर पुनः निर्माण करने कीआज्ञा दी। काफी देर बहस करने के बाद राम ने चबूतरे को तोड़ दिया, लेकिन तीसरी बार बनाने से इनकार कर दिया।
इसी तरह गुरु ने जेठा के मंच का भी निरीक्षण किया और कहा, ''जेठा, मुझे यह पसंद नहीं है। इसे तोड़कर दोबारा बनाओ।” जेठा ने मंच को दोबारा बनाया। लेकिन वह भी गुरु को पसंद नहीं था। जेठा ने उस चबूतरे को भी तोड़कर उसे तिबारा बनाया। इसी प्रकार जेठा ने छः बार चबूतरा बनाया और सब में गुरु अमरदास ने कोई न कोई दोष बताकर तोड़ने की आज्ञा दी। जब जेठा ने सातवीं बार चबूतरा बनाया और गुरु ने उसमें भी दोष बताया, तब जेठा गुरु के चरणों में गिर पड़ा। उसने गुरु जी से विनती की, “प्रभु! मैं मूर्ख हूँ, अज्ञानी हूँ। आप सर्वज्ञ हैं। कृपया मुझे वह बुद्धि प्रदान करें जिससे मैं आपकी पसंद का मंच बना सकूँ ।”
यह सुनकर गुरु मुस्कुराए और जेठा को गले लगा लिया और उसे दिव्यानंद प्रदान किया। बाद में वही जेठा गुरु अमर दास के उत्तराधिकारी गुरु राम दास बने।
नीति
जब वास्तविक संत अनुकूल व्यवहार करते हैं, तब उनके श्री चरणों में प्रीति रखना आसान होता है। लेकिन शरणागति [1] की सच्ची परीक्षा तब होती है जब गुरु प्रतिकूल और अनुचित कार्य करते हैं [4]। प्रतिकूल व्यवहार में भी मन रूपी घोड़े को लगाम देना और गुरु चरणों में शरणागत रहना सच्ची शरणागति है [5][6]। ऐसा सहसा नहीं हो जाएगा । जब तक आप पूर्ण शरणागत नहीं हो जाते, तब तक आपको चाहे कुछ भी हो, बार-बार अभ्यास करना होगा । तत्वज्ञान तथा दैनिक साधना से यह स्थिति शनैः-शनैः आएगी । इस बात को सदा के लिए गांठ बाँध लें, कि वास्तविक संत का प्रत्येक कर्म भगवदीय है अतः वही सही है, चाहे कुछ भी हो। आपको बाल्यावस्था से ही दृढ़ संकल्प लेना भली भाँति आता है। जब आप अबोध अशक्त अयान शिशु थे तभी से आपने बार-बार अभ्यास करके करवट लेना, चलना, दौड़ना आदि अनेक कर्म सीख लिए ।
अब गुरु ने कृपा द्वारा आपको वास्तविक लक्ष्य का बोध करा दिया है तथा आप सशक्त भी हैं। इसलिए दृढ़ निश्चय द्वारा शरणागति पूर्ण करें [2][3] ।
सर्वज्ञ गुरु की छत्रछाया में साधना करने से आपको अवश्य, अवश्य, अवश्य सफलता प्राप्त होगी ।
नीति
जब वास्तविक संत अनुकूल व्यवहार करते हैं, तब उनके श्री चरणों में प्रीति रखना आसान होता है। लेकिन शरणागति [1] की सच्ची परीक्षा तब होती है जब गुरु प्रतिकूल और अनुचित कार्य करते हैं [4]। प्रतिकूल व्यवहार में भी मन रूपी घोड़े को लगाम देना और गुरु चरणों में शरणागत रहना सच्ची शरणागति है [5][6]। ऐसा सहसा नहीं हो जाएगा । जब तक आप पूर्ण शरणागत नहीं हो जाते, तब तक आपको चाहे कुछ भी हो, बार-बार अभ्यास करना होगा । तत्वज्ञान तथा दैनिक साधना से यह स्थिति शनैः-शनैः आएगी । इस बात को सदा के लिए गांठ बाँध लें, कि वास्तविक संत का प्रत्येक कर्म भगवदीय है अतः वही सही है, चाहे कुछ भी हो। आपको बाल्यावस्था से ही दृढ़ संकल्प लेना भली भाँति आता है। जब आप अबोध अशक्त अयान शिशु थे तभी से आपने बार-बार अभ्यास करके करवट लेना, चलना, दौड़ना आदि अनेक कर्म सीख लिए ।
अब गुरु ने कृपा द्वारा आपको वास्तविक लक्ष्य का बोध करा दिया है तथा आप सशक्त भी हैं। इसलिए दृढ़ निश्चय द्वारा शरणागति पूर्ण करें [2][3] ।
सर्वज्ञ गुरु की छत्रछाया में साधना करने से आपको अवश्य, अवश्य, अवश्य सफलता प्राप्त होगी ।
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[1] शरणागति के लक्षण
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[2] Stay focused
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[3] Aim of Life
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