दैवीय गुण कैसे विकसित हों
सत्य बोलना, नम्रता, अहिंसा, धैर्य, करुणा, परोपकार, कृतज्ञता, संतुष्टि आदि सतचरित्र व्यक्ति के गुण हैं। लोग न केवल इन गुणों का प्रचार करते हैं बल्कि इन विशेषताओं को अपने भीतर विकसित करने का प्रयास भी करते हैं। ईश्वर को न मानने वाले साम्यवादी देशों की सरकारें भी शांति और अहिंसा का प्रचार करती हैं।
यद्यपि, शास्त्र स्पष्ट रूप से घोषित करते हैं कि ये दिव्य गुण हैं और केवल ईश्वर प्राप्ति पर ही सदा के लिये मिलते हैं । कोई भी मायिक जीव इन दैवीय गुणों को हमेशा के लिए कितने भी अभ्यास से प्राप्त नहीं कर सकता है।
तो प्रश्न उठता है, कि ईश्वर प्राप्ति कैसे हो ?
उत्तर सरल है, माया के संसार से मन को विमुख कर के, ईश्वर और गुरु के सन्मुख करने से ईश्वर प्राप्ति हो जायेगी ।
भगवान् के सन्मुख होना क्यों महत्वपूर्ण है?
ठंड में काँपते हुए व्यक्ति को अग्नि शब्द का उच्चारण करने से ठंड से राहत नहीं मिलेगी । न ही "पास ही आग जल रही है" इस ज्ञान से राहत मिलेगी । न ही अग्नि के अनेक गुणों का मनन करने से राहत मिलेगी । ठंड को समाप्त करने का एक ही उपाय है - आग के समीप जाना । जैसे-जैसे आग के समीप पहुँचते जायेंगे त्यों-त्यों ठंड कम होती जायेगी और गरमाहट आती जायेगी । बस समीप जाये, चाहे वह आग शब्द कहे या न कहे, आग के गुणों को जाने चाहे न जाने, चाहे आग के गुणों को सोचे या न सोचे । बस समीप जाये तो आग की गर्मी का अनुभव होगा ।
यह निर्विवाद तथ्य है जीव को ईश्वर के सन्मुख करने का एकमात्र उपाय भक्ति ही है[1][2][3]। जब मन भगवान की भक्ति में लग जाता है, तो मन सभी मायिक क्लेशों [4] से मुक्त हो जाता है और दैवीय गुण स्वतः ही प्रकट हो जाते हैं। यदि आपका मन ईश्वर से ओतप्रोत है तो आपको इन गुणों को प्राप्त करने के लिए अतिरिक्त प्रयास नहीं करना होगा ।
श्रीमद्भागवत के अनुसार -
यद्यपि, शास्त्र स्पष्ट रूप से घोषित करते हैं कि ये दिव्य गुण हैं और केवल ईश्वर प्राप्ति पर ही सदा के लिये मिलते हैं । कोई भी मायिक जीव इन दैवीय गुणों को हमेशा के लिए कितने भी अभ्यास से प्राप्त नहीं कर सकता है।
तो प्रश्न उठता है, कि ईश्वर प्राप्ति कैसे हो ?
उत्तर सरल है, माया के संसार से मन को विमुख कर के, ईश्वर और गुरु के सन्मुख करने से ईश्वर प्राप्ति हो जायेगी ।
भगवान् के सन्मुख होना क्यों महत्वपूर्ण है?
ठंड में काँपते हुए व्यक्ति को अग्नि शब्द का उच्चारण करने से ठंड से राहत नहीं मिलेगी । न ही "पास ही आग जल रही है" इस ज्ञान से राहत मिलेगी । न ही अग्नि के अनेक गुणों का मनन करने से राहत मिलेगी । ठंड को समाप्त करने का एक ही उपाय है - आग के समीप जाना । जैसे-जैसे आग के समीप पहुँचते जायेंगे त्यों-त्यों ठंड कम होती जायेगी और गरमाहट आती जायेगी । बस समीप जाये, चाहे वह आग शब्द कहे या न कहे, आग के गुणों को जाने चाहे न जाने, चाहे आग के गुणों को सोचे या न सोचे । बस समीप जाये तो आग की गर्मी का अनुभव होगा ।
यह निर्विवाद तथ्य है जीव को ईश्वर के सन्मुख करने का एकमात्र उपाय भक्ति ही है[1][2][3]। जब मन भगवान की भक्ति में लग जाता है, तो मन सभी मायिक क्लेशों [4] से मुक्त हो जाता है और दैवीय गुण स्वतः ही प्रकट हो जाते हैं। यदि आपका मन ईश्वर से ओतप्रोत है तो आपको इन गुणों को प्राप्त करने के लिए अतिरिक्त प्रयास नहीं करना होगा ।
श्रीमद्भागवत के अनुसार -
यस्यास्ति भक्तिर्भगवत्यकिञच्ना, सर्वैर्गुणैस्तत्र समासते सुराः ।
हरावभक्तस्य कुतो महद्गुणा, मनोरथेनासति धवतो बहिः ॥
हरावभक्तस्य कुतो महद्गुणा, मनोरथेनासति धवतो बहिः ॥
भा ५.१८.१२
"सभी देवता और उनके सात्विक गुण, जैसे धर्म, ज्ञान और त्याग, उस भक्त में प्रकट हो जाते हैं, जिसने पूर्णत्तम पुरुषोत्तम भगवान, वासुदेव की अनन्य भक्ति कर ली है। इसके विपरीत, भक्ति से विहीन और मायिक क्रियाकलाप में व्यस्त जीव में ये सद्गुण नहीं होते । भले ही वह योगाभ्यास करे या वर्णाश्रम धर्म का अक्षरशः पालन करे परंतु उसका मन मायिक विकारों से प्रभावित रहेगा । ऐसे जीव के अंतःकरण में दिव्य गुण कैसे हो सकते हैं?" जिस प्रकार धन प्राप्त होने पर ही दरिद्रता का स्वयं क्षय हो जाता है, उसी प्रकार ईश्वर प्राप्ति होने पर ये दैवीय गुण पूर्ण रूप से प्रकट हो जाते हैं और मायिक विकार समाप्त हो जाते हैं ।
क्या इन गुणों को प्राप्त करने का कोई और उपाय है?
कुछ लोग अपनी इच्छा शक्ति को विकसित करने का अभ्यास करके, अपनी इंद्रियों का वशीकरण करके क्रोध, लोभ इत्यादि पर विजय प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। ऐसे लोग कुछ हद तक इंद्रियों पर क्षणिक नियंत्रण कर भी लें परंतु मन पर नियंत्रण असंभव है। उदाहरणार्थ ऋषि विश्वामित्र महान योगी थे, जिनका अपनी इंद्रियों पर पूरा नियंत्रण था, लेकिन दिव्य अप्सरा मेनका पर एक बार दृष्टि पड़ी और फिसल गये । इसी प्रकार इतिहास में सौभरी मुनि, पराशर, जड़ भरत और कई जीवों का पतन हुआ है ।
अतः दैवीय गुणों की वृद्धि हेतु मन को ईश्वर के समीप ले जाना होगा [5]। भगवान् ही समस्त दिव्य गुणों की खान है। उनके सिद्ध भक्त, जिन्हें संत कहा जाता है, वे भी भगवान के सभी गुणों से संपन्न हैं [6] । इसलिए जीव जितना हरि-गुरु के निकट होता जायेगा, माया के गुण उतने ही दूर होते जायेंगे और दैवीय गुण स्वाभाविक रूप से हृदय में प्रकट होते जायेंगे ।
ईश्वर के करीब कैसे पहुँचें ?
ईश्वर दिव्य है और हमारी इंद्रियाँ और मन मायिक हैं। जाहिर है, उन्हें हमारी मायिक इंद्रियों से नहीं देखा जा सकता है। सबसे पहले हमें अपने गुरु के चरण कमलों में समर्पण करना होगा। गुरु मन की शुद्धि करना सिखाएगा। माया के संसार से विमुख होकर ईश्वर की ओर मुड़ने की प्रक्रिया है मन की शुद्धि [2] । जब मन सभी मायिक आसक्तियों से मुक्त हो जाता है तो गुरु गुप्त रूप से जीव पर कृपा करेंगे और दिव्य शक्ति का संचार करेंगे। तभी जीव पाँचों इन्द्रियों से ईश्वर को नित्य अनुभव कर सकेगा ।
संक्षेप में, वास्तविक गुरु अज्ञानी मायिक जीवों की देखभाल करता है, माया के आवरण को काट देता है और जीव को ईश्वर से मिलने के योग्य बनाता है। गुरु की तुलना उस माँ से की जा सकती है जो अपनी बेटी का पालन-पोषण करती है और उसे सफल भविष्य के लिए 18-20 साल तक प्रशिक्षित करती है। जब वह गुणवती हो जाती है तो एक लड़का आता है, उसकी योग्यता का मूल्यांकन करता है, उससे विवाह करके उसे ले जाता है। जैसे एक माँ अपनी बेटी को तैयार करती है वैसे ही गुरु भक्त को भगवान से मिलाने के लिए तैयार करता है। इसलिए भक्ति के अभिलाशी जीव के दृष्टिकोण से गुरु का महत्व ईश्वर से भी अधिक है [7]।
इसलिए तुलसीदास जी दृढ़तापूर्वक कहते हैं -
क्या इन गुणों को प्राप्त करने का कोई और उपाय है?
कुछ लोग अपनी इच्छा शक्ति को विकसित करने का अभ्यास करके, अपनी इंद्रियों का वशीकरण करके क्रोध, लोभ इत्यादि पर विजय प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। ऐसे लोग कुछ हद तक इंद्रियों पर क्षणिक नियंत्रण कर भी लें परंतु मन पर नियंत्रण असंभव है। उदाहरणार्थ ऋषि विश्वामित्र महान योगी थे, जिनका अपनी इंद्रियों पर पूरा नियंत्रण था, लेकिन दिव्य अप्सरा मेनका पर एक बार दृष्टि पड़ी और फिसल गये । इसी प्रकार इतिहास में सौभरी मुनि, पराशर, जड़ भरत और कई जीवों का पतन हुआ है ।
अतः दैवीय गुणों की वृद्धि हेतु मन को ईश्वर के समीप ले जाना होगा [5]। भगवान् ही समस्त दिव्य गुणों की खान है। उनके सिद्ध भक्त, जिन्हें संत कहा जाता है, वे भी भगवान के सभी गुणों से संपन्न हैं [6] । इसलिए जीव जितना हरि-गुरु के निकट होता जायेगा, माया के गुण उतने ही दूर होते जायेंगे और दैवीय गुण स्वाभाविक रूप से हृदय में प्रकट होते जायेंगे ।
ईश्वर के करीब कैसे पहुँचें ?
ईश्वर दिव्य है और हमारी इंद्रियाँ और मन मायिक हैं। जाहिर है, उन्हें हमारी मायिक इंद्रियों से नहीं देखा जा सकता है। सबसे पहले हमें अपने गुरु के चरण कमलों में समर्पण करना होगा। गुरु मन की शुद्धि करना सिखाएगा। माया के संसार से विमुख होकर ईश्वर की ओर मुड़ने की प्रक्रिया है मन की शुद्धि [2] । जब मन सभी मायिक आसक्तियों से मुक्त हो जाता है तो गुरु गुप्त रूप से जीव पर कृपा करेंगे और दिव्य शक्ति का संचार करेंगे। तभी जीव पाँचों इन्द्रियों से ईश्वर को नित्य अनुभव कर सकेगा ।
संक्षेप में, वास्तविक गुरु अज्ञानी मायिक जीवों की देखभाल करता है, माया के आवरण को काट देता है और जीव को ईश्वर से मिलने के योग्य बनाता है। गुरु की तुलना उस माँ से की जा सकती है जो अपनी बेटी का पालन-पोषण करती है और उसे सफल भविष्य के लिए 18-20 साल तक प्रशिक्षित करती है। जब वह गुणवती हो जाती है तो एक लड़का आता है, उसकी योग्यता का मूल्यांकन करता है, उससे विवाह करके उसे ले जाता है। जैसे एक माँ अपनी बेटी को तैयार करती है वैसे ही गुरु भक्त को भगवान से मिलाने के लिए तैयार करता है। इसलिए भक्ति के अभिलाशी जीव के दृष्टिकोण से गुरु का महत्व ईश्वर से भी अधिक है [7]।
इसलिए तुलसीदास जी दृढ़तापूर्वक कहते हैं -
गुरु बिनु भव निधि तरइ न कोई, जौं विरंचि संकर सम होई ॥
"यहाँ तक कि ब्रह्मा और भगवान शंकर (के समान ज्ञान से संपन्न) भी गुरु की कृपा के बिना माया के भवसागर को पार नहीं कर सकता" [8].
अतः दैवीय गुणों को धारण करने के लिए वास्तविक संत के मार्गदर्शन में साधना भक्ति करना अनिवार्य है।
सभी दिव्य गुणों को अनंत मात्रा में चिरकाल के लिये प्राप्त करने का एकमात्र उपाय भगवान को प्राप्त करना है। [9]
अतः दैवीय गुणों को धारण करने के लिए वास्तविक संत के मार्गदर्शन में साधना भक्ति करना अनिवार्य है।
सभी दिव्य गुणों को अनंत मात्रा में चिरकाल के लिये प्राप्त करने का एकमात्र उपाय भगवान को प्राप्त करना है। [9]