प्रश्न
अपने सुख की कामना के बिना भगवान से प्रेम करना भक्ति का सबसे प्रधान स्तंभ माना जाता है। हालाँकि, हम अपने सबसे दयालु, सर्वशक्तिमान सनातन पिता, भगवान को तभी पुकारते हैं जब दुःख आता है । जब हमारे लिए सभी दरवाजे बंद हो जाते हैं, हमारा तिरस्कार कर देते हैं, जब कहीं कोई आशा की किरण नजर नहीं आती या या जब वांछित वस्तु प्राप्त करने का कोई उपाय नहीं सूझता ऐसे में भगवान के अतिरिक्त किसे पुकारें ? क्या ऐसी स्थिति में भगवान को पुकारना भक्ति में बाधक है ?
उत्तर
यह सत्य है कि भगवान सर्व शक्तिमान, परमदयालु और हमारे एकमात्र और सच्चे हितैषी हैं। वे मायिक और दिव्य लोकों के एकमात्र स्वामी हैं । वे सभी सुखों के एकमात्र स्रोत है। यही सब शास्त्रों का एकमात्र सिद्धांत है ।
उपरोक्त प्रश्न का उत्तर देने के लिए, आइए विभिन्न प्रकार के लोगों, जो भगवान से अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए कहते हैं, के लक्षणों का विश्लेषण करें -
अपने सुख की कामना के बिना भगवान से प्रेम करना भक्ति का सबसे प्रधान स्तंभ माना जाता है। हालाँकि, हम अपने सबसे दयालु, सर्वशक्तिमान सनातन पिता, भगवान को तभी पुकारते हैं जब दुःख आता है । जब हमारे लिए सभी दरवाजे बंद हो जाते हैं, हमारा तिरस्कार कर देते हैं, जब कहीं कोई आशा की किरण नजर नहीं आती या या जब वांछित वस्तु प्राप्त करने का कोई उपाय नहीं सूझता ऐसे में भगवान के अतिरिक्त किसे पुकारें ? क्या ऐसी स्थिति में भगवान को पुकारना भक्ति में बाधक है ?
उत्तर
यह सत्य है कि भगवान सर्व शक्तिमान, परमदयालु और हमारे एकमात्र और सच्चे हितैषी हैं। वे मायिक और दिव्य लोकों के एकमात्र स्वामी हैं । वे सभी सुखों के एकमात्र स्रोत है। यही सब शास्त्रों का एकमात्र सिद्धांत है ।
उपरोक्त प्रश्न का उत्तर देने के लिए, आइए विभिन्न प्रकार के लोगों, जो भगवान से अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए कहते हैं, के लक्षणों का विश्लेषण करें -
1. भगवान के पूर्ण शरणागत जीव
ऐसे समर्पित भक्त भगवान से जो भी मांगते हैं उन्हें प्राप्त होता है। इन भक्तों को आगे 2 मुख्य श्रेणियों में उप-विभाजित किया जा सकता है
i. शरणागत जीव जो भगवान से मायिक वस्तुएँ माँगते हैं
उदाहरण के लिए, जब वह राजा धृतराष्ट्र के दरबार में, दुशासन द्रौपदी को अपमानित करने हेतु निर्वस्त्र करने के लिये उसका चीर खींच रहा था, तो द्रौपदी ने अपने को बचाने के लिए श्रीकृष्ण का स्मरण किया । द्रौपदी श्रीकृष्ण की पूर्ण शरणागत भक्ता थी और भगवान कृष्ण ने उसकी रक्षा की ।
नन्हें से ध्रुव ने भगवान से अपने पिता का राज्य प्रदान करने की प्रार्थना की। भगवान ने ध्रुव की वह कामना पूर्ण की ।
हाथियों के राजा गजराज अपने परिवार के साथ त्रिकुट के एक सरोवर में स्नान के लिए गया। जब वह पानी में था तभी एक मगरमच्छ ने उसका पैर पकड़ लिया। उसके परिवार ने उसकी मदद करने का भरसक प्रयास किया लेकिन उसे मगरमच्छ के चंगुल से नहीं छुड़ा सके। सब गजराज को छोड़कर चले गये । गजराज ने खुद को छुड़ाने के लिए काफी संघर्ष किया, लेकिन असफल रहे। अंत में हताश होकर गजराज ने श्रीकृष्ण को अपने प्राणों की रक्षा हेतु पुकारा और एक कमल के फूल को प्रसाद के रूप में अपने सूंड में धारण किया। अपने भक्त की पुकार सुनकर, भगवान कृष्ण उसे बचाने के लिए प्रकट हुए। आखिरकार भगवान कृष्ण ने गजराज को अपने दिव्य लोक बैकुंठ भेज दिया।
इसलिए जब भी पूर्णतः शरणागत सिद्धा भक्ति प्राप्त भक्त भगवान से कुछ भी माँगता है, तो भगवान भक्त की इच्छा पूर्ण करते हैं। लेकिन इस मामले में, भक्त की हानि है। गीता में भगवान ने वचन दिया
उदाहरण के लिए, जब वह राजा धृतराष्ट्र के दरबार में, दुशासन द्रौपदी को अपमानित करने हेतु निर्वस्त्र करने के लिये उसका चीर खींच रहा था, तो द्रौपदी ने अपने को बचाने के लिए श्रीकृष्ण का स्मरण किया । द्रौपदी श्रीकृष्ण की पूर्ण शरणागत भक्ता थी और भगवान कृष्ण ने उसकी रक्षा की ।
नन्हें से ध्रुव ने भगवान से अपने पिता का राज्य प्रदान करने की प्रार्थना की। भगवान ने ध्रुव की वह कामना पूर्ण की ।
हाथियों के राजा गजराज अपने परिवार के साथ त्रिकुट के एक सरोवर में स्नान के लिए गया। जब वह पानी में था तभी एक मगरमच्छ ने उसका पैर पकड़ लिया। उसके परिवार ने उसकी मदद करने का भरसक प्रयास किया लेकिन उसे मगरमच्छ के चंगुल से नहीं छुड़ा सके। सब गजराज को छोड़कर चले गये । गजराज ने खुद को छुड़ाने के लिए काफी संघर्ष किया, लेकिन असफल रहे। अंत में हताश होकर गजराज ने श्रीकृष्ण को अपने प्राणों की रक्षा हेतु पुकारा और एक कमल के फूल को प्रसाद के रूप में अपने सूंड में धारण किया। अपने भक्त की पुकार सुनकर, भगवान कृष्ण उसे बचाने के लिए प्रकट हुए। आखिरकार भगवान कृष्ण ने गजराज को अपने दिव्य लोक बैकुंठ भेज दिया।
इसलिए जब भी पूर्णतः शरणागत सिद्धा भक्ति प्राप्त भक्त भगवान से कुछ भी माँगता है, तो भगवान भक्त की इच्छा पूर्ण करते हैं। लेकिन इस मामले में, भक्त की हानि है। गीता में भगवान ने वचन दिया
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते | तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ||
"जो केवल मेरी उपासना करते हैं, उनको में अप्राप्य वस्तु देता हूँ और प्राप्त वस्तु की रक्षा करता हूँ "।
लेकिन उन्होंने चतुराई से श्रीमद्भागवत के एक श्लोक 11.20.32 में कहा
लेकिन उन्होंने चतुराई से श्रीमद्भागवत के एक श्लोक 11.20.32 में कहा
यत्कर्मभिर्यत्तपसा ज्ञानवैराग्यतश्च यत् योगेनदानधर्मेण श्रेयोभिरितरैरपि ॥
सर्वं मद्भिक्तियोगेन मद्भक्तो लभतेंजसा, स्वर्गापवर्गं मद्धाम कथंचिद् यदि वांछति ॥ भा. 11.20.32
सर्वं मद्भिक्तियोगेन मद्भक्तो लभतेंजसा, स्वर्गापवर्गं मद्धाम कथंचिद् यदि वांछति ॥ भा. 11.20.32
"परात्पर भगवान के भक्त यदि कर्म, ज्ञान, योग और किसी भी अन्य मार्ग के लक्ष्य को प्राप्त करना चाहें तो प्राप्त कर लेते हैं। दिव्य प्रेमानंद प्राप्त करने के बाद, भक्त अन्य सभी उपलब्धियों को ठुकरा देता है और प्रेमामृत के सागर में लीन रहता है।" सभी मार्गों तथा भौतिक और आध्यात्मिक साध्यों को गिनाने के बाद, अंत में वेद व्यास ने बड़ी चतुराई से जोड़ा - कथंचिद् यदि वांछति "यदि कभी कोई भक्त अन्य साधन के फल प्राप्त करना चाहे तो भक्ति वह फल स्वतः प्रदान कर देती है"। परंतु सत्य तो यह है कि चतुर भक्त कुछ नहीं माँगता । मुक्ति भी नहीं। भगवान राम ने कागभुशुण्डि जी और हनुमान जी दोनों को मुक्ति का लालच दिया लेकिन दोनों ने साफ़ नकार दिया ।
भगवान परम तत्व हैं; वे सभी शक्तियों के स्वामी हैं, फिर भी वे प्रेम के दास हैं । जो भक्त केवल अपनी भक्ति से अपने भगवान को प्रसन्न करना चाहता है, वह भगवान के प्रेम को प्राप्त कर लेता है । लेकिन यदि भक्त की किसी वस्तु विशेष की कामना हो तो भगवान वह वस्तु दे देते हैं, उससे अधिक कुछ नहीं देते । भगवान जीव को रिद्धि-सिद्धि आदि शक्तियों, यहाँ तक कि मुक्ति, देने को तत्पर रहते हैं लेकिन दिव्य प्रेम का दान करने में बहुत आनकानी करते हैं। इने-गिने जीवों को ही दिव्य प्रेमदान करते हैं; क्योंकि भक्त को दिव्य प्रेम प्रदान करने के बाद, भगवान को अनंतकाल के लिये उस भक्त की दासता करनी होगी ।
भगवान परम तत्व हैं; वे सभी शक्तियों के स्वामी हैं, फिर भी वे प्रेम के दास हैं । जो भक्त केवल अपनी भक्ति से अपने भगवान को प्रसन्न करना चाहता है, वह भगवान के प्रेम को प्राप्त कर लेता है । लेकिन यदि भक्त की किसी वस्तु विशेष की कामना हो तो भगवान वह वस्तु दे देते हैं, उससे अधिक कुछ नहीं देते । भगवान जीव को रिद्धि-सिद्धि आदि शक्तियों, यहाँ तक कि मुक्ति, देने को तत्पर रहते हैं लेकिन दिव्य प्रेम का दान करने में बहुत आनकानी करते हैं। इने-गिने जीवों को ही दिव्य प्रेमदान करते हैं; क्योंकि भक्त को दिव्य प्रेम प्रदान करने के बाद, भगवान को अनंतकाल के लिये उस भक्त की दासता करनी होगी ।
ii. शरणागत जीव जो श्रीकृष्ण से अपनी समस्त इंद्रियों का सुख चाहते हैं
श्री कृष्ण ने कुब्जा को इतनी सुंदर युवती बना दिया था कि कई देवता उसे प्रियतमा के रूप में प्राप्त करना चहते थे । कुब्जा की अपनी इंद्रियों के सुख की कामना थी परंतु किसी संसारी वस्तु से नहीं केवल परात्पर ब्रह्म श्रीकृष्ण मेरे पति बने । यह थी उसकी कामना । चूंकि वह अपने सुख के लिए श्री कृष्ण से प्रेम करती थी, इसलिए उसका प्रेम निःस्वार्थ नहीं था, फिर भी शुकदेव परमहंस ने श्रीमद्भागवत में कुब्जा की प्रशंसा की - दुराराध्यं समाराध्य विष्णुं सर्वेश्वरेश्वरम् ।
यो वृणीते मनोग्राह्यमसत्त्वात् कुमनीष्यसौ ॥ भाग.१०.४८.११ "कुब्जा की भक्ति का एकमात्र उद्देश्य परात्पर ब्रह्म श्रीकृष्ण के प्रेम को प्राप्त करना था, जो किसी भी कठोर से कठोर साधन से भी अगम है "। इसलिए, उन्हें परम ब्रह्म श्री कृष्ण की प्रेयसी होने का दुर्लभातिदुर्लभ अवसर मिला।
इस तरह कुब्जा का प्रेम, यद्यपि निंदनीय नहीं है, लेकिन यह वंदनीय भी नहीं है । क्योंकि ऐसा प्रेम प्रेमी के ममत्व की मात्रा पर निर्भर है । ऐसा प्रेम, सदा बढ़ने की तो बात छोड़ ही दीजिए, स्थिर भी नहीं रहता । यह बढ़ता और घटता रहता है । |
2. भगवान के पूर्ण शरणागत नहीं हैं और संसार की कामना करते है
हममें से अधिकांश इसी श्रेणी में आते हैं जो भक्ति के माध्यम से अपनी मायिक कामनाओं को पूर्ण करवाने के लिए के लिए भगवान की भक्ति करते हैं । ऐसी भक्ति करने में कई खतरे हैं।
i. साधक यही नहीं जानते की आनंद आनंद है कहाँ - माया के संसार में या भगवान में। कुछ लोग दिन में एक-दो घंटे पूजा-पाठ संध्या वंदन आदि करते हैं परंतु बाकी समय मायिक संसार में पूर्णतया लिप्त रहते हैं । उन दो घंटों के पूजा-पाठ के कारण, वे वास्तविक भक्त होने का दावा करते हैं। और जब भी कोई समस्या आती है या कुछ पाने की तीव्र इच्छा होती है, तो वे मन्नत माँगते हैं। इनका प्रेम भगवान से नहीं होता, इनकी आसक्ति वांछित वस्तु में होती है और उसे प्राप्त करने के हेतु वे भगवान की पूजा करते हैं। ऐसे भोले-भाले जीव विश्वास करते हैं कि शायद उनकी ज्ञानेंद्रियों तथा कर्मेंद्रियों के कार्यों के धोखे में आकर भगवान उनकी सांसारिक इच्छाओं को पूर्ण कर देंगे । वे माया से बनी सांसारिक वस्तुओं के लिए अनंत आनंद के सागर भगवान की उपासना करते हैं । यह दर्शाता है कि ऐसे भोले भोले जीव यह भी नहीं जानते कि सुख संसार में है या ईश्वर में। उन्हें इस पर गहराई से विचार करना चाहिए। यदि सुख परमात्मा में है तो भौतिक वस्तु क्यों मांगते हो। और अगर संसार में है तो भगवान के पास क्यों जाते हो ?
ii. अपनी कामना को पूर्ण करने के लिए भगवान की भक्ति करने के उपरांत जब जीव को अंततः अपने भाग्य के अनुसार ऐच्छिक वस्तु प्राप्त होती है, तो वह उसे भगवान की कृपा मान लेता है - और जब ऐच्छिक वस्तु प्राप्त नहीं होती, क्योंकि यह उनके भाग्य में नहीं थी [2], तो वह उसे भगवान का कोप मान लेता है । इस प्रकार, जब तक जीव को वांछित वस्तु प्राप्त होती रहती है तब तक वह आस्तिक बना रहता है। और जब वांछित वस्तु प्राप्त नहीं होती तो नास्तिक बन जाता है।
iii. भगवान किसी को विधि के विधान के विपरीत संपत्ति नहीं देते -
ii. अपनी कामना को पूर्ण करने के लिए भगवान की भक्ति करने के उपरांत जब जीव को अंततः अपने भाग्य के अनुसार ऐच्छिक वस्तु प्राप्त होती है, तो वह उसे भगवान की कृपा मान लेता है - और जब ऐच्छिक वस्तु प्राप्त नहीं होती, क्योंकि यह उनके भाग्य में नहीं थी [2], तो वह उसे भगवान का कोप मान लेता है । इस प्रकार, जब तक जीव को वांछित वस्तु प्राप्त होती रहती है तब तक वह आस्तिक बना रहता है। और जब वांछित वस्तु प्राप्त नहीं होती तो नास्तिक बन जाता है।
iii. भगवान किसी को विधि के विधान के विपरीत संपत्ति नहीं देते -
कर्म प्रधान विश्व रचि राखा । जो जस करइ सो तस फल चाखा ॥
"अपने कर्मों से निर्मित अपने भाग्य के अनुसार संसार की सम्पत्ति प्राप्त होती है।"
यह भगवान् का नियम है "जीव को अपने प्रत्येक कर्म का फल प्राप्त होता है, जो भविष्य में भाग्य कहलाता है"। यदि कोई दावा करता है कि भगवान् हमेशा उसकी शुष्क प्रार्थना सुन लेते हैं और उन्हें पूरा करता हैं । तो ऐसा भाग्यशाली, जिसके लिए भगवान् ने अपने नियम का उल्लंघन करते हैं, स्वयं भगवान को क्यों नहीं माँग लेता, जिससे भीख माँगने कीआवश्यकता सदा के लिए समाप्त हो जाए? क्यों वह मायिक वस्तुओं की माँगता रहता है और उत्तरोत्तर बढ़ती कामनाओं की आग में घी डालता रहता है? यह अच्छा है कि व्यक्ति चीजों को पाने को भगवान् की कृपा समझता है। लेकिन इसका दुष्परिणाम यह होता है कि जब उसकी सांसारिक कामनाएँ पूरी नहीं होतीं तो भगवान् के प्रति आस्था भी समाप्त हो जाती है।
यह भगवान् का नियम है "जीव को अपने प्रत्येक कर्म का फल प्राप्त होता है, जो भविष्य में भाग्य कहलाता है"। यदि कोई दावा करता है कि भगवान् हमेशा उसकी शुष्क प्रार्थना सुन लेते हैं और उन्हें पूरा करता हैं । तो ऐसा भाग्यशाली, जिसके लिए भगवान् ने अपने नियम का उल्लंघन करते हैं, स्वयं भगवान को क्यों नहीं माँग लेता, जिससे भीख माँगने कीआवश्यकता सदा के लिए समाप्त हो जाए? क्यों वह मायिक वस्तुओं की माँगता रहता है और उत्तरोत्तर बढ़ती कामनाओं की आग में घी डालता रहता है? यह अच्छा है कि व्यक्ति चीजों को पाने को भगवान् की कृपा समझता है। लेकिन इसका दुष्परिणाम यह होता है कि जब उसकी सांसारिक कामनाएँ पूरी नहीं होतीं तो भगवान् के प्रति आस्था भी समाप्त हो जाती है।
iii. जब हम शास्त्रों से यह समझ जाते हैं कि भगवान् सर्वज्ञ है और वह जो कुछ भी करता है वह हमारे भले के लिए करता है, तो हम क्यों हस्तक्षेप करते हैं और उससे कुछ भी माँगते हैं? अज्ञानी होने के कारण हम नहीं जानते कि वास्तव में हमारे लिए क्या श्रेयस्कर है। इसलिए यदि हम यह स्मरण रखें कि भगवान् सर्वज्ञ है और सब कुछ उन्हीं पर छोड़ दें तो मांगने का रोग कभी उत्पन्न ही न होगा।
iv. शास्त्र घोषणा करते हैं कि प्रत्येक जीव अपने कर्मों के बंधन में बंधा है - उसके लिए जो भी सांसारिक सुख नियत है वह उसे उसके भाग्य के अनुसार दिया जाएगा [1] । भगवान राम के पिता की कम उम्र में ही मृत्यु हो गई थी लेकिन भगवान राम ने उन्हें नहीं बचाया। अर्जुन के पुत्र और श्री कृष्ण के भतीजे अभिमन्यु की मृत्यु 16 वर्ष की आयु में हो गई, लेकिन श्री कृष्ण ने उसे नहीं बचाया । फिर संसारासक्त जीव कैसे आशा करता है कि नियति को नियंत्रित करने वाला अपरिवर्तनीय ईश्वरीय का नियम टूट जाएगा? v. मानें कि सांसारिक संपत्ति का अभाव वास्तव में भगवान की कृपा है - भागवत में भगवान कृष्ण कहते हैं - यस्याऽहमनुगृह्णामि हरिष्ये तद्धनं शनैः ॥
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"जब मैं किसी पर विशेष कृपा करता हूँ, तो मैं उसकी सांसारिक संपत्ति छीन लेता हूँ", क्योंकि सांसारिक संपत्ति से वंचित होने पर जीव में दीनता आती है और दीनता भक्ति मार्ग कीपहली सीढ़ी है । इस अभावावस्था में जीव अहंकार में मतवाला नहीं होता। यही कारण है कि कुंती ने भगवान कृष्ण से एक अद्भुत वरदान मांगा -
विपदः सन्तु नः शश्वत्तत्रतत्र जगद्गुरो । भवतो दर्शनं यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम्॥ भा १.८.२५
"हे अनन्तकोटि ब्रह्मांडनायक भगवान! मुझे जीवन में प्रत्येक पग पर कष्ट ही प्राप्त हों ऐसी कृपा करें, ताकि मैं हर समय आपका स्मरण करूँ "।
इसलिए हमें इस धन्य स्थिति की कामना करनी चाहिए। भगवान से मायिक वस्तुएँ माँगने का क्या लाभ जो हमें विक्षिप्त कर देती हैं और भगवान को ही भुला देती हैं ?
इसलिए, भक्ति की साधनावस्था से ही, भुक्ति और मुक्ति की कामना का त्याग कर देना चाहिए । हमें केवल "अपना" स्वार्थ अर्थात “आत्मा का स्वार्थ” अर्थात “भगवान के प्रेमानंद की प्राप्ति” ही चाहना चाहिए ।
भगवान से दिव्य दर्शन और उनका प्रेम इन्हीं दो वस्तुओं की कामना करनी चाहिए । दिव्य प्रेम प्राप्त करने का एकमात्र उद्देश्य उनकी प्रसन्नता के लिए उनकी सेवा करना है। ऐसा निःस्वार्थ प्रेम, सर्वशक्तिमान सर्वेश्वर सर्वसुहृद भगवान को तुच्छ जीव का गुलाम बनाता है । परम दयामय भगवान दया करके अपनी सभी दिव्य संपत्ति भक्त को प्रदान करता हैं ; दिव्य ज्ञान, दिव्य लोक, दिव्यानंद और दिव्य सौंदर्य ।
इसलिए हमें इस धन्य स्थिति की कामना करनी चाहिए। भगवान से मायिक वस्तुएँ माँगने का क्या लाभ जो हमें विक्षिप्त कर देती हैं और भगवान को ही भुला देती हैं ?
इसलिए, भक्ति की साधनावस्था से ही, भुक्ति और मुक्ति की कामना का त्याग कर देना चाहिए । हमें केवल "अपना" स्वार्थ अर्थात “आत्मा का स्वार्थ” अर्थात “भगवान के प्रेमानंद की प्राप्ति” ही चाहना चाहिए ।
भगवान से दिव्य दर्शन और उनका प्रेम इन्हीं दो वस्तुओं की कामना करनी चाहिए । दिव्य प्रेम प्राप्त करने का एकमात्र उद्देश्य उनकी प्रसन्नता के लिए उनकी सेवा करना है। ऐसा निःस्वार्थ प्रेम, सर्वशक्तिमान सर्वेश्वर सर्वसुहृद भगवान को तुच्छ जीव का गुलाम बनाता है । परम दयामय भगवान दया करके अपनी सभी दिव्य संपत्ति भक्त को प्रदान करता हैं ; दिव्य ज्ञान, दिव्य लोक, दिव्यानंद और दिव्य सौंदर्य ।