मुझसे भक्ति क्यों नहीं होती? |
मेरे 45 वर्षों की प्रचार अवधि में सैकड़ों लोगों ने एक प्रश्न अनेकानेक बार किया है। वह प्रश्न क्या है ”हमें समझ में तो आ गया है कि भक्ति ही करनी है तो फिर हम भक्ति क्यों नहीं करते?” इसका उत्तर मैंने अनेकों बार अनेक प्रवचनों में दिया है तथा इस प्रश्न का उत्तर वेबसाइट पर भी दिया है। और आपने श्री महाराज जी के श्री मुख से भी सुना होगा।
फिर भी यह प्रश्न इतना व्यापक है इसलिये इसका उत्तर में एक बार फिर अलग ढंग से देती हूँ। इस बार इसका उत्तर मैं श्री महाराज जी के राधा गोविंद गीत के दोहों से दे रही हूँ।
फिर भी यह प्रश्न इतना व्यापक है इसलिये इसका उत्तर में एक बार फिर अलग ढंग से देती हूँ। इस बार इसका उत्तर मैं श्री महाराज जी के राधा गोविंद गीत के दोहों से दे रही हूँ।
भक्ति व्यवधान तीन गोविंद राधे। मल विक्षेप आवरण बता दे॥ राधा गोविंद गीत 5893
"भक्ति करने में तीन मुख्य व्यवधान अर्थात बाधाएँ हैं - मल, विक्षेप, व आवरण"।
आइए इन तीनों व्यवधानों की तथा उनके वारण की संक्षिप्त विवेचना करते हैं।
आइए इन तीनों व्यवधानों की तथा उनके वारण की संक्षिप्त विवेचना करते हैं।
![कृपालु जी महाराज](/uploads/1/9/8/0/19801241/editor/smj-1.jpeg?1668208172)
1. प्रथम है मन की मलिनता। शास्त्रीय भाषा में मन में विषय सुख की कामनाओं को मलिनता कहते हैं। यह प्रथम एवं सबसे बड़ी बाधा है। हमारी गाड़ी अनादिकाल से इसी स्टेशन पर रुकी हुई है। अनादि काल से मन ने सांसारिक विषयों में सुख की कल्पना की है। अतः मन में यह प्रगाढ़ निश्चय है कि संसार में सुख है। हमें अभी तक नहीं मिला किंतु मिलने ही वाला है। बस यह वस्तु मिल जाये तो सुख मिल जायेगा। वह मिल गई तो बस यह थोड़ा सा और मिल जाये तो सुख मिल जायेगा। यही थोड़ा-थोड़ा करते-करते अनादिकाल से आज तक बहुत कुछ मिला (1) किंतु सुख नहीं मिला। सतत चिंतन के कारण सारी वस्तुओं में आसक्ति बढ़ती ही चली गई अर्थात मन में मल बढ़ता चला गया। यही आसक्ति भक्ति करने में बाधा है। यदि आपका मन अनासक्त (न्यूट्रल) होता तब यदि कोई संत महात्मा आपको बता देता कि "भगवान में सुख है उस ओर जाओ" तो आप तत्परता से उस ओर चलने लगते। परंतु क्योंकि मन पूर्वासक्त है इसलिए जब आप साधना भक्ति का दैनिक अभ्यास करने बैठते हैं तो मन अपने पूर्वाभ्यास के कारण अनायास वापस संसार में चला जाता है। वही संसारी चिंतन मन को मीठा लगता है। तो यह है सबसे पहली और बड़ी अड़चन।
श्री महाराज जी ने असीम अनुकंपा करके केवल बाधा का बोध ही नहीं कराया अपितु उस बाधा को हटाने की दवा भी इसके अगले दोहे में बताई है।
श्री महाराज जी ने असीम अनुकंपा करके केवल बाधा का बोध ही नहीं कराया अपितु उस बाधा को हटाने की दवा भी इसके अगले दोहे में बताई है।
मल का निवारण गोविंद राधे। भक्ति की तीव्रतम इच्छा बता दे॥ राधा गोविंद गीत 5894
![गुरु अज्ञान को दूर करते हैं](/uploads/1/9/8/0/19801241/editor/puzzle-head-1.jpeg?1668004484)
भक्ति की तीव्र इच्छा से धीरे-धीरे मल का नाश होता जाता है।
प्रश्न उठता है तीव्र इच्छा कैसे पैदा हो ?
जीव की अल्पज्ञता की यह स्थिति है कि उसे यही नहीं मालूम कि वह चाहता क्या है तो ऐसी स्थिति में सर्वप्रथम तो ज्ञान की आवश्यकता होगी (2)। ऐसा ज्ञान केवल क्षोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष ही प्रदान कर सकता है क्योंकि उसका अज्ञान समाप्त हो गया है। तो सर्वप्रथम किसी महापुरुष की शरणागति स्वीकार करनी होगी। याद रखिए। अभी महापुरुष आपको शिष्य नहीं बनाएगा। सर्वप्रथम आपको शरणागति स्वीकार करनी होगी। गुरु के द्वारा तत्वज्ञान प्राप्त करना होगा। अर्थात् दृढ़ता पूर्वक यह निश्चय व विश्वास करना होगा कि गुरुजी हमारे कल्याण की बात ही बतायेंगे। पुनः चिंतन-मनन करके ज्ञान में प्रगाढ़ता लानी होगी।
जितना आपका निश्चय दृढ़ होता जाएगा उतनी ही भक्ति की इच्छा तीव्र होती जाएगी। इच्छा तीव्र होने से मल का नाश होगा। और उससे भक्ति की इच्छा और तीव्र हो जाएगी। यह प्रक्रिया धीरे-धीरे मन को साफ करती जाएगी और गुरु के वाक्यों पर विश्वास बढ़ता जाएगा।
प्रश्न उठता है तीव्र इच्छा कैसे पैदा हो ?
जीव की अल्पज्ञता की यह स्थिति है कि उसे यही नहीं मालूम कि वह चाहता क्या है तो ऐसी स्थिति में सर्वप्रथम तो ज्ञान की आवश्यकता होगी (2)। ऐसा ज्ञान केवल क्षोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष ही प्रदान कर सकता है क्योंकि उसका अज्ञान समाप्त हो गया है। तो सर्वप्रथम किसी महापुरुष की शरणागति स्वीकार करनी होगी। याद रखिए। अभी महापुरुष आपको शिष्य नहीं बनाएगा। सर्वप्रथम आपको शरणागति स्वीकार करनी होगी। गुरु के द्वारा तत्वज्ञान प्राप्त करना होगा। अर्थात् दृढ़ता पूर्वक यह निश्चय व विश्वास करना होगा कि गुरुजी हमारे कल्याण की बात ही बतायेंगे। पुनः चिंतन-मनन करके ज्ञान में प्रगाढ़ता लानी होगी।
जितना आपका निश्चय दृढ़ होता जाएगा उतनी ही भक्ति की इच्छा तीव्र होती जाएगी। इच्छा तीव्र होने से मल का नाश होगा। और उससे भक्ति की इच्छा और तीव्र हो जाएगी। यह प्रक्रिया धीरे-धीरे मन को साफ करती जाएगी और गुरु के वाक्यों पर विश्वास बढ़ता जाएगा।
![साधना भक्ति](/uploads/1/9/8/0/19801241/t-i-redo_orig.jpeg)
एतदर्थ, प्रथम तो सांसारिक विषयों का चिंतन बंद करना होगा। इस चिंतन को बंद करने के लिए श्री महाराज जी ने कई उपाय बताए हैं यथा -
आपकी इच्छा तीव्र कोई और नहीं बनाएगा। आपको स्वयं ही अपनी इच्छा को तीव्र बनाने के लिए उसमें समय तथा श्रम का निवेश करना होगा।
- सर्वप्रथम यह याद रखिए “मृत्यु अवश्यंभावी है और किसी भी क्षण आ सकती है”। जब यह याद रहेगा, तब भगवान स्वतः याद आएँगे ।
- श्वास–श्वास से राधे नाम का जप कीजिए।
- प्रारंभ में हर 15 मिनट में हरि गुरु को अपने सामने निरीक्षक के रूप में खड़ा कीजिए। हर 15 मिनट में ध्यान करने का अभ्यास हो जाए तो वह अवधि कम करते जाइए।
आपकी इच्छा तीव्र कोई और नहीं बनाएगा। आपको स्वयं ही अपनी इच्छा को तीव्र बनाने के लिए उसमें समय तथा श्रम का निवेश करना होगा।
![जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज](/uploads/1/9/8/0/19801241/smj-2_orig.jpeg)
2. दूसरी बाधा है विक्षेप अर्थात मन की चंचलता व मानसिक बीमारियाँ यथा, काम, क्रोध, मद, मात्सर्य, ईर्ष्या, राग, द्वेष इत्यादि (3)। यह सब माया के विकार हैं। मन माया का पुत्र है तथा जीव के साथ अनादिकाल से संलग्न है (4)। प्रारब्धजन्य तथा अप्रारब्धजन्य कारणों से मन में यह सब विकार नित्य विद्यमान रहते हैं और अवसर प्रस्तुत होते ही प्रकट हो जाते हैं।
अर्जुन ने भी श्रीकृष्ण से यही कहा कि -
अर्जुन ने भी श्रीकृष्ण से यही कहा कि -
चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढ़म्। तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्॥ गीता 6.34
“महाराज मन बड़ा चंचल है। मन कभी नभ में चला जाता है कभी पाताल में चला जाता है। वायु से भी तेज मन की गति है”।
श्री कृष्ण ने अर्जुन को सहमति दी और साथ ही उपाय भी बताया - असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥ गीता 6.35 “निसंदेह अर्जुन मन बहुत ही दुराग्रही और चंचल है। किंतु अभ्यास और वैराग्य से इस को वश में किया जा सकता है।”
तो ऐसे चंचल मन को वश में कैसे करें? दिव्य प्रेम प्राप्त संतों में समुद्र के समान गंभीरता होती है। वे सांसारिक सुख दुख में छिछली नदी की तरह सूखते या बाढ़ ग्रस्त नहीं होते। संतो के समान गंभीर अवस्था प्रारंभ में हमारी नहीं होगी। |
विक्षेप वारण गोविंद राधे। श्री कृष्ण साधन भक्ति बता दे॥ राधा गोविंद गीत 5895
“मन को स्थिर करने के लिए श्री कृष्ण भक्ति की साधना करनी होगी।”
प्रारंभ में मन को संसार से हटाने का तथा भगवान में लगाने का अभ्यास करना होगा। जहाँ भी मन जाए वहाँ श्री कृष्ण (5) को तुरंत खड़ा करो (6)। इसी को गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है अभ्यास वैराग्य। इसी को साधना भक्ति कहा जाता है। अभी तो हमारा मन टीवी पर रोमांचक कार्यक्रम देखना, संसार में विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थों को खाना, भिन्न-भिन्न स्थानों का भ्रमण करना जैसे क्षणिक सुख चाहता है। वह चंचलता साधना भक्ति से शनैः-शनैः समाप्त होती जाएगी।
प्रारंभ में मन को संसार से हटाने का तथा भगवान में लगाने का अभ्यास करना होगा। जहाँ भी मन जाए वहाँ श्री कृष्ण (5) को तुरंत खड़ा करो (6)। इसी को गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है अभ्यास वैराग्य। इसी को साधना भक्ति कहा जाता है। अभी तो हमारा मन टीवी पर रोमांचक कार्यक्रम देखना, संसार में विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थों को खाना, भिन्न-भिन्न स्थानों का भ्रमण करना जैसे क्षणिक सुख चाहता है। वह चंचलता साधना भक्ति से शनैः-शनैः समाप्त होती जाएगी।
![जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज](/uploads/1/9/8/0/19801241/smj-3_orig.jpeg)
3. तीसरी बाधा है आवरण (4)। भगवान के ऊपर योगमाया का आवरण है और जीव के ऊपर माया का आवरण है। इसलिए जीव और परात्पर ब्रह्म का मिलन नहीं होता। अतः जीव को परात्पर ब्रह्म का रस नहीं प्राप्त होता। संसार में भी यही विदित है की साधन करने के उपरांत ही साध्य प्राप्त होता है उदाहरणार्थ आई.ए.एस की परीक्षा उत्तीर्ण करने के उपरांत ही आई.ए.एस का ऐश्वर्य प्राप्त होता है। सर्वप्रथम आईएस के ऐश्वर्य को सुनकर अथवा पढ़कर उसके तदर्थ परिश्रम करना होगा तब परीक्षा में उत्तीर्ण होने के कुछ वर्ष पश्चात आई.ए.एस का ऐश्वर्य प्राप्त होगा। किंतु भगवत मार्ग इससे कहीं अधिक सरल है।
जीव में इतनी क्षमता नहीं है कि वह इस आवरण का वारण कर सके। इसलिए भगवान के नियम के अनुसार जीव का काम साधना भक्ति परिपक्व करने पर ही समाप्त हो जाता है। जब साधना भक्ति द्वारा अंतः करण शुद्ध हो जाएगा तब गुरु कृपा से स्वरूप शक्ति मन को दिव्य बना देगी। और मन के दिव्य होते ही माया का आवरण हट जाएगा। तब भगवान कृपा करके (7) अपना आवरण भी हटा देंगे। तब जीव ब्रह्म का मधुर मिलन होगा।
जीव में इतनी क्षमता नहीं है कि वह इस आवरण का वारण कर सके। इसलिए भगवान के नियम के अनुसार जीव का काम साधना भक्ति परिपक्व करने पर ही समाप्त हो जाता है। जब साधना भक्ति द्वारा अंतः करण शुद्ध हो जाएगा तब गुरु कृपा से स्वरूप शक्ति मन को दिव्य बना देगी। और मन के दिव्य होते ही माया का आवरण हट जाएगा। तब भगवान कृपा करके (7) अपना आवरण भी हटा देंगे। तब जीव ब्रह्म का मधुर मिलन होगा।
आवरण वारण गोविंद राधे। कृपा ते स्वरूप शक्ति प्राप्ति बता दे॥ राधा गोविंद गीत 5896
“जीव का जीवत्व तथा भगवान की भगवत्ता स्वरूप शक्ति दोनों भुला देगी तब जीव ब्रह्म का मिलन होगा।”
तो यह आवरण अभी नहीं जाएगा। आपके केवल दो काम हैं भक्ति प्राप्त करने की तीव्रतम इच्छा बनाना, फिर साधना भक्ति से मन पर नियंत्रण कर के अंतःकरण को पूर्ण शुद्ध कर लेना। साधना पूर्ण होने पर गुरु कृपा से सिद्धावस्था प्राप्त हो जाएगी। उस अवस्था में यह आवरण भी नहीं रहेंगे। श्री कृष्ण की स्वरूप शक्ति मिल जाएगी तथा जीव सदा को मालामाल हो जाएगा।
निष्कर्ष
संक्षेपतः हमारा कर्तव्य -
अपने चंचल मन को नियंत्रित करने के लिए -
शेष उत्तरदायित्व गुरु का है। अंतःकरण शुद्धि, माया निवृत्ति, ईश्वर प्राप्ति आदि लक्ष्य गुरु कृपा से स्वतः प्राप्त हो जाएँगे।
तो यह आवरण अभी नहीं जाएगा। आपके केवल दो काम हैं भक्ति प्राप्त करने की तीव्रतम इच्छा बनाना, फिर साधना भक्ति से मन पर नियंत्रण कर के अंतःकरण को पूर्ण शुद्ध कर लेना। साधना पूर्ण होने पर गुरु कृपा से सिद्धावस्था प्राप्त हो जाएगी। उस अवस्था में यह आवरण भी नहीं रहेंगे। श्री कृष्ण की स्वरूप शक्ति मिल जाएगी तथा जीव सदा को मालामाल हो जाएगा।
निष्कर्ष
संक्षेपतः हमारा कर्तव्य -
- सद्गुरु की शरणागति ग्रहण करना (8),
- जिज्ञासु भाव से उनसे ज्ञान प्राप्त करना है
अपने चंचल मन को नियंत्रित करने के लिए -
- अपने गुरु द्वारा बताई गई साधना को करने में दृढ़ रहें
शेष उत्तरदायित्व गुरु का है। अंतःकरण शुद्धि, माया निवृत्ति, ईश्वर प्राप्ति आदि लक्ष्य गुरु कृपा से स्वतः प्राप्त हो जाएँगे।
और यह बात सदा याद रहे की किसी भी अन्य साधन से लक्ष्य प्राप्ति असंभव है। तत्वज्ञान की तलवार से आपको स्वयं अपने अज्ञान का आभेदन करना होगा। अनंत आनंद की तीव्र इच्छा आपको स्वयं बनानी होगी। हरि गुरु की कृपा से आपको मानव देह मिल गया (9) और यह ज्ञान भी मिल गया कि इस संसार में आनंद नहीं है। इस ज्ञान को आपको अपने जीवन में चरितार्थ करने का प्रयत्न करना होगा। जब आप प्रयत्न करेंगे तब गुरु आपकी सहायता करते जाएँगे और आपके विश्वास तथा आनंद की वृद्धि होती जाएगी। यह संघर्ष आपको स्वयं ही करना होगा अन्यथा आपका यह प्रश्न तथा आनंद की खोज अनवरत बनी रहेगी।
मन! क्यों नहीं हरि गुन गा रहा|
यह जग है इक भूलभुलैया, क्यों तू धोखा खा रहा। भुक्ति मुक्ति हैं प्रबल पिशाचिनि, क्यों इनमें भरमा रहा। सुत वित नारिन त्रिविध तिजारिन, क्यों इनको अपना रहा। इन इंद्रिन विषयन-विष पी मन, क्यों इतनो हरषा रहा। नर तनु पाय 'कृपालु' भजन करु, यह जीवन अब जा रहा॥ - जगद्गुरूत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज
प्रेम रस मदिरा, सिद्धांत माधुरी - 73 अरे मन! तू श्यामसुन्दर का गुणगान क्यों नहीं करता? इस भूल भूलैया के खेल वाले संसार में तू क्यों धोखा खा रहा है? भुक्ति एवं मुक्ति ये दोनों अत्यंत प्रबल चुड़ैलें हैं, तू इनके चक्कर में क्यों आ रहा है। स्त्री, पुत्र, धन यह तीनों तिजारी के समान हैं। तू इनको क्यों अपना रहा है? इन इंद्रियों के विषयों को पीकर तू क्यों इतना सुख मान रहा है? कृपालु जी कहते हैं कि यह मनुष्य का शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है। यह चार दिन का जीवन जा रहा है, अतएव शीघ्र ही श्यामसुन्दर का भजन कर।
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