प्रश्न:
हमारे शास्त्र बताते हैं कि माया और जीव दोनों ब्रह्म की शक्तियां हैं । जब दोनों ब्रह्म की शक्तियां हैं तब यह प्रश्न उठता है कि माया जीव से अधिक शक्तिशाली कैसे है ? और इतनी अधिक शक्तिशाली कि अनादिकाल से माया ने जीव के ऊपर अधिकार कर रखा है । ऐसा कैसे और क्यों ?
उत्तर:
इस प्रश्न का उत्तर देने से पहले आइए हम लोग तीन सनातन तत्वों का त्वरित पूर्वावलोकन कर लेते हैं। संसार (अधिक जानकारी के लिये पढ़ें sansaar-the world) में केवल तीन सनातन तत्व हैं: ब्रह्म जीव एवं माया।
ब्रह्म : सर्वेश्वर सर्वशक्तिमान (अधिक जानकारी के लिये पढ़ें Brahma-Supreme God) ब्रह्म सच्चिदानंद हैं अर्थात अनंत चेतना, अनंत ज्ञान, अनंत आनंद (अधिक जानकारी के लिये पढ़ें Bliss) का भंडार है ।
जीव : सभी जीवात्माएं सर्वशक्तिमान भगवान की सत् शक्ति का एक अंश है इसलिये चेतन है। अतः जहां कहीं भी जीवन दिखता है यह केवल भगवान की जीव शक्ति के कारण है। भगवान की तरह जीव (अधिक जानकारी के लिये पढ़ें jeev) भी सनातन, दिव्य व चेतन है तथा ज्ञान शक्ति एवं आनंद से संपन्न है। भगवान की जीव शक्ति का अति सूक्ष्म अंश होने के कारण भगवान की तुलना में हमारी चेतना, ज्ञान एवं आनंद अति सूक्ष्म है।
माया : तीसरा तत्व माया (अधिक जानकारी के लिये पढ़ें Maya) भी भगवान की ही शक्ति है परंतु यह जड़ है। संपूर्ण संसार की सभी निर्जीव वस्तुएँ माया की अभिव्यक्ति हैं । माया के संपूर्ण कार्य भगवान के द्वारा ही सम्पादित होते हैं अतः माया को अपने बल पर कोई नहीं जीत सकता । जैसा की भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है -
हमारे शास्त्र बताते हैं कि माया और जीव दोनों ब्रह्म की शक्तियां हैं । जब दोनों ब्रह्म की शक्तियां हैं तब यह प्रश्न उठता है कि माया जीव से अधिक शक्तिशाली कैसे है ? और इतनी अधिक शक्तिशाली कि अनादिकाल से माया ने जीव के ऊपर अधिकार कर रखा है । ऐसा कैसे और क्यों ?
उत्तर:
इस प्रश्न का उत्तर देने से पहले आइए हम लोग तीन सनातन तत्वों का त्वरित पूर्वावलोकन कर लेते हैं। संसार (अधिक जानकारी के लिये पढ़ें sansaar-the world) में केवल तीन सनातन तत्व हैं: ब्रह्म जीव एवं माया।
ब्रह्म : सर्वेश्वर सर्वशक्तिमान (अधिक जानकारी के लिये पढ़ें Brahma-Supreme God) ब्रह्म सच्चिदानंद हैं अर्थात अनंत चेतना, अनंत ज्ञान, अनंत आनंद (अधिक जानकारी के लिये पढ़ें Bliss) का भंडार है ।
जीव : सभी जीवात्माएं सर्वशक्तिमान भगवान की सत् शक्ति का एक अंश है इसलिये चेतन है। अतः जहां कहीं भी जीवन दिखता है यह केवल भगवान की जीव शक्ति के कारण है। भगवान की तरह जीव (अधिक जानकारी के लिये पढ़ें jeev) भी सनातन, दिव्य व चेतन है तथा ज्ञान शक्ति एवं आनंद से संपन्न है। भगवान की जीव शक्ति का अति सूक्ष्म अंश होने के कारण भगवान की तुलना में हमारी चेतना, ज्ञान एवं आनंद अति सूक्ष्म है।
माया : तीसरा तत्व माया (अधिक जानकारी के लिये पढ़ें Maya) भी भगवान की ही शक्ति है परंतु यह जड़ है। संपूर्ण संसार की सभी निर्जीव वस्तुएँ माया की अभिव्यक्ति हैं । माया के संपूर्ण कार्य भगवान के द्वारा ही सम्पादित होते हैं अतः माया को अपने बल पर कोई नहीं जीत सकता । जैसा की भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है -
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया । मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्तिते।। गीता 7.14
“माया मेरी दैवी शक्ति है । इसके तीन गुण हैं । कोई भी अपने बल पर इसके पार नहीं जा सकता। केवल वे लोग जो मेरे शरणागत होकर मेरी कृपा के पात्र बनते हैं वही इस माया के सागर को पार कर पाते हैं”।
यद्यपि माया और जीव सनातन तत्व हैं परंतु स्वतंत्र नहीं है । भगवान इन दोनों तत्वों का अनादि एवं अनंत शासक है । इनमें से किसी का भी अस्तित्व कभी भी समाप्त नहीं हो सकता है । अतः जीव के अतिरिक्त दो सनातन तत्व बचे । जीव भगवान और माया के मध्य में स्थित है इसलिये इसे तट्स्था शक्ति भी कहते हैं । और जीव को ब्रह्म अथवा माया को चुनने का अधिकार सदा से प्राप्त है । जो लोग संसार के प्रलोभन में आते हैं वे माया को चुनते हैं और जो भगवान को चुनते हैं वे दिव्यानंद प्राप्त करते हैं।
यद्यपि जीव ने अनादिकाल से माया को ही आत्मसात किया है तथापि भगवान ने जीव का तिरस्कार नहीं किया है। वरन भगवान सदा आशा लगाये हैं कि यह जीव इस बार शरणागत हो जायेगा । जिन जीवों ने आनन्दकन्द श्री कृष्ण को चुन लिया वे सदा के लिये आनन्दमय हो गये ।
भगवान प्रत्येक जीव के हृदय में नित्य निवास करते हैं और प्रत्येक जीव के प्रत्येक क्षण के प्रत्येक संकल्प को नोट करते हैं । भगवान अपनी अजानभुज फैलाये प्रत्येक क्षण जीव की प्रतीक्षा करते हैं कि कब यह यह मेरी शरण में आये और मैं इसे सदा के लिये मालामाल कर दूँ ।
परंतु अज्ञानी जीव माया की ओर ही सन्मुख है । याद रखिये, यह जीव की अनादि स्थिती है, एक दिन हुआ, ऐसा नहीं है । जीव मायिक वस्तुओं की कामनायें बनाने और उन्हें पूरा करने में ही व्यस्त है । उसका यह अटूट विश्वास है कि संसार में सुख है । हमें अभी तक नहीं मिला किंतु है अवश्य । यद्यपि जीव की अनुभूति यह है कि कामना की पूर्ति पर लोभ और अपूर्ति पर क्रोध आता है । इसी प्रकार अनंत दुख प्राप्त करते हुए भी जीव अज्ञानवश माया के पीछे भाग रहा है ।
विचार कीजिये कि कोई जड़ वस्तु किसी के सुख या दुख का कारण कैसे बन सकती है? संसार से सुख पाने की हमारी अपेक्षाएं हमारे दुख का कारण हैं । ठीक उसी प्रकार जैसे चूने के पानी को मथ कर मक्खन की आशा रखना और जब नहीं मिलता है तो क्रोध करना ।
यही बात भगवान ने वेदों में कही है । भगवान ने स्वयं पृथ्वी पर आकर और सन्तों को भेज कर जीवों को यह ज्ञान अनंत बार समझाया है । फिर भी जीव अपनी पूर्व-कल्पित धारणा हठात बनाये है । जीव की ऐसी दयनीय स्थिति का कारण जीव का अपना चयन है, इसमें भगवान और माया का क्या दोष ?
समझाने के लिए यह कहा जाता है कि “माया जीव पर हावी है” लेकिन यह पूर्ण सत्य नहीं है । सत्य यह है कि “जीव ने अनादिकाल से माया को अपना रखा है और अपने रुझान के फल को भोग रहा है।“ क्रोध, लोभ, ईर्ष्या ,द्वेष सब माया के विकार हैं । जैसे यदि कमरे में हरी रोशनी हो तो सफेद कपड़े भी हरे रंग के ही दिखाई देंगे वैसे ही माया को अपनाने के कारण माया के सभी दोष हमारे अंदर दिखाई देते हैं ।
माया तो जड़ हैं; यह अपने आप किसी पर हावी नहीं हो सकती । जीव माया में इतना आसक्त है कि भगवान के दिव्य वचन भी उसको डिगा नहीं सके । विडम्बना यह जीव आनंदकंद सच्चिदानंद श्री कृष्ण चंद्र को छोड़ कर माया के संसार में आनंद खोज रहा है । जीव माया से इतना मोहित है कि उसे यह विश्लेषण ही नहीं कर पाता कि संसारी वस्तुओं का सुख क्षणिक है व इंद्रियों को मिलता है,आत्मा को नहीं । जीव तो दिव्य है । दिव्य तत्त्व को मायिक पदार्थ संतुष्ट नहीं कर सकते। अतः आज तक किसी को भी मायिक पदार्थों की प्राप्ति से संतुष्टि नहीं हुई । खरबपति और भिखारी के दुख के कारण भिन्न हो सकते हैं परंतु सत्य यह है कि दोनों दुखी हैं ।
संक्षेप में कहें तो जीव ने अज्ञान वश माया को पकड़ रखा है । अतः जीव को ही इसे छोड़ना होगा । जितनी तत्परता से निम्नलिखित वचनों पर जीव विश्वास कर लेगा उतनी ही शीघ्र आत्म कल्याण के मार्ग पर अग्रसर हो पायेगा
श्री कृष्ण भगवान गीता में कहते हैं -
यद्यपि माया और जीव सनातन तत्व हैं परंतु स्वतंत्र नहीं है । भगवान इन दोनों तत्वों का अनादि एवं अनंत शासक है । इनमें से किसी का भी अस्तित्व कभी भी समाप्त नहीं हो सकता है । अतः जीव के अतिरिक्त दो सनातन तत्व बचे । जीव भगवान और माया के मध्य में स्थित है इसलिये इसे तट्स्था शक्ति भी कहते हैं । और जीव को ब्रह्म अथवा माया को चुनने का अधिकार सदा से प्राप्त है । जो लोग संसार के प्रलोभन में आते हैं वे माया को चुनते हैं और जो भगवान को चुनते हैं वे दिव्यानंद प्राप्त करते हैं।
यद्यपि जीव ने अनादिकाल से माया को ही आत्मसात किया है तथापि भगवान ने जीव का तिरस्कार नहीं किया है। वरन भगवान सदा आशा लगाये हैं कि यह जीव इस बार शरणागत हो जायेगा । जिन जीवों ने आनन्दकन्द श्री कृष्ण को चुन लिया वे सदा के लिये आनन्दमय हो गये ।
भगवान प्रत्येक जीव के हृदय में नित्य निवास करते हैं और प्रत्येक जीव के प्रत्येक क्षण के प्रत्येक संकल्प को नोट करते हैं । भगवान अपनी अजानभुज फैलाये प्रत्येक क्षण जीव की प्रतीक्षा करते हैं कि कब यह यह मेरी शरण में आये और मैं इसे सदा के लिये मालामाल कर दूँ ।
परंतु अज्ञानी जीव माया की ओर ही सन्मुख है । याद रखिये, यह जीव की अनादि स्थिती है, एक दिन हुआ, ऐसा नहीं है । जीव मायिक वस्तुओं की कामनायें बनाने और उन्हें पूरा करने में ही व्यस्त है । उसका यह अटूट विश्वास है कि संसार में सुख है । हमें अभी तक नहीं मिला किंतु है अवश्य । यद्यपि जीव की अनुभूति यह है कि कामना की पूर्ति पर लोभ और अपूर्ति पर क्रोध आता है । इसी प्रकार अनंत दुख प्राप्त करते हुए भी जीव अज्ञानवश माया के पीछे भाग रहा है ।
विचार कीजिये कि कोई जड़ वस्तु किसी के सुख या दुख का कारण कैसे बन सकती है? संसार से सुख पाने की हमारी अपेक्षाएं हमारे दुख का कारण हैं । ठीक उसी प्रकार जैसे चूने के पानी को मथ कर मक्खन की आशा रखना और जब नहीं मिलता है तो क्रोध करना ।
यही बात भगवान ने वेदों में कही है । भगवान ने स्वयं पृथ्वी पर आकर और सन्तों को भेज कर जीवों को यह ज्ञान अनंत बार समझाया है । फिर भी जीव अपनी पूर्व-कल्पित धारणा हठात बनाये है । जीव की ऐसी दयनीय स्थिति का कारण जीव का अपना चयन है, इसमें भगवान और माया का क्या दोष ?
समझाने के लिए यह कहा जाता है कि “माया जीव पर हावी है” लेकिन यह पूर्ण सत्य नहीं है । सत्य यह है कि “जीव ने अनादिकाल से माया को अपना रखा है और अपने रुझान के फल को भोग रहा है।“ क्रोध, लोभ, ईर्ष्या ,द्वेष सब माया के विकार हैं । जैसे यदि कमरे में हरी रोशनी हो तो सफेद कपड़े भी हरे रंग के ही दिखाई देंगे वैसे ही माया को अपनाने के कारण माया के सभी दोष हमारे अंदर दिखाई देते हैं ।
माया तो जड़ हैं; यह अपने आप किसी पर हावी नहीं हो सकती । जीव माया में इतना आसक्त है कि भगवान के दिव्य वचन भी उसको डिगा नहीं सके । विडम्बना यह जीव आनंदकंद सच्चिदानंद श्री कृष्ण चंद्र को छोड़ कर माया के संसार में आनंद खोज रहा है । जीव माया से इतना मोहित है कि उसे यह विश्लेषण ही नहीं कर पाता कि संसारी वस्तुओं का सुख क्षणिक है व इंद्रियों को मिलता है,आत्मा को नहीं । जीव तो दिव्य है । दिव्य तत्त्व को मायिक पदार्थ संतुष्ट नहीं कर सकते। अतः आज तक किसी को भी मायिक पदार्थों की प्राप्ति से संतुष्टि नहीं हुई । खरबपति और भिखारी के दुख के कारण भिन्न हो सकते हैं परंतु सत्य यह है कि दोनों दुखी हैं ।
संक्षेप में कहें तो जीव ने अज्ञान वश माया को पकड़ रखा है । अतः जीव को ही इसे छोड़ना होगा । जितनी तत्परता से निम्नलिखित वचनों पर जीव विश्वास कर लेगा उतनी ही शीघ्र आत्म कल्याण के मार्ग पर अग्रसर हो पायेगा
- मैं अर्थात आत्मा दिव्य एवं सनातन है; शरीर (इंद्रिय, मन, बुद्धि सब) मेरा है, नश्वर है तथा सदैव बदलता रहता है ।
- मैं इन इंद्रियों का स्वामी हूं और मैं ही आनंद की खोज में हूँ ।
- इंद्रियाँ (मन बुद्धि के साथ) मुझे सुख देने के लिए अथक प्रयास करती हैं परंतु असफल हैं क्योंकि उनको दिव्यानंद का आभास ही नहीं है ।
- अतः मुझे ऐसा मार्ग दर्शक चाहिए जो आनंद प्राप्ति करा सके।
श्री कृष्ण भगवान गीता में कहते हैं -
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया । उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्तवदर्शिनः।।
गी. 4.34
“ऐसे संत के पास जाओ जिसके पास समस्त शास्त्रों वेदों का ज्ञान हो तथा भगवत् दर्शन कर चुका हो। ऐसे संत के श्री चरणों में मन बुद्धि को पूर्णरूपेण शरणागत कर दो। उनसे दीनता पूर्वक प्रश्न कर अपनी जिज्ञासाओं को शांत करो और उनकी निस्वार्थ सेवा करो तब उनकी कृपा से तुम मुझ तक पहुंचोगे।”
यदि जीव मायिक पदार्थों की आसक्ति का त्याग कर मन को हरि गुरु में ही लगाने का अभ्यास करने के बजाय संसारी धन दौलत, माता-पिता, स्त्री-पति, बच्चों, मित्रों, आदि में रमा रहेगा तो वह कभी भी दिव्यानंद नहीं प्राप्त कर सकता।
केवल उपरोक्त ज्ञान परिपक्व(अडिग) कर एवं अथक अभ्यास से ही जीव माया-मोह को समाप्त कर अंततः अनंतानंद पा सकता है। इस सिद्धांत को छोड़ कर चाहे कितने ही अनुष्ठान या उपाय कर डालो, माया के पार नहीं हो सकते ।
यदि जीव मायिक पदार्थों की आसक्ति का त्याग कर मन को हरि गुरु में ही लगाने का अभ्यास करने के बजाय संसारी धन दौलत, माता-पिता, स्त्री-पति, बच्चों, मित्रों, आदि में रमा रहेगा तो वह कभी भी दिव्यानंद नहीं प्राप्त कर सकता।
केवल उपरोक्त ज्ञान परिपक्व(अडिग) कर एवं अथक अभ्यास से ही जीव माया-मोह को समाप्त कर अंततः अनंतानंद पा सकता है। इस सिद्धांत को छोड़ कर चाहे कितने ही अनुष्ठान या उपाय कर डालो, माया के पार नहीं हो सकते ।
तपस्विनो दानपरा यशस्विनो मनस्विनो मंत्रविदः सुमङ्लाः ।
क्षेमं न विन्दन्ति बिना यदर्पणं तस्मै सुभद्रश्रवसे नमो नमः ॥
क्षेमं न विन्दन्ति बिना यदर्पणं तस्मै सुभद्रश्रवसे नमो नमः ॥
भाग २.४.१७
“किसी भी मात्रा में किया गया दान, तप, यश, योग या मंत्र माया के बंधन से मुक्ति नहीं दिला सकते । केवल भगवान की शरणागति ही एकमात्र रास्ता है।”
निष्कर्ष यह है कि माया हम पर हावी नहीं है । हमें केवल मन से मायिक पदार्थों से आनंद प्राप्ति की आशा त्याग कर मन को हरि गुरु में लगाना होगा । आनंद स्वरूप भगवान तो अपनी भुजाएँ फैलाये हमें अपनाने के लिये अनादि काल से तत्पर हैं ।
निष्कर्ष यह है कि माया हम पर हावी नहीं है । हमें केवल मन से मायिक पदार्थों से आनंद प्राप्ति की आशा त्याग कर मन को हरि गुरु में लगाना होगा । आनंद स्वरूप भगवान तो अपनी भुजाएँ फैलाये हमें अपनाने के लिये अनादि काल से तत्पर हैं ।