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सावधान​! ज्ञान से भी हानि हो सकती है।​

Beware: Gyan can cause downfall
अथाह ज्ञान अथवा तत्वज्ञानअथाह ज्ञान अथवा तत्वज्ञान। आप क्या चुनेंगे?
संस्कृत शब्द ज्ञान का अर्थ है विद्या। चूंकि दो क्षेत्र हैं – दिव्य और सांसारिक; अतः ज्ञान की भी दो शाखाएँ हैं :
​
  1. सांसारिक ज्ञान तथा
  2. आध्यात्मिक ज्ञान

सांसारिक ज्ञान 

माया के क्षेत्र से संबंधित सभी जानकारी सांसारिक ज्ञान की श्रेणी में आता है। इस सांसारिक क्षेत्र का विस्तार मृत्युलोक से ऊपर सात उर्ध्व लोक,  मृत्युलोक तथा मृत्युलोक से नीचे सात अधो लोक तक हैं । उर्ध्व लोक में सबसे ऊपर तथा सांसारिक वैभव में उत्कृष्ट ब्रह्मलोक है। भौतिक जगत के किसी भी ज्ञानक्षेत्र यथा चिकित्सा, संगीत, ज्योतिष, खगोल, गणित आदि का ज्ञान इसी कक्षा में आता है।

मायिक ज्ञान को पुनः दो भागों में विभाजित किया जा सकता है सैद्धांतिक एवं व्यवहारिक ज्ञान।
​
  • सैद्धांतिक ज्ञान – जिस ज्ञान का अर्जन पठन व लेखन के द्वारा किया जाए उसे सैद्धांतिक ज्ञान कहा जाता है। यह संपूर्ण ज्ञान नहीं है। उदाहरण के लिए गाड़ी चलाने की पूरी किताब को रट लेने पर भी आप एक अच्छे ड्राइवर (वाहन चालक) नहीं बन सकते।
  • व्यवहारिक ज्ञान – क्रियाओं के करने से अपने अनुभव द्वारा जो ज्ञान प्राप्त होता है उसे व्यवहारिक ज्ञान कहते हैं। उदाहरण मैकेनिक सर्वप्रथम मशीन की तकनीकी, संचालन, सुरक्षा नियमों आदि के पठन करता है। तत्पश्चात मैकेनिक मशीन को सुचारू रूप से चलाकर अनुभव प्राप्त करता है।  तदोपरांत जो ज्ञान मिलता है उसे व्यावहारिक ज्ञान कहते हैं ।

आध्यात्मिक ज्ञान
आत्मा के उद्धार हेतु जो  ज्ञानार्जन किया जाए वह आध्यात्मिक ज्ञान कहलाता है। यह भी दो प्रकार का होता है – प्रथम सैद्धांतिक, द्वितीय व्यवहारिक -

  • सैद्धांतिक ज्ञान – यदि कोई वेद-शास्त्र के श्लोकों को मात्र कंठस्थ कर ले परंतु उनका अर्थ  समझ कर उनको व्यवहार में ना लाए तो उसे अध्यात्म जगत का सैद्धांतिक ज्ञान कहा जाएगा। उदाहरण के लिए कोई ब्रह्म, जीव, माया की परिभाषाएँ जानता हो परंतु व्यवहार में न लाता हो ।
  • व्यवहारिक ज्ञान – साधना आरंभ करने से पूर्व शास्त्र वेद का आवश्यक सैद्धांतिक ज्ञान करना होगा। उसके पश्चात उस पर अमल कर भगवत दर्शन प्राप्त होने पर जो अनुभवजन्य ज्ञान प्राप्त होता है उसे व्यवहारिक ज्ञान कहते हैं। भगवान समस्त ज्ञान का स्रोत है और भगवद् दर्शन होने पर भगवान अपना समस्त ज्ञान जीव को दे देते हैं । तदोपरांत जीव को आध्यात्मिक तथा भौतिक जगत का संपूर्ण ज्ञान  स्वतः हो जाएगा। ​

​भगवान के दो स्वरूप होते हैं - 
द्वेवाव ब्रह्मणो रूपे मूर्तं चैवामूर्तं च ।
“ब्रह्म के दो रूप होते हैं – साकार रुप तथा निराकार रुप” ।

निराकार रूप के उपासक को ज्ञानी कहते हैं(1)। वो माया से मुक्ति तथा ब्रह्मानंद प्राप्ति हेतु भगवान के निराकार रूप की उपासना करते हैं। सैद्धांतिक तथा व्यवहारिक ज्ञान जो ज्ञानियों को उनके लक्ष्य की प्राप्ति करवाता है ज्ञानियों का तत्व ज्ञान कहलाता है ।

इसी प्रकार जो साकार स्वरूप के उपासक होते हैं उन्हें भक्त कहा जाता है। वे भगवान की भक्ति प्राप्त करने हेतु उपासना करते हैं । सैद्धांतिक एवं व्यवहारिक ज्ञान उन्हें उनके परम चरम लक्ष्य की प्राप्ति करवाता है । इस ज्ञान को भी तत्व ज्ञान कहा जाता है ।  याद रहे ज्ञानियों का तत्व ज्ञान भक्तों के तत्व ज्ञान से भिन्न है। 

​संक्षेप में कहें कि जो जानकारी आत्मा का उद्धार न कराए उसे ज्ञान कहते हैं। वेद शास्त्र का वह ज्ञान जिससे आत्मा का उद्धार हो उसे तत्व ज्ञान कहते हैं।
प्रश्न यह उठता है कि शास्त्र वेत्ता के लिए तत्वज्ञान का अर्जन क्यों आवश्यक है?
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यदि कोई कोरा सैद्धांतिक आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर ले परंतु भक्ति ना करे तो उसके अंदर स्वभावतः अहंकार आ जाता है। उस अहंकार के कारण उसके अंदर दैवीय गुणों का अभाव हो जाता है। ऐसे व्यक्ति का लक्ष्य लोकरंजन  तक सीमित रह जाता है। शास्त्र वेदों के अर्थ इतने गहन हैं कि कोई भी मनुष्य अपनी संपूर्ण आयु में मात्र एक शास्त्र का सम्यक ज्ञान अर्जित नहीं कर सकता। और यदि कोई समस्त भौतिक तथा आध्यात्मिक जगत के समस्त विषयों का ज्ञान भी अर्जित कर ले,  जोकि एक जीवन में असंभव है, तो भी वह सुख कथमपि नहीं प्राप्त कर सकता (2) । और वैसे भी, ज्ञानार्जन करना हमारे जीवन का उद्देश्य नहीं है। अन्य क्रियाओं की भांति ज्ञानार्जन भी एकमात्र अनंत आनंद पाने के लिये ही करते हैं । और वह आनंद एकमात्र तत्व ज्ञान प्राप्त कर लेने से ही मिलेगा।

​आपने यदि मंदिर आदि में किसी भक्ति-रहित-वेद-शास्त्र के ज्ञाता को मंत्रोच्चारण करते सुना हो तो उसकी वाणी रूखी ऐंठी हुई प्रतीत होती है। उसके गायन से ऐसा प्रतीत होता है जैसे वह भगवान से वाक युद्ध कर रहा हो अथवा अपने ज्ञान का बखान कर रहा हो। उसके शब्द किसी के हृदय को द्रवित नहीं करते। जबकि वही शब्द जब भोले-भाले साधक के मुख से निकलते हैं तो सभी के हृदय को छू जाते हैं ।

​
वास्तविक तत्वज्ञान व्यक्ति को दीन बना देता है।

जितना अधिक तत्वज्ञान जीव प्राप्त करता जाता है उसको अपना अर्जित​ ज्ञान समुद्र की बूंद के समान छुद्र लगने लगेगा ।

जगद्गुरु शंकराचार्य जी कहते हैं-
यदा किंचित्किंचिद् द्विप इव मदान्धः समभवम्, तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिप्तं मम मनः ।
यदा किंचित्किंचिद् बुधजनसकाशादवगतम् तदा मूर्खोऽस्मीतिज्वर इव मदो मे व्यपगतः ॥
"जब मैंने थोड़ा सा शास्त्रों वेदों का ज्ञान प्राप्त किया तो मैं मदमत्त​​ हाथी की तरह अहंकारी हो गया। परंतु जब संतो के संग से मैंने कुछ-कुछ वास्तविक आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त किया तो मुझे अपनी मूर्खता का आभास​ हुआ। "

अतः तत्व ज्ञान वह ज्ञान है जो जीव को भगवत प्राप्ति की ओर अग्रसर करता है। उस जीव के हृदय में स्वाभाविक रूप से भगवत प्रेम जागृत होने लगता है।

श्रीमद्भागवत कहती है -
यस्यास्ति भक्तिर्भगवत्यकिञच्ना, सर्वैर्गुणैस्तत्र समासते सुराः ।
हरावभक्तस्य कुतो महद्गुणा, मनोरथेनासति धवतो बहिः ॥
 "भगवत प्राप्त संत के हृदय में स्वाभाविक रूप से दिव्य गुण प्रस्फुटित होते हैं और इसी प्रकार असाधु के हृदय में मायिक दोष प्रस्फुटित होते हैं।"
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तत्व ज्ञानी के हृदय में स्वाभाविक रूप से दिव्य गुण प्रस्फुटित होते हैं
सनातन गोस्वामीसनातन गोस्वामी
तथापि हमें शास्त्रों वेदों में वर्णित सैद्धांतिक ज्ञान की निंदा नहीं करनी है। जब किसी के पैर में कांटा चुभता है तो सर्व​प्रथम बुद्धिमान व्यक्ति बड़े कांटे से छोटे कांटे को निकालता है तदुपरांत दोनों कांटों को फेंक देता है। ठीक इसी प्रकार ज्ञान से अज्ञान को दूर करने के पश्चात दोनों को फेंक कर केवल राधा कृष्ण के चरणारविंद के मकरंद के मिलिंद बनकर रहने में ही परमानंद की अनुभूति करता है। और युगल सरकार की कृपा द्वारा संपूर्ण ज्ञान स्वतः हो जाता है ।

हमारा जीवन क्षणभंगुर है तथा अज्ञातकाल के लिए दिया गया है और शास्त्र वेदों का भंडार अथाह है । मनुष्य की संपूर्ण आयु में सारे शास्त्रों वेदों का ज्ञानार्जन तो दूर, सबके पन्ने भी नहीं पलटे जा सकते। अतः अपने परम स्वार्थ को  प्राप्त करने हेतु जितना जानना आवश्यक है केवल उसी को जानने की चेष्टा करिए। बाकी समय उस तत्व ज्ञान को व्यवहार में लाने की चेष्टा में लगाइए । इस परिश्रम से परम चरम लक्ष्य की प्राप्ति हो जाएगी। 

​वह तत्व ज्ञान श्री सनातन गोस्वामी जी ने मात्र 3 प्रश्नों में समाहित कर दिया
– 
​
  • मैं कौन हूँ?  के आमी ?
  • हम त्रितापों में क्यों जल रहे हैं?  अने केन जारे तापत्रय ?
  • हमारा उद्धार कैसे होगा?  अने केन हित हय​?

स्पष्ट शब्दों में कहें तो हमें यह दृढ़ विश्वास करना होगा कि हम ईश्वर के अंश हैं और वह ईश्वर ही आनंद सिंधु है। इस तथ्य को न मानने के कारण हम भगवान के अतिरिक्त सभी स्थानों में अनंत काल से आनंद की अनवरत खोज कर रहे हैं । परिणाम स्वरूप संसार के अनंत वैभव का भोग किया परंतु वह खोज अभी तक अंत को प्राप्त नहीं हुई।(3) भगवान से ही हमारा सनातन नाता है और भगवत् प्राप्त संतों के दिशानिर्देशों पर चलने से ही हमें उन की प्राप्ति हो सकती है। हमारे शास्त्र का उद्घोष है –
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत । 
​कठोपनिषद् १.३.१४
" उठो जागो और भगवत प्राप्त संत की शरण में जाकर भगवान का ज्ञान प्राप्त करो। "

​यदि अनंत प्रेमानंद प्राप्त करना आपका लक्ष्य है तो तत्व ज्ञान प्राप्त करिए। तत्व ज्ञान प्राप्त करने के अतिरिक्त अन्य ज्ञान की  प्राप्ति में समय न लगाइए। क्योंकि पहली बात उससे आपका परम चरम लक्ष्य नहीं मिलेगा और दूसरी बात वह ज्ञान आपको और अधिक उलझा देगा। अंत में जितना समय अन्य ज्ञान प्राप्त करने में लगाया गया वह सब समय साधना में नहीं लगा। अतः वह समय बर्बाद हो गया। मानव देह देव-दुर्लभ होने के साथ-साथ क्षणभंगुर है अतः निरर्थक कर्मों में अमूल्य निधि को न गँवाइए।
उतना ही ज्ञान जानो गोविंद राधे । जितने में गुरु तोहिं हरि ते मिला दे ॥ 2529
ज्ञान है अनन्त किन्तु गोविंद राधे । तू तो साध्य साधन ज्ञान करा दे ॥ 2530
गुरु की शरण ग्रहण करके उतना ज्ञान प्राप्त करो जितने से भगवत प्राप्ति हो जाए । ज्ञान तो अनंत प्रकार का होता है परंतु तुम अपनी जिज्ञासा अपने लक्ष्य और लक्ष्य को प्राप्त करने के साधन तक ही सीमित रखो।
- राधा गोविंद गीत​
जगद्गुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज
जगद्गुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज
जगद्गुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज
यदि आपको यह लेख लाभप्रद लगा तो संभवतः निम्नलिखित लेख भी लाभप्रद लगेगें
(1) ज्ञानी मायिक बुद्धि से दिव्य आत्मा के कैसे जान लेता है ?
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