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लोकादर्श स्थापन​ किसका कर्तव्य है?

Read this article in English
श्री कृष्ण ने द्वापर युग में संसार में धर्म की स्थापना तथा अधर्म के नाश हेतु पूर्व निर्धारित नियति के अनुसार अर्जुन को निमित्त बनाया। उस काल में शंखनाद करके युद्ध के प्रारंभ की घोषणा की जाती थी।

कुरुक्षेत्र की युद्ध भूमि में शंखनाद द्वारा महाभारत के युद्ध के प्रारंभ की घोषणा होने के पश्चात अर्जुन ने अपने अधर्मी संबंधियों के विरुद्ध युद्ध करने से मना कर दिया।

​श्री कृष्ण ने उसको युद्ध करने के लिए यह कहकर प्रेरित किया कि-
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन | नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि || 3.22||
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रित: | मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश: || 3.23||
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"अर्जुन इस त्रैलोक्य मैं मेरा कुछ भी प्राप्तव्य नहीं है परंतु फिर भी मैं अपने कर्तव्यों का निर्वहन करके सभी को कर्मयोग का उदाहरण प्रस्तुत करता हूँ ताकि लोग मेरा अनुकरण करें, विकर्मी न बन जाएँ। और तू भी अपने कर्मों का निर्वहन कर”। 

अर्जुन क्षत्रिय कुल में पैदा हुआ था। वेद के अनुसार क्षत्रिय का कर्तव्य है धर्म की रक्षा करना । अर्जुन परलोक के भय के कारण कायरों की भांति शस्त्र डाल कर बैठा था । अर्जुन का निर्णय बदलने के लिए श्री कृष्ण ने अर्जुन को उसका क्षत्रिय धर्म याद दिलाया “तू इतिहास में सभी का प्रेरणा स्रोत बनेगा । युद्ध में निर्दोषों की रक्षा करके शास्त्र में लिखित क्षत्रिय धर्म का पालन कर (अर्थात लोकादर्श स्थापित कर)।”

​​माया बद्ध लोग इस कथन का अर्थ अपने संदर्भ में इस प्रकार करते हैं “हमें अपने कर्मों से दूसरों के लिए उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए”। क्या श्री कृष्ण के द्वारा अर्जुन से कहे गए  वचनों का आशय लोग सही-सही ग्रहण कर रहे हैं?

क्या लोकादर्श स्थापित करना सच में हम मायाबद्ध जीवों का कर्तव्य है?
Pictureक्या लोकादर्श स्थापित करना हमारा कर्तव्य है? ​​​
कृपया इस बात पर विचार कीजिए। आदर्श स्थापन केवल और केवल वही कर सकते हैं - 
  • जिनका ज्ञान परिपूर्ण हो ।
  • जो निःस्वार्थ भाव से कार्य करते हों ।
  • जिनकी क्रियाएँ अनुकरणीय हों ।

हम सभी अज्ञानी हैं और अज्ञानता वश हम उल्टे सीधे कार्य करते हैं। जब जहाँ स्वार्थ सिद्धि की आशा दिखी तब वहाँ वैसा कर्म करने लगे ।  दिन में अनेकों बार हमारी चित्त वृत्ति बदलती रहती है तो उसके अनुसार हमारे कर्म भी बदलते रहते हैं। ऐसी स्थिति में हम किसी आदर्श की स्थापना कैसे कर सकते हैं?

वेदाज्ञा पालन करना उनका लक्ष्य है जिनको भगवत प्राप्ति करनी है । अतः वैदिक नियमों को मायिक जीव पालन करते हैं, संतों पर वैदिक नियम लागू नहीं होते। यह सर्वविदित है कि भगवत प्राप्त संत वैदिक नियमों से परे हैं। इसको कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है जैसे नदी पार करने के पश्चात नाव की आवश्यकता नहीं रहती। किसी स्कूल को पास करने के बाद स्कूल के नियमों का पालन करना आवश्यक नहीं ठीक इसी प्रकार भगवान को प्राप्त करने के पश्चात वह संत माया से परे हो जाता है और वेदों के नियम उस पर नहीं लागू होते हैं। वेदों का दुंदुभी घोष है कि संत और भगवान में कोई अंतर नहीं होता तथा संत भी उन सभी भगवदीय​ शक्तियों से युक्त हो जाता है । अतः भगवान के समान संत भी वेदों से परे हैं।

ब्रह्मविद् श्रुतिमूर्ध्नि
“संत वेदों के मस्तक पर पैर रखकर चलने के अधिकारी हो जाते हैं" क्योंकि उन्होंने जीवन के परम चरम लक्ष्य को प्राप्त कर लिया है।

यद्यपि भगवान तथा भगवत प्राप्त संतो के लिए वर्णाश्रम धर्म का पालन अनिवार्य नहीं है तथापि कुछ संत लोकादर्श स्थापन हेतु वर्णाश्रम धर्म का पालन करते हैं । उनका यह आचरण जनसाधारण के लिए अनुकरणीय होता है ।  जिस प्रकार साधारण जीव मायिक कर्म करते समय माया में लिप्त हो जाता है उसके विपरीत संत माया के कर्म करते हुए भी माया से परे परमानंद में डूबे रहते हैं ।

भगवान तथा कुछ भगवद् प्राप्त संत  लोक में आदर्श की स्थापना के लिए वेदाज्ञा का पालन करते हैं।  जिससे जनता जनार्दन उनका अनुकरण कर और उच्श्रृंखल ना हो जाए ।  क्योंकि संतो की भक्ति परिपक्व हो चुकी है अतः वर्णाश्रम धर्म का पालन करते हुए भी वे दिव्यानंद में निम्मज्जित रहते हैं । लोक आदर्श की स्थापना करना अथवा न करना यह संत की इच्छा पर निर्भर है । कुछ संत आदर्श स्थापन करते हैं परंतु कुछ संत इन वैदिक नियमों की अवहेलना करते हैं।

उदाहरणार्थ श्री हित हरिवंश, श्री हरिदास जी, श्री ऋषभदेव जी, मीराबाई आदि सदैव दिव्यानंद में निमग्न रहे । इनके विपरीत पूर्व में हुए चारों जगद्गुरु तथा हमारे गुरु श्री महाराज जी जीवात्माओं के आध्यात्मिक उत्थान के लिए आजीवन कटिबद्ध रहे । इसके अतिरिक्त श्री महाराज जी ने मानव जीवन को सफल बनाने वाले क्रियाकलापों का आदर्श भी स्थापित किया।
तो क्या हमें भी आदर्श स्थापित करना चाहिए?

हम मायिक जीव​ किसी के लिए किसी प्रकार का आदर्श स्थापन नहीं कर सकते क्योंकि हमें अपने जीवन का लक्ष्य ही पता नहीं है। हमारे मानसिक संतुलन को छोटी सी सांसारिक विपत्ति ही  बिगाड़ देती है। परंतु संत तथा भगवान आत्माराम है। उनको अनंत आनंद प्राप्त है तथा वे सर्वज्ञ भी हैं। उनके पास योगमाया की शक्ति है जिससे​ -
कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुं समर्था
“जो चाहे करे, जो चाहे ना करे, जो चाहे उल्टा करे”

ऐसी दिव्य शक्ति जिनको प्राप्त है वही लोग आदर्श की स्थापना कर सकते हैं। हमारा तो यह फटीचर हाल है कि हम उनका अनुकरण भी पूर्णतया नहीं कर पाते। अतः हमें उनका अनुसरण नहीं करना है वरन अपनी आध्यात्मिक स्थिति के अनुसार उनके बताए मार्ग पर चलना है। वेदव्यास जी ने भागवत में लिखा है
ईश्वराणां वचः सत्यं तथैवाचरितं क्वचित् ।
तेषां यत् स्ववचोयुक्तं बुद्धिमांस्तत् समाचरेत् ॥
Pictureनारद जी और श्री कृष्ण द्वारिका में
“ईश्वरों के समस्त कर्म वंदनीय होते हैं। तथापि बुद्धिमान व्यक्ति उन सबका अनुसरण नहीं करते। अनुसरण केवल उन्हीं कार्यों का करना चाहिए जो जीव के आध्यात्मिक स्तर के अनुरूप हों”। साधकों के नियम सिद्ध के नियमों से भिन्न होते हैं।

श्री कृष्ण ने 16108 विवाह किए । ब्रह्मर्षि  नारद जी को आश्चर्य हुआ कि ये अपनी सभी पत्नियों को संतुष्ट कैसे कर पाते हैं अतः एक दिन नारद जी द्वारका पहुँचे। वहाँ उन्होंने देखा कि वो एक ही समय में सभी रानियों के कक्ष में उपस्थित हैं तथा सभी रानियाँ उनसे पूर्णतया संतुष्ट हैं । प्रत्येक रानी के 10 पुत्र हैं। कालांतर में सभी आपस में लड़ कर मर गए। इन सभी परिस्थितियों में श्री कृष्ण आत्माराम है।

विचार कीजिए क्या ऐसा संभव है कि कोई मनुष्य इतने विवाह करे और पूर्ण काम भी रहे । और सारी संतान एक दूसरे का वध कर दें और फिर भी पूर्ण काम बना रहे!  क्या किसी मनुष्य में ऐसी शक्ति आपने देखी है ? आम जनता के अंतःकरण तो व्यवसाय में घाटा, किसी एक प्रिय जन की मृत्यु ही विचलित करने में पर्याप्त है ।

भगवान शंकर ने अत्यंत जहरीला पदार्थ "हलाहल" पी लिया ।उसको कंठ में धारण करने के कारण उनका एक नाम नीलकंठ है। साधारण मनुष्य यदि 5 ग्राम संखिया खा लेगा तो जीरो बटे सौ हो जाएगा।

हम  मायिक जीवों के लिए ऐसी शक्ति ही कल्पना अतीत है?

उपर्युक्त दो उदाहरण भगवान तथा उनके स्वांश के थे । अब आपके समक्ष एक जीव कोटि के संत  के द्वारा लोक आदर्श स्थापन का उदाहरण प्रस्तुत है ​।

प्रह्लाद ने बाल्य अवस्था में ही भगवत प्राप्ति कर ली थी और करोड़ों वर्षों तक संपूर्ण पृथ्वी पर राज्य किया । उनका इकलौता पुत्र विरोचन राजकाज का एकमात्र उत्तराधिकारी था ।  यह उस समय की बात है जब विरोचन और प्रहलाद के गुरुपुत्र युवावस्था में थे । दोनों को एक ही लड़की से प्रेम हो गया । दोनों ने निर्णय किया कि जो हम दोनों में अधिक सम्माननीय होगा वही विवाह करेगा तथा दूसरे को मृत्युदंड मिलेगा।

Pictureभक्त प्रह्लाद और उनके पुत्र​​ विरोचन​
गुरु पुत्र ने कहा मेरे पिताजी कहते हैं कि प्रह्लाद निष्पक्ष न्याय करते हैं वह सही निर्णय करेंगे ।
विरोचन ने कहा प्रह्लाद मेरे पिता हैं यदि उन्होंने मेरे पक्ष में निर्णय दिया तो तुम्हें आपत्ति हो सकती है ।
इस पर गुरु पुत्र ने कहा कि मेरे पिता ने कहा है कि प्रह्लाद कभी भी पक्षपात नहीं कर  सकता ।अतः वो सही निर्णय देंगे ।

दोनों प्रहलाद के पास निर्णय के लिए पहुंचे ।प्रह्लाद ने कहा मेरे गुरु मुझसे अधिक सम्माननीय हैं अतः गुरु पुत्र मेरे पुत्र से अधिक सम्माननीय है। शर्त के अनुसार विरोचन को फांसी दे दी जाए।


जैसे ही विरोचन को फांसी पर चढ़ाया जाने लगा गुरु पुत्र ने सैनिकों को रोककर प्रह्लाद से कहा, प्रह्लाद ! कौन अधिक सम्माननीय है ,तुम या मैं? प्रह्लाद ने प्रणाम करते हुए कहा, "आप अधिक सम्माननीय हैं क्योंकि आप मेरे गुरु पुत्र हैं ।"

तब गुरु पुत्र ने कहा कि तुम्हें मेरी आज्ञा पालन करनी होगी । प्रह्लाद  ने कहा, “अवश्य मुझे सहर्ष स्वीकार है। यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं भी अपने  बेटे के साथ फांसी पर चढ़ जाऊं”?

गुरु पुत्र ने कहा,"विरोचन को छोड़ दिया जाए।" प्रह्लाद ने विरोचन को छोड़ने आदेश दे दिया।


प्रह्लाद, “विरोचन को फांसी पर चढ़ा दो" या "छोड़ दो”, आदेश देने में लेश मात्र भी विचलित नहीं हुए। न ही उनकी वाणी लड़खड़ाई, न ही पैर कांपे, न ही हृदय की धड़कन बढ़ी। वो बिल्कुल सहज थे।

प्रह्लाद तनिक भी विचलित नहीं हुए; वे प्रत्येक स्थिति में निष्पक्ष, न्यायी तथा सहज बने रहे। उनके इस आचरण को देखकर देवताओं ने प्रह्लाद के ऊपर फूलों की वर्षा की। प्रह्लाद ने "न्यायी राजा" का आदर्श स्थापित किया। ऐसा व्यवहार भगवत प्राप्ति के पूर्व​ संभव नहीं है। भगवत प्राप्ति के बाद सभी नश्वर संबंध समाप्त हो जाते हैं तथा मायिक​ वस्तुओं की आसक्ति भी समाप्त हो जाती है। और ऐसी समाप्त होती है कि अनंत काल तक पुनः कोई आसक्ति उत्पन्न हो ही नहीं सकती । इस अवस्था पर पहुंचकर कोई पक्षपात कैसे कर सकता है?

आदर्श स्थापन करना अत्यंत उच्च कोटि का कार्य है ।अतः साधारण मायाबद्ध अन्य जीवों के लिए आदर्श स्थापन नहीं कर सकता। उसमें ऐसी शक्ति ही नहीं है । जैसे सर्वप्रथम व्यक्ति तैरना सीखता है फिर अभ्यास से अच्छा तैराक बनता है फिर कुछ परीक्षाओं को पास करके जीवन रक्षक बनता है। प्रारंभ में तो वह स्वयं को भी नहीं बचा सकता था यदि उस अवस्था में वह दूसरों को डूबने से बचाने का प्रयत्न करता तो उस व्यक्ति के साथ स्वयं भी डूब जाता।
सारांश :-
अतः मानव जीवन के बहुमूल्य क्षणों को आदर्श स्थापन में नहीं गँवाना चाहिए। इस मानव जीवन का उचित प्रयोग यही है कि हम गुरु आज्ञा पालन द्वारा उस आध्यात्मिक अवस्था पर पहुँचें जहाँ से हम दूसरों के लिए आदर्श की स्थापना करने के अधिकारी बन जाएँ ।
जब तक दृढ़ निश्चय न हो जाए तब तक शास्त्र रक्षा के चक्कर में ना पड़े । अगर दृढ़ता से पहले ही शास्त्र की रक्षा के चक्कर में पड़ जाओगे तो भक्ति से च्युत​ (गिर) हो जाओगे । यह आचार्यों का काम है जिनके पास इतनी शक्ति है कि ”बाजार से गुजरे हैं खरीदार नहीं है”
नारद भक्ति सूत्र​​
Jagadguruttam Swami Shri Kripalu Ji Maharaj
जगद्गुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज
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