
प्रश्न :
किसी नए प्रदेश में, जहाँ के रीति रिवाज़ सब नए हों, वहाँ जाकर रहने के लिये एक पथ प्रदर्शक की आवश्यकता होती है I मेरा प्रश्न है....हमें बताया गया है की हम भगवान् के अंश हैं, और गोलोक जाना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है I परन्तु वह गंतव्य स्थान सुदूर जान पड़ता है I नियत लक्ष्य का किंचित भी अनुमान न होने के कारण क्या हम मृत्यु के समय भयभीत होंगे ?
मृत्यु के पश्चात क्या होता है ?
मृत्युपरांत हमारा मार्ग दर्शन कौन करेगा ?
उत्तर :
आपका प्रश्न अति उत्तम एवं हितकर है I हम सबको मृत्यु का भय सताता है l इसका मुख्य कारण है अकेले किसी अज्ञात जगह जाने का भय तथा शास्त्रों में लिखी हुई नरक में मिलने वाली यातनाओं का वर्णन l यदि हमने नरक की यातनाओं के बारे में कुछ भी न सुना हो, तो भी हमें मृत्यु से भय लगता है l क्यों ?
यह जीव अनंत काल से माया के आधीन है और अनंत बार स्वर्ग, मृत्युलोक (पृथ्वी) एवं नरक के चक्कर लगा चुका है l हमारे अंतःकरण में पिछले जन्मों के कृत्य अंकित होते हैं जो संस्कार कहलाते हैं I हमने अनंत बार मृत्यु के समय की असह्य पीड़ा भी भोगी है l यह सब हमारे अचेतन मन में इतनी दृढ़ता से अंकित है, और यह ही हमारे मृत्यु के भय को जन्म देता है l
स्पष्टतः हम सब ही मृत्यु के भय से मुक्ति चाहते हैं l हमारे ग्रंथों में इस भय पर विजय पाने के अनेक उपायों का विस्तृत वर्णन है l हमारे संतों ने भी इन उपायों का विस्तार अनेक भाषाओँ में एवं अनेक बौद्धिक स्तर वाले, शास्त्रज्ञ से लेकर साधारण मनुष्य तक, सबको समझाने के लिए किया है l इन उपायों का कई लोग अनुसरण भी करते हैं और कई, “बड़ा कठिन है”, कह कर इन उपायों का पालन नहीं करते l
यह संसार माया से बना है l माया के तीन गुण होते हैं तथा तीन प्रकार के लोग इस संसार में पाये जाते हैं l
१. सात्विक : जो वेदों में प्रतिष्ठापित आज्ञाओं का पालन करते हैं l
२. राजसिक : जो साधारण सांसारिक जीवन व्यतीत करते हैं एवं उनका उद्देश्य सांसारिक कामनाओं की पूर्ति ही होता है l
३. तामसिक : जो अनैतिकता से परिपूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं, एवं अपने उन्माद में अच्छे और बुरे के भेद से भी उदासीन रहते हैं l
यद्यपि यह तीनों गुण हर जीव में समय समय पर, स्थिति के अनुसार, उदय होते हैं तथापि मुख्यतः सात्विक गुण देवताओं में, राजसी गुण मनुष्यों में और तामसी गुण राक्षसों में देखे जाते हैं l
शास्त्र कहते हैं यदि स्वर्ग का अकल्पनीय, परन्तु नश्वर सुख चाहो, तो वेदों का अक्षरशः पालन कर सात्विक जीवन यापन करो l ये लोग नियमित समय के लिये स्वर्ग के सुख भोग कर पुनः भवाटवी में चक्कर लगते हैं ।
राजसी वृत्ति वाला संसार में अपनी इच्छाओं की पूर्ति हेतु प्रयत्नशील रहता है किन्तु मर्यादित जीवन व्यतीत करता है l अतः यदि औरों की सहायता करने से उनकी स्वार्थहानी न हो तो वह परोपकारी बने रहते हैं l मायिक विषयों का अनुसरण करने के कारण ये भी भवाटवी में चक्कर लगते हुए दुःखमय जीवन व्यतीत करते हैं l
यदि कोई नरक गमन के लिए ही इच्छुक हो तो वह वेदों की और संतों की वाणी की अवहेलना कर, भोग विलास में अपना जीवन यापन करे, और अंत में नरक के कष्ट झेले और भवाटवी में चक्कर लगाये ।
वस्तुतः यह विदित होना चाहिए की सात स्वर्ग, एक मृत्यु(पृथ्वी) लोक, अट्ठाइस(28) नरक सब माया के आधीन हैं और यहाँ चिर सुख एवं शांति कदापि नहीं मिल सकती हैं l
भगवान् श्री कृष्ण गीता में कहते हैं,
किसी नए प्रदेश में, जहाँ के रीति रिवाज़ सब नए हों, वहाँ जाकर रहने के लिये एक पथ प्रदर्शक की आवश्यकता होती है I मेरा प्रश्न है....हमें बताया गया है की हम भगवान् के अंश हैं, और गोलोक जाना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है I परन्तु वह गंतव्य स्थान सुदूर जान पड़ता है I नियत लक्ष्य का किंचित भी अनुमान न होने के कारण क्या हम मृत्यु के समय भयभीत होंगे ?
मृत्यु के पश्चात क्या होता है ?
मृत्युपरांत हमारा मार्ग दर्शन कौन करेगा ?
उत्तर :
आपका प्रश्न अति उत्तम एवं हितकर है I हम सबको मृत्यु का भय सताता है l इसका मुख्य कारण है अकेले किसी अज्ञात जगह जाने का भय तथा शास्त्रों में लिखी हुई नरक में मिलने वाली यातनाओं का वर्णन l यदि हमने नरक की यातनाओं के बारे में कुछ भी न सुना हो, तो भी हमें मृत्यु से भय लगता है l क्यों ?
यह जीव अनंत काल से माया के आधीन है और अनंत बार स्वर्ग, मृत्युलोक (पृथ्वी) एवं नरक के चक्कर लगा चुका है l हमारे अंतःकरण में पिछले जन्मों के कृत्य अंकित होते हैं जो संस्कार कहलाते हैं I हमने अनंत बार मृत्यु के समय की असह्य पीड़ा भी भोगी है l यह सब हमारे अचेतन मन में इतनी दृढ़ता से अंकित है, और यह ही हमारे मृत्यु के भय को जन्म देता है l
स्पष्टतः हम सब ही मृत्यु के भय से मुक्ति चाहते हैं l हमारे ग्रंथों में इस भय पर विजय पाने के अनेक उपायों का विस्तृत वर्णन है l हमारे संतों ने भी इन उपायों का विस्तार अनेक भाषाओँ में एवं अनेक बौद्धिक स्तर वाले, शास्त्रज्ञ से लेकर साधारण मनुष्य तक, सबको समझाने के लिए किया है l इन उपायों का कई लोग अनुसरण भी करते हैं और कई, “बड़ा कठिन है”, कह कर इन उपायों का पालन नहीं करते l
यह संसार माया से बना है l माया के तीन गुण होते हैं तथा तीन प्रकार के लोग इस संसार में पाये जाते हैं l
१. सात्विक : जो वेदों में प्रतिष्ठापित आज्ञाओं का पालन करते हैं l
२. राजसिक : जो साधारण सांसारिक जीवन व्यतीत करते हैं एवं उनका उद्देश्य सांसारिक कामनाओं की पूर्ति ही होता है l
३. तामसिक : जो अनैतिकता से परिपूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं, एवं अपने उन्माद में अच्छे और बुरे के भेद से भी उदासीन रहते हैं l
यद्यपि यह तीनों गुण हर जीव में समय समय पर, स्थिति के अनुसार, उदय होते हैं तथापि मुख्यतः सात्विक गुण देवताओं में, राजसी गुण मनुष्यों में और तामसी गुण राक्षसों में देखे जाते हैं l
शास्त्र कहते हैं यदि स्वर्ग का अकल्पनीय, परन्तु नश्वर सुख चाहो, तो वेदों का अक्षरशः पालन कर सात्विक जीवन यापन करो l ये लोग नियमित समय के लिये स्वर्ग के सुख भोग कर पुनः भवाटवी में चक्कर लगते हैं ।
राजसी वृत्ति वाला संसार में अपनी इच्छाओं की पूर्ति हेतु प्रयत्नशील रहता है किन्तु मर्यादित जीवन व्यतीत करता है l अतः यदि औरों की सहायता करने से उनकी स्वार्थहानी न हो तो वह परोपकारी बने रहते हैं l मायिक विषयों का अनुसरण करने के कारण ये भी भवाटवी में चक्कर लगते हुए दुःखमय जीवन व्यतीत करते हैं l
यदि कोई नरक गमन के लिए ही इच्छुक हो तो वह वेदों की और संतों की वाणी की अवहेलना कर, भोग विलास में अपना जीवन यापन करे, और अंत में नरक के कष्ट झेले और भवाटवी में चक्कर लगाये ।
वस्तुतः यह विदित होना चाहिए की सात स्वर्ग, एक मृत्यु(पृथ्वी) लोक, अट्ठाइस(28) नरक सब माया के आधीन हैं और यहाँ चिर सुख एवं शांति कदापि नहीं मिल सकती हैं l
भगवान् श्री कृष्ण गीता में कहते हैं,
आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।
“ब्रह्मलोक पर्यन्त समस्त लोक नश्वर हैं l वहां तक जा कर भी जीव को इसी भव बंधन में लौटना पड़ता है l”
इन सब लोकों में दुख है, अशान्ति है, अपूर्णता है, जीवन मरण का चक्कर है । अर्थात यह कह सकते हैं कि स्वर्ग प्रथम श्रेणी की जेल है, पृथ्वी लोक द्वितीय श्रेणी की जेल है और नरक तृतीय श्रेणी की जेल है l अतः ज्ञात रहे, प्रत्येक सांसारिक कामना पूर्ती का लक्ष्य अंत में कष्ट ही प्रदान करता है l
इन से परे, जो जीव, अनंत दिव्यानंद की कामना रखते हैं, वे भगवान् के कमल रूपी चरणों की शरण ग्रहण करते हैं l भगवान् अनंत दिव्यानंद के मूर्तिमान स्वरुप हैं तथा मायाधीश हैं, अतः माया भगवान् के सामने टिक भी नहीं सकती है l
यहाँ विडम्बना यह है की निश्चित रूप से हम मरने से डरते हैं, परन्तु जो भगवान् मृत्यु से अभय प्रदान कर सकता है, हम मन बुद्धि उस समर्पित नहीं करते I ये तो वही मिसाल हुई कि हम विशेष योग्यता से उत्तीर्ण तो होना चाहते हैं पर पढ़ने से कतराते हैं !
अज्ञानता वश हम इस शरीर को ‘मैं’ मानते हैं, और इस शरीर के सम्बन्धियों ( माँ, बाप, भाई बहिन, स्त्री, पति, मित्रादि ) को हम अपना सच्चा नातेदार मानते हैं l मृत्यु के भय से छुटकारा पाने के लिए सर्वप्रथम हमको यह अज्ञान हटाना होगा कि ‘मैं’ यह शरीर हूँ, और इस शरीर के नातेदार मेरे असली नातेदार हैं l यह नातेदार शरीर के सम्बन्धी इस शरीर के रहने तक ही रहेंगे l तत्पश्चात जब यह शरीर मृत्यु को प्राप्त होगा, इस शरीर से आत्मा निकल कर दूसरा शरीर धारण करेगी l तब उस योनी में नवीन सम्बन्धियों ( माँ, बाप, भाई बहिन, स्त्री, पति, मित्रादि) का फिर सृजन होगा l
किन्तु ज्ञात रहे भगवान् से ही हमारा सम्बन्ध चिरकाल से है, यह भाव सतत बढ़ाना होगा l
पुनः निम्नलिखित तीन तथ्यों को दिन भर में अनेक बार दोहराना होगा l यह तथ्य हमारे शास्त्रों द्वारा मान्य हैं, और अंततोगत्वा इनके दोहराने से हमको इन तथ्यों पर अपने विश्वास को सुदृढ़ करना है l
१. प्रभु प्रत्येक चेतन जीव के हृदय में विद्यमान हैं, चाहे वो जीव किसी भी योनि में हो जैसे कुत्ता, पेड़, जीवाणु आदि l
२. प्रत्येक क्षण प्रत्येक स्थान पर भगवान् की उपस्थत हैं: यह अनुभव करने के दो फायदे हैं,
1. यदि हम कोई ग़लत काम करने जा रहे हों, और यह याद आ जाये कि भगवान प्रत्येक कर्म को देख रहा है, तो हम अपराध से बच जायेंगे ।
2. यह की आनंदकंद श्री कृष्ण को जब हम अपने अंतःकरण से हर पल अनुभव करेंगे तो अकथनीय सुख का अनुभव होगा, यह ही सहज भक्ति है l
३. भगवान् ही सिर्फ हमारे हैं: ऐसे अभ्यास करने से मन माया के अनेक विकारों से शुद्ध हो जायगा और यह भावना कि भगवान् ही सिर्फ हमारे हैं प्रबल होती जायगी l
यदि यह भावना कि भगवान् ही सिर्फ हमारे हैं, प्रगाढ़ हो जाये, तब हम हर समय मन से श्री कृष्ण के रूपध्यान में निमग्न रहेंगे, मृत्यु के समय में भी हम श्री कृष्ण के रूप ध्यान में निमग्न होंगे l भगवान् श्री कृष्ण ने भागवत में कहा है -
इन सब लोकों में दुख है, अशान्ति है, अपूर्णता है, जीवन मरण का चक्कर है । अर्थात यह कह सकते हैं कि स्वर्ग प्रथम श्रेणी की जेल है, पृथ्वी लोक द्वितीय श्रेणी की जेल है और नरक तृतीय श्रेणी की जेल है l अतः ज्ञात रहे, प्रत्येक सांसारिक कामना पूर्ती का लक्ष्य अंत में कष्ट ही प्रदान करता है l
इन से परे, जो जीव, अनंत दिव्यानंद की कामना रखते हैं, वे भगवान् के कमल रूपी चरणों की शरण ग्रहण करते हैं l भगवान् अनंत दिव्यानंद के मूर्तिमान स्वरुप हैं तथा मायाधीश हैं, अतः माया भगवान् के सामने टिक भी नहीं सकती है l
यहाँ विडम्बना यह है की निश्चित रूप से हम मरने से डरते हैं, परन्तु जो भगवान् मृत्यु से अभय प्रदान कर सकता है, हम मन बुद्धि उस समर्पित नहीं करते I ये तो वही मिसाल हुई कि हम विशेष योग्यता से उत्तीर्ण तो होना चाहते हैं पर पढ़ने से कतराते हैं !
अज्ञानता वश हम इस शरीर को ‘मैं’ मानते हैं, और इस शरीर के सम्बन्धियों ( माँ, बाप, भाई बहिन, स्त्री, पति, मित्रादि ) को हम अपना सच्चा नातेदार मानते हैं l मृत्यु के भय से छुटकारा पाने के लिए सर्वप्रथम हमको यह अज्ञान हटाना होगा कि ‘मैं’ यह शरीर हूँ, और इस शरीर के नातेदार मेरे असली नातेदार हैं l यह नातेदार शरीर के सम्बन्धी इस शरीर के रहने तक ही रहेंगे l तत्पश्चात जब यह शरीर मृत्यु को प्राप्त होगा, इस शरीर से आत्मा निकल कर दूसरा शरीर धारण करेगी l तब उस योनी में नवीन सम्बन्धियों ( माँ, बाप, भाई बहिन, स्त्री, पति, मित्रादि) का फिर सृजन होगा l
किन्तु ज्ञात रहे भगवान् से ही हमारा सम्बन्ध चिरकाल से है, यह भाव सतत बढ़ाना होगा l
पुनः निम्नलिखित तीन तथ्यों को दिन भर में अनेक बार दोहराना होगा l यह तथ्य हमारे शास्त्रों द्वारा मान्य हैं, और अंततोगत्वा इनके दोहराने से हमको इन तथ्यों पर अपने विश्वास को सुदृढ़ करना है l
१. प्रभु प्रत्येक चेतन जीव के हृदय में विद्यमान हैं, चाहे वो जीव किसी भी योनि में हो जैसे कुत्ता, पेड़, जीवाणु आदि l
२. प्रत्येक क्षण प्रत्येक स्थान पर भगवान् की उपस्थत हैं: यह अनुभव करने के दो फायदे हैं,
1. यदि हम कोई ग़लत काम करने जा रहे हों, और यह याद आ जाये कि भगवान प्रत्येक कर्म को देख रहा है, तो हम अपराध से बच जायेंगे ।
2. यह की आनंदकंद श्री कृष्ण को जब हम अपने अंतःकरण से हर पल अनुभव करेंगे तो अकथनीय सुख का अनुभव होगा, यह ही सहज भक्ति है l
३. भगवान् ही सिर्फ हमारे हैं: ऐसे अभ्यास करने से मन माया के अनेक विकारों से शुद्ध हो जायगा और यह भावना कि भगवान् ही सिर्फ हमारे हैं प्रबल होती जायगी l
यदि यह भावना कि भगवान् ही सिर्फ हमारे हैं, प्रगाढ़ हो जाये, तब हम हर समय मन से श्री कृष्ण के रूपध्यान में निमग्न रहेंगे, मृत्यु के समय में भी हम श्री कृष्ण के रूप ध्यान में निमग्न होंगे l भगवान् श्री कृष्ण ने भागवत में कहा है -
विषयान् ध्यायतश्चित्तं विषयेषु विषज्जते ।
मामनुरस्मरश्चित्तं मय्येवप्रविलीयते ॥ भा १०.१४.२७
मामनुरस्मरश्चित्तं मय्येवप्रविलीयते ॥ भा १०.१४.२७
“जो मायिक वस्तुओं का ध्यान करते हैं, उनको मायिक वस्तुओं की प्राप्ति होती है, जो मेरा ध्यान करते हैं, उन्हें मैं प्राप्त होता हूँ l “
इसी सिद्धांत को पुनः श्री कृष्ण गीता में भी दोहराते हैं -
इसी सिद्धांत को पुनः श्री कृष्ण गीता में भी दोहराते हैं -
यान्ति देवव्रता देवान्, पितृन्यान्ति पितृव्रताः ।
भूतानि यान्ति भूतेज्या, मद्भक्ता यान्ति मामपि ॥ गीता ९.२५
भूतानि यान्ति भूतेज्या, मद्भक्ता यान्ति मामपि ॥ गीता ९.२५
"जो देवताओं का ध्यान करते हैं उनको देवता लोग प्राप्त होते हैं, जो पितरों का ध्यान करते हैं, उनको अपने पितृजन प्राप्त होते हैं, जो मायिक वस्तुओं का ध्यान करते हैं उनको वे सब वस्तुएं प्राप्त होती हैं, परन्तु जो मेरा ध्यान करते हैं उनको मैं प्राप्त होता हूँ l"
दोनों ही श्लोकों में भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं, जो सतत मेरा चिंतन करता है, वो मेरे पास आ जाता है l अंततः यदि आप गोलोक पाना चाहते हैं, तो श्री कृष्ण के शरणागत हो जाइये l यह कितना सरल है !!! बस इतना ही करना है, कि कोई भी शारीरिक या मानसिक कार्य करते हुए भगवान् की उपस्थिति का भान रहे और यह भी भान रहे कि समस्त कार्य उनकी ख़ुशी के लिए कर रहे हैं l |
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्। गीता ९.२७
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्। गीता ९.२७
“समस्त कार्य, भोजन, दान, जप, तप इत्यादि सब ईश्वर ईश्वर को प्रसन्न करने के लिये करें।“
यदि आप को लगे की इससे ईश्वर अप्रसन्न होंगे, तो उसे तुरन्त त्याग दें । मृत्यु के भय पर विजय और चिरकाल के लिये गोलोक प्राप्त करने का इससे आसान और कोई उपाय हो ही नहीं सकता l वस्तुतः जैसा आपने पहले कहा, कि गोलोक का मार्ग दर्शन करने के लिए एक पथप्रदर्शक या गुरु की आवश्यकता पड़ेगी l यह गुरु ऐसा होना चाहिए जो स्वयं गोलोक प्राप्त कर चुका हो अन्यथा सदा भ्रमित हो जाने का खतरा रहेगा l वेद कहते हैं - |
तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणि: क्षोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्॥
"गुरु भगवत प्राप्त महापुरुष (practical man) होना चाहिए जिसको समस्त वेदों के तत्वज्ञान भी हो l "
अतएव, गुरु और शास्त्रों की अवहेलना कर, जो कष्टमय राह चुनते हैं वे मृत्यु के भय से त्रस्त रहते हैं l परन्तु जो गुरु के आदेशानुसार परम सुख को पाने की राह चुनते हैं, वे सदा के लिए दिव्यानंद में सराबोर हो, प्रभु के दिव्य लोक में विहार कर, मृत्यु के भय की मृत्यु का उत्सव मनाते हैं l
अतएव, गुरु और शास्त्रों की अवहेलना कर, जो कष्टमय राह चुनते हैं वे मृत्यु के भय से त्रस्त रहते हैं l परन्तु जो गुरु के आदेशानुसार परम सुख को पाने की राह चुनते हैं, वे सदा के लिए दिव्यानंद में सराबोर हो, प्रभु के दिव्य लोक में विहार कर, मृत्यु के भय की मृत्यु का उत्सव मनाते हैं l
अन्य कार्य करते समय भी अनुकूल भाव से समरण करते रहना चाहिये ।
Even while performing worldly duties one should remain engaged in loving remembrance of God.
- Jagadguru Shri Kripalu Maharaj
Even while performing worldly duties one should remain engaged in loving remembrance of God.
- Jagadguru Shri Kripalu Maharaj