संसार के कष्टों को ताप कहा जाता है। त्रिताप, यानी तीन प्रकार के सांसारिक दुःख, यथा -
दैहिक ताप को आध्यात्मिक ताप भी कहा जाता है। ये आध्यात्मिक अज्ञान जनित कष्ट दो तरह के होते हैं -
i. मानसिक रोग जैसे काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, भ्रम आदि से उत्पन्न दुःख । मानव, देवता सब इस मानसिक रोग से त्रस्त हैं । ii. त्रिदोष (वात, पित्त और कफ) के असंतुलन से होने वाले शारीरिक रोग (जैसे खांसी, बुखार, कैंसर आदि)। सब मानव इन शारीरिक कष्टों से त्रस्त हैं परंतु देवताओं को यह क्ष्ट नहीं होता है । तूफान, बाढ़, सूखा आदि प्रकृति विपदाओं से मिलने वाले कष्टों को दैविक ताप कहते हैं। ये दैवी शक्तियों द्वारा दिए गए कष्ट होते हैं। इन्हें आधिदैविक ताप भी कहा जाता है।
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भौतिक ताप को आधिभौतिक ताप भी कहा जाता है। यह अन्य मनुष्यों, जानवरों, कीड़ों, स्थावरादि के कारण होने वाली भौतिक कष्ट हैं।
जब तक जीव माया के आधीन रहता है तब तक इन तीनों प्रकार के दुःखों के कारण ट्रस्ट रहता है । भक्ति करने से जैसे-जैसे शरीर का भान कम होता जाएगा वैसे वैसे इन तीनों तापों से मिलने वाले कष्ट भी कम होते जाएंगे ।
अंततः भगवत्प्राप्ति के बाद,जीव के मन बुद्धि जब दिव्य हो जाएंगे तब भले ही जीव इस धरती पर रहता हो, इन तीनों तापों से जीव को कष्ट नहीं मिलेगा। और भगवान् के दिव्य धाम में तो माया प्रवेश ही नहीं कर सकती इसलिए इन तापों का वहाँ कोई स्थान नहीं है।
जब तक जीव माया के आधीन रहता है तब तक इन तीनों प्रकार के दुःखों के कारण ट्रस्ट रहता है । भक्ति करने से जैसे-जैसे शरीर का भान कम होता जाएगा वैसे वैसे इन तीनों तापों से मिलने वाले कष्ट भी कम होते जाएंगे ।
अंततः भगवत्प्राप्ति के बाद,जीव के मन बुद्धि जब दिव्य हो जाएंगे तब भले ही जीव इस धरती पर रहता हो, इन तीनों तापों से जीव को कष्ट नहीं मिलेगा। और भगवान् के दिव्य धाम में तो माया प्रवेश ही नहीं कर सकती इसलिए इन तापों का वहाँ कोई स्थान नहीं है।