तत्व ज्ञान
विभिन्न ग्रंथों से उद्धरण क्यों दिए जाते हैं?जब हम धर्मग्रंथों का अर्थ ही पूरी तरह नहीं समझ पा रहे हैं तो अलग-अलग धर्मग्रंथों का उद्धरण देने का क्या प्रयोजन होगा।
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कृपालु लीलामृतम्
शरणागत भक्त की इच्छा सर्वोपरियह उस समय की कहानी है जब श्री महाराज जी ने अपने पूर्ण समर्पित भक्तों के प्रेम को नियम पालन से अधिक महत्ता ।
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बच्चों के लिए कहानी
लक्ष्य प्राप्त करना है तो एकाग्रचित्त रहोजब आप कुछ हासिल करना चाहते हैं तो केवल अपने लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करें।
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तत्व ज्ञान
प्रश्न
रामचरितमानस जैसे हिंदी के ग्रंथों का भावार्थ भी हम पूर्णतया नहीं समझ पाते। और श्री महाराज जी अपने प्रवचनों में क्लिष्ट संस्कृत में लिपिबद्ध ग्रन्थों यथा वेद, पुराण, गीता, भागवत् आदि के मंत्र, श्लोकों के अनेक उद्धरण देते हैं। जिनकी अधिकता से बुद्धि विह्वल हो जाती है। इतने सारे ग्रंथों से उद्धरणों का क्या लाभ ?
उत्तर
वर्तमान काल में परिस्थितियों को समझने के लिए लोग अपने अनुभवों पर निर्भर करते हैं तथा प्रत्येक क्रिया को तार्किक विचारों के आधार पर ही मानते हैं। जब किसी व्यक्ति को किसी भी विषय विशेष को जानने की जिज्ञासा होती है तब वे इंटरनेट अथवा सोशल मीडिया के माध्यम से शोध करते हैं। सदृश परिस्थितियों से गुजरे लोगों के अनुभवों को प्रामाणिक मानते हैं।
श्री महाराज जी अपने प्रवचनों में इन्हीं तीन प्रकार के प्रमाणों का प्रयोग करते हैं। शास्त्रोक्त भाषा में किसी भी सिद्धांत को सिद्ध करने के इन तीन तरीकों को निम्नलिखित नामों से जाना जाता है -
श्री महाराज जी आध्यात्मिक क्षेत्र के मात्र प्रखर वक्ता ही नहीं थे। वरन् आपके मृत्युलोक में अवतरण का कारण आध्यात्मिक क्रांति लाना था। श्री महाराज जी यह भली-भाँति जानते हैं कि विभिन्न कक्षा के श्रोता भिन्न-भिन्न प्रकार से ज्ञानार्जन करते हैं तथा लाभान्वित होते हैं । शास्त्रों-वेदों में वर्णित आध्यात्मिक तथ्यों को हमारे मानस पटल पर दृढ़ रूप से अंकित करने के लिए उन्होंने पूर्व लिखित तीनों प्रमाणों का प्रयोग अपने प्रवचनों में किया। आइए इन तीनों प्रमाणों की विवेचना करते हैं । और अवलोकन करते हैं कि किस प्रकार श्री महाराज जी ने वेद शास्त्र के सिद्धांत को आम जनता के लिए प्रासंगिक बनाने के लिए इनका उपयोग किया।
रामचरितमानस जैसे हिंदी के ग्रंथों का भावार्थ भी हम पूर्णतया नहीं समझ पाते। और श्री महाराज जी अपने प्रवचनों में क्लिष्ट संस्कृत में लिपिबद्ध ग्रन्थों यथा वेद, पुराण, गीता, भागवत् आदि के मंत्र, श्लोकों के अनेक उद्धरण देते हैं। जिनकी अधिकता से बुद्धि विह्वल हो जाती है। इतने सारे ग्रंथों से उद्धरणों का क्या लाभ ?
उत्तर
वर्तमान काल में परिस्थितियों को समझने के लिए लोग अपने अनुभवों पर निर्भर करते हैं तथा प्रत्येक क्रिया को तार्किक विचारों के आधार पर ही मानते हैं। जब किसी व्यक्ति को किसी भी विषय विशेष को जानने की जिज्ञासा होती है तब वे इंटरनेट अथवा सोशल मीडिया के माध्यम से शोध करते हैं। सदृश परिस्थितियों से गुजरे लोगों के अनुभवों को प्रामाणिक मानते हैं।
श्री महाराज जी अपने प्रवचनों में इन्हीं तीन प्रकार के प्रमाणों का प्रयोग करते हैं। शास्त्रोक्त भाषा में किसी भी सिद्धांत को सिद्ध करने के इन तीन तरीकों को निम्नलिखित नामों से जाना जाता है -
श्री महाराज जी आध्यात्मिक क्षेत्र के मात्र प्रखर वक्ता ही नहीं थे। वरन् आपके मृत्युलोक में अवतरण का कारण आध्यात्मिक क्रांति लाना था। श्री महाराज जी यह भली-भाँति जानते हैं कि विभिन्न कक्षा के श्रोता भिन्न-भिन्न प्रकार से ज्ञानार्जन करते हैं तथा लाभान्वित होते हैं । शास्त्रों-वेदों में वर्णित आध्यात्मिक तथ्यों को हमारे मानस पटल पर दृढ़ रूप से अंकित करने के लिए उन्होंने पूर्व लिखित तीनों प्रमाणों का प्रयोग अपने प्रवचनों में किया। आइए इन तीनों प्रमाणों की विवेचना करते हैं । और अवलोकन करते हैं कि किस प्रकार श्री महाराज जी ने वेद शास्त्र के सिद्धांत को आम जनता के लिए प्रासंगिक बनाने के लिए इनका उपयोग किया।
तत्व सिद्ध करने का विज्ञान
स्वयं की इंद्रियों द्वारा विषय को ग्रहण करने की क्रिया को प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं। परंतु कुछ क्रियाओं का साक्षात्कार इंद्रियों द्वारा नहीं हो सकता। मैं एक विवादास्पद मत प्रस्तुत कर रही हूँ। “साक्षात प्रमाण सबसे निर्बल प्रमाण है” परन्तु फिर भी मनुष्य इसी को सबसे प्रबल प्रमाण मानते हैं। क्षुब्ध न होइये, थोड़ा निम्नलिखित बातों पर विचार कीजिए तत्पश्चात कोई धारणा बनाइये -
1. प्रत्येक वस्तु इंद्रियों के द्वारा ग्राह्य नहीं होती है, जैसे भावनाएँ। इंद्रियों से हम प्रेम को, घृणा को, ईर्ष्या को कैसे प्रमाणित कर सकते हैं?
2. इंद्रियों की ग्रहण शक्ति त्रुटिपूर्ण हो सकती है। मनुष्य की आँख से आकाश नीला दिखता है परंतु उसका कोई रंग नहीं होता। खाली स्थान को आकाश कहते हैं।
1. प्रत्येक वस्तु इंद्रियों के द्वारा ग्राह्य नहीं होती है, जैसे भावनाएँ। इंद्रियों से हम प्रेम को, घृणा को, ईर्ष्या को कैसे प्रमाणित कर सकते हैं?
2. इंद्रियों की ग्रहण शक्ति त्रुटिपूर्ण हो सकती है। मनुष्य की आँख से आकाश नीला दिखता है परंतु उसका कोई रंग नहीं होता। खाली स्थान को आकाश कहते हैं।
3. इंद्रियाँ मन और बुद्धि के संयोग से ही कोई कार्य संपादित करती हैं। यदि मन पूर्वाग्रह से युक्त है तो मन परिस्थिति का सही-सही आंकलन नहीं कर पाता है। मनोविज्ञान की भाषा में इसे संपुष्टि पक्षपात कहते हैं। यथा - घर का नौकर यदि एक बार चोरी में पकड़ा जाए तो पुनः किसी वस्तु के न मिलने पर उस नौकर को ही दोषी समझते हैं।
मन के साथ-साथ हमारी इंद्रियों की क्षमताएँ भी सीमित। उदाहरण के लिए आंखें अल्ट्रावायोलेट तथा अवरक्त किरणें नहीं देख सकतीं। कान एक सीमित आवृत्ति की तरंगों को ही सुन पाते हैं।
मन के साथ-साथ हमारी इंद्रियों की क्षमताएँ भी सीमित। उदाहरण के लिए आंखें अल्ट्रावायोलेट तथा अवरक्त किरणें नहीं देख सकतीं। कान एक सीमित आवृत्ति की तरंगों को ही सुन पाते हैं।
4. यद्यपि इंद्रियाँ बाह्यमुखी हैं तथापि यदि मन किसी कार्य में एकाग्र है तो इंद्रियाँ अन्य बाह्य परिस्थिति को ग्रहण नहीं कर सकतीं। आपने अनुभव किया होगा कि जब बच्चा खेलने में व्यस्त हो तो भोजन के लिए माँ की पुकार बच्चे को नहीं सुनाई देती। दो शतक पूर्व जगन्नाथपुरी में रथ यात्रा के समय की घटना है ।
एक चित्रकार अपनी दुकान में चित्र बना रहा था । उसी की दुकान के सामने से भगवान जगन्नाथ जी की रथ यात्रा में हजारों लोग ढोल नगाड़े बजाते हुए गुजर गए परंतु उस चित्रकार के कानों ने उस कोलाहल को ग्रहण नहीं किया। स्वामी रामकृष्ण परमहंस उस रथ यात्रा में शामिल होना चाहते थे परंतु उन्हें कुछ देर हो गई। वहाँ पहुँचकर उन्होंने उस चित्रकार से पूछा, "क्या यहाँ से रथयात्रा गुजरी चुकी है?" तो उसने कहा नहीं । उस के पड़ोसी दुकानदार ने कहा,”इतने बड़े संत से झूठ बोलता है। अभी अभी तो यहाँ से रथ यात्रा गुजरी है”। उस दुकानदार ने कहा मुझे नहीं मालूम कि यहाँ से रथयात्रा गुजरी है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने समाधि लगा कर देखा कि वह चित्रकार सच बोल रहा था। उसका मन चित्र बनाने में इतना एकाग्र था कि उसकी इंद्रियों ने कुछ ग्रहण ही नहीं किया। क्योंकि मन के सहयोग बिना इंद्रियाँ कुछ भी नहीं कर सकतीं।
एक चित्रकार अपनी दुकान में चित्र बना रहा था । उसी की दुकान के सामने से भगवान जगन्नाथ जी की रथ यात्रा में हजारों लोग ढोल नगाड़े बजाते हुए गुजर गए परंतु उस चित्रकार के कानों ने उस कोलाहल को ग्रहण नहीं किया। स्वामी रामकृष्ण परमहंस उस रथ यात्रा में शामिल होना चाहते थे परंतु उन्हें कुछ देर हो गई। वहाँ पहुँचकर उन्होंने उस चित्रकार से पूछा, "क्या यहाँ से रथयात्रा गुजरी चुकी है?" तो उसने कहा नहीं । उस के पड़ोसी दुकानदार ने कहा,”इतने बड़े संत से झूठ बोलता है। अभी अभी तो यहाँ से रथ यात्रा गुजरी है”। उस दुकानदार ने कहा मुझे नहीं मालूम कि यहाँ से रथयात्रा गुजरी है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने समाधि लगा कर देखा कि वह चित्रकार सच बोल रहा था। उसका मन चित्र बनाने में इतना एकाग्र था कि उसकी इंद्रियों ने कुछ ग्रहण ही नहीं किया। क्योंकि मन के सहयोग बिना इंद्रियाँ कुछ भी नहीं कर सकतीं।
दूसरा है अनुमान प्रमाण । यह प्रमाण तो तब सफल हो सकता है जब दो पदार्थों में परस्पर नियत संबंध पूर्व में ज्ञात हो उनमें एक के ज्ञान से दूसरे का ज्ञान हो सकता हो । धुएं एवं अग्नि का संबंध पूर्व में ज्ञात है
यत्र यत्र धूमस्तत्रतत्राग्निः |
"जहाँ धुआँ होगा वहाँ अग्नि अवश्य होगी।"
अतएव किसी पहाड़ पर धुएँ को देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि वहाँ पर अग्नि अवश्य होगी यद्यपि ज्वाला इंद्रियों से ग्राह्य नहीं है। श्री महाराज जी अक्सर अनुमान प्रमाण का प्रयोग करते हैं। उदाहरण के लिए वे कहते हैं 3 तत्व अनादि हैं - ब्रह्म, जीव, माया। जीव अनादि काल से सुख खोज रहा है। जीव के अतिरिक्त दो क्षेत्र शेष हैं। माया और ब्रह्म। अब यदि माया के क्षेत्र से सुख प्राप्त नहीं हुआ तो यह सिद्ध है कि सुख ब्रह्म में ही होगा । कुल 6 में से 2 दर्शन शास्त्रों यथा न्याय एवं वैशेषिक ने अनुमान प्रमाण से भगवान के अस्तित्व को सिद्ध किया। श्री महाराज जी ने भी समस्त दर्शन शास्त्रों का प्रयोग आध्यात्मिक सत्य को प्रमाणित करने हेतु किया। प्रत्यक्ष प्रमाण की अपेक्षा आनुमान प्रमाणों को समझने के लिए अधिक संज्ञानात्मक शक्ति की आवश्यकता होती है। |
अनुमान प्रमाण तथा प्रत्यक्ष प्रमाण किसी सीमा तक तत्वों को सिद्ध करने में सक्षम हैं। जिन तत्वों की सिद्धि प्रत्यक्ष एवं अनुमान प्रमाण से नहीं हो सकती उनकी सिद्धि शब्द प्रमाण द्वारा होती है। संसार में भी सरकार लोगों के शब्दों को प्रमाण मानती है। उदाहरणार्थ राष्ट्रपति स्वयं सारी जाँच पड़ताल नहीं करता वरन् अपने सलाहकारों के द्वारा किए गए अनुसंधान के आधार पर उनके साथ मंत्रणा कर राजनैतिक दाँव तय करता है । पब्लिक मीडिया भी इसी प्रमाण का उपयोग कर रिपोर्टर के द्वारा लोगों तक सूचना को पहुँचाता है ।
हमारे शास्त्र वेद पुराण आध्यात्मिक सत्यता का निर्विवाद प्रमाण हैं क्योंकि सभी वेद शास्त्र त्रिकालदर्शी भगवत प्राप्त संतों के द्वारा प्रदत्त हैं। त्रिकालदर्शी का अर्थ है जो भूत, वर्तमान एवं भविष्य को देख सके। ये सभी शास्त्र उनके ठोस शोध व निज-अनुभव का संग्रह हैं अतः अखंडनीय हैं। जिसको संशय हो वह इन शास्त्रों-वेदों में प्रदत मार्ग पर चल कर स्वयं ही निर्णय करें कि यह सही है अथवा नहीं।
लोगों की चित्तवृत्ति अलग-अलग होती है अतः उनके लक्ष्य भी अलग-अलग होते हैं। वेद शास्त्र में सभी याचकों के लिए लक्ष्य लिखे गए हैं (देखें चित्र 4)। श्री महाराज जी शास्त्र वेद के आधार पर उन सब लक्ष्यों में से मधुरतम व सर्वोच्च लक्ष्य गोपी प्रेम को बताते हैं और उसी को लक्ष्य बनाने हेतु प्रेरित करते हैं । वेद शास्त्र के श्लोकों द्वारा उस लक्ष्य को सर्वोत्कृष्ट सिद्ध भी करते हैं। पुनः उस लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु साधना भी बताते हैं और वेद शास्त्रों द्वारा उस साधना से लक्ष्य प्राप्त होगा यह सिद्ध भी करते हैं ।
श्री महाराज जी के प्रत्येक कार्य का लक्ष्य परार्थ ही होता है । आप जिज्ञासा कर सकते हैं कि इसमें क्या परार्थ है। जानने के लिए अगला सेक्शन पढ़ें।
हमारे शास्त्र वेद पुराण आध्यात्मिक सत्यता का निर्विवाद प्रमाण हैं क्योंकि सभी वेद शास्त्र त्रिकालदर्शी भगवत प्राप्त संतों के द्वारा प्रदत्त हैं। त्रिकालदर्शी का अर्थ है जो भूत, वर्तमान एवं भविष्य को देख सके। ये सभी शास्त्र उनके ठोस शोध व निज-अनुभव का संग्रह हैं अतः अखंडनीय हैं। जिसको संशय हो वह इन शास्त्रों-वेदों में प्रदत मार्ग पर चल कर स्वयं ही निर्णय करें कि यह सही है अथवा नहीं।
लोगों की चित्तवृत्ति अलग-अलग होती है अतः उनके लक्ष्य भी अलग-अलग होते हैं। वेद शास्त्र में सभी याचकों के लिए लक्ष्य लिखे गए हैं (देखें चित्र 4)। श्री महाराज जी शास्त्र वेद के आधार पर उन सब लक्ष्यों में से मधुरतम व सर्वोच्च लक्ष्य गोपी प्रेम को बताते हैं और उसी को लक्ष्य बनाने हेतु प्रेरित करते हैं । वेद शास्त्र के श्लोकों द्वारा उस लक्ष्य को सर्वोत्कृष्ट सिद्ध भी करते हैं। पुनः उस लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु साधना भी बताते हैं और वेद शास्त्रों द्वारा उस साधना से लक्ष्य प्राप्त होगा यह सिद्ध भी करते हैं ।
श्री महाराज जी के प्रत्येक कार्य का लक्ष्य परार्थ ही होता है । आप जिज्ञासा कर सकते हैं कि इसमें क्या परार्थ है। जानने के लिए अगला सेक्शन पढ़ें।
श्री महाराज जी विभिन्न शास्त्रों से उद्धरण क्यों दिया करते थे?
श्री महाराज जी कोई साधारण विद्वान नहीं थे। वे जगद्गुरूत्तम थे । पूर्व युगों में भगवान् के प्रति लोगों की श्रद्धा अधिक होती थी । श्री महाराज जी यह भली-भाँति जानते थे कि कलियुग में मनुष्यों में शास्त्रादि का ज्ञान अत्यंत सीमित होता है साथ ही वेदादि ग्रंथों में लोगों की आस्था भी कम होती है । जन साधारण जब ग्रंथों के नाम भी नहीं जानते तो तो उनमें निहित ज्ञान होना तथा उसका पालन करना तो बहुत दूर के ढोल हैं । साधारण लोगों की क्या बिसात जब विद्वत जन ने भी बहुत से ग्रंथों के नाम भी नहीं सुने थे जिनमें से श्री महाराज जी उद्धरण देते थे । फिर भी श्री महाराज जी उन ग्रंथों से उद्धरण दिया करते थे [2]। ऐसा करने का लक्ष्य अपनी विद्वता सिद्ध करना नहीं था वरन् यह लोकहिताय था । कैसे? जानने कि लिए आगे पढ़िए ।
- श्री महाराज जी के सभी प्रवचन तर्कसंगत होने के साथ-साथ क्रांतिकारक भी होते थे। आपने अपने प्रवचनों में खुल्लम-खुल्ला दंभी-गुरुओं का विरोध किया जो दीक्षा के नाम पर कान में मंत्र फूँक कर चेला बना कर भोली-भाली जनता को ठगते हैं। आपने वेद शास्त्र के प्रमाणों द्वारा यह सिद्ध किया कि उपासना की सभी विधियों का प्राण भक्ति ही है। उपासना की सभी पद्धतियाँ जैसे ज्ञान, योग, यज्ञ, जप, तप, व्रत आदि करते समय यदि मन भक्ति रहित है तो वह पद्धति भगवत प्राप्ति कदापि नहीं करा सकती। कुछ नकली संतों एवं विद्वानों ने श्री महाराज जी के प्रवचनों के कुछ बिंदुओं का स्वार्थवश विरोध करना चाहा । यदि इन दंभी बाबा लोगों की साज़िश सफल हो जाती तो वे भोली भाली जनता को उल्टी पट्टी पढ़ा कर गुमराह कर देते हैं। धार्मिक नेता श्री महाराज जी का विरोध न कर सके क्योंकि श्री महाराज जी ने समस्त प्रामाणिक ग्रंथों यथा शास्त्रों, वेदों, पुराणों, दर्शन शास्त्रों, रामायण, श्रीरामचरितमानस आदि ग्रंथों के उद्धरण देकर अपने मत को सिद्ध किया। आप स्कंध, अध्याय एवं श्लोक संख्या भी बता देते थे जिससे कि संशयवादी श्रोता स्वयं उस धर्म ग्रंथ में देखकर उस तथ्य की पुष्टि कर लें। इसका परिणाम यह हुआ कि कोई भी धार्मिक नेता श्री महाराज जी का विरोध करने को प्रस्तुत न हो सका वरन सहर्ष या खिन्न होकर आपके द्वारा प्रदत्त सिद्धांत के विरुद्ध बोलने में असमर्थ हो गए। इससे आम जनता का बड़ा भारी लाभ हुआ [1]।
- संत के द्वारा दिए गए उपदेशों की पुष्टि धर्म ग्रंथों द्वारा हो तब साधारण जनता उन पर विश्वास करती है। इससे श्रोता आश्वस्त हो जाते हैं कि यह उपदेश अपनी स्वार्थ पूर्ति से प्रेरित नहीं है वरन् प्रामाणिक है।
विचार कीजिए कि जब आप किसी सुपर मार्केट में जाते हैं तो आप सब कुछ खरीद लेते हैं । साथ ही सहसा यगि कोई उपयोगी वस्तु दिख जाए तो उससे मुँह नहीं मोड़ते हैं, भले आप उसे खरीदने के विचार से नहीं गए हैं। आप अपने उद्देश्य पूर्ति के लिए वस्तुओं को खरीदते हैं । विभिन्न ग्राहकों की आवश्यकताएँ भिन्न होती हैं अतः वे अन्य वस्तुएँ भी खरीदते हैं । इसी कारणवश उस सुपर मार्केट में सभी वस्तुएँ बिकती हैं।
श्री महाराज जी के श्री मुख से निःसृत वाणी विभिन्न श्रेणी के श्रोताओं के लिए होती है । यदि प्रवचन सुनते समय आपको उद्धरण अच्छे नहीं लगते तो आप उस पर ध्यान केंद्रित न कीजिए । अनेक विद्वतगण भी श्री महाराज जी के प्रवचनों का श्रवण करते हैं संभवतः वे लोग इन उद्धरणों से लाभान्वित होंगे । इन प्रवचनों में से जो आपको चिताकर्षक लगे आप उतना ही ग्रहण कर लीजिए । संत के सभी शब्द एवं उपदेश मानव जीवन के लिए अत्यंत उपयोगी होते हैं और वह तर्कसंगत तथा प्रायोगिक होते हैं। अतः उनका श्रवण, मनन, तत्पश्चात् इसका अभ्यास करने से ज्ञान दृढ़ होगा । जिसके फलस्वरूप हम अपने परम चरम लक्ष्य की ओर तीव्र गति से अग्रसर हो उसको शीघ्र प्राप्त कर लेंगे ।
श्री महाराज जी के श्री मुख से निःसृत वाणी विभिन्न श्रेणी के श्रोताओं के लिए होती है । यदि प्रवचन सुनते समय आपको उद्धरण अच्छे नहीं लगते तो आप उस पर ध्यान केंद्रित न कीजिए । अनेक विद्वतगण भी श्री महाराज जी के प्रवचनों का श्रवण करते हैं संभवतः वे लोग इन उद्धरणों से लाभान्वित होंगे । इन प्रवचनों में से जो आपको चिताकर्षक लगे आप उतना ही ग्रहण कर लीजिए । संत के सभी शब्द एवं उपदेश मानव जीवन के लिए अत्यंत उपयोगी होते हैं और वह तर्कसंगत तथा प्रायोगिक होते हैं। अतः उनका श्रवण, मनन, तत्पश्चात् इसका अभ्यास करने से ज्ञान दृढ़ होगा । जिसके फलस्वरूप हम अपने परम चरम लक्ष्य की ओर तीव्र गति से अग्रसर हो उसको शीघ्र प्राप्त कर लेंगे ।
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कृपालु लीलामृतम्
जगद्गुरूत्तम पद से विभूषित करने के पश्चात काशी विद्वत परिषद ने श्री महाराज जी को एक नियमावली भी दी जिसके अनुसार :
जगद्गुरु बनने से पहले ही श्री महाराज जी ने प्रतापगढ़ में साधकों को टेलीग्राम भेजा, "मैं जगद्गुरु बन गया हूँ और 15 जनवरी को शाम 4:00 बजे प्रतापगढ़ पहुँच जाऊँगा । पूर्व निश्चित कार्यक्रम के अनुसार विजयोत्सव की तैयारी कीजिए। "
भक्तों ने विजयोत्सव की तैयारियाँ शुरू कर दी । शोभायात्रा रेलवे स्टेशन से आरंभ होकर शहर से होते हुए राजकीय विद्यालय के मैदान तक आई । वहाँ 8 फीट ऊँचा मंच बनाया गया जिससे कि श्री महाराज जी और कुछ अन्य विद्वान 15 दिनों तक श्रृंखला बद्ध प्रवचन कर सकें।
साधक श्री महाराज जी पर लगाए गए प्रतिबंधों से भी अवगत थे। यद्यपि श्री महाराज जी काशी जाने से पहले महाबनी परिवार के साथ रहते थे तथापि प्रियदर्शी जी तथा प्रियाशरण जी ने पास ही बाबूलाल धर्मशाला में श्री महाराज जी के लिए रहने का प्रबंध किया । महाबनी जी माथुर कायस्थ थे । उनके घर में एक ब्राह्मण रसोई बनाता था जिसे सभी लोग महाराज कहकर बुलाते थे। तय हुआ कि महाराज धर्मशाला में जाकर श्री महाराज जी के लिए उनकी रूचि के अनुसार व्यंजन बनाएगा।
इन नियमों के कारण श्री महाबनी के परिवार वाले बड़े चिंतित हो गए थे कि क्या अब श्री महाराज जी अपने घर नहीं आ सकेंगे ? इतने वर्षों से निरंतर वहाँ घर की तरह रहने के कारण महाबनी परिवार की उनसे घर के सदस्य जैसी आत्मीयता हो गई थी । श्री महाराज जी के अनुसार ही घर के सब काम-काज होते थे । अतः यदि वे अब बाहर रहेंगे तो हम लोग उनके बिना कैसे रहेंगे? महाबनी जी का यह हठ था कि वे श्री महाराज जी को भेंट देकर नहीं बुलाएँगे। अतः चिंता और बढ़ गई कि इसका मतलब तो यह हुआ कि अब श्री महाराज जी कभी यहाँ भोजन करने भी नहीं आएँगे।
15 जनवरी सन 1957 को प्रतापगढ़ के निकट शहरों एवं गांवों में रहने वाले सभी साधक गण प्रतापगढ़ पहुँच गए। जब श्री महाराज जी वहाँ पहुँचे तो उनकी शोभायात्रा प्रतापगढ़ की गलियों से गुजरी तो लोग छतों, छज्जे तथा चौबारे पर खड़े होकर अपने प्रिय श्री महाराज जी के विजयी होने की खुशी में प्रेम से फूल आदि बरसाकर, उनका जयघोष कर रहे थे। योजना के अनुसार शोभायात्रा राजकीय विद्यालय के मैदान पर पहुँचकर संपन्न हुई। श्री महाराज जी ने मंचासीन होकर 25,000 साधकों के लिए एक छोटा प्रवचन दिया। यद्यपि बिजली चले जाने से लाउडस्पीकर बंद हो गया परंतु वहाँ उपस्थित सभी लोगों को श्री महाराज जी की वाणी स्पष्ट सुनाई दी।
प्रवचन समाप्त होते ही श्री महाराज जी ने श्री महाबनी जी को चलने का इशारा किया। श्री महाबनी जी श्री महाराज जी के अनन्य भक्त थे अतः बिना कुछ पूछे, बिना विरोध किए वे दोनों बिना किसी को बताए प्रवचन-स्थलि छोड़कर रिक्शे के द्वारा महाबनी जी के घर आ गए। घर पहुँचने पर श्री महाराज जी ने कहा "मैं बहुत भूखा हूँ"। महाबनी जी धर्मशाला का पक्का (तेल में पका हुआ) खाना नहीं खाना चाहते थे अतः उन्होंने घर में महाराज से खिचड़ी बनवाई थी । महाबनी जी ने वही खिचड़ी श्री महाराज जी को परोसी । श्री महाराज जी ने उसे अत्यंत आनंद पूर्वक ग्रहण किया । उधर धर्मशाला में जब श्री महाबनी जी की पत्नी ने देखा कि वे दोनों तो गायब हैं तो वे भी शीघ्रता से घर पहुँचीं। उधर अन्य साधकों ने भी जब तीनों को वहाँ नहीं पाया तो वे सब भी श्री महाबनी जी के घर पर पहुँच गए। सभी साधकों को देखते हुए श्री महाराज जी ने श्री महाबनी जी की पत्नी श्रीमती चांदरानी जी से सभी के लिए भोजन पकाने के लिए कहा।
बाद में श्री प्रियदर्शी जी ने श्री महाराज जी से जगद्गुरु की पदवी के नियमों का पालन करने के लिए पूछा । श्री महाराज जी ने कहा “नियम मेरे (मुझे प्राप्त करने के) लिए बनाए गए हैं, मैं नियमों के लिए नहीं बना हूँ (उनका पालन करने हेतु बाध्य नहीं हूँ)”। उस दिन श्री महाराज जी ने अपने अनन्य भक्त के प्रेम में उन नियमों को तोड़ दिया।
सिद्धांत
भगवान का सर्वोच्च गुण है भक्तवश्यता । वे शरणागत भक्त की इच्छा को सर्वोपरि रखते हैं। यदि वेद-शास्त्र, समाज आदि के नियम भक्त की इच्छा के विरुद्ध हों तो भगवान उन नियमों को तोड़ देते हैं। यहाँ तक कि भगवान अपने वचन को भी भक्तों के लिए तोड़ देते हैं। भगवान धर्म, जाति, लिंग, राष्ट्रीयता आदि से सर्वथा परे हैं । वे आत्मा को देखते हैं, शरीर को नहीं ।
- जगद्गुरु का किसी गृहस्थी के यहाँ निवास करना वर्जित है।
- वह किसी गृहस्थी के यहाँ बिना ₹100 की दक्षिणा लिए नहीं जा सकते ।
- वह केवल ब्राह्मण के द्वारा बनाया भोजन ही ग्रहण कर सकते हैं ।
- किसी के घर कच्चा खाना (बिना तेल के पका हुआ) नहीं खाएँगे ।
जगद्गुरु बनने से पहले ही श्री महाराज जी ने प्रतापगढ़ में साधकों को टेलीग्राम भेजा, "मैं जगद्गुरु बन गया हूँ और 15 जनवरी को शाम 4:00 बजे प्रतापगढ़ पहुँच जाऊँगा । पूर्व निश्चित कार्यक्रम के अनुसार विजयोत्सव की तैयारी कीजिए। "
भक्तों ने विजयोत्सव की तैयारियाँ शुरू कर दी । शोभायात्रा रेलवे स्टेशन से आरंभ होकर शहर से होते हुए राजकीय विद्यालय के मैदान तक आई । वहाँ 8 फीट ऊँचा मंच बनाया गया जिससे कि श्री महाराज जी और कुछ अन्य विद्वान 15 दिनों तक श्रृंखला बद्ध प्रवचन कर सकें।
साधक श्री महाराज जी पर लगाए गए प्रतिबंधों से भी अवगत थे। यद्यपि श्री महाराज जी काशी जाने से पहले महाबनी परिवार के साथ रहते थे तथापि प्रियदर्शी जी तथा प्रियाशरण जी ने पास ही बाबूलाल धर्मशाला में श्री महाराज जी के लिए रहने का प्रबंध किया । महाबनी जी माथुर कायस्थ थे । उनके घर में एक ब्राह्मण रसोई बनाता था जिसे सभी लोग महाराज कहकर बुलाते थे। तय हुआ कि महाराज धर्मशाला में जाकर श्री महाराज जी के लिए उनकी रूचि के अनुसार व्यंजन बनाएगा।
इन नियमों के कारण श्री महाबनी के परिवार वाले बड़े चिंतित हो गए थे कि क्या अब श्री महाराज जी अपने घर नहीं आ सकेंगे ? इतने वर्षों से निरंतर वहाँ घर की तरह रहने के कारण महाबनी परिवार की उनसे घर के सदस्य जैसी आत्मीयता हो गई थी । श्री महाराज जी के अनुसार ही घर के सब काम-काज होते थे । अतः यदि वे अब बाहर रहेंगे तो हम लोग उनके बिना कैसे रहेंगे? महाबनी जी का यह हठ था कि वे श्री महाराज जी को भेंट देकर नहीं बुलाएँगे। अतः चिंता और बढ़ गई कि इसका मतलब तो यह हुआ कि अब श्री महाराज जी कभी यहाँ भोजन करने भी नहीं आएँगे।
15 जनवरी सन 1957 को प्रतापगढ़ के निकट शहरों एवं गांवों में रहने वाले सभी साधक गण प्रतापगढ़ पहुँच गए। जब श्री महाराज जी वहाँ पहुँचे तो उनकी शोभायात्रा प्रतापगढ़ की गलियों से गुजरी तो लोग छतों, छज्जे तथा चौबारे पर खड़े होकर अपने प्रिय श्री महाराज जी के विजयी होने की खुशी में प्रेम से फूल आदि बरसाकर, उनका जयघोष कर रहे थे। योजना के अनुसार शोभायात्रा राजकीय विद्यालय के मैदान पर पहुँचकर संपन्न हुई। श्री महाराज जी ने मंचासीन होकर 25,000 साधकों के लिए एक छोटा प्रवचन दिया। यद्यपि बिजली चले जाने से लाउडस्पीकर बंद हो गया परंतु वहाँ उपस्थित सभी लोगों को श्री महाराज जी की वाणी स्पष्ट सुनाई दी।
प्रवचन समाप्त होते ही श्री महाराज जी ने श्री महाबनी जी को चलने का इशारा किया। श्री महाबनी जी श्री महाराज जी के अनन्य भक्त थे अतः बिना कुछ पूछे, बिना विरोध किए वे दोनों बिना किसी को बताए प्रवचन-स्थलि छोड़कर रिक्शे के द्वारा महाबनी जी के घर आ गए। घर पहुँचने पर श्री महाराज जी ने कहा "मैं बहुत भूखा हूँ"। महाबनी जी धर्मशाला का पक्का (तेल में पका हुआ) खाना नहीं खाना चाहते थे अतः उन्होंने घर में महाराज से खिचड़ी बनवाई थी । महाबनी जी ने वही खिचड़ी श्री महाराज जी को परोसी । श्री महाराज जी ने उसे अत्यंत आनंद पूर्वक ग्रहण किया । उधर धर्मशाला में जब श्री महाबनी जी की पत्नी ने देखा कि वे दोनों तो गायब हैं तो वे भी शीघ्रता से घर पहुँचीं। उधर अन्य साधकों ने भी जब तीनों को वहाँ नहीं पाया तो वे सब भी श्री महाबनी जी के घर पर पहुँच गए। सभी साधकों को देखते हुए श्री महाराज जी ने श्री महाबनी जी की पत्नी श्रीमती चांदरानी जी से सभी के लिए भोजन पकाने के लिए कहा।
बाद में श्री प्रियदर्शी जी ने श्री महाराज जी से जगद्गुरु की पदवी के नियमों का पालन करने के लिए पूछा । श्री महाराज जी ने कहा “नियम मेरे (मुझे प्राप्त करने के) लिए बनाए गए हैं, मैं नियमों के लिए नहीं बना हूँ (उनका पालन करने हेतु बाध्य नहीं हूँ)”। उस दिन श्री महाराज जी ने अपने अनन्य भक्त के प्रेम में उन नियमों को तोड़ दिया।
सिद्धांत
भगवान का सर्वोच्च गुण है भक्तवश्यता । वे शरणागत भक्त की इच्छा को सर्वोपरि रखते हैं। यदि वेद-शास्त्र, समाज आदि के नियम भक्त की इच्छा के विरुद्ध हों तो भगवान उन नियमों को तोड़ देते हैं। यहाँ तक कि भगवान अपने वचन को भी भक्तों के लिए तोड़ देते हैं। भगवान धर्म, जाति, लिंग, राष्ट्रीयता आदि से सर्वथा परे हैं । वे आत्मा को देखते हैं, शरीर को नहीं ।
बच्चों के लिए कहानी
कौरवों और पांडवों को शिक्षा प्रदान करने के लिए गुरु द्रोणाचार्य को नियुक्त किया गया था । आपने एक दिन लक्ष्य साधने की शिक्षा देने हेतु चिड़िया के आकार का लक्ष्य पेड़ पर रखकर उसकी आंख को भेदने के लिए एक-एक करके सभी शिष्यों को आमंत्रित किया । बाण का संधान करने से पूर्व प्रत्येक शिष्य से द्रोणाचार्य ने एक प्रश्न किया।
सबसे पहले दुर्योधन ने संधान किया तब द्रोणाचार्य जी ने पूछा ,"तुम क्या देख रहे हो?"
उत्तर आया “मुझे चिड़िया, पत्तियाँ, पेड़ आदि...दिख रहे हैं”।
द्रोणाचार्य जी ने धनुष नीचे रखने को कहा और दुर्योधन को वापस भेज दिया । फिर युधिष्ठिर से यही प्रश्न किया और उत्तर भी वही आया। सभी से यही प्रश्न किया गया। सभी का उत्तर लगभग समान था। किसी ने अपने भाइयों और अपने गुरु को भी देखने की बात कही। सभी राजकुमार आपस में खुसपुसाने लगे कि आखिर द्रोणाचार्य को क्या उत्तर चाहिए। एक-एक करके गुरु जी ने सभी को बिना बाण छोड़े ही बिठा दिया। यहाँ तक कि स्वयं द्रोणाचार्य जी के पुत्र अश्वत्थामा भी नहीं समझ पाए कि उनके पिता क्या चाहते हैं। अंततः केवल अर्जुन बचा।
सबसे पहले दुर्योधन ने संधान किया तब द्रोणाचार्य जी ने पूछा ,"तुम क्या देख रहे हो?"
उत्तर आया “मुझे चिड़िया, पत्तियाँ, पेड़ आदि...दिख रहे हैं”।
द्रोणाचार्य जी ने धनुष नीचे रखने को कहा और दुर्योधन को वापस भेज दिया । फिर युधिष्ठिर से यही प्रश्न किया और उत्तर भी वही आया। सभी से यही प्रश्न किया गया। सभी का उत्तर लगभग समान था। किसी ने अपने भाइयों और अपने गुरु को भी देखने की बात कही। सभी राजकुमार आपस में खुसपुसाने लगे कि आखिर द्रोणाचार्य को क्या उत्तर चाहिए। एक-एक करके गुरु जी ने सभी को बिना बाण छोड़े ही बिठा दिया। यहाँ तक कि स्वयं द्रोणाचार्य जी के पुत्र अश्वत्थामा भी नहीं समझ पाए कि उनके पिता क्या चाहते हैं। अंततः केवल अर्जुन बचा।
द्रोणाचार्य ने अर्जुन से निशाना साधने को कहा और जब अर्जुन ने धनुष बाण उठाकर संधान किया तब गुरु ने पूछा “तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है”?
अर्जुन ने उत्तर दिया “चिड़िया की आँख” ।
गुरुजी ने पूछा "क्या तुम्हें पेड़ दिखाई दे रहा है?"
उत्तर आया, "नहीं, केवल चिड़िया की आँख।"
उसके पश्चात द्रोणाचार्य ने आसपास की सभी वस्तुओं के बारे में एक-एक करके पूछा। पेड़ का तना, पत्तियाँ, फूल, फल, उसके भाई, कौरव और स्वयं द्रोणाचार्य।
सभी के लिए अर्जुन ने 'नहीं' में उत्तर दिया और कहा मुझे सिर्फ चिड़िया की आँख दिखाई दे रही है।
तब द्रोणाचार्य ने अर्जुन को बाण छोड़ने को कहा। अर्जुन ने जैसे ही बाण छोड़ा वह सीधे चिड़िया की आँख का भेदन करता हुआ पार गया। द्रोणाचार्य ने अर्जुन को गले लगा लिया।
तब गुरु द्रोणाचार्य ने सब शिष्यों को समझाया, "जब तुम कुछ प्राप्त करना चाहते हो तो उसी लक्ष्य पर एकाग्रचित्त रहो । उसके आसपास व्यवधान डालने वाली सभी वस्तुओं पर ध्यान न देते हुए अपने लक्ष्य पर केंद्रित रहो । अन्यथा लक्ष्य प्राप्ति नहीं होगी।"
यह कलियुग है। इस युग में मत - मतांतर का बाहुल्य है और लगातार नए सिद्धांत भी बन रहे हैं। अतः साधारण मनुष्य के लिए स्वयं सही मार्ग का चयन सुदुर्गम ही नहीं बल्कि असंभव है । परंतु यदि आप वास्तव में भगवान को प्राप्त करना चाहते हैं और किसी सच्चे भगवत् प्राप्त संत का सत्संग आपको प्राप्त है तब अपने गुरु के आदेशों का पूर्णरूपेण पालन करने से परम चरम लक्ष्य बड़ी सरलता से प्राप्त हो जाएगा । अन्य सिद्धांत न पढ़ो न सुनो क्योंकि वे सब तुम्हारे मस्तिष्क में संशय पैदा करेंगे और
अर्जुन ने उत्तर दिया “चिड़िया की आँख” ।
गुरुजी ने पूछा "क्या तुम्हें पेड़ दिखाई दे रहा है?"
उत्तर आया, "नहीं, केवल चिड़िया की आँख।"
उसके पश्चात द्रोणाचार्य ने आसपास की सभी वस्तुओं के बारे में एक-एक करके पूछा। पेड़ का तना, पत्तियाँ, फूल, फल, उसके भाई, कौरव और स्वयं द्रोणाचार्य।
सभी के लिए अर्जुन ने 'नहीं' में उत्तर दिया और कहा मुझे सिर्फ चिड़िया की आँख दिखाई दे रही है।
तब द्रोणाचार्य ने अर्जुन को बाण छोड़ने को कहा। अर्जुन ने जैसे ही बाण छोड़ा वह सीधे चिड़िया की आँख का भेदन करता हुआ पार गया। द्रोणाचार्य ने अर्जुन को गले लगा लिया।
तब गुरु द्रोणाचार्य ने सब शिष्यों को समझाया, "जब तुम कुछ प्राप्त करना चाहते हो तो उसी लक्ष्य पर एकाग्रचित्त रहो । उसके आसपास व्यवधान डालने वाली सभी वस्तुओं पर ध्यान न देते हुए अपने लक्ष्य पर केंद्रित रहो । अन्यथा लक्ष्य प्राप्ति नहीं होगी।"
यह कलियुग है। इस युग में मत - मतांतर का बाहुल्य है और लगातार नए सिद्धांत भी बन रहे हैं। अतः साधारण मनुष्य के लिए स्वयं सही मार्ग का चयन सुदुर्गम ही नहीं बल्कि असंभव है । परंतु यदि आप वास्तव में भगवान को प्राप्त करना चाहते हैं और किसी सच्चे भगवत् प्राप्त संत का सत्संग आपको प्राप्त है तब अपने गुरु के आदेशों का पूर्णरूपेण पालन करने से परम चरम लक्ष्य बड़ी सरलता से प्राप्त हो जाएगा । अन्य सिद्धांत न पढ़ो न सुनो क्योंकि वे सब तुम्हारे मस्तिष्क में संशय पैदा करेंगे और
संशयात्मा विनष्यति
संशय आते ही साधना में ब्रेक लग जाएगा। अब उस संशय का निवारण करने के लिए प्रयत्न करोगे । यदि सारा जीवन संशय करने में और उसका निवारण करने में लगा दिया तो फिर लक्ष्य प्राप्ति हेतु साधना कब करोगे?
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